Sunday, August 31, 2008

अरे यार क्या मस्त टांगें हैं ![बकलमखुद-67]

ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने  गौर किया है।Copy of PICT4451 ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल  पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी, अरुण अरोरा , हर्षवर्धन त्रिपाठी और प्रभाकर पाण्डेय को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के बारहवें पड़ाव और चौसठवें सोपान पर मिलते हैं अभिषेक ओझा से । पुणे में रह रहे अभिषेक प्रौद्योगिकी में उच्च स्नातक हैं और निवेश बैंकिंग से जुड़े हैं। इस नौजवान-संवेदनशील ब्लागर की मौजूदगी प्रायः सभी गंभीर चिट्ठों पर देखी जा सकती है। खुद भी अपने दो ब्लाग चलाते हैं ओझा उवाच और कुछ लोग,कुछ बातें। तो जानते हैं ओझाजी की अब तक अनकही।
वो एक दिन का रोना:
यूँ तो रोने में माहिर था पर उस दिन का रोना अब भी याद है, उस दिन कोई कला नहीं सच में रोया था. सातवी या आठवीं में पढता था और छुट्टियों में घर गया था. किसी बात पर माँ ने मार दिया, कुछ छोटी सी बात पर मुझे इस बात का बहुत दुःख हुआ कि क्यों दुःख पहुचाया. ये सोच कर रोता रहा बीच में माँ ने कह दिया की क्या इतना बड़ा हो गया की मैं मार भी नहीं सकती चुप क्यों नहीं हो रहा. इस बात पर और बुरा लगा... अपने आप को बुरा समझ के खूब रोया... किसी को नहीं बताया क्यों रोया, रोने में तो वैसे ही माहिर था तो शायद किसी को ध्यान भी नहीं. पर मैं वो दिन कभी नहीं भूलता. और शायद उस दिन के बाद मार भी नहीं खाया.
पढ़ लिख लिया होता तो आज ये हाल ना होता:
हम दो दोस्त ट्रेन में साथ-साथ जा रहे थे एक अंकल ने पूछा की बेटा क्या करते हो? और हम हमेशा की तरह खुशी-खुशी बता दिए कि आईआईटी में पढ़ते हैं. पर अंकलजी ठहरे अनुभवी आदमी और मेरा दोस्त ये बात ताड़ गया उसने कहा 'जी मैं तो हच के कस्टमर सर्विस में काम करता हूँ' अंकलजी मेरी तरफ़ देखते हुए बोले कुछ सीखो इससे... मन लगा के पढा होता तो ये हाल न होता. अब पढ़ते रहो अनाप-सनाप. मन से पढ़ा होता तो कहीं इंजीनियरिंग डाक्टरी पढ़ रहे होते नहीं तो इसकी तरह नौकरी कर रहे होते. हमने अंकलजी की बात गाँठ बाँध ली और तब से हम भी ट्रेन में यही कहते की हम हच के कस्टमर केयर में काम करते हैं.
कैसे-कैसे दोस्त हैं तुम्हारे:
रूम पार्टनर कि चर्चा तो हो ही चुकी है और अब तक आप ये भी जान चुके हैं कि प्रोफेसरों से भी दोस्ती है और उम्र में बड़े लोगों से भी खूब. फ़ोन पर बात होती है तो मोह-माया की चर्चा से चालु होकर समाज सेवा से होती हुई... विश्व राजनीतितक चली जाती है. इस बीच किसी ने कुछ बात सुन ली तो वो अक्सर कहता है 'कैसे-कैसे दोस्त हैं तुम्हारे ! इस उमर में यही सब बात करते हैं?' और बस सैंडल खाते-खाते बचा: जब इन्टर्न कर रहा था तो खूब मस्ती करते... ख़ास कर ट्रेन में

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सिक्किम की शांति कुछ यूं भाई की लामा बनने की कोशिश कर डाली

