Wednesday, June 25, 2008

दरोगाजी से हाथापाई...[बकलमखुद-51]

ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी और अरुण अरोरा को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के दसवें पड़ाव और बयालिसवें सोपान पर मिलते हैं खुद को इलाहाबादी माननेवाले मगर फिलहाल मुंबईकर बने हुए हर्षवर्धन त्रिपाठी से। हर्षवर्धन पेशे से पत्रकार हैं और मुंबई में एक हिन्दी न्यूज़ चैनल से जुड़े हैं। बतंगड़ नाम से एक ब्लाग चलाते हैं जिसमें समाज,राजनीति पर लगातार डायरी-रिपोर्ताज के अंदाज़ में कभी देश और कभी उत्तरप्रदेश के हाल बताते हैं। जानते हैं बतंगड़ की आपबीती जो है अब तक अनकही-

पहुंचे इलाहाबाद विश्वविद्यालय

खैर, अगले साल मैंने बीकॉम में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया। दाखिला बीकॉम में था लेकिन, दोस्त बीए में थे इसलिए इकोनॉमिक्स की क्लास अटेंड करता था। शायद यही प्रेम था कि बाद में इकोनॉमिक्स से ही एमए की डिग्री ली। कोचिंग के दौरान शुरू हुआ छात्रनेताओं का मेल विश्वविद्यालय में आने के बाद बढ़ गया। 50-60 लड़कों की अच्छी गोल होने से सारे नेता अपने साथ रकने को आतुर रहते। मजा आने लगा। यूनियन पर ही मेरी मोटरसाइकिल लगने लगी। यूनियन गेट से लेकर रजिस्ट्रार और वीसी ऑफिस तक का चपरासी नमस्ते भइया करने लगा।

तुम तो सींकिया पहलवान हो...

काउंटर पर बिना लाइन के फॉर्म जमा होने लगा। दो साल बाद हुए 1995 के चुनाव में हम लोगों की गोल के समर्थित सारे नेता अध्यक्ष से लेकर उपमंत्री तक का चुनाव जीत गए, सिवाय प्रकाशनमंत्री के। जाने-अनजाने कब हम लोगों ने विश्वविद्यालय के लफंगों से लड़ने का बीड़ा ले लिया पता ही नहीं चला। मारपीट में मैं सबसे आगे रहता। किसी की लड़ाई होती तो, वो मुझे साथ लेकर जाता। लेकिन, मेरा एक दोस्त कहता था कि तुम सींकिया पहलवान हो कोई तुमसे थोड़े न डरता है, डरते तो, सब तुम्हारी गालियों से हैं जो, तुम एक सांस में दे जाते हो (गालियां याद अब भी हैं लेकिन, अब देता नहीं, अच्छा है ना)।

छात्र आंदोलनों में सबसे आगे

जब का मजा आता था आंदोलन करने में। शुरुआत में तो, ये भी पता नहीं होता था कि किसी आंदोलन में क्यों शामिल हूं। लेकिन, 2-3 सालों में जब समझ में आने लगा और तवज्जो मिलने लगी तो, फिर विश्वविद्यालय के आंदोलनों के फ्रंट के अगुवा लोगों में शामिल हो गया। जब सब परीक्षाएं टलवाने के लिए आंदोलन करते थे। हमने परीक्षाएं सही समय पर करवाने के लिए छात्रनेताओं से ही लड़ाई लड़ी। हम लोगों को ढेर सारे छात्रनेताओं और ज्यादातर छात्रों का समर्थन मिला। एक बार हम लोगों ने छात्रसंघ भवन पर एक कार्यक्रम का आयोजन किया था लेकिन, इसी बीच शुरू हो गए छात्र आंदोलन की वजह से पुलिस ने छात्रसंघ भवन पर इकट्ठा होने पर रोक लगा दी।

