एक सामान्य आदरयुक्त सम्बोधन के तौर पर किसी को ‘साहब’ कहना हमारे भाषिक शिष्टाचार में शामिल है। साहब एक बड़ा महिमावान और बहुरूपिया शब्द है। इसके साब, शाब, साहेब, साहिब, साहाब, साबजी, साहबजी जैसे रूप हिन्दी की विभिन्न बोलियों में प्रचलित है। जिस तरह किसी के वजूद को आदर प्रदान करने के लिए उसके नाम के साथ हिन्दी में जी लगाने का रिवाज़ है, जैसे-रामजी, किशनजी वगैरह। इसी तरह साहब भी आदरयुक्त प्रत्यय का रूप लेकर किसी भी नाम के साथ चस्पा होकर उसे ख़ास बनाता है जैसे ‘फ़ैज़ साहब’, ‘फ़िराक़ साहब’ आदि। ‘साहब’ का स्त्रीवाची हिन्दी में ‘साहिबा’ होता है और उर्दू में ‘सहबा’। कबीर के यहाँ साहिब का खूब प्रयोग मिलता है। ना जाने तेरा साहब कैसा है/ मस्जिद भीतर मुल्ला पुकारे/ क्या साहब तेरा बहिरा है/ पंडित होय के आसन मारे, लंबी माला जपता है/ अंतर तेरे कपट कतरनी, सो भी साहब लखता है। कबीर के लिए स्वामी या प्रभु ही साहब हैं, मगर उनकी बंदगी करने वालों के लिए कबीर खुद साहब हैं क्योंकि वे पथ प्रदर्शक हैं।
मूल रूप से ‘साहब’ शब्द सेमिटिक भाषा परिवार से निकला है और इसकी धातु है स-ह-ब जिसमें साथ होना, साथ लेना, सहचर, संगी, मित्र, बंधु, सखा होने के अलावा स्वामित्व, प्रभुत्व अथवा सम्पदा का आशय है। इस धातु से अरबी में ‘साहिब’ शब्द बनता है मगर विभिन्न भाषाओं में इसके अलग अलग रूप हैं जैसे हिन्दी में ‘साहब’, अज़रबैजानी, इंडोनेशियाई में यह ‘साहिब’ है तो नाइजीरिया की हौसा ज़बान में ‘साहिबी’। मराठी. फ़ारसी में यह ‘साहेब’ है तो उर्दू में इसके ‘साहिब’ और ‘साहेब’ दोनों रूप चलते हैं। तुर्की में यह ‘साहिप’ है। गौर करें कि ‘साहब’ में मूल भाव साथ देने का है जबकि अर्थ है, जो साथ चले वह ‘साहब’ है। इसमें मित्र, सखा, संगी, सहचर, सहयोगी, दोस्त, जोड़ीदार आदि का भाव ही है मगर हिन्दी में ‘साहब’ का अर्थ श्रीमान, महोदय, महाशय, स्वामी, मालिक, प्रभु ही प्रचलित है। बात यह है कि जो साथ चलता है वही आपका पथ प्रदर्शक भी होता है। दूसरे अर्थों में स्वामी, मालिक या प्रभु को अपने भक्तों का सहचर होना पड़ता है। यह माना जाता है कि अच्छा नेता या शासक वही है जिसका साथ लोगों को हर कदम पर महसूस हो। जो हर घड़ी उनकी मदद के लिए तैयार हो, सबको अपने साथ लेकर चले। इसलिए ‘साहब’ में मालिक का भाव कम और साथी, साझीदार, जोड़ीदार का भाव ज्यादा है।
अक्सर अफ़सरों की बीवियाँ उनके मातहतों के सामने पति के लिए भी ‘साहब’ शब्द का इस्तेमाल करती हैं। इसके पीछे मित्र या जोड़ीदार का भाव न होते हुए यह रौब ग़ालब कराने का भाव ज्यादा रहता है कि वे उसके पति के मातहत हैं, अर्थात पत्नी के स्वामी चाहे न हों, पर मातहतों के स्वामी ज़रूर हैं। ध्यान दें कि उदार सोच वाली बीवियाँ ही अर्धांग और अर्धांगिनी वाले भाव के तहत ‘साहब’ में मित्र, सखा, संगी, सहचर, सहयोगी, दोस्त, जोड़ीदार का रूप देखते हुए इन अर्थों में इस्तेमाल करती होगी। पति के रूप में ‘साहब’ शब्द का प्रयोग करने के पीछे आमतौर पर इसमें निहित