Saturday, August 29, 2009

सरदार, सरदारनी और पसीना[बकलमखुद-99]

पिछली- कड़ी-किस्से सरदार की शादी के 

logo baklam_thumb[19]_thumb[40][12]दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम,  आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने dinesh rसहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के सोलहवें पड़ाव और अट्ठानवे सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मालावण्या शाहकाकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोराहर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।

चां रेलगाड़ी से उतरते ही, सब बाराती और घर वालों ने सामान संभाला और पैदल अपने-अपने घरों को चल दिए। गाड़ी ने भी स्टेशन छोड़ दिया। प्लेटफॉर्म स्थाई रुप से टिके रहने वाले लोग ही रह गए। सरदार को लगा केवल वही अकेला यात्री छूट गया है। बुकस्टॉल से चला तो टिकटघर के बाहर के वेटिंग हॉल में दुल्हन के साथ अपनी दोनों बहनों और दोनों छोटे भाईयों को देख कर रुका। बहनों ने उसे बताया कि पिता जी ने आप के साथ मामा बैज़्जी के घऱ जाने को बोला है। सरदार उन सब को ले कर मामा बैज़्जी के घर पहुँचा तो छोटे मामा जी खुब गुस्सा हुए -“नई लाड़ी (दुल्हन) को इस तरह पैदल लाया जाता है? मैं ने तो ताँगे वाले को स्टेशन भेजा है, वो बेचारा वहाँ हैरान हो रहा होगा। जब तक तुम्हें तुम्हारे घर में न ले लें तुम यहीं रहोगे” छोटे मामाजी की हुक्म उदूली करने का सरदार में बिलकुल माद्दा न था। मामाजी के घर दुल्हन का स्वागत हुआ। वह महिलाओं से घिर गई, सरदार अकेला रह गया, वह टाइमपास के लिए मामाजी के पास दवाखाने में आ बैठा और पिछले दो दिनों के अखबारों के पन्ने पलटने लगा।
हाँ फिर से दूल्हे की यूनिफार्म पहननी पड़ी, सिर पर साफा, कांधे पर गठजोड़ा ऱख दिया गया। सरदार चला, पीछे पीछे दुल्हन खिंची आती थी। आगे शहर का मशहूर बैंड बजता था। घर पहुँचते पहुँचते पर ढोल लिए ढ़ोली भी चला आया। फर्लांग भर की दूरी सरदार को मीलों लगी थीं। वैसे कोई खास बात नहीं थी, यह उसी का मोहल्ला था, जहाँ बच्चे-बच्चे को पता था सरदार की शादी हो गई है। भोजनोपरांत बाजार देर रात पान की दुकान से पान खा कर चलने ही वाला था कि पान वाले टोका -भाभी के लिए पान नहीं ले जाओगे? आज तो पहली मुलाकात है। सरदार दुलहन के लिए पान ले कर लौटा। रात बारह बजने में सिर्फ मिनट बाकी थे। उस के कमरे की गैलरी में महिलाएँ बैठी गीत गा रही हैं। घुसते ही बुआ ने टोका-पीछे छत पर जा। वह छत पर कुछ ही देर रहा फिर बुआ पकड़ कर ले गई। सरदार को उस के ही कमरे में अंदर ढकेला गया और खड़ाक से बाहर की कुंडी लग गई। बिजली घर में थी नहीं। कमरे में मात्र एक दीपक रोशन था। कमरा पूरा बंद डब्बा लग रहा था। दरवाजा बंद होने के बाद उस में चार फुट की ऊंचाई पर ‘ए-3 साइज के पेपर’ के बराबर की पोर्टेट ओरिएंटेशन वाली दो खिड़कियाँ दरवाजे के आजू-बाजू थीं जिन पर भी परदे लटके थे। हवा भी न घुसे इस का पूरा इंतजाम था। अंदर देखा तो कमरे के एक कोने में ससुराल से मिले पलंग की दोनों कुर्सियाँ दीवार से लगी और उस की ईंसें कोने में खड़ी थी। पलंग में रखी जाने वाली जिस चौखट पर निवार बुनी जाती है, वह कमरे के दाएँ फर्श पर रखी थी, जिस पर रेशमी चादर से ढका गद्दा बिछा था ता ऊपर शादी का खास जोड़ा पहने दुल्हन बैठी थी।
रदार को हालात देख कर गुस्सा भी आया और रोना भी। घर में कोई जमाई नहीं था, जो कम से कम पलंग को जोड़ कर खड़ा ही कर देता। बारात में सब थे और जब उन का काम आया तो सब नदारद। वे नहीं तो बुआएँ ही यह काम कर देतीं। आखिर यह हुआ क्या? किसी को भी यह याद नहीं रहा। वह बुआ से पूछने को मुड़ा, दरवाजा खोलने को खींचा तो वह बाहर से बंद था। अब तब तक बाहर नही जा जा सकता था जब तक कि बाहर से कोई कुंडी न खोल देता। जो बाहर जगराते में देवताओं को मनाते गीत गाती औरतें अपने गीत पूरे कर के खुद न खोल देतीं। वह मसोस कर रह गया।
ई के महीने की ऊन्नीस तारीख बीस में तब्दील हो चुकी थी। पसीने से बनियान बदन से चिपक रही थी। सरदार ने अपना कुर्ता-पाजामा उतार कर लुंगी पहन ली। बनियान को भी बदन से अलग किया, परांडी पर रखी बीजणी (हाथ-पंखा) ले गद्दे पर जा लेटा और बीजणी से इस तरह बदन पर हवा झलने लगा कि ज्यादा हवा दुल्हन को लगती रहे। सरदार को समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा क्या करे? जो कम से कम अब तो दुल्हन का चेहरा देखने को मिल जाए। दिमाग में अचानक रोशनी चमकी, उस ने दुल्हन से पूछा–तुम्हें गर्मी नहीं लग रही? दुल्हन क्या जवाब देती, वह पहले ही पसीने से तर-बतर-थी, चुप रही। कुछ देर बाद उठी और बोली–आप उधर मुँह कर के लेटिए, मैं अपने कपड़े बदल लेती हूँ। गर्मी में दुल्हन का जोड़ा जरूर उस के बदन को बुरी तरह काट रहा होगा। वह मुहँ दीवार की तरफ कर
"सरदार की रामकहानी अब मंगलवार के साथ साथ हर शनिवार भी"
के लेट कर सोचने लगा -अब इंतजार पूरा हुआ। अब तो दुल्हन का मुखड़ा देखने को मिलेगा। सरदार को फिल्मों के सारे रोमांटिक गानों के मुखड़े याद आने लगे थे। कुछ देर बाद मुखड़ा दिखा लेकिन ताक पर रोशन एक तेल के दीपक की रोशनी में भीषण गर्मी में बदन से टपकते पसीने को बीजणी से सुखाते हुए। अब ये तो पाठक ही सोच सकते हैं कि दुल्हों के दोस्तों को सेरों खुशबूदार फूलों से दुल्हन की सेज को सजाते देखने पर सरदार और सरदारनी के दिल पर क्या गुजरती होगी।
रदार का अगला दिन बहुत व्यस्त रहा। सुबह ही कॉलेज जा कर पता किया कि कहीं रसायनशास्त्र की प्रायोगिक परीक्षा आज-कल में ही तो नहीं है? दोनों-तीनों फूफाओं और बुआओं की खबर ली गई कि वे एक पलंग नहीं जोड़ सके। फिर पलंग को खुद ही जोड़ा और ढंग से कमरे के एक कोने में लगाया। मंदिर के मैनेजर को पटा कर अनुमति ली गई कि मंदिर से सरदार अपने कमरे तक तार खींच कर बिजली ले जाए। पर्याप्त लंबाई वाला तार कबाड़ कर अपने कमरे तक खींचा और कुछ प्लग-सॉकेट लगाए। बिजली की सप्लाई का टेंपरेरी इंतजाम हो गया। शाम तक ससुराल से दहेज में मिला टेबलफैन चलने लगा और एक अदद बल्ब रोशन हो गया। दिन भर दुल्हन सज-धज कर बैठी रही। औरतें मिलने आतीं और मुहँ दिखाई देती रही, सरदार को उस का मुखड़ा एक बार भी देखने को न मिला। वह रात होने का इंतजार कर रहा था, जब वह बल्ब की रोशनी और टेबलफेन की हवा में अपनी दुल्हन से मिलेगा और तसल्ली से उस का मुखड़ा देख सकेगा।

