ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें |
Friday, July 31, 2009
सर्वव्यापी विष्णु, विट्ठल, विठोबा
Thursday, July 30, 2009
किरमिज, कीड़ा और लाल रंग…
रंग होता है। इससे ही बना लाल रंग के लिए अंग्रेजी का क्रिमसन शब्द। लैटिन भाषा में मिनियम का मतलब होता है किसी पेंटिंग में लाल रंग भरना। अल्पतम के लिए मिनिमम और लघुचित्रों के लिए मिनिएचर शब्द इससे ही बने हैं। कृमि का ही एक अलग रूप लैटिन के वर्मिस vermis है जिसका अर्थ भी कृमि या कीड़ा होता है। किरमिज की तरह ही वर्मिस में मिनियम जुड़ने से बना वर्मिलियन vermilion जिसका मतलब भी लाल रंग ही होता है। किरमिज का लैटिन रूप हुआ कारमाईन और इसमें भी लालिमा का भाव है।
ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें
|
Wednesday, July 29, 2009
नैहर और मायके की बातें
ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें |
Monday, July 27, 2009
असरदार सरदार की समाजसेवा [बकलमखुद-94 ]
दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम, आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने सहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के सोलहवें पड़ाव और तिरानवे सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मा, लावण्या शाह, काकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोरा, हर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।
अपने बकलखुद की आखिरी कड़ी में बेजी... यह स्तंभ अपने आप में निराला है....यहाँ महान लोगों की कहानी तो नहीं ही लिखी जा रही....पर आम लोगों के जीवन, जीवनी ,संघर्ष और हर्ष के पलों को लफ्ज़ों में समेटा जा रहा है। सफर रोचक है और जारी रहना चाहिये...ना जाने कितनी पहचान -दोस्ती और स्नेह के रिश्तों में बदल जायेगी...यह वो पुल हो सकता है जिसके छोर पर मनचाहा दोस्त मिले...बेजी का बकलमखुद पढ़ने के लिए साईडबार के लिंक पर जाइये।
बाल्टी से खींच-खींच कर पानी निकालने के लिए लगाया। एक आदमी कितना पानी उस कुएँ से निकाल सकता था, जिस पर सुबह चार बजे से रात सात बजे तक पानी भरने वालों को स्थान न मिलता हो। जब कि एक साथ आठ लोगों के पानी खींचने के लिए घिरनियाँ वहाँ लगी थीं। ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें |
गवेषणा के लिए गाय ज़रूरी है….
अध्ययन, विद्वत्ता के पुश्तैनी होने की दुहाई देनेवाले अगड़ों या सवर्णों के पांडित्य प्रदर्शन से जुड़ा गवेषणा शब्द कहां से आ रहा है यह गौरतलब है। |
ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें |
Sunday, July 26, 2009
मुसलमां कैसे कैसे-हकीकत से आगे...
इस बार की पुस्तक-चर्चा कुछ खास है। प्रसिद्ध लेखक महमूद ममदानी की चर्चित कृति– Good Muslim, Bad Muslim का हिन्दी अनुवाद मुसलमां कैसे कैसे हम बीते कई महिनों से पढ़ रहे थे और अक्सर इसकी चर्चा अपने मित्र, लेखक और वरिष्ठ पत्रकार विजय मनोहर तिवारी से करते थे। नतीजा यह निकला कि इसे पूरा कर पाने से पहले ही हमें इसे उन्हें पढने को सौपना पड़ा, मगर इस शर्त के साथ कि इसकी समीक्षा उन्हें ही लिखनी है। विजय ने भी क़रीब पांच महिने इसे पढ़ने में लगाए। दो-दो चुनाव जो इस बीच निपटाए। विजय प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों और वृहत्तर भारत की साझी विरासत पर गर्व करनेवाले गंभीर विचारशील पत्रकार हैं। उनकी पुस्तक- एक साध्वी की सत्ता कथा पर इसी स्तम्भ में हम चर्चा कर चुके हैं। चर्चित पुस्तक पर उनकी समीक्षा दरअसल एक स्वतंत्र आलेख है। सामान्य ब्लाग-पोस्ट से इसका आकार कुछ बड़ा है। मगर इसे पढ़ने का मज़ा एक साथ ही है सो हमने इसे किस्तों में तोड़ना ठीक नहीं समझा। हम चाहेंगे कि प्रस्तुत आलेख पर ज़रूर चर्चा हो। पुस्तक पेंगुंइन इंडिया से प्रकाशित हुई है। पृष्ठ संख्या 300 और मूल्य 225 रु है। ...
ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें |
Saturday, July 25, 2009
नहर, नेहरू और फास्ट चैनल!!!
ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें
|
Friday, July 24, 2009
टाईमपास मूंगफली का शग़ल [खानपान-13]
ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें |
Thursday, July 23, 2009
कनस्तर और पीपे में समाती थी गृहस्थी
सभ्यता के आरम्भिक दौर में मनुष्य ने जब अपनी अनघड़ सी गृहस्थी के सरंजाम जुटाना शुरू किए तो खुद की सुरक्षा के साथ उसे अपनी सामग्रियों की फिक्र भी थी। खुद को उसने वृक्षों की कोटर, पहाड़ों की कंदराओं में छुपाया। मगर जब निजी सामग्री को सहेजने-छुपाने की बारी आई तब फिर उसे ऐसे ही खोखले, पोले साधनों की आवश्यकता हुई जिसे वह अपने साथ ले जा सके। जाहिर है, आज से हजारों वर्ष पहले जब तकनालॉजी का विकास नहीं हुआ था, उसे बांस से बेहतर और क्या नजर आ सकता था। सामान को सुरक्षित रखने के आज जितने भी उपकरण या व्यवस्थाएं हैं उनके मूल में है पोलापन, खोखला स्थान या खाली जगह जहां किसी वस्तु को रखा जा सके। प्राचीनकाल में बांस की पोल में मनुष्य ने वस्तुओं के आश्रय की व्यवस्था खोजी, वह आज तक चली आ रही है।
हिन्दी क्षेत्रों मे कनस्तर बहुत आम शब्द रहा है और ज्यादातर लोग इसे हिन्दी भाषा का ही मानते हैं। कनस्तर भारत में अंग्रेजी भाषा से आया जहां इसका रूप है कैनिस्टर (canister). कनस्तर शब्द मूल रूप से ग्रीक भाषा के कैनेस्ट्रॉन kanystron से बना है जिसका मतलब होता है बांस से बनाई गई टोकरी। ग्रीक कैनिस्ट्रॉन का लैटिन रूप हुआ कैनिस्ट्रम canistrum जिसमें सींखों या टहनियों से बनी छोटी डलिया का भाव था। अंग्रेजी का कैनिस्टर इसी का बदला हुआ रूप है। यूरोपीय औद्योगिक क्रांति के बाद कैनिस्टर के कई रूप सामने आए। मुख्यतः तरल पदार्थों के घरेलु भंडारण के लिए सुरक्षित पात्र के तौर इस शब्द का इस्तेमाल शुरू हुआ। पेट्रोल, तेल इसमें प्रमुख थे। ये विभिन्न आकारों में नज़र आने लगे। बेलनाकार से लेकर चौकोर डब्बेनुमा कनस्तर बनने लगे जिनका निर्माण बांस, लकड़ी से लेकर धातु तक से होने लगा। बाद के दौर में प्लास्टिक व अन्य सिंथेटिक पदार्थों से इनका निर्माण शुरु हुआ।
ग्रीक शब्द कैनेस्ट्रॉन के मूल में दरअसल केन शब्द है जिसका मतलब होता है बांस या सरकंडेनुमा पोले तने वाली एक वनस्पति। गौरतलब है कि अंग्रेजी का केन भी मूलतः ग्रीक शब्द कैन्ना kannah का परिवर्तित रूप है जो लैटिन में भी कैन्ना canna ही रहा। मूलतः यह शब्द असीरियन धातु गनु qanu से ग्रीक में दाखिल हुआ। सेमिटिक भाषा के ग ज ध्वनियों का रुपांतर यूरोपीय भाषाओ में क में होता रहा है। प्राचीन हिब्रू में एक शब्द है क़ैना(ह) यानी qaneh जिसका मतलब है लंबा-सीधा पोले तने वाला वृक्ष। सरकंड़ा या बांस का इस अर्थ में नाम लिया जा सकता है। यही शब्द ग्रीक ज़बान में कैना(ह) kannah के रूप में मौजूद है। अर्थ स्पष्ट है कि प्राचीनकाल में चौड़े और पोले तने वाले बांस की खोखल का प्रयोग लोगों ने वस्तुओं को सुरक्षित रखने में किया। पेयजल का भंडारण बांस के पोले तने में किया जाता था। पूर्वी देशों में जहां के सामाजिक जीवन में बांस का महत्व है, बांस की इसी पोल में आज भी खाद्य सामग्री रखी जाती है। वस्तु संग्रहण के लिए जब बड़े आकार की ज़रूरत हुई तब इसी कैन्ना यानी बांस की खपच्चियों से डलिया