अगर कोई अच्छी लड़की आ गई तो हमारी हिन्दी का इस्तेमाल बढ़ जाता. कुछ भी बोलो. एक रात ज्यूरिक से वापस जाते समय ट्रेन में सामने की सीट पर एक लड़की आकर बैठी तो मैंने कह दिया 'अरे यार क्या मस्त टांगें हैं !' और भी बहुत कुछ कहा... और इस बीच मैं जो भी कहता वो हंसती. मेरे दोस्तों ने कहा 'अबे चुप कर लगता है इसे हिन्दी आती है', मैंने और कह दिया 'ऐसा कुछ नहीं है पी के आ रही है किसी पार्टी से और कुछ नहीं है' थोडी देर में पिछली सीट पर अंग्रेजी में एक अखबार मिल गया, उसमें भारत की स्टोरी छपी थी और मैं उसे पढने में लग गया. अचानक से उसने पूछा 'आर यू गायस फ्रॉम इंडिया? ' मेरे मित्र ने कहा 'यस'. 'एक्चुअली आई लिव्ड इन डेल्ही फॉर सिक्स यीअर्स.' अब मेरी हिम्मत ही नही हो रही थी की उधर आऊं. सब गंभीर हो गए थे... उस लड़की के पिताजी दिल्ली दूतावास में थे और वो दिल्ली में रह चुकी थी, हिन्दी समझ लेना स्वाभाविक ही था. भला हो उसका की उसने हिंदुत्व की बात छेड़ दी. और मैं भी आ गया चर्चा में... टांगों की बात वहीँ रुक गई पर हाँ जाते-जाते बोल गई 'थैंक्स फॉर व्हाट यू सेड अबाउट माय लेग्स' :-)
बच्चो के साथ:
बच्चो के साथ रहना और कहानी सुनाना बहुत पसंद है. बच्चे कितना पसंद करते हैं ये तो वही बता सकते हैं क्योंकि इन सब के साथ पढाना भी बहुत पसंद है. कभी-कभी पढाते समय गुस्सा भी आ जाता है, पर ना मारने की कोशिश पूरी रहती है और इस कोशिश को सफल बनाने का कार्य जारी है... किसी को भी पढाने का शौक तो बहुत है !  जारी

Saturday, August 30, 2008

सिक्काः कहीं ढला , कहीं चला [सिक्का-1]

splash_commem_coin_stack अरबी के इस छापे की छाप इतनी गहरी रही कि स्पेनी, अंग्रेजी सहित आधा दर्जन यूरोपीय भाषाओं के अलावा हिन्दी उर्दू में भी इसका सिक्का चल रहा है।
फुटकर मुद्रा या छुट्टे पैसों के लिए सिक्के से बेहतर हिन्दी उर्दू में कोई शब्द नहीं है। दोनों ही भाषाओं में मुहावरे के तौर पर भी इसका प्रयोग होता है जिसका अर्थ हुआ धाक या प्रभाव पड़ना। मूल रूप से ये लफ्ज अरबी का है मगर हिन्दी में सिक्के के अर्थ में अग्रेजी से आया। हिन्दी में फकत ढाई अक्षर के इस शब्द के आगे पीछे कभी कई सारे अक्षर भी रहे हैं।
अरबी मे मुद्रा की ढलाई के लिए इस्तेमाल होने वाले धातु के छापे या डाई को सिक्कः (सिक्काह) कहा जाता है जिसका मतलब होता है रूपया-पैसा, मुद्रा,मुहर आदि । इसके दीगर मायनों में छाप , रोब, तरीका-तर्ज़ आदि भाव भी शामिल हैं। पुराने ज़माने में भी असली और नकली मुद्रा का चलन था। मुग़लकाल में सिक्कए कासिद यानी खोटा सिक्का और सिक्कए राइज़ यानी असली सिक्का जैसे शब्द चलन में थे। अरबों ने जब भूमध्य सागरीय इलाके में अपना रौब जमाया और स्पेन को जीत लिया तो यह शब्द स्पेनिश भाषा में भी जेक्का के रूप में चला आया। मगर वहां इसका अर्थ हो गया टकसाल , जहां मुद्रा की ढलाई होती है। अब इस जेक्का यानी टकसाल में जब मुद्रा की ढलाई हुई तो उसे बजाय कोई और नाम मिलने के शोहरत मिली जेचिनो के नाम से ।
जेचिनो तेरहवीं सदी के आसपास चेक्वेन शब्द के रूप में ब्रिटेन में स्वर्ण मुद्रा बनकर प्रकट हुआ। पंद्रहवीं सदी के आसपास अंग्रेजों के ही साथ ये चिकिन या चिक बनकर एक और नए रूप में हिन्दुस्तान आ गया जिसकी हैसियत तब चार रूपए के बराबर थी। यही चिक तब सिक्का कहलाया जब इसे मुगलों ने चांदी में ढालना शुरू किया। देखा जाए तो अरबी के इस छापे की छाप इतनी गहरी रही कि स्पेनी, अंग्रेजी सहित आधा दर्जन यूरोपीय भाषाओं के अलावा हिन्दी उर्दू में भी इसका सिक्का चल रहा है।   संशोधित पुनर्प्रस्तुति

