दे वनागरी के ढ वर्ण में निहित ढोल की पोल का भाव तो ढपोरशंख की विवेचना से कुछ स्पष्ट होता है, मगर इस “ढ” की महिमा ही कुछ ऐसी है कि मूर्खता, अपरिपक्वता, अज्ञानी जैसे भाव इसमें समाए हुए हैं। हमारे कहने का यह अर्थ कतई नहीं है प्रत्येक अक्षर या व्यंजन का एक विशिष्ट अर्थ भी होता है, फिर “ढ” के साथ ऐसा क्यों है, इसकी वजह दूसरी है। सबसे पहले देखते हैं ढ की अर्थवत्ता में समाए नकारात्मक भाव की व्याप्ति बोलचाल की हिन्दी में कितनी है। हिन्दी में आमतौर पर किसी व्यक्ति को मूर्ख या अज्ञानी कहने के लिए बीते कुछ दशकों से ढक्कन कहने का चलन बढ़ा है। व्यंग्यस्वरूप “ अबे ढक्कन ” जैसे संबोधन युवापीढ़ी को इस्तेमाल करते हुए सुना जा सकता है। यह ढक्कन दरअसल देवनागरी का ककहरा पढ़ाते वक्त अ-अमरूद का, आ-आम का और ढ-ढक्कन का से आ रहा है। किसी को बेवकूफ़ कहने के लिए अ से बने अमरूद का प्रयोग क्यों नहीं होता अर्थात अबे अमरूद ! या फिर अबे आम ! यह सम्मान सिर्फ़ “ढ”से बने ढक्कन के हिस्से क्यों आया? इसकी वजह ढक्कन शब्द नहीं बल्कि ढक्कन का “ढ” ही है।
आमतौर पर माना जाता है कि परिवर्तन ही विकास का चिह्न है। मोटे तौर पर माना जा सकता है कि विकास का अर्थ परिवर्तन भी होता है। किसी व्यक्ति के सोचने-समझने के ढंग में बदलाव से ही उसके बौद्धिक विकास का पता चलता है। वक्त के साथ बदलाव ज़रूरी होता है। अगर कोई चीज़ अपरिवर्तनीय है तो इसका अर्थ यह है कि उसमें विकास की संभावना नहीं है। स्थावर या भौतिक पदार्थों के संदर्भ में यह तथ्य मज़बूती और स्थिरता जैसे गुणों के रूप में देखा जाता है मगर किसी मनुष्य का बौद्धिक विकास नहीं हो रहा है अर्थात उसकी समझ में बदलाव की गुंजाईश नहीं है तो यह माना जाता है कि वह या तो मंदबुद्धि है या मूर्ख है। ऐसे लोगों की एक किस्म को अड़ियल टट्टू भी कहा जाता है। कहने की ज़रूरत नहीं कि मूर्खता के चिर सनातन प्रतीकों में परिंदों में उल्लू और चौपायों में गधे को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। उल्लू भी बिना पलक झपकाए एकटक ताकता रहता है। यह मूर्खता की निशानी है। इसीलिए मुहावरा बना है-घुग्घू की तरह ताकना। गधे की एक किस्म टट्टू होती है। यह कहीं भी अड़कर खड़ा हो जाता है, यह जानते हुए की इसके बाद धोबी उस पर डण्डे बरसाएगा।
महाराष्ट्र से सटते हिन्दी भाषी प्रदेशों में तो ढक्कन के स्थान पर सिर्फ़ “ढ” से भी काम चला लिया जाता है। मिसाल के तौर पर परीक्षा लगातार फेल होने वाले छात्र के लिए कहा जा सकता है कि वह तो पढ़ाई-लिखाई में शुरू से ही “ढ” है। मराठी में इस “ढ” की महिमा कहीं ज्यादा व्यापक है और अर्थपूर्ण है। मराठी में गधे को गाढव कहते हैं। गधा और गाढ़व दोनों के ही मूल में संस्कृत का गर्दभ है। गर्दभ > गढ्ढभ > गढ्ढअ > गधा और गर्दभ > गढ्ढभ > गढ्ढव > गाढव यह विकासक्रम रहा।“ढ” की महिमा समझाने के लिए मराठी लोकमानस ने इसी गाढव का सहारा लिया। मूर्ख के संदर्भ में मराठी मुहावरा है- गावातील “ढ” अर्थात गा और व के बीच का “ढ”। किसी मूर्ख व्यक्ति को इंगित कर इस मुहावरे का प्रयोग किया जाता है कि फलाँ आदमी गावातील “ढ” है। यानी वह व्यक्ति तो गा और व के बीच का “ढ” अर्थात मूर्ख है। इसका दूसरा अर्थ होता है कि फलाँ व्यक्ति तो गाढव यानी गधा है। सीधे सीधे उसे गधा न कह कर वक्रोक्ति का यह तरीका काफी दिलचस्प है। तीसरा अर्थ है गावातील अर्थात गाँव का “ढ” है अर्थात यह तो गाँव का गँवार है।
“ढ” से मूर्ख का रिश्ता महज़ संयोग नहीं है। मूर्ख शब्द के मूल में है संस्कृत का ‘मूढ’ शब्द। मूढ में निहित “ढ” को सहज ही पहचाना जा सकता है। मूढ बना है संस्कृत की मुह् धातु से जिससे हिन्दी के कई अन्य जाने पहचाने शब्द भी बने हैं जैसे मोहन, मोहिनी, मोहक, मोह, मोहाविष्ट आदि। आपटे कोश के मुताबिक मोह यानी किसी पर मुग्ध होना, जड़ होना, घबरा जाना या गलती करना आदि । इसके अलावा अज्ञान, भ्रान्ति, अविद्या, भूल होना जैसे अर्थ भी हैं । गौरतलब है कि मोह और मुग्ध और मूढ ये तीनों शब्द ही संस्कृत की मुह् धातु से बने हैं जिसमें ऊपर लिखे तमाम अर्थ निहित हैं और इससे स्पष्ट है कि विवेक, बुद्धि और ज्ञान के विपरीत अर्थ वाले भाव इनमें समाहित हैं। दिलचस्प बात यह कि उपरोक्त सभी भाव मूर्ख शब्द में समा गए हैं क्योंकि यह लफ्ज़ भी इसी धातु से निकला है जिसका अर्थ हुआ नासमझ, अज्ञानी और बेवकूफ। मुह् धातु में मूलत: चेतना पर किसी के प्रभाव में आकर ज्ञान अथवा बुद्धि पर परदा पड़ जाने अथवा ठगे से रह जाने, जड़ हो जाने, मूढ़ बन जाने का भाव है। यही बात मोह अथवा मुग्ध में हैं। नकारात्मक छाप के साथ मूर्ख शब्द भी यही कहता नज़र आता है। मूर्ख वह जो कुछ न समझे, जड़ हो। इसीलिए मूर्ख के साथ कई बार जड़बुद्धि , जड़मूर्ख या वज्रमूर्ख शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। अपनी सुंदरता के लिए पुराणों में मशहूर कामदेव का एक नाम है मुहिर पर मजे़दार बात यह भी कि इसका एक अन्य अर्थ बुद्धू और मूर्ख भी है। श्रीकृष्ण का मोहन नाम भी इसी से निकला है जाहिर है उनकी मोहिनी के आगे सब ठगे से रह जाते थे। इसके अलावा मुग्धा, मोहिनी, मोहित, मोहित जैसे नाम इसी से चले हैं। अब इस ठगा सा रह जाने वाले भाव की तुलना अड़ने, जड़ होने, स्थिर होने, बुद्धि पर परदा पड़ने, टट्टू की तरह अड़ने या उल्लू की तरह ताकने जैसे मुहावरों में निहित भावों से की जा सकती है और तब इस “ढ” की विविध रिश्तेदारियाँ उभरती हैं।
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