आदि बनाए जाने लगे जिसे ही ग्रीक में कैन्ना कहा गया। तरल पदार्थों के भंडारण के लिए आज भी केन शब्द खूब प्रचलित है। सुराही या मटकानुमा व्यवस्था को यूरोपीय संस्कृति में केन ही कहा जाता है। आधुनिक यूज एंड थ्रों की संस्कृति में केन गिलासनुमा एक ऐसे पात्र के तौर पर सामने आया है जिसमें शराब, बियर से लेकर अन्य शीतपेय तक पैकबंद मिलते हैं। यह केन उसी प्राचीन बांस आधारित तरल पदार्थों के भंडारण की व्यवस्था से जुड़ रहा है। केन से बना यही कैनिस्टर लम्बे समय तक मध्यवित्त परिवारो की गृहस्थी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। गौरतलब है कि इसी केन से हिन्दी, अंग्रेजी, अरबी में और भी महत्वपूर्ण शब्दों का निर्माण हुआ है मसलन केन यानी छड़ी, कानून यानी नियम, शुगर केन और गन्ना आदि।
वस्तुओं के भंडारण की व्यवस्था से जुड़ा एक दूसरा शब्द है पीपा जिसका प्रयोग भी अब भी होता है। भारत में पीपा शब्द पुर्तगालियों की देन माना जाता है। पुर्तगाली जब भारतीय तटों पर उतरे तब ड्रम या कनस्तर जैसी वस्तु के लिए वे पीपा शब्द का प्रयोग करते थे। मूलतः यह पांच गैलन का एक कनस्तर होता था जिसमें आमतौर पर शराब या अन्य तरल पदार्थ होता था। पीपा बना है लैटिन के पाइपेयर pipare शब्द से जिसका अर्थ होता है खोखला तना या नाली। लैटिन पाइपेयर से ही बना है अंग्रेजी का पाईप pipe शब्द जिसका मतलब होता है खोखला बांस, नाली, नल आदि। अंग्रेजी में पाईप का मतलब एक वाद्ययंत्र भी होता है जिसे फूंक से बजाया जाता है। पाईप की तर्ज पर ही गत्ते या पत्तों से बनाई जाने वाली बेलनाकार फूंकनी को हिन्दी में भी पींपीं या पींपनी कहते हैं। बांस के पोलेपन का वाद्य तकनीक में भारत में भी उपयोग हुआ और बांस से बन गईं बांसुरी। गौरतलब है कि बांस के लिए संस्कृत में वंश शब्द है और इससे ही वंशी भी बना। पुर्तगालियों द्वारा लाए गए पीपे का स्त्रीवाची शब्द भारतीयों ने खुद पीपी के रूप में ढूंढ निकाला जिसका अर्थ छोटे आकार का पीपा होता है।
ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें |
Tuesday, July 21, 2009
काश, लीलावती पहले मिल जाती...[बकलमखुद-93]
दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम, आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने सहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के सोलहवें पड़ाव और बानवे सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मा, लावण्या शाह, काकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोरा, हर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।
आठवीं कक्षा मोड़क स्टेशन के स्कूल से जिस में पिताजी हेड मास्टर थे, उत्तीर्ण यहाँ तक सरदार ने प्रथम श्रेणी कभी देखी नहीं थी, बावजूद इस के कि वह कक्षा में हमेशा अव्वल रहता। नवीं में भरती होने पर समस्या हो गई कि विषय चुनने हैं। विज्ञान तो पहले से ही तय था। गणित में रुचि थी, सरदार वही पढ़ना भी चाहता था। लेकिन इंजिनियरों के बेकार बैठे रहने के किस्से उन दिनों मशहूर थे, डाक्टरों की चांदी थी। इसलिए परिवार में पंचायती फैसला हुआ और सरदार जीव-विज्ञान का विद्यार्थी हो गया। दसवीं कक्षा तक गणित पढ़नी पड़ी थी, जब भी उस के सवाल करता तो दाज्जी कापी देखते और कहते -तुम मुझ से “लीलावती” सीख लो, गणित में कभी मात न खाओगे। लेकिन इसे दाज्जी से नहीं पढ़ सका। सरदार को तो यह भी नहीं पता था कि यह “लीलावती” क्या है? जरूर कोई गणितीय विद्या रही होगी। फिर पता लगा कि वह भास्कराचार्य की किताब है, जिसे भारत के गणित के विद्यार्थी करीब आठ शताब्दियों तक एक टेक्स्ट-बुक के रूप में पढ़ते रहे। वकालत आरंभ होने के भी पन्द्रह बरस बाद एक किताबों की दुकान पर “लीलावती” मिंली। खरीद कर घर लाया और उस के सारे सवाल हल किए। तब सरदार को महसूस हुआ कि वास्तव में दाज्जी से पढ़ लेता तो गणित बहुत आसान हो जाती।
दसवीं की परीक्षा जिस दिन समाप्त हुई, उसी शाम दाज्जी ने सरदार से उन की अलमारी में रखे पीपे के बक्से (तेल के पन्द्रह किलो के टिन को आड़ा काट कर ढक्कन लगा कर बनाया गया बक्सा) में अखबार का कवर लगी एक कॉपी निकलवाई और कहा –इस में तुम्हारे पिताजी ने जन्मपत्री बनाने की विधि हिन्दी में लिखी है। पंचांग लो और अपनी जन्मपत्री की गणित करो। यह रोचक लेकिन थकाने वाला काम निकला। सरदार गणित करता, दाज्जी से जँचवाता, आखिर एक सप्ताह में गणित सीख ली गई। अब दाज्जी उन के पास कोई जन्म पत्री बनने आती तो सारी गणित सरदार से कराने लगे। जब गणित हो जाती तो दाज्जी खुद अपने हाथ से खुद की बनाई गई चमकदार काली और लाल स्याही से सुंदर हस्तलिपि में पत्रिका लिखते। फलित सिखाने के लिए दाज्जी ने हिन्दी में लिखी या हिन्दी टीका वाली बहुत पुस्तकें मंगा कर सरदार को दीं। उस ने पढ़ी भी, पर फलित का टोटका आज तक भी समझ में नहीं आया। उन्ही दिनों मोहन चाचा जी की जन्मपत्री बनाने को सरदार को दी गई। किताबों में कुछ सूत्र जातक की आयु निकालने के भी थे। सरदार ने उत्साह में चाचा जी की आयु और उस के हिसाब से मृत्यु की तारीख भी लिख दी। दाज्जी ने देखा तो बहुत नाराज हुए। कहने लगे यह जन्मपत्री में यह नहीं लिखा जाता। बरसों बाद दिल के मरीज हो जाने के पर चाचा जी एक दिन सरदार से बोले -तुमने मरने की जो तारीख मेरी जन्मपत्री में लिखी है। उस ने हमेशा मुझे यह विश्वास दिलाया कि उस से पहले तो मैं मर ही नहीं सकता। सरदार उस तारीख को भूल चुका था, वह मन ही मन आशंकित हो गया कि जब वह तारीख नजदीक आएगी तो चाचा जी पर पता नहीं क्या असर छोड़ेगी?
जन्मपत्री सीखने के कुछ दिन बाद ही सरदार को माउंट आबू में राष्ट्रपति स्काउट के लिए ट्रेनिंग केम्प में जाना पड़ा। पहली बार गर्मी के मौसम में पहाड़ की ठंडक और जमीन पर सरकते बादल देखे, उन में हो कर गुजरना उस समय एक स्वर्गिक अनुभव था। केम्प में बांस और रस्सी से अनेक गैजेट्स बनाए। खास तौर पर एक रस्सी का पुल, जिस पर आखिरी दिन उस वक्त के राजस्थान के राज्यपाल सरदार हुकुमसिंह चल कर निकले। माउंट आबू के सभी दर्शनीय स्थल पगडंडियों के रास्ते पहाड़ियों को पार कर पैदल घूम कर देखे, जिस ने पर्वतारोहण जैसा आनंद प्रदान किया और जीवन के लिए नया साहस भी। केंप में रहते हुए ही दसवीं कक्षा का परीक्षा परिणाम आ गया। सरदार ने बहुत मिन्नतें की लेकिन इस भय से अखबार भी केम्प में न आने दिया गया कि परीक्षा में असफल होने पर कोई पहाड़ पर कुछ न कर बैठे। लेकिन। वापसी पर अजमेर में परिणाम का अखबार तलाशने का यत्न भी किया लेकिन असफलता हाथ लगी। सरदार ने तय कर लिया कि वह अपना परीक्षा परिणाम बाराँ घर पर लौट कर ही देखेगा। [बाकी अगले मंगलवार ]
ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें |
Monday, July 20, 2009
चसका चूसने और चखने का...
