स भी परिंदे यूं तो चंचल और मासूम होते हैं मगर कबूतर चंचल कम और मासूम ज्यादा होता है। ऐतिहासिक इमारतें और ऊंचे स्मारक इसे बहुत पसंद है सुस्ताने के लिए। कबूतरों को दाना खिलाना लोगों को बेहद पसंद है मगर इसकी बीट से भी लोग उतने ही परेशान रहते हैं। मान्यता है कि यह पत्नी भक्त यानी अपने जीवनसाथी के प्रति बहुत ईमानदार होता है इसे शान्ति का प्रतीक भी माना जाता है। मेघों को हरकारा बनाने की सूझ ने तो कालिदास से मेघदूत जैसी कालजयी काव्यकृति लिखवा ली। मगर कबूतरों को हरकारा बनाने की परम्परा तो कालिदास से भी बहुत प्राचीन है। चंद्रगुप्त मौर्य के वक्त यानी ईसा पूर्व तीसरी - चौथी सदी में कबूतर खास हरकारे थे। कबूतर एकबार देखा हुआ रास्ता कभी नहीं भूलता। इसी गुण के चलते उन्हें संदेशवाहक बनाया गया। लोकगीतों में जितना गुणगान हरकारों, डाकियों का हुआ है उनमें कबूतरों का जिक्र भी काबिले-गौर है।
कबूतर भारोपीय भाषा परिवार की हिन्दी-ईरानी शाखा का शब्द है और हिन्दी में शब्द फारसी से आया। फारसी में इसका रूप कबोतर बना है। पहलवी में इसका रूप कबूद या कबोद kabood या kabud है। अधिकांश लोगों का
मानना है कि फारसी का कबूतर दरअसल संस्कृत के कपोतः kapotah का ही रूपांतर है। दरअसल कपोत शब्द कः+पोतः से मिलकर बना है। संस्कृत में कः के अनेकार्थ है जिनमें एक अर्थ है वायु अर्थात हवा। इसी तरह पोतः के भी कई मायने होते हैं मगर सर्वाधिक प्रचलित अर्थ है जहाज, बेड़ा, नौका आदि। संस्कृत में कपोतः की व्युत्पत्ति संबंधी एक उक्ति है- को वातः पोतः इव प्रस्य। अर्थात जो वायु में पोत के समान उड़ता है। यहां कबूतर के उड़ने की क्षमता और विशिष्ट शैली जिसमें उसकी तेज गति भी शामिल है, की वजह से उसे पोत कहा गया है।
कबूतर जब मुदित होता है तो इसके कण्ठ से गुटरगूं की आवाज निकलती है वरना कहा जाता है कि यह लगभग अबोला प्राणि है और इसे कोई तकलीफ पहुंचाए तो भी कोई आवाज़ नहीं करता। इसकी गुटरगूं के पीछे संस्कृत की घुः या घू धातु है जिसमें विशिष्ट ध्वनि का भाव है और गुटुरगूं ध्वनि इसी घुः से उपजी है। घूकः का अर्थ होता है ध्वनि करनेवाला पक्षी। अब कमोबेश ध्वनि तो सभी पक्षी करते हैं। यह कपोत भी हो सकता है, कौवा भी और तोता भी। मगर घुः का रिश्ता गुटरगूं की वजह से या तो कबूतर से जुड़ता है या फिर उल्लू से क्योंकि घुः से बने घूकः से ही आ रहा है घुग्घू शब्द जिसका अर्थ भी उल्लू ही होता है। हिन्दी में जड़बुद्धि के व्यक्ति को घुग्घू कहा जाता है और भोंदू की तरह बैठे रहनेवाले की मुद्रा को घुग्घू की तरह ताकना कहा जाता है। घुग्घू शब्द उर्दू में भी इस्तेमाल होता है। हिन्दी शब्दसागर के मुताबिक कबूतर को कई उपाधियां मिली हुई हैं जैसे- गिरहबाज, गोला, लोटन, लक्का, शीराजी, बुगदादी इत्यादि। दरअसल ये इसकी विशिष्ट नस्लें भी हैं। इनमें गिरहबाज कबूतर को हरकारा कबूतर भी कहते हैं जो पत्रवाहक का का करते रहे हैं। कबूतर उड़ाना और कबूतरबाजी जैसे मुहावरे भी हिन्दी में प्रचलित हैं। कबूतरबाज दरअसल कबूतर पालनेवाले को कहते हैं और कबूतरबाजी का मतलब होता है कबूतरपालना यानी ऐशआराम करना। वैसे आजकल कमीशन खाकर बेरोजगारों को अवैध तरीके से विदेश पहुंचाने के संदर्भ में कबूतरबाजी शब्द का मुहावरेदार प्रयोग ज्यादा होता है।
तेज और ऊंची उड़ान की वजह से ही कबूतर प्राचीनकाल से ही डाकिये का काम भी करता रहा है। इंटरनेट पर खुलनेवाली नई नई ईमेल सेवाओं और आईटी कंपनियों के ज़माने में यह जानकर ताज्जुब हो सकता है कि करीब ढाई सदी पहले जब वाटरलू की लड़ाई लड़ी जा रही थी, तब ब्रिटिश सरकार लगातार मित्र राष्टों को परवाने पहुंचाने का काम कबूतरों के जरिये करवाती थी। ब्रिटेन में एक ग्रेट बैरियर पिजनग्राम कंपनी थी जिसने पैसठ मील की कबूतर संदेश सेवा स्थापित की थी। बाद में इसे आयरलैंड तक विस्तारित कर दिया गया था। बिना किसी वैज्ञानिक खोज हुए, यह निकट भूतकाल का एक आश्चर्य है। भारत में कई राज्यों में कबूतर डाक सेवा थी। उड़ीसा पुलिस ने सन् 1946 में कटक मुख्यालय में कबूतर-सेवा शुरू की थी। इसमें चालीस कबूतर थे।
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बहुत सुंदर पोस्ट। हाडौती के सम्माननीय कवि आदरणीय रघुराज सिंह जी हाड़ा का गीत "गुटरगूँ बोल्यो कबूतराँ को जोड़ो" स्मरण करवा दिया।
ReplyDeleteकृपया ये रचना पोस्ट कर दीजिये .... मेहरबानी होगी
Deleteगैर कानूनी तरीके से विदेश भेजने की प्रक्रिया को भी कबूतरबाजी का नाम दिया गया है...शायद इसी तरह!
ReplyDeleteकबूतर ने कितनी सेवा की है हम सबकी ।
ReplyDeleteकब [उ] तर आये मैरे आंगन में प्रतीक्षा में हूँ,
ReplyDeleteकब बहार आये मैरे गुलशन में प्रतीक्षा में हूँ,
वो न आये कोई चिट्ठी कोई संदेशा मिले,
कर रहा कब से गुटरगूं; सुन, मैं प्रतीक्षा में हूँ.
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कुछ कबूतर Net पर करते गुटरगूं मिल गए,
कर रहे थे गुफ्तगू किस जाल में हम फंस गए,
दाना-पानी [comments]कुछ नहीं कितने दिनों से दोस्तों,
घिस गई चौंचे कलम, हम घुग्घूओं में फँस गए.
-mansoor ali hashmi
http://aatm-manthan.com
सुंदर पोस्ट .
ReplyDeleteयह जोड़ता हूँ -कबूतरे एक जनजाति भी हैं जो झांसी में मिलते हैं -उत्पाती हैं ,कबूतरबाजी लोगों को अवैध तरीके से विदेश भेजने की क्रिया का कूट भाष है !
ReplyDeleteकबूतर चर्चा बढ़िया रही। कोबाद के क्या माने होते हैं ??
ReplyDeleteसंस्कृत में भाषाविज्ञान के अध्ययन के दौरान भारोपीय भाषा परिवार और इण्डो-ईरानियन शाखा के बारे में विस्तार से पढ़ा था. इसके पहले बचपन से ही पिताजी के मुख से ऐसी व्याख्याएँ सुनते थे. बहुत सुखद है वर्तमान में प्रचलित शब्दों के मूल का यूरोप और ईरान की भाषाओं के शब्दों से साम्य... और रोचक भी.
ReplyDeleteआप्टे की डिक्शनरी के अनुसार पारावत और पारापत भी कबूतर के लिये प्रयुक्त होते हैं, पर हिन्दी में उतने प्रचलित नहीं हैं. संस्कृत में तो इन दो शब्दों का भी खूब प्रयोग होता है.
ये लेख एक साथ कई बातों को समेटे हुये है. आपने कबूतर शब्द के उद्गम, व्युत्पत्ति, अनुप्रयोग और प्रचलन आदि के साथ ये जानकारी भी दी कि ये पत्नी-प्रेमी होते हैं. ऐसा ही कुछ हंसों के विषय में भी सुना है...सच है क्या?
@अरविंद मिश्र
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया इस जानकारी के लिए।
तेज और ऊंची उड़ान की वजह से या फिर शायद दिशा को परखने की क्षमता के चलते कबुतर डाकिये का काम करते थे.
ReplyDeleteकपोल की जगह कबुतर प्रचलन में रहा यह थोड़ा आश्चर्य जगाता है.