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Wednesday, September 30, 2009
मुआ काम नहीं करता?
Tuesday, September 29, 2009
जेके फैक्टरी में छंटनी का मामला [बकलमखुद-23]
दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम, आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने
सहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के सोलहवें पड़ाव और 107वें सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मा, लावण्या शाह, काकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोरा, हर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।
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Monday, September 28, 2009
अल्लाह की हिक्मत और हुक्मरान [हकीम-1]
... हुकूमत बना है हुक्म से अर्थात नैतिक नियम, कानून या आज्ञा सो हुकुमत में मूलतः नियमपालना कराने वाली व्यवस्था और उसके दायरे का भाव है जिसका अर्थविस्तार राज्य, शासन, सत्ता, क्षेत्र, देश, सल्तनत आदि है ...
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Sunday, September 27, 2009
टेढ़े मेढ़े रास्तों का जायज़ा
पुस्तक चर्चा में इस बार प्रख्यात लेखक भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास टेढ़े मेढ़े रास्ते पर बात। एक सामंती परिवार में 1920 के भारत के बदलते राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक माहौल का क्या प्रभाव पड़ता है इसका दिलचस्प चित्रण इस उपन्यास में हुआ है। पुस्तक राजकलम प्रकाशन ने निकाली है और मूल्य 395 है।
“सो ई तरा दुनिया मां सफल मनई वहै आय जो वीर आय। और वीरता का एक रूप आय अपराध, अपनपनि के पीछे लोकमत की उपेक्षा। सो प्रत्येक लोकमत की उपेक्षा करै वाला मनई अपराधी आय! है न!!”
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Saturday, September 26, 2009
मौसम आएंगे जाएंगे…
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Friday, September 25, 2009
नांद, गगरी और बटलोई [बरतन-4]
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Thursday, September 24, 2009
बाबू की इज्ज़त कभी कम न होगी…
यह मानना मुश्किल है कि पढ़ा-लिखा नौकरीपेशा भारतीय बैबून का मतलब भी न जानता होगा!! भारतीयों के लिए नेटिव, कुली जैसे कई अपमानजनक नामकरण प्रचलित थे मगर ऐसी कोई मिसाल नही मिलती कि इन नामों को भारतीय समाज ने अपना लिया हो। बाबू का मूल अगर एक अफ्रीकी बंदर बैबून है और इसके जरिये अंग्रेजो का उद्देश्य भारतीयों को अपमानित करना था तो यह बात निश्चित उस दौर में भी छुपी नहीं रही होगी। तब एक ऐसा सम्बोधन जिसमें खुद के लिए परिहास, घ्रणा, उपेक्षा और अपमान ध्वनित होता था, भारतीय समाज ने क्योंकर अपना लिया? अगर हमारा आत्मगौरव इतना क्षीण था तो 1857 जैसी क्रांति क्योंकर संभव हुई जिसके मूल में भी अपमान का दंश ही था?
इसका मतलब वायु भी होता है। ध्यान दें, वायु में भी दिशाबोध कराने, राह दिखाने और ले जाने का गुण होता है। देवनागरी के प वर्णक्रम का अगला व्यंजन फ और फिर ब है। एक ही वर्णक्रम के व्यंजनों की ध्वनियों में अदला-बदली सभी भाषाओं में होती रही है। हिन्दी में पितृ से बने पिता, पालक। अंग्रेजी में फादर, पादरी। स्पेनिश-पुर्तगाली का पेड्रो और फारसी का पीर ऐसे ही शब्द हैं जो एक साथ प्रमुख, मुखिया, स्वामी, नरेश, गुरू, पालक और मार्गदर्शक की अर्थवत्ता रखते हैं और सभी का संबंध भारोपीय ध्वनि प या पा से है। अंग्रेजी के पोप और पापा शब्द भी इसी श्रंखला की मिसाले हैं और संस्कृत का परम व फारसी का पीर भी।
वप् और बाप का ध्वन्यार्थ समझना आसान है। खास बात यह कि वप् दो वर्णों व+प से मिलकर बना है । प वर्ण में निहित भाव ऊपर स्पष्ट है। व वर्ण में मुख्यतः वायु, हवा का अर्थ निहित है। इसके अलावा इसमें समाधान और सम्बोधन दोनों भाव भी शामिल हैं। पालनकर्ता या मुखिया अपने आश्रितों को सम्बोधन अर्थात मार्गदर्शन भी देता है और उनके लिए समाधान भी लाता है। वाशि आपटे के संस्कृत कोश के मुताबिक इससे बने वप्रः शब्द का अर्थ है खेत और दूसरा अर्थ है पिता। हिन्दी शब्दसागर के मुताबिक इसी मूल से बने वापक का मतलब होता है बीज बोने वाला। यहां भी प ध्वनि समाहित है। वप्ता का अर्थ है जन्मदाता। भूमि में बीज बोनेवाला कृषक होता है जो खेती का मालिक भी है और फ़सल का पिता भी।