चष् सके कई रूप हिन्दी में प्रचलित हैं मसलन चस्का या चसका। गौरतलब है कि किसी चीज का मजा लेने , उसे बार-बार करने की तीव्र इच्छा अथवा लत को भी चस्का ही कहते हैं और यह बना है चूसने अथवा स्वाद लेने की क्रिया से। बर्फ के गोले और चूसने वाली गोली के लिए आमतौर पर चुस्की शब्द प्रचलित है। बच्चों के मुंह में डाली जाने वाली शहद से भरी रबर की पोटली भी चुसनी कहलाती है। इसके अलावा चुसवाना, चुसाई, चुसाना जैसे शब्द रूप भी इससे बने हैं। इससे ही बना है चषक शब्द जिसका मतलब होता है प्याला, कप, मदिरा-पात्र, सुरा-पात्र अथवा गिलास। एक खास किस्म की शराब के तौर पर भी चषक का उल्लेख मिलता है। इसके अलावा मधु अथवा शहद के लिए भी चषक शब्द है। इसी शब्द समूह का हिस्सा है चष् जिसका मतलब होता है खाना। हिन्दी में प्रचलित चखना इससे ही बना है जिसका अभिप्राय है स्वाद लेना। इसके अन्य अर्थों में है चोट पहुंचाना, क्षति पहुंचाना अथवा मार डालना। अब इस अर्थ और क्रिया पर गौर करें तो इस लफ्ज के कुछ अन्य मायने भी साफ होते हैं और कुछ मुहावरे नजर आने लगते हैं जैसे कंजूस मक्खीचूस अथवा खून चूसना वगैरह। किसी का शोषण करना, उसे खोखला कर देना, जमा-पूंजी निचोड़ लेना जैसी बातें भी चूसने के अर्थ में आ जाती हैं। यही चुष् फारसी में भी अलग अलग रूपों में मौजूद है मसलन चोशीद: या चोशीदा अर्थात चूसा हुआ। इससे ही बना है चोशीदगी यानी चूसने का भाव और चोशीदनी यानी चूसने के योग्य। अगर चूसने पर आ जाएं तो सारे ही आम चूसे जा सकते हैं मगर आम की एक खास किस्म के चौसा नामकरण के पीछे क्या इसी शब्द की रिश्तेदारी है?
चषक की बात चली है तो कप का जिक्र आना स्वाभाविक है। हिन्दी में चषक शब्द तो अब प्रयोग नहीं होता, इसकी जगह प्याला या कप शब्द ही सबसे ज्यादा प्रचलित हैं जो दोनों ही विदेशी भाषाओं से हिन्दी में दाखिल हुए हैं। कप अंग्रेजी से और प्याला फारसी से। ये अलग बात है कि दोनों ही शब्दों की रिश्तेदारी हिन्दी से है। कप जहां प्रोटो इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार का शब्द है वहीं प्याला इंडो-ईरानी परिवार का है। प्राचीन भारतीय-यूरोपीय भाषा परिवार में एक धातु खोजी गई है क्यूप keup जिसमें खोखल, गहरा, पोला, छिद्र जैसे भाव हैं। इससे लैटिन में कपे cupa बना जिसका मतलब था चौड़े पेंदे वाला पात्र जैसे टब। इसका ही रूप बना cuppe जिसने बाद में अंग्रेजी में कप cup का रूप लिया जिसका मतलब होता है प्याला, चषक या छोटा पात्र। गौरतलब है कि इसी धातु का संबंध संस्कृत के कूपः से है। हिन्दी में कूप का मतलब होता है कूआँ, गहरा खड्डा, छिद्र, गर्त आदि। एक पात्र से किसी छोटे पात्र में तरल पदार्थ भरने के लिए आमतौर पर शंकु के आकार का एक उपकरण काम में लिया जाता है जिसका ऊपरी हिस्सा चौड़ा होता है और निचला हिस्सा संकरा। इसे कुप्पी कहते हैं। यह इसी कूप से बनी हैं। एक मुहावरा है फूल कर कुप्पा होना जिसका मतलब होता है सूजन आना, खुश होना या रुष्ट होना क्योंकि दोनों ही अवस्थाओं में मुँह फूल जाता है। पुराने ज़माने में कुप्पी या कुप्पा धातु से न बनकर चमड़े से बनाए जाते थे। ठीक उसी तरह जैसे पानी भरने की मशक बनती थी। कुप्पे में तरल भरते ही उसका फूलना नज़र आता था जबकि धातु की कुप्पी तो पहले से ही चौड़े पेट की होती है।
ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें |