
रामजी पर मचे बवाल के संदर्भ में यह किताब याद आ रही थी खासतौर पर रामायन पर लिखा आखिरी किताब का रामायण और महाभारत वाला पाठ। छठे दशक में यह किताब लिखी गई थी। और यह भारत में १९८८ में राजकमल से प्रकाशित हुई और तब से अब तक इसके कई संस्करण निकल चुके है। पहली बार जो पढ़ चुके हैं वे फिर देख लें और जिन्होने नहीं पढ़ी है वे अब बांच लें-
रामायन रामचंद्रजी की कहानी है। ये राजा दसरथ के प्रिंस ऑफ वेल्स थे। लेकिन उनकी सौतेली मां कैकेयी अपने बेटे भरत को राजा बनाना चाहती थी। उसके बहकाने पर राज दसरथ ने रामचंद्रजी को जौदह बरस के लिए घर से निकाल दिया। उनकी रानी सीता और उनके भाई लक्षमन भी साथ हो लिए। बनवास के लिए निकलते वक्त रामचंद्रजी के पास कुछ न था , बस एक खड़ाऊं थी, वही भी भरत ने रखवा ली, कि आपकी निशानी हमारे पास रहनी चाहिए। उस खड़ाऊं को वह तख़्त के पास, बल्कि ऊपर रखता था। ताकि रामचंद्रजी का कोई आदमी चुराकर न ले जाय।
जंगल में रहने की वजह से उन्हें दिन गुज़ारने में चंदां (थोड़ी भी ) तक़लीफ न होती थी । रामजी तो आखि़र रामजी थे, ज़्यादा काम लक्षमन यानी बिरादरे-खुद ( उनके भाई ) किया करते थे। एक रोज़ जबकि राम और लक्षमन दोनों शिकार पर गए हुए थे , लंका रा राजा रावन आया और सीताजी को उठाकर ले गया । इस पर रामचंद्रजी और रावन में लड़ाई हुई। घमसान का रन पड़ा, जैसा कि दशहरे के त्योहार में आपने देका होगा ।
हनुमानजी और उनके बंदरों ने रामचंद्रजी का साथ दिया और वे रावन और उनके राक्षसों को मारकर जीत गए। पुराने ख्याल के हिन्दू इसीलिए बंदरों की इतनी इज्जत करते हैं और उनको इन्सानों पर तरजीह देते हैं।