सर्वशक्तिमान, भरतार, पालनकर्ता, प्रभु अथवा स्वामी वाला भाव ही होता है। राजस्थानी में तो साहब का सायबा रूप बहुत लोकप्रिय है। वैसे साहब की सोहबत में रहने वाले को अरबी में मुसाहब कहते हैं। समझा जा सकता है कि अरबी में भी साहब में निहित संगी साथी का भाव ज्यादा प्रचलित न रहा और इसके भीतर की साहबीयत ज़ोर मारती रही लिहाज़ा साहब का अर्थ प्रभावशाली, शक्तिमान ही बना रहा और इसलीलिए उनके साथी, मित्र, बंधु, सखा के लिए मुसाहब शब्द प्रचलित हुआ। अब तो मुसाहब का प्रयोग अर्दली या चाकर के तौर पर भी होता है।
साहिब से जुड़े कुछ और शब्द भी हिन्दी में प्रचलित हैं जैसे साहिबा अर्थात साहब का स्त्रीवाची। गौर करें कि जिस साहब में अफ़सरी ठसका है वहीं साहिबा में महाराज की महारानी वाला ठसका होते हुए भी संगिनी वाला भाव भी मौजूद है। अरबी में साहब का बहुवचन असहम है जबकि हिन्दी में गणमान्य लोगों के लिए साहबान शब्द का प्रयोग होता है। मान्यवरों या अफ़सरों जैसे हावभाव के लिए साहबी शब्द प्रचलित है। साहबी ठाठबाट, साहबी रंगढंग जैसे मुहावरों में यह भाव नुमाँया हो रहा है। आमतौर पर साहबज़ादा या साहज़ादी शब्द सुपुत्र या सुपुत्री के लिए इस्तेमाल होते हैं। आमतौर पर साहबी रंगढंग वाले व्यक्ति को साहबबहादुर की उपमा भी दी जाती है। वैसे सचमुच अंग्रेज अफ़सरों को हिन्दुस्तनियों नें साहबबहादुर का ही रुतबा दिया था। ध्यान रहे बहादुर शब्द तुर्की का है और फ़ारसी के ज़रिये उर्दू-हिन्दी में आया है।
साहिब में निहित साथ देने या मित्रता के भाव के मद्देनज़र संस्कृत के प्रसिद्ध उपसर्ग ‘सह’ ध्यान में आता है। खासतौर पर साद-हा-बा हिज्जों से ही बने सोहबत के अर्थ पर गौर करें तो यही जान पड़ता है कि यहाँ भी सेमिटिक और भारोपीय भाषा परिवारों के अन्तर्संबन्धों का मामला हो सकता है। साहिब का मूलार्थ जिस तरह साथ देने वाला, साथी, मित्र है मगर उसका व्यावहारिक प्रयोग मालिक, स्वामी, श्रीमान, महाशय आदि अर्थों में होता है। इसी मूल से उपजे सोहबत के साथ ऐसा नहीं है। सोहबत का अर्थ सीधे सीधे संगत, साथ, हेलमल ही है। संस्कृत के सह शब्द में भी शक्तिमान, पराक्रमी, संगत, साथ का भाव है। सहित यानी जो साथ है। जो साथ दे, साथ चले, साथ साथ सहन करे वही सहितृ है। हिन्दी में साथी के लिए सोहबती, सोबती शब्द भी बनता है। सोहबत में समागम अर्थात सम्भोग का भाव भी है। वैसे सोहबत शब्द का मूल भी अरबी का सुह्ह्बा है। सोह्हबत, सुहबत भी इसके रूप है जो उर्दू-फ़ारसी में चलते हैं। मराठी में सोबत प्रचलित है। सुह्ह्बा का अर्थ मित्र या साथी भी होता है।
इस सिलसिले में साहिब में निहित ‘हिब’ की वजह से अरबी का हब्ब भी याद आता है जिसमें साहचर्य, मित्रता का भाव है। अरबी में मित्र, संगी को हबीब कहते हैं। हिन्दी में भी यह प्रचलित है। प्रेम को महब्बत कहते हैं। साथ साथ चलने से प्रेमभाव बढ़ता है। कोई अपना सा इसी मुकाम पर हबी से महबूब बन जाता है। साहिब और साहिबा कभी महबूब और महबूबा भी हो सकते हैं।
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