Friday, August 29, 2008

बंद कमरे में कैमरे की कारगुज़ारियां

telepococomp स्टिंग ऑपरेशन के इस दौर में आजकल बंद कमरों पर कैमरे की आंख लगी रहती है। पता नहीं कब कौन सी ख़बर नज़ारे की शक्ल में नुमांया हो जाए !कैमरे और कमरे का यह हेल-मेल यूं ही नहीं है। हिन्दी में सर्वाधिक प्रयोग होने वाले शब्दों में कमरा शब्द भी है। सुबह सो कर उठने से लेकर रात को सोने तक यह शब्द न जाने कितनी बार विभिन्न संदर्भों में हम इस्तेमाल करते होंगे। इसी तरह अंग्रेजी भाषा का कैमरा शब्द भी हिन्दी में शामिल हो चुका है। बल्कि शायद ही कोई जानना चाहता है कि तस्वीर खींचने वाले इस उपकरण के लिए कोई हिन्दी नाम है भी या नहीं। कैमरा तो खैर अंग्रेजी भाषा का शब्द है मगर हिन्दी में कमरा कहां से आया।
हिन्दी में रचा – बसा कमरा दरअसल हिन्दी का नहीं है। भाषाविज्ञानी इसकी आमद पुर्तगाली से मानते है मगर आधुनिक पोर्चगीज़ में कमरा शब्द का उल्लेख स्पष्ट रूप से नहीं मिलता। हो सकता है पांच सदी पहले जब पुर्तगालियों की इस सरज़मीं पर आमद हुई हो तब देशज रूप में कक्ष या कोठरी के लिए इसका इस्तेमाल होता रहा हो। कमरा शब्द चाहे यूरोपीयों की देन हो मगर यह है इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार का शब्द और इससे मिलते-जुलते शब्द हिन्दी और उसकी पड़ौसी ईरानी शाखा में साफ़ दिखते हैं।
ग्रीक भाषा का एक शब्द है kamara यानी कमरा जिसका मतलब था छोटा , बंद कक्ष। लैटिन में इसका रूप हुआ camera यानी कैमरा मतलब तब भी वही रहा। ग्रीक और लैटिन से होते हुए पुर्तगाली में इस शब्द ने फिर kamara का देशज रूप लिया होगा। बहरहाल, छवियां लेने वाले उपकरण के तौर पर कैमरा शब्द लैटिन भाषा के कैमरा ऑब्स्क्योरा जिसका मतलब होता है अंधेरा कक्ष, के संक्षिप्त रूप में सामने आया। प्राचीन काल का यह वैज्ञानिक उपकरण कैमरे जैसा ही था जिसमें एक अंधेरा कक्ष होता था और एक लैंस से गुज़रती प्रकाश किरणे दीवार पर चित्र बनाती थीं। कम ही लोग जानते हैं कि ईराकी वैज्ञानिक इब्न अल हैथम [ 965ई -1049ई ] नें कैमरा ऑब्स्यक्योरा का आविष्कार किया था जो आधुनिक कैमरे का पूर्वज था और इसने ही फोटोग्राफी की दुनिया में वह उजाला फैलाया कि आज वैश्विक संदर्भ चाहे बाजारवाद हो या धर्म का, कला-सृजन हो या सुरक्षा का , संचार हो या स्वास्थ्य का , ज्ञान का हर ज्ञेत्र  इसके चमत्कारों से जगमग कर रहा है। इसके बिना नई दुनिया की कल्पना नहीं की जा सकती, नई दुनिया खोजी भी नहीं जा सकती।
Ibn_Al_Haitham_Cover_Image ईराकी वैज्ञानिक इब्न अल हैथम [965ई -1049ई] नें कैमरा ऑब्स्यक्योरा का आविष्कार किया था जो आधुनिक कैमरे का पूर्वज था
हरहाल कैमरे का जन्म कमरे से हुआ। पुराने ज़माने के कैमरे किसी कोठरी से कम नहीं होते थे और उनके नामकरण के पीछे यही वजह थी। मूलतः ग्रीक शब्द kamara बना है इंडो-यूरोपीय धातु kam से जिसका मतलब होता है महराब, वक्र , कोना, झुका हुआ वगैरह। गौर करें कि महराब अर्धगोलाकार उस रचना को कहते हैं जिस पर छत टिकी होती है। साफ है कि कोई घिरा हुआ स्थान कक्ष या कमरा तब तक नहीं कहला सकता जब तक उस पर छप्पर न पड़ा हो। महराब की आकृति की एक अन्य रचना को कहते है कमान यह भी फारसी का शब्द है। तीर-कमान में इसका सर्वाधिक प्रयोग होता है। कमानी भी इससे ही बना है और इसकी आकृति वक्र ही होती है। मेहराब दरअसल कमान ही है जिस पर छत डाली जाती है।
र्दू फारसी का एक शब्द है ख़म जो इसी श्रंखला से जुड़ा है, जिसका मतलब भी वक्रता , टेढ़ापन , झुकाव ही होता है। पुराने ज़माने के मकानों में छत दोनो तरफ से ढलुआं होती थी क्योंकि बीच में खम देना ज़रूरी होता था। पेचोख़म शब्द भी हिन्दी में खूब इस्तेमाल होता है। गौर करें संस्कृत की कुट् धातु पर । kam से ध्वनिसाम्य वाली इस धातु में भी वक्रता , झुकाव का भाव है जो छप्पर डालने पर आता है। जाहिर है कुटि, कुटीर या कुटिया जैसे शब्द इससे बन गए जो कक्ष, कमरा या कोठी के पर्याय है। इन शब्दों का अंतर्संबंध यहां स्पष्ट हो रहा है और विकासक्रम के साथ इनकी रचना प्रक्रिया भी उजागर हो रही है। लैटिन camera का फ्रैंच रूप हुआ chamber यानी चैम्बर जिसका मतलब भी छोटा कमरा या न्यायाधीश का कक्ष था। अब तो चैम्बर के कई तरह से प्रयोग होने लगे हैं।
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Thursday, August 28, 2008

