हि न्दी में ‘होना’ एक बहुत आम क्रिया है। कुछ घटित होने के अर्थ में होना क्रिया बोली और लिखत-पढ़त की भाषा में सर्वाधिक प्रयुक्त होने वाली क्रिया है। ‘होना’ क्रिया का जन्म अधिकांश विद्वान संस्कृत के ‘भवन्’ से मानते हैं। डॉ भोलानाथ तिवारी के मुताबिक भवन का प्राकृत रूप होण था जिसका हिन्दी रूप होना है। समझा जा सकता है कि भवन > हअण > होण > होन > होना, कुछ इस क्रम में ‘होना’ का विकास समझ आता है। इस वाक्य को अगर यूँ लिखा जाए- “कुछ इस क्रम में होना का विकास हुआ होगा” गौर करें कि ये ‘हुआ’ और ‘होगा’ भी ‘होना’ के ही कालसूचक क्रियारूप हैं अर्थात ये भी ‘भवन’ से सम्बद्ध हैं। होना की मूल धातु ‘हो’ है। कुछ का कुछ होना यानी काम बिगड़ना, किसी का होना यानी अपनी आस्था किसी को सौंपना, होता-सोता यानी सगा-सम्बन्धी। होकर रहना यानी अनिष्ट घटना आदि।
हिन्दी वर्तमानकालिक वाक्य रचनाओं के अन्त में ‘हूँ’, ‘है’, ‘हो’ जैसी सहायक क्रियाएँ अवश्य लगती हैं। ये सभी ‘हो’ या ‘होना’ से सम्बद्ध हैं। विभिन्न व्याकरणाचार्यों ने ‘होना’ के विभिन्न रूपों का विकास संस्कृत की ‘अस्’ धातु या ‘भू’ धातु से माना है। इसमें ‘भू’ से ही होना का विकास अब सर्वमान्य है। उदयनारायण तिवारी और धीरेन्द्र वर्मा हूँ रूप को ‘अस्मि’ से यूँ सिद्ध करते हैं- संस्कृत, अस्मि > प्राकृत, अम्हिं > हिन्दी, हूँ। डॉ भोलानाथ तिवारी ‘हूँ’ का विकास संस्कृत की ‘भू’ धातु के वर्तमानकालिक रूप से ही मानते हैं मसलन संस्कृत, पाली में भवामी > प्राकृत में होमी > अपभ्रंश में होवि > हौं > हिन्दी, हूँ। डॉ तिवारी कहते हैं कि ये सभी रूप ‘हो’ धातु के हैं जो कि ‘भू’ से ही विकसित हो सकते हैं न कि ‘अस्’ से। इन सहायक क्रियाओँ की विशेषता ये है कि इनमें पुरुष और वचन के अनुरूप बदलाव होता है। लिंग से वाक्य रचना में कोई अन्तर नहीं पड़ता। जैसे उत्तम पुरुष में- मैं जा रहा हूँ / हम जा रहे हैं। मध्यम पुरुष में तुम जा रहे हो / वे जा रहे हैं। अन्य पुरुष में वह जा रहा है/ वे जा रहे हैं। ‘भव’ से ही पूरवी बोलियों का ‘भया / भवा’ शब्द बना है। हिन्दी में इसका रूप ‘हुआ’ बनता है। ‘भयो’ का मालवी रूपान्तर काँईं ‘हुओ’ / काँईं’ होयो’ है। अन्यमनस्कता को सिद्ध करने के लिए हिन्दी में ‘हूँ-हाँ करना’ मुहावरा बहुत कुछ कह देता है।
संस्कृत के ‘भवनम्’ का एक अर्थ होता है आवास, निवास, घर, प्रकोष्ठ, स्थान, आधार, इमारत या प्रकृति। यहाँ प्रकृति शब्द पर गौर करें। इसके अलावा जितने भी पर्याय हैं वे सब आश्रय शब्द के दायरे में आते हैं। ये निर्मित हैं। भवन को बनाया जाता है अर्थात उसमें होने की क्रिया निहित है। कुछ आश्रय प्राकृतिक भी होते हैं जैसे वृक्ष-कोटर, पर्वत-कंदरा, गुफा आदि। ये सब मनुष्य के प्राकृतिक आवास होते हैं। प्रकृति अपने आप में जीव-जगत का नैसर्गिक आश्रय है, इसलिए प्रकृति का एक अर्थ ‘भवन’ महत्वपूर्ण है। भवनम् बना है संस्कृत धातु ‘भू’ से जिसमें मूलतः घटित होने का भाव है। घटित होने में उगने, पैदा होने, जन्म लेने, उदित होने, आकार लेने, उगने, निकलने, जीवित रहने, विद्यमान रहने का भाव है। व्यापक और दार्शनिक अर्थों में ये सब क्रियाएँ और भावार्थ सृष्टि की ओर इंगित करते हैं।
भू से संस्कृत में भूः बनता है जिसमें विश्व, सृष्टि, पृथ्वी जैसे भाव हैं। पृथ्वी के सभी भाव बड़े प्रतीकात्मक में हैं। इसी कड़ी में ‘भू’ से बना भूमि जो विश्व के सभी जीवधारियों का आश्रय है। ‘भूमि’ जैसी रचना में होने का भाव स्वतः निहित है। ‘भूमि’ यानी जो हो चुकी है अर्थात जो विद्यमान है। ‘भूमिका’ शब्द का अर्थ भी ज़मीन, आधार, पृथ्वी, स्थान, प्रदेश आदि है। अभिनय के संदर्भ में भूमिका का अर्थ है नाटक का कोई चरित्र। यहाँ आधार शब्द प्रमुख है। नाटकीय चरित्र ही नाटक का आधार होते हैं। ‘भौमिक’ का अर्थ है पार्थिव अर्थात भूमि सम्बन्धी। ‘भू’ के साथ जब ‘क्त’ प्रत्यय लगता है तो बनता है ‘भूत’ अर्थात जो हो चुका है, बीत चुका है, व्यतीत हो चुका है। अतीत का विषय। जो घट चुका है। भूतकाल का हिस्सा है इसलिए जो सामने है, वर्तमान है, जो सामने है, वह भी भूत है और जो घट चुका है, जो अतीत है वह भी भूत है। भूत यानी तत्व यानी पंचमहाभूत-अग्नि, पृथ्वी, जल, वायु और आकाश। ज़ाहिर है समूची सृष्टि के भाव वाला ‘भू’ यहाँ स्पष्ट है। व्यतीत के अर्थ में ‘भूत’ का एक अर्थ और है, मगर यही अर्थ सर्वाधिक लोकप्रिय और व्यापक है। भूत यानी प्रेत, पिशाच, मृतात्मा, बुरी आत्मा आदि। मनुष्य का जीवन जब सम्पन्न हो जाता है तो उसकी मृत्यु हो जाती है। यह माना जाता है कि प्रत्येक शरीर में आत्मा का वास होता है। सद्ग्रहस्थ या सन्यासी को मोक्ष मिलता है मगर विषय वासना से युक्त जीवधारी की आत्मा को मोक्ष नहीं मिलता और मतात्मा तभी भूत कहलाती है। भूत का होना यहाँ सिद्ध है। जो हो चुका है, बीत चुका है वही भूत है। न भूतो, न भविष्यति उक्ति से सब अवगत हैं।
भवनम् से बने ‘होना’ में अस्तित्व या विद्यमानता का भाव प्रमुख है। ‘भव्य’ शब्द भी इसी मूल का है जिसमें उत्तम, शानदार, योग्य जैसे भाव है। मुख्यतः भव्य में भी विद्यमानता या होने वाला जैसे ही भाव है। अर्थविस्तार होते हुए इसमें मनोहर, प्रिय, अत्युत्तम, आलीशान जैसे भाव भी समा गए। होना मे मुहावरेदार अर्थवत्ता भी है। होनी, अनहोनी, होनहार जैसे शब्द जो इसी कड़ी से जुड़े हैं, मुहावरे की अर्थवत्ता रखते हैं। ‘होनी’ का अर्थ हो जो होने वाला है अर्थात भविष्य के गर्भ में छुपी बात। अनहोनी यानी अनिष्ट, दुर्भाग्य आदि। ‘होनहार’ का अर्थ सकारात्मक है। भविष्य में होने वाली अच्छी बात। होनहार संज्ञा के रूप में अच्छे गुणों वाला सुपुत्र भी होता है। अच्छे लक्षणों वाली संतति या बच्चा होनहार कहलाता है। होनहार बिरवान के, होत चीकने पात कहावत किसने नहीं सुनी होगी। ‘भू’ धातु से हिन्दी समेत अनेक भाषाओं में कई शब्द बने हैं।
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भोजपुरी में 'बाS' भी है 'है' के लिए। 'बभूव' संस्कृत में होता है…लेकिन थे/था/थी आदि का प्रयोग कैसे होता है तब? भू से थे?…
ReplyDelete'भू' से 'थै' वाला मामला नहीं है।
ReplyDeleteइस पर फिर कभी।
टिप्पणी के लिए शुक्रिया चंदनभाई।
मेरे गुरुतुल्य, सफ़र के एक साथी की प्रेरणा से
यह लिखा। बाकी सहायक क्रियाओं पर आगे कभी.....
होते रहना जीवन है, पृथ्वी को नाम भी भू है।
ReplyDeleteशब्दो का अनोखा संसार।
ReplyDeleteअजित जी, जब-जब यहां शब्दों के सफर में शामिल होता हूं। यही लगता है कि आप कैसे ये कर पाते हैं। लेकिन, कमाल ये है कि हर बार आप ज्यादा ही कर जाते हैं। उम्मीद से ज्यादा।
ReplyDeleteअत्यंत सारगर्भित एवं गहन आलेख ! इस आलेख में भाषा के साथ, प्रकृति और लौकिक व्यवहार से गहरा जुडाव स्पष्ट परिलक्षित होता है । इसके दार्शनिक पक्ष के रोचकता भी अद्_भुत है !! हमेशा की तरह इस आलेख ने भी अभिभूत कर दिया ।
ReplyDeleteशब्दों का सफर... हमेशा की तरह बहुत अच्छा!
ReplyDeleteआभार!
'थे' और 'भू' पर इन्तजार रहेगा। 'बा' के कहने का मतलब था कि 'भू' से 'है' और 'बा' भी शायद निकल सकता है…हाँ, 'भू' होने से भूत, बीत जाने विगत, गुजर जाने से गत होता ही है…शुक्रिया स्वीकार। हम भी शुक्रिया अदा करते हैं। इस तरह का प्रयास तो अन्तर्जाल पर बहुत प्रशंसनीय है। चिट्ठों में एक खास और बिलकुल अलग किस्म का मेहनत से काम हो रहा है…फिर शुक्रिया…
ReplyDeleteपोस्ट पढकर मन में न जाने क्या क्या हो गया। लगा, मुझे होना तो कुछ और था पर हो गया कुछ और। :) :) :)
ReplyDelete'भौमिक' के अर्थ जान कर जिज्ञासा हुई - क्या 'पार्थ' को 'भौमिक' का पर्याया माना जाए।
भू भव यानि होना ये पुराना पढा हुआ याद आ गया । भू भव्य भूमि भौमिक और भूत (जीव सृष्टि के ही नही पराजैविक भी ) भी ।
ReplyDeleteहमेशा की तरह जानकारी भरी पोस्ट ।