चार फोटो में हीरो

म लोग पहुंचे तो, यूनियन के चपरासी ने बताया कि भैया दरोगाजी ने कहा यूनियन हॉल में भी ताला लगा दो। तब तक ताला लगाने की बेहूदा इच्छा रखने वाले दरोगाजी भी आ ही गए। मैं और मेरे मित्र मनीष थे। दरोगा से हाथापायी हो गई। हम लोगों को भी दो-चार झापड़ पड़े हमने दरोगा का मुंह नोच लिया। जबरदस्ती पीएसी के सिपाहियों की मदद से उठाकर हम दोनों को जीप में डाल दिया गया। खैर, छात्रों के दबाव की वजह से पुलिस को हमें आधे घंटे में ही छोड़ना पड़ गया। लेकिन, दूसरे दिन के अखबारों में पुलिस से मारपीट करती एक साथ छपी चार फोटो ने हीरो बना दिया।

विद्यार्थी परिषद से जुड़ाव

छात्रसंघ चुनावों (1995 के)में हम लोगों की क्षमता देखकर कई नेता हम लोगों को साधने की मुहिम में लग गए। लेकिन, इसमें सफल हुए विद्यार्थी परिषद के तब के संगठनमंत्री। हम लोगों के बीच के एक नेता को उन्होंने परिषद के बैनर पर लड़ाने के लिए पटाने की मुहिम चलाई और हम सारे दोस्तों से बात-व्यवहार शुरू कर दिया। हम सभी दोस्तों को परिषद से लड़ने का फैसला सही लगा और हम सारे लोग परिषद में पहुंच गए। परिषद के पुराने कार्यकर्ताओं में हमारी छवि थोड़ी बदमाश किस्म की थी। उन्होंने कहाकि ये लोग संगठन खराब कर देंगे (ये अलग बात है कि हमारे समय में ही परिषद दो दशकों में सबसे मजबूत दशा में थी)।

आने लगे भाषणों के बुलावे

खैर, परिषद में काम करना मेरे लिए एक शानदार अनुभव रहा। पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई जिलों में मैं भाषण देने के लिए बुलाया जाने लगा। बनारस के संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में संविधान समीक्षा पर पेश मेरे प्रस्ताव ने खूब तालियां बटोरीं और अगले दिन के अखबारों में 4-5 कॉलम की सुर्खियां भी। इलाहाबाद में भी कई बड़े सेमिनार वगैरह कराए। कुल मिलाकर परिषद में आने के बाद कई रचनात्मक गतिविधियों से जुड़ा। विश्वविद्यालय के अंदर, छात्रावासों में और विश्वविद्यालय मार्ग पर सैकड़ो पेड़ लगवाए। हरे पेड़ों के बहाने महिला छात्रावास में भी अच्छी छवि बनी। बेहद कम समय परिषद में काम करके ही नेशनल टीम में शामिल हो गया। मुझे होलटाइमर निकालने की भी कोशिश हुई लेकिन, मैंने साफ कहाकि कोई भी काम आधे मन से मैं नहीं कर सकता। ये अलग बात है कि जब तक मैंने परिषद में काम किया होलटाइमर की ही तरह किया।

अति बर्दाश्त नहीं

विश्वविद्यालय में ही हम लोगों की टीम विश्वविद्यालय में बेवजह लफंगई करने वाले लड़कों के खिलाफ मुहिम चलाई। कई बार तो, हमसे सीधे लड़ाई न होने के बाद भी हम उनसे जा भिड़ते थे। इलाहाबाद और इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने ऐसा गढ़ दिया कि इसी जज्बे में हमने इलाहाबाद में शहर पश्चिमी के माफिया विधायक अतीक अहमद (अब जेल में बंद सांसद) के खिलाफ जमकर प्रचार किया। जबकि, हमारी विधानसभा शहर उत्तरी में पड़ती है। एक बार जी न्यूज के एक जनता अदालत टाइप के कार्यक्रम में मैंने अतीक से सीधे सवाल कर डाला था कि आपके ऊपर इतनी हत्याओं का आरोप है और इसी डर से कोई आपके खिलाफ नहीं बोलता। अब, लगता है कि वो जवानी का जोश ज्यादा था। [जारी]


पिछली कड़ी- मैं चपरासी तो नहीं बनूंगा

17 comments:

  1. नेता बनने का सिद्ध फारमूला है यह कैमरा पत्रकारों के सामने पुलिस से उलझ लो या किसी बदनाम अफसर की पिटाई कर दो।

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  2. सही कह रहे हैं जवानी के जोश का जज़्बा देख बाद में खुद को खुद पर आश्चर्य होता है. गाली मे धारा प्रवाह का हमारा भी रिकार्ड था..आपकी तरह ही अब तिलांजली दिये बैठे हैं..हा हा!!