कानून का डंडा या डंडे का कानून

BooksandGavelA कानून लफ्ज की शख्सियत में जबर्दस्त सैलानीपन है। मज़े की बात ये कि कानून सबको कड़वा और कड़क लगता है मगर इसमें मिठास भी छुपी है। कानून एक ऐसा शब्द है जो रोजमर्रा की हिन्दी में इस्तेमाल होता है। प्रायः हर रोज़ हम इसे बोलते, लिखते, पढ़ते या सुनते हैं। अतिशयोक्ति लगे तो सचाई खुद परख लीजिए। इस लफ्ज के हिन्दी में दाखिल होने की दास्तान भी दिलचस्प है। ज़रा देखते हैं कानून के इस रमते जोगी का सफरनामा। [यहां भी ज़रूर जाएं]
हिन्दी के अपने से लगने वाले कानून लफ्ज़ की हिन्दुस्तान में जब आमद हुई उससे पहले ये आधी दुनिया और दर्जनों मुल्कों का सफर कर चुका था। यह अरबी ज़बान का है और भारत में इस्लामी दौर की शुरूआत में ही आ चुका था। अब ये अलग बात है कि ईश्वर की राह का संदेश देने वाले सूफी फ़कीर इस क़ानून को अपने ब्रह्मज्ञान की पोटली में बांधकर लाए या खुदाई क़ानून की धज्जियां उड़ानेवाले बर्बर हमलावर।
गौर करें कानून शब्द के चरित्र पर । इसका अर्थ बतलाने वाले जितने भी शब्द हैं मसलन- नियम , रीति, क़ायदा, ये सभी एक ही भाव लिए हुए हैं – सीधेपन का। यानी जो कुछ भी किया जाए सीधा हो, टेढ़ा न हो। समाजशास्त्रीय ढ़ंग से देखें तो भी सीधे काम स्वीकार्य होते हैं, टेढे या ग़लत नहीं। सीधा यानी सही, टेढ़ा यानी ग़लत। अब ज़रा सीधे–टेढ़े की पहेली भी सुलझा ली जाए। भाषाविज्ञानियों के मुताबिक दरअसल कानून मूलतः अरबी ज़बान का भी नहीं है अलबत्ता है यह सेमेटिक भाषा परिवार का ही। प्राचीन हिब्रू में एक शब्द है क़ैना(ह) यानी qaneh जिसका मतलब है लंबा-सीधा पोले तने वाला वृक्ष। सरकंड़ा या बांस का इस अर्थ में नाम लिया जा सकता है। यही शब्द ग्रीक ज़बान में कैना(ह) kannah के रूप में मौजूद है। अर्थ वही है लंबा, सीधा , पोला वृक्ष। एक और अर्थ है छोटी छड़ जिससे पैमाइश की जा सके। अर्थात किसी चीज़ का जो मानक तय किया जा चुका है उसका आकलन इस छड़ से होता था।
कानून का पालन न करने वालों पर भी केन यानी डंडे ही बरसते हैं। गौर करें कि अंग्रेजी में केन का मतलब छड़ भी होता है। वाकिंग स्टिक भी केन ही कहलाती हैं और अपनी लंबाई और मिठास के चलते गन्ने को भी शुगरकेन नाम इसी वजह से मिल गया।यहां चाहें तो हिन्दी के गन्ने की तुलना भी मुखसुख के लिए इस केन से कर सकते हैं । दोनों में रिश्तेदारी जो ठहरी। इन शब्दों के अन्य यूरोपीय भाषाई रूप हुए अंग्रेजी में  केन (cane) फ्रेंच में केने (canne) लैटिन में केना अर्थात बांस वगैरह। इसी से बना है ग्रीक भाषा का kanwn जिसका मतलब हुआ नियम कायदा। अंग्रेजी में इसका रूप हुआ Canon और मतलब वही रहा।
गौर करें नियम कायदे के संदर्भ में सीधे-टेढ़े की पहेली यहां सुलझ रही है। वृक्ष के सीधे तने को प्रतीक स्वरूप सीधी राह, रीति या जीवन पद्धति से जोड़कर देखें तो नियम, कायदा अपने आप साफ हो जाता है। थोड़ा और आगे की बात करें तो सीधी-सरल सी लगने वाली यह छड़ सही राह दिखाने के प्रतीक स्वरूप ही नियमों का पालन कराने वालों के हाथों में भी पहुंच गई। गौर करें हर राज्य का ध्वज एक दंड पर टिका रहता है। भारत में भी केन या बेंत को दंड या डंडा कहते है। अब सज़ा के लिए दंड शब्द यूं ही तो नहीं बन गया होगा ! दंड यानी डंडे से ही सज़ा तय होती थी सो दंड देने वाला दंडाधिकारी [मजिस्ट्रेट] बना। प्राचीन उल्लेखों, चित्रों व अन्य साक्ष्यों में हर शासक के हाथ में दंड भी उसकी सत्ता और दंडाधिकारी होने का प्रतीक था। मजिस्ट्रेट की टेबल पर रखा हथोड़ा इसी दंड का प्रतीक था, वर्ना लोगों को शांत कराने वाले उपकरण के तौर पर तो यह सबको नज़र आता ही है। दंड में निहित शक्ति ही अंग्रेजी के केन और कानून में भी झलक रही है।
रबों के स्पेन मे लगातार हमलों ने इस शब्द के अन्य रूपों को भी यूरोप में प्रसारित किया। हिब्रू के इस लफ्ज का सफर जहां बरास्ता अरबी यूरोप में हुआ वहीं तुर्की, फारसी होते हुए लगभग सभी भारतीय ज़बानों में ये कानून के रूप में मशहूर हो गया। हमारे यहां इसका मतलब हुआ शासकीय नियम, विधि आदि। अंग्रेजी राज के दौरान एक सरकारी पद भी सामने आया कानूनगो। आज भारत में ब्राह्मणों और कायस्थों में यह सरनेम के रूप में भी नज़र आता है। कानूनगो मालगुज़ारी महकमें का वह सरकारी सेवक होता था जिसके जिम्मे पटवारियों के सिपुर्द भूमि संबंधी दस्तावेजों की जांच करने का काम था। कानून से ही बने कानूनन, कानूनी, कानूनदां और कानूनियां जैसे शब्द भी प्रचलित हैं।

Wednesday, August 27, 2008

सोने की रंगत, सोने का मोल...

saffroncu मोटे अनुमान के मुताबिक ज़ाफ़रान के करीब दो लाख फूलों से सिर्फ आधा किलो केसर प्राप्त होता है। ज़ाफ़रान दरअसल फूलो के सुनहरे – पीले तंतु होते हैं जिनके निराले रंग, अनोखी महक और अनमोल औषधीय गुणों की वजह से इस वनस्पति को बेशकीमती सोने का रुतबा मिला हुआ है।

http://www.gourmetsleuth.com/

वो ज़ाफरानी पुलोवर , उसी का हिस्सा है
कोई जो दूसरा पहन ले तो दूसरा ही लगे
शीर बद्र के इस शेर में जितनी भी रूमानियत है वो पूरी की पूरी ज़ाफरानी रंग की वजह से पुलोवर के खाते में जा रही है। ज़ाफरानी यानी केसरिया रंग , जिसमें लाल आभायुक्त पीला रंग शामिल है। इसमें पीत, गैरिक या स्वर्णिम वाले भाव भी हैं। इसे ही भगवा रंग भी कहते हैं। यह लफ्ज़ बना है ज़ाफरान से।
ज़ाफरान यानी केसर। आयुर्वेद और युनानी दवाओं में ज़ाफ़रान का बड़ा महत्व है। प्राचीनकाल से ही पश्चिमी देशों में मशहूर भारतीय मसालों में एक मसाला केसर भी है। यह स्थापित तथ्य है कि दुनिया भर के मसालों में यह सबसे महंगा है और एक से डेढ़ लाख रूपए किलो बिकता है। विश्व में मुख्य रूप से कश्मीर घाटी और ईरान में इसकी खेती होती है। इसके अलावा स्पेन में भी इसे उगाया जाता है। मगर गुणवत्ता में अव्वल नंबर पर हिन्दुस्तानी ज़ाफ़रान ही माना जाता है।
केसर को अंग्रजी में सैफ्रॉन कहते हैं जो ज़ाफरान से ही बना है। हिन्दी में भी ज़ाफरान शब्द खूब इस्तेमाल होता है। आमतौर पर ज़ाफरान को उर्दू – फारसी का शब्द समझा जाता है मगर यह है अरबी ज़बान का। अरबी में इसका शुद्ध रूप है अज़-ज़ाफरान। यह बना है सेमेटिक भाषा परिवार की धातु ज़पर से जिसका मतलब होता है पीतवर्ण या पीले रंग का। गौरतलब है फारसी में पीले रंग के लिए ज़ुफ्रा शब्द है। अरबी ज़ाफरान ही लैटिन में सैफ्रेनम बनकर पहुंचा और फिर अलग अलग यूरोपीय भाषाओं में छा गया मसलन ग्रीक में ज़फोरा, इतालवी में जैफेरनो,ज्यार्जियाई में जैप्रेनो, रूसी में शैफ्रॉन, फिनिश में सहरामी के रूप में मौजूद है। वैसे इसका वानस्पतिक नाम क्रोकस सटाइवा है।
क प्रसिद्ध तिलहनी फ़सल है करडी या करडई। इसका अरबी नाम उस्फुर है जो ज़ाफरान से ही निकला है क्योंकि इस पौधे में गहरे पीले रंग के फूल होते हैं जो मूल रूप से सुनहरी आभा वाले तंतुओं का समुच्चय होते हैं। अंग्रेजी में इस फूल को सैफ्लावर कहते हैं । कुछ लोग इसे उस्फुर और ज़ाफ़रान से बना नाम ही मानते हैं । कुछ लोग सेफ्रान+फ्लावर का रूप कहते हैं। जो भी हो, सेफ्रॉन भी ज़ाफ़रान से ही बना है। भारत में करडी को कुसुम या कुसुम्भ (कुसुंभा) कहते हैं। इसका तेल हृदय और मधुमेह के रोगियों के लिए बेहतर समझा जाता है। हमारे यहां जो रिफाइंड ऑइल बिक रहे हैं उनमें बड़ी मात्रा करडी के तेल से बने रिफाइंड की भी होती है।
आपकी चिट्ठियां