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14 comments:

  1. Chaliye ab to intjam pooraho gaya ab rat achchee gujaregi.

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  2. "दिन भर दुल्हन सज-धज कर बैठी रही। औरतें मिलने आतीं और मुहँ दिखाई देती रही, सरदार को उस का मुखड़ा एक बार भी देखने को न मिला। वह रात होने का इंतजार कर रहा था, जब वह बल्ब की रोशनी और टेबलफेन की हवा में अपनी दुल्हन से मिलेगा और तसल्ली से उस का मुखड़ा देख सकेगा। "

    सुन्दर संस्मरण!
    बधाई!

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  3. ये किस्सा भी सरदार का मजेदार रहा..द्विवेदी जी बड़े इत्मिनान से मजे ले ले कर किस्सा सुना रहे है कि आनन्द आ जा रहा है.

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  4. बेहतरीन रहा ये सफर। आभार।

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  5. बहुत रोचक -मगर लोग कितने लापरवाह होते हैं की उनकी कुछ असावधानियों के चलते दुल्हेराजा को बेवक्त का गुस्सा आता ही है -यह केवल सरदार का ही किस्सा नहीं है -पता नहीं लोगों की सेंसिबिलिटी कहाँ चली जाती है -रोमांटिक भी नहीं होने देते कमबख्त ..हा हा हा !

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  6. रोचक संस्मरण

    दम साधे पढ़ते रहा, अब तसल्ली से अगली पोस्ट पढ़ेंगे :-)

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  7. सचमुच दिलचस्प है भाई.
    =======================
    डॉ.चन्द्रकुमार जैन

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  8. दहेज़ का पलंग , पंखा और क्या क्या ..............

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  9. किस्सागोई के शिल्प मे यह किस्सा भी रोचक है। एक विचार आया कि यह पुस्तकाकार मे भी आना चाहिये ताकि एक साँस(?) में पढ़ा जा सके ।

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  10. दोस्त के सवाल का अच्छा जवाब दिया आपने :) मजेदार संस्मरण, रोचक जगह पर विराम लगा है.

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  11. :-)

    अपनी रवानी में पाठक को पूरी तरह बांधे ,
    आगे बढ़ रहा है -
    - ऐसा उम्दा आप ही लिखते हैं . दीनेश भाई जी !!
    आपको सब याद है ..
    - लावण्या

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