जन्मदाता के तौर पर वप्र में बीज बोने वाले पात्र की व्यंजना बहुत महत्वपूर्ण है। वप्र, वापक या वप्ता का रूपांतर बाप हुआ। विभिन्न बोलियो में इसके बप्पा, बापू जैसे रूप प्रचलित हुए। हिन्दी में बाबुल जैसा प्यार शब्द इसी मूल की देन है जिसका मतलब पिता है। पितामह के लिए समाज ने इससे ही बब्बा या बाबा जैसे शब्द बनाए। अवधी में पिता को बप्पा कहने की परम्परा है। मराठी में बप्पा महामहिम भी हैं और भगवान भी। गणपति बप्पा मौर्या से यही जाहिर हो रहा है। मेवाड़ राजघराने के संस्थापक बप्पा रावल का नाम भी यही सब कह रहा है। महात्मा गांधी के साथ बापू शब्द का अर्थ उन्हें जननायक, राष्ट्रपिता और मार्गदर्शक के तौर पर ही स्थापित कर रहा है।
यह बाबू शब्द हिन्दी में बीती कई सदियों से प्रचलित है। जो लोग इसे अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के तहत पनपे ब्रिटिश राज के नौकरीपेशा भारतीयों से जोड़ते हैं वे यह भूल जाते हैं कि ब्रिटिश काल में इंडियन सिविल सर्विस की आजमाईश 1810 के आसपास शुरू हो गई थी। 1832 के करीब इसके लिए बाकायदा ब्रिटेन में परीक्षा होने लगी थी जिसमें भारतीयों का रास्ता भी खुला मगर पहला भारतीय आईसीएस होने का गौरव मिला सत्येन्द्र नाथ टैगोर को जो 1863 में चुने गए। सवाल उठता है कि क्या अंग्रेजी राज के भारतीय नौकरीपेशा लोगों के लिए बबून से बाबू शब्द कोलकाता के उन किरानियों के लिए प्रचलित हुआ जो मूलतः कंपनी राज के दौर में ही ब्रिटिश व्यापारियों और भारतीय एजेंटों का हिसाब-किताब देखने लगे थे? जाहिर है नहीं क्योंकि ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है। उच्च पदस्थ अफ़सरों को बाबू कहने की शुरूआत तो उन्नीसवी सदी के पूर्वार्ध में ही हो गई थी मगर पहला आईसीएस उन्नीसवी सदी का अर्धशतक पूरा होने पर ही बन पाया।
जो भी हो, सचाई यह है कि बाबू का ईजाद अंग्रेजों ने नही किया था। इससे सदियों पहले संत कबीर (1440-1518) अपने काव्य में बाबू शब्द का प्रयोग कर चुके थे। दिलचस्प तथ्य यह भी है कि बबून से बाबू की व्युत्पत्ति कुछ लोगों को सुहा रही है मगर खुद अंग्रेज विद्वानों ने भाषा-संस्कृति-समाज विषयक अपने भारतीय ज्ञान-कोशों में इस व्युत्पत्ति का उल्लेख तक नहीं किया है। ब्रिटिश काल की औपनिवेशिक शब्दावली के प्रसिद्ध कोश हॉब्सन-जॉब्सन में बैबून का उल्लेख है मगर उसका हिन्दी बाबू से गठजोड़ बैठाने का कोई प्रयास नहीं हुआ है। जबकि सम्माननीय शब्द के तौर पर वहां बाबू का उल्लेख भी हुआ है और उसे संस्कृत वप्र से उपजा शब्द ही बताया गया है। साथ ही यह भी स्पष्ट उल्लेख है कि बाबू का प्रयोग अंग्रेजी जाननेवाले लिपिक के लिए भी समाज में होता था जिसके पीछे गौरांग महाप्रभुओं की भाषा जानने के पराक्रम से उपजा महानता-बोध ही था। देखे क्या लिखते हैं वे-
स्पष्ट है कि अठारहवीं सदी के अंत और उन्नीसवी संदी के प्रारम्भ में जब बंगाली भद्रलोक में विभिन्न सुधारवादी आंदोलनों का प्रभाव पड़ा और लोगों ने अंग्रेजी शिक्षा और रहन-सहन अपनाना शुरू किया तो बाबू शब्द उनके लिए भी प्रयुक्त होने लगा। ठीक वैसे ही जैसे तब भी और आज भी हम ठसक और रुआब दिखानेवाले को लाटसाब कहने लगते हैं जो अंग्रेजी के लार्ड शब्द का देशज रूप है। इक्कीसवी सदी के पहल दशक में गुजर-बसर करते हुए आज भी हम अंग्रेजीदां लोगों को अक्लमंद समझ बैठते हैं तब 180 बरस पहले जो लोग अंग्रेजी पढ़-लिख गए थे, क्या उनकी मेहनत-लगन उन्हें सचमुच बेहतर जीवन की चाह रखनेवाले उनके समाज में बाबू साहेब का रुतबा दिलाने के लिए कम थी?
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Tuesday, September 22, 2009
कोटा में मज़दूरों का वकील[बकलमखुद-106]
दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम, आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने
सहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के सोलहवें पड़ाव और 106वें सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मा, लावण्या शाह, काकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोरा, हर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।
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Monday, September 21, 2009
Sunday, September 20, 2009
मर्तबान यानी अचार और मिट्टी [बरतन-3]
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Saturday, September 19, 2009
सरदार ने पहना कालाकोट [बकलमखुद-5]
दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम, आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने
सहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के पंद्रहवें पड़ाव और 104वे सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मा, लावण्या शाह, काकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोरा, हर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।
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