शब्दों के सफर की पिछली दो कड़ियों-ज़रूरी है नापजोख और मापतौल...और ज्ञ की महिमा - ज्ञान, जानकारी औरनॉलेज पर कई साथियों की प्रतिक्रियाएं मिलीं। खासतौर पर ज़रूरी है नापजोख और मापतौल...पर अभय तिवारी, स्मार्ट इंडियन और कात्यायान की प्रतिक्रियाएं बेहद ज़रूरी थीं। स्मार्ट इंडियन Rama Myfreetvsite.com Lavanyam - Antarman कुश एक खूबसूरत ख्याल रंजना [रंजू भाटिया] Dr. Chandra Kumar Jain अनुराग अभिषेक ओझा अभय तिवारी katyayan अनूप शुक्ल Udan Tashtari दिनेशराय द्विवेदी Arvind Mishra सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी हर्षवर्धन Gyandutt Pandey Mrs. Asha Joglekar.

Tuesday, August 26, 2008

आगे भगवान मालिक है....[बकलमखुद-66]

ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने bRhiKxnSi3fTjn गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल  पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी, अरुण अरोरा , हर्षवर्धन त्रिपाठी और प्रभाकर पाण्डेय को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के बारहवें पड़ाव और चौसठवें सोपान पर मिलते हैं अभिषेक ओझा से । पुणे में रह रहे अभिषेक प्रौद्योगिकी में उच्च स्नातक हैं और निवेश बैंकिंग से जुड़े हैं। इस नौजवान-संवेदनशील ब्लागर की मौजूदगी प्रायः सभी गंभीर चिट्ठों पर देखी जा सकती है। खुद भी अपने दो ब्लाग चलाते हैं ओझा उवाच और कुछ लोग,कुछ बातें। तो जानते हैं ओझाजी की अब तक अनकही।

इन्टर्नशिप और डब्बे का लकी होना:

बंगलोर से जिंदगी की पहली इन्टर्न करके लौटा था, प्रोफेसर की शाबाशी और ८,००० रुपये मिले थे २५ दिन के काम के. खुशी खूब थी प्रोफेसर साहब ने ऐसा लैटर लिख के दिया था की लोग बोलते क्या खिला के पटाया:-) कुछ और पैसे मिलकर ३५००० में हम कम्प्यूटर (डब्बा) ले आए. अपने कम्प्यूटर से ऍप्लिकेशन भेजा और ९ वें दिन स्विस से लैटर आ गया, खूब पैसे मिलेंगे ये भी लिखा हुआ था. यहाँ तक तो ठीक लेकिन इसके बाद अजीब घटना हुई, जिसकी भी इन्टर्न की काल आती सब ऍप्लिकेशन मेरे डब्बे से ही गई होती. और किसी ने ये भी हल्ला कर दिया की कवर लैटर और रिज्यूमे ओझा से ही लिखवाओ. तो डब्बे के साथ-साथ हम भी रिज्यूमे-गुरु बन निकले. यहाँ तक भी ठीक पर कुछ लोगों को तो इतना भरोसा था (खासकर एक मेरे करीबी मित्र गुप्ता को) की इस डब्बे से असाइंमेंट बना के भेजो तो कभी कम नंबर नहीं आ सकते, एक बार उनके टर्म पेपर को बेस्ट घोषित कर दिया गया तब से बेचारे कुछ भी करते मेरे डब्बे से ही, उनका डब्बा बेचारा तरसता रह जाता. कुछ इसी तरह की घटना हुई प्लेसमेंट के टाइम पर मेरा बेल्ट चल निकला, हाल ये था की मुझे नहीं मिल पाता था पहनने को :-) मेरा रूम वैसे ही अड्डा था चर्चा का, मैं सो रहा होता तो भी रूम में २-४ लोग होते ही. अब ये एक और कारण हो गया भीड़ का.

