Sunday, January 24, 2010

बहुधाः 9/11 के बाद की दुनिया

book reviewबाल्मीकि प्रसाद सिंह की ताज़ा किताब को राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। मूल्य है 550 रुपए और 450 पृष्ठ है। पुस्तक की भूमिका दलाई लामा ने लिखी है। वाल्मीकि प्रसाद सिंह व्याख्याता, प्रशासनिक अधिकारी और राजनयिक BalmikiPrasadSinghरह चुके हैं। उनकी छह पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है जो सभी अंग्रेजी में है। प्रस्तुत पुस्तक  हिन्दी में लिखी गई है। तीन पुस्तकों का प्रकाशन आक्सफर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने किया है।

वै श्विक आतंकवाद और नस्लवादी चुनौतियों से जूझते मौजूदा वक्त में भारत की ब हुलतावादी संस्कृति को केंद्र बनाते हुए वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उभरते सवालों का जवाब तलाशती एक महत्वपूर्ण पुस्तक हाल ही में पढ़ कर समाप्त की है। पुस्तक का नाम है बहुधा और इसे लिखा है सिक्किम के राज्पाल बाल्मीकि प्रसाद सिंह ने। लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी के रूप में केंद्र सरकार के कई महत्वपूर्ण पदों पर काम कर चुके हैं और राजनीतिक सामाजिक क्षेत्र के गंभीर अध्येता के तौर पर the-next-9-11उनकी स्वतंत्र पहचान भी है। लेखक की प्रखर चिन्तन दृष्टि और अध्ययनयनशीलता ने भारत के सांस्कृतिक वैभिन्य और अनेकता में एकता के चरित्र को एक नया शब्द दिया है-बहुधा। न्यूयार्क के ट्विन टावर विध्वंस के बाद आतंकवाद  और पुनरुत्थानवाद के उदय के करारण वैश्विक राजनीति में कुछ अहम परिवर्तन आए हैं। ये अभूतपूर्व चुनौतियां विश्व के नेताओं से एक नई, साहसी और कल्पनाशील राजनीति की मांग कर रही है। मानव विकास और वैश्वक कल्याण के संदर्भ में शांति की सदियों पुरानी तकनीकों की दोबारा पड़ताल और विमर्श की हमारी भाषा की पुनर्रचना करने की जरूरत को रेखांकित करते हुए यह पुस्तक बहुधा की अवधारणा को प्रस्तुत करती है। बहुधा जो भारत भूमि की शाश्वत सच्चाई है। बहुधा शब्द बना है बहु+धा से जिसका अर्थ है अनेक रास्ते, हिस्से या स्वरूप अथवा दिशा। बहुत बार अनेक वस्तुओं बारम्बार जैसे अर्थो के लिए भी बहुधा का प्रयोग किया जाता है। इस पुस्तक में बहुधा का प्रयोग एक काल्पनिक अवधारणा के तौर पर एक परम सत्य, सद्भावपूर्ण संवाद और शांतिपूर्ण सामाजिक जीवन के संदर्भ में हुआ है।
पुस्तक पांच खण्डों में विभाजित है। पहले भाग में 1989 से 2001 की अवधि में घटी घटनाओं और विभिन्न देशों, संस्कृतियों और अन्तराष्ट्रीय शान्ति पर पड़े उनके प्रभावो पर विचार किया गया है। बीती सदी को हिला देनेवाली कई राजनीतिक सुनामियों का रिश्ता हालिया राजनीतिक घटनाक्रमों से भी रहा है। वैश्विक कल्याण के संदर्भ में इसकी गंभीर विवेचना है। मसलन बर्लिन की दीवार का गिरना, हांगकांग का चीन मे जाना और 9/11 की घटना। दूसरे भाग में वैदिक विश्वदृष्टि की चर्चा है जो अपने व्यापक नज़रिये के लिए बीती डेढ़ सदी से विश्व के बौद्धिकों का ध्यान आकर्षित करती रही है। इस खण्ड में विभिन्न क्षेत्रों की विभूतियों मसलन अशोक, कबीर, गुरूनानक, अकबर और गांधी के विचारों और नीतियों का बहुधा के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण किया गया है। विश्व स्तर पर किस तरह बहुवाद की प्रतिक्रियास्वरूप कट्टरवादी scan0001जातिवाद या नस्लवाद का दैत्य सर उठा रहा है, इसके संदर्भ में भारत की सदियों पुरानी समरस संस्कृति के विभिन्न  पहलुओं को उभारते हुए आज के दौर की चुनौतियों से निपटने के भारतीय अनुभवों को परखा गया है।
लेखक की स्पष्ट मान्यता है कि इस पुस्तक का संदेश राजनीति, शासन और कूटनीति के दांव पेच की जगह संवाद और करुणा से ज्यादा जुड़ता है। फिर भी हमें अहसास है कि बिना कानून का शासन कायम किए आपसी समझ और प्रेम पर आधारित सामाजिक व्यवस्था बना लेना संभव नहीं होगा। भविष्य की दुनिया के लिए निरपेक्ष संवाद दृष्टि बनाना ज़रूरी होगा जिसमें छोटे बड़े सभी देश साथ मिलकर चुनौतियों से निपटें। अपनी कमियों-कारगुजारियों से ऊपर उठते हुए। इस नज़रिए के साथ कि आतंकवाद का जवाब मानवाधिकारों के सम्मान और विभिन्न संस्कृतियों और मूल्य व्यवस्थाओं के सम्मान में छिपा है। शान्तिपूर्ण विश्व के निर्माण के लिए आवश्यक संवाद प्रक्रिया को आरम्भ करने के लिए यह ज़रूरी है। पुस्तक अपने उद्धेश्य को प्राप्त करने के लिए शिक्षा, धर्म तथा राजनीति में वांछित बदलाव और उसके अमल की बात रेखांकित करती है।
ई कई क्षेत्रों में एक साथ विचरण कराती यह कृति इतिहास, राजनीति, दर्शन में दिलचस्पी रखनेवालों के लिए दिलचस्प हो सकती है। पुस्तक के उद्धेश्य और उसकी गहराई को व्यक्त करता मारिया मौंटेसरी (1930) का एक एक महत्वपूर्ण कथन पुस्तक के तीसरे भाग में है-“जिन्हें युद्ध चाहिए, वे अपने बच्चों को युद्ध के लिए तैयार करते हैं, पर जिन्हें शांति चाहिए , उन्होंने युवाओ और किशोरों पर ध्यान ही नहीं दिया और इसीलिए वे शांति के लिए उन्हें संगठित करने में अक्षम हैं। ”