    अतीक अहमद से पंगा- यह तो जिगरे वाली बात कहलाई..

    हरे पेड़ों के बहाने महिला छात्रावास में भी अच्छी छवि बनी। इस छवि का कुछ नतीजा निकला कि बस छवि ही बनी रही?? :)

    बहुत मस्त रहा एपिसोड./..अगला भी जल्दी लाईये..वैसे कांग्रेस से चुनाव लड़ने में इच्छुक है क्या?? हाई कमान पूछ रहीं है ब्लॉग पढ़कर.. :)

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  3. मैंने साफ कहाकि कोई भी काम आधे मन से मैं नहीं कर सकता।

    क़ामयाबी का यह सूत्र आपने
    जवां-उम्र में हासिल कर लिया !
    =======================
    यह इस पोस्ट का संदेश है
    मेरी नज़र में...

    बधाई
    डा.चन्द्रकुमार जैन

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  4. सारे गुण तो नेता बनने के है ,काहे देश को एक नेता से महरूम कर रहे है, इस बात पर आपके उफर जनता की अदालत मे मुकदमा चलना चाहिये :)

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  5. तो हॉकी स्टिक के सहारे शुरू हुई थोड़ी-थोड़ी नेतागिरी अब संपूर्णानंद विश्वविद्यालय में भाषणबाजी तक आ पहुंची। हर्षवर्धन भाई, मजा आ रहा है आपका संस्‍मरण पढ़ने में। वैसे एक बात बतायी नहीं, अभी भी यजदी मोटरसाइकिल से ही काम चल रहा था, या कार-वार का जुगाड़ हो गया था।

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  6. pataa naheen mere priy priynkar ne hamari bahas men kyon kaha tha lekinmain kehata hoon- 'ilmo bas karee o yaar'

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  7. देश के नेता ऐसे पैदा होते है...खुब. नेतागीरी काहे छोड़ दी?

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  8. होश सहित जोश बनी रहे ! वैसे एक साँस में बीस गाली बहुत सारा काम निपटा जाती है .इसका यदा-कदा प्रयोग किया करें .टिकट का जुगाड़ भिडाइये ,ताली बटोरू भाषण आता ही है वोट अपने आप बटोरा जायेगा .

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  9. पढ़े जा रहे है । :)

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  10. मजेदार सफ़र रहा है आपका.. गालियां तो बचपन में ही देना छोड़ दिया था हमने(मतलब कि हम बचपन से ही गालियां देते आये हैं, मगर जब उनका मतलब जाना तब छोड़ दिया)..
    बहुत खूब..

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  11. अगर आप जैसे पढ़े लिखे लोग नेता गिरी में रहते तो शायद कुछ भला हो जाता हमारे प्रदेश का....वैसे किस्साये -नेता मजेदार रहा.....जारी रखे.....

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  12. ह्म्म बड़ी दिलचस्प जीवनी रही है आपकी.. पढ़े जा रहे है..

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  13. वाह रंग तो जमा है इस पोस्ट से... वैसे गालियाँ तो हम भी धारा प्रवाह में दे लेते हैं लेकिन कुछ ख़ास लोगों के बीच ही :-)

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  14. badi rochak jeevan gatha hai aapki..

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  15. अच्छा है जी, संस्मरण सदैव रोचक होते हैं!

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  16. हद हो गई यार, यूनिवर्सिटी पहुंच कर प्रेम हुआ भी तो इकोनामिक्स से?
    क्या लोचा करते हो भैया, गड़बड़ है ये तो!

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