मेरी बेटी कैसी रहेगी:

म्म... इसका शीर्षक ही रोचक है. तो चलिए बता ही देता हूँ, आईआईएम बंगलोर में दोबारा काम करने गया. पहली बार जिस प्रोफेसर के साथ काम किया वो भारत के जाने माने विद्वान् हैं. ज्यादा नहीं बता सकता, बहुत अच्छे सम्बन्ध हैं मेरे उनसे, और वो जानी-मानी हस्ती हैं, सब बंटाधार हो जायेगा. जब दूसरी बार गया तो उनसे फ़िर मिलना हुआ. एक दिन गया तो खूब देर तक बात हुई, मैं क्या कर रहा हूँ, भविष्य के क्या प्लान है उन्होंने भी अपने बेटे की तस्वीर दिखाई जो अभी लन्दन में पढ़ाई कर रहा था. सब कुछ ढंग से चलता रहा, फिर उन्होंने मेरी उम्र और घर वालो के बारे में बात चालु की मुझे कुछ भनक नहीं लगी. बात होते-होते अंत में उन्होंने कहा की 'Actually I have a daughter to marry and she is as old as you are.' अब चालु हुई बात... अपनी बेटी के बारे में भी बताया उन्होंने, जो उन्हें चाहिए था सब मुझमे और मेरे परिवार में था बस उम्र कच्ची थी मेरी और पढ़ाई बाकी. मेरे पसीने छूट गए. मैं क्या कहूँ कुछ समझ में नहीं आया, मैंने कहा की ये काम मेरे माता-पिता का है मेरा नहीं. और वैसे भी अभी मुझे बहुत दिनों पढ़ाई करनी है. अभी कैसे कुछ कह सकता हूँ. जो भी हो चर्चा होती रही और ये फैसला लिया गया की मैं अपनी पढ़ाई पूरी करुँ और बाद में कभी मिलना हुआ तो मैं अपने माता-पिता का नंबर उन्हें दूंगा. (मैं लड़कियों को पसंद क्यों नहीं आता, उनके पिताओं को आता हूँ.. बहुत समस्या है !) फिलहाल वो बात उसके बाद बस एक बार और छिडी तब से नहीं... आगे भगवान मालिक है !

अन्तिम वर्ष:

ईआईटी के यादगार दिनों में आया अन्तिम वर्ष. वो सब कर डाला जो अब तक नहीं किया था... फाइनल परीक्षा के एक दिन पहले रात के २ बजे तक सिनेमा हॉल में, रात के २ बजे गंगा किनारे हो या जीटी रोड के ढाबे. घुमने का मन किया तो उत्तर पूर्व भारत घूम आए. चार साल में जितना पैसा खर्च नहीं किया था आखिरी सेमेस्टर में उडा दिया. मेस में खाना खाए हुए १५ दिन हो जाते. एक भी फ़िल्म रिलीज़ हो और हम सिनेमा हॉल में देख के न आयें ऐसा कभी नहीं हुआ. कानपुर के मित्र और उनकी बाइक... खूब एन्जॉय किया. इस बीच क्लास बंक करने का सिलसिला भी खूब चला. आईआईटी कानपुर की एक अच्छी बात है कि अटेंडेंस जरूरी नहीं है. कुछ प्रोफेसर इसके लिए कुल अंक का प्रतिशत निर्धारित कर देते हैं तो उन क्लास्सेस में जाना पड़ जाता था... उसमें भी अगर ये पता चल जाता की ५-१०% वेटेज है तो फिर यही कोशिश होती की ये ५-१०% कहाँ से लाये जाएँ अपने को तो वैसे भी नहीं मिलने. दो कोर्स ऐसे भी किए जिनमें कुल मिला कर दो बार ही गया