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11 comments:

  1. सुन्दर समीक्षा ! आभार ।

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  2. अच्छी समीक्षा। पुस्तक पढ़नी पड़ेगी।

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  3. आपकी बहुधा पोास्ट्स मे नये नये रहस्योदघाटन होते हैं । पुस्तक समीक्षा मे इस एक शब्द का इतना बडा अर्थ हैरानी जनक है बहुत अच्छी लगी ये पोस्ट धन्यवाद्

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  4. शब्दों का सफर निरंतर चलता रहे, किताब की शानदार समीक्षा

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  5. 'बहुधा' की चर्चा सामयिक होने से अधिक अच्छी लगी, पुस्तक का उद्देश्य जानकार पढने की जिज्ञासा जगी, ये आपके विश्लेषण का कमाल है.
    बहुधा [अक्सर] हम [मनुष्य जाति के लोग] ये अपेक्षा पालते है की दूसरे लोग भी वही बात माने जो हम मान रहे है, वही भाषा बोले जो हम बोल रहे है, वही धार्मिक आस्थाए रखे जो हमारी है ; भले ही वह स्वयं उन मान्यताओं और आस्थाओं को गंभीरता पूर्वक व पूर्वरूपेन
    न भी मान रहा हो.
    हम में से अधिकतर लोग, जैसे कि ''हम घोषित तौर पर है''......''वैसे नही है!''.....इसी बात को ध्यान में रख कर एक रचना ''अक्सर''[यानी बहुधा ] मैंने भी लिखी है, कुछ इस तरह:-

    OFTEn /अक्सर
    अक्सर
    में अक्सर कामरेडो से मिला हूँ ,
    में अक्सर नॉन -रेडो से मिला हूँ. [जिन्हें अपने ism [विचार -धारा से सरोकार नही रहा]

    केसरिया को बना डाला है भगवा,
    में अक्सर रंग-रेजो से मिला हूँ. [रंग-भेद/धर्म-भेद करने वाले]

    मिला हूँ खादी पहने खद्दरो से,
    में अक्सर डर-फरोशो से मिला हूँ. [ अल्प-संख्यकों को बहु-संख्यकों से भयाक्रांत रखने वाले]

    मिला हूँ पहलवां से, लल्लुओं से,
    में अक्सर खुद-फरेबो से मिला हूँ. [दिग्-भर्मित]

    मिला हूँ साहबो से बाबूओ से,
    में अक्सर अंग-रेजो से मिला हूँ.

    न मिल पाया तो सच्चे भारती से,
    वगरना हर किसी से में मिला हूँ.

    -मंसूर अली हाशमी
    http://mansooralihashmi.blogspot.com

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  6. मंसूर अली जी को सराह रहे हैं। आप को फिर कभी सराह लेंगे :)

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  7. पुस्तक चर्चा बढ़िया रही!
    http://charchamanch.blogspot.com/
    इस लिंक पर आपकी पोस्ट की चर्चा अक्सर दिखाई दे जाती है!

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  8. जब लगु दुनीआ रहीऐ नानक किछु सुणीऐ किछु कहीऐ--- गुरु नानक देव
    (जब तक इस दुनिया में जीवत हैं, हमें दूसरों की बात सुननी चाहिए और आपनी कहनी चाहिए)

    पंजाबी के एक के कवी सुरजीत पात्र कुछ ऐसे कहते हाँ:

    हिंदुआं, मुसलमानां, सिखां दे इस शहर विच,
    खुदा पुछदा खलकत नूं, मेरा बंदा किधर गया?

    भक्ति लहर भारतीय विभिनता को एक लड़ी में प्रोने का एक सफल प्रयास था. इस जमानें में ऐसी भावना जगाने की बेहद जरूरत. अजित जी आपने शब्दों के सफ़र में हमेशा इस बात को बल देते है.

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  9. अच्छी समीक्षा।

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