
पायजामें [देखें- अजब पाजामा, ग़ज़ब पाजामा !]की ही तरह सलवार जैसा आरामदेह वस्त्र भी मध्य ऐशिया के घूमंतू कबाइलियों की ही देन है जिन्हें घोड़ों पर न सिर्फ हज़ारों मील लंबे मैदानों में सफर करना पड़ता था बल्कि दुर्गम पहाड़ों पर भी चढ़ाई करनी पड़ती थी। सलवार जैसी सूझ-बूझ भरी पोशाक इसी घुमक्कड़ी के दौरान जन्मी। सलवार को यूं तो तुर्की – फारसी मूल का शब्द माना जाता है । मगर ये बदले रूपों में सेमेटिक परिवार की भाषाओं में भी है और भारतीय-ईरानी परिवार की भाषाओं में भी। फारसी मे सलवार का रूप है शेरवाल। उर्दू-पंजाबी में वर्ण विपर्यय के साथ इसका रूप शलवार हो गया है और अन्य भारतीया भाषाओं में यह सलवार के रूप में जाना जाता है। अरबी में इसका रूप सरवाल है जिसका मतलब होता है पायजामा या पैरों को ढंका रखने वाला वस्त्र।
सलवार के साथ जम्पर शब्द का प्रयोग पंजाब समेत अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान में खूब होता है। जम्पर आमतौर पर कमीज़ का ही एक रूप है जिसमें लंबी लंबी बांहें होती हैं और इसे कमर से ऊपर पहना जाता है। आमतौर पर जम्पर को यूरोपीय परिधान माना जाता है । वैसे जम्पर शब्द की व्युत्पत्ति पर एक

[देखे-पॉकेटमारी नहीं जेब काटना] कहा जाता है। अरबी से इसकी आमद यूरोपीय भाषाओं में हुई मसलन इतालवी में यह जिप्पा या जिब्बा है तो फ्रैंच में जबे या जपे है। इसी का रूप हुआ जम्पर जिसने हिन्दुस्तान की सरहद में आकर सलवार के साथ ऐसी जोड़ी बनाई की बनने-संवरने वालों में इसकी धूम मच गई। गौरतलब है कि सलवार-कमीज़ या सलवार कुर्ता की जोड़ी वाले परिधान को स्त्री ओर पुरुष दोनो के लिए इस्तेमाल किया जाता है मगर पुरूष परिधान के तौर पर सलवार – जम्पर शब्द का इस्तेमाल नही होता। [नीचे-जिन्ना अपनी छोटी बहन फातिमा के साथ। पारंपरिक पोशाक में]
आपकी चिट्ठियां
विमल वर्मा के लिखे बकलमखुद की दो कड़ियों पर अभी तक छब्बीस साथियों की पैंतीस प्रतिक्रियाएं मिलीं हैं। इनमें हैं -स्वप्नदर्शी, अनूप शुक्ल, यूनुस , प्रमोदसिंह, अनिल रघुराज, अफ़लातून, चंद्रभूषण, संजीत त्रिपाठी, अनिताकुमार, आभा, अऩुराधा श्रीवास्तव, शिवकुमार मिश्र, घोस्ट बस्टर ,डॉ अमरकुमार, घुघूती बासूती, इरफान, सागर नाहर, संजय, आनंद , मीनाक्षी, अजित, काकेश, और रवीन्द्र प्रभात हैं। आपका बहुत बहुत शुक्रिया जो इस श्रंखला को आपने इतना पसंद किया है।
विमलजी से लंबा लिखने का साथियों का आग्रह हमने भी उन तक पहुंचा दिया मगर वो तो अब तीन दिन के लिए गोवा चले गए हैं ! क्या करे ? इंतजार करें या तीसरी कड़ी में ख़त्म कर दें ?
बचपन में हम पुरुषों के लिए सलवार-कुर्ता और महिलाओं के लिए सलवार-कुर्ती शब्दों का प्रयोग सुनते रहे। अब केवल सलवार सूट ही सुनाई देता है वह भी महिलाओं और लड़कियों के पहनावे के रुप में ही।
ReplyDeleteविमल जी विस्तार से लिखें तो अनेक लोगों के बारे में जानकारियाँ मिलेंगी। एक इतिहास बनेगा। आत्मकथ्य से वह अधिक महत्वपूर्ण है। उन का आत्मकथ्य एक समय का दस्तावेज भी है। यह समय है भारत में 1975 के आपातकाल के इर्द-गिर्द का जब राजनीति ने एक मोड़ लिया था। 1977 के चुनाव ने उसे एक ऐसा रुख दिया जिसे हम आज तक भुगत रहे हैं। आप उन से लिखवाइये अवश्य। अभी अगले रविवार तक होली का माहौल रहेगा। व्यस्ताएं और अवकाश दोनों एक साथ होंगे। इस श्रंखला में थोड़ा व्यवधान अखरेगा नहीं। प्रतीक्षा ही उचित है।
अजीतजी,
ReplyDeleteशब्दों का सफर संग्रह किताब के रूप में कब तक लाने की योजना है। जानकारी बढ़ाने वाला, रुचिकर और शब्दों को जिंदा रखने के लिए जरूरी संग्रह होगा।
अजित जी.
ReplyDeleteविमल जी का सफरनामा अभी ज़ारी रखिए .
शिद्दत जिस किसी ज़िंदगी की पहचान बनती है ,
उसकी कहानी सिर्फ़ उसकी नहीं, उसके अपने वक़्त
और उसकी सीख का दस्तावेज़ भी तो होती है .
वे गोवा से लौट आएँ ...तब तक होली भी मन जाएगी .
शुभकामनाएँ .....
ये क्या बात हुई भला, विमल जी श्रृंखला शुरु करके कल्टी हो गए, पेशी में हाजिर किया जाए उन्हें, ये गुनाह कत्तई मुआफी के काबिल नही है!!
ReplyDeleteअजित जी आपका शुक्रिया जो आपने आज सलवार -कुरते के बारे मे भी बताया ।
ReplyDelete@दिनेशराय द्विवेदी- विमलजी का संदेश आया है कि वे रविवार को लौटेंगे और फिर लिखेंगे।
ReplyDelete@हर्षवर्धन-बंधु, किताब वाली बात तो दिमाग़ में है। बस, फुर्सत नहीं मिल रही कि कुछ तरतीब दे सकूं। कुछ सोच सकूं। मगर ये काम आकार ज़रूर लेगा, क्योंकि आपकी शुभकामनाएं साथ है। शुक्रिया।
आपकी इस किताब को यदि मेरी कोई जरुरत हो तो जरुर बताइएगा,
ReplyDeleteसही है। बकलमखुद जारी रखें।
ReplyDeleteजरूरी नहीं है कि आप एक समय में एक ही साथी की श्रंखला को चलाएं. विमल जी नहीं हैं तो क्या हुआ आप अगले साथी की श्रंखला आरंभ कर दें. जब विमल जी लौटेंगे तो उनकी अगली कड़ी दे दीजिएगा. शीर्षक में नंबर दे ही रहे हैं सो श्रंखला अपने आप बनती रहेगी. इस तरह आप एक से अधिक श्रंखलाओं को जल्दी जल्दी प्रस्तुत कर सकेंगे और उन्हें उतावली भी नहीं होगी जिन्हें लिखना है... :) वरना धीमी गति से बेसब्री बढ़ भी सकती है. बस एक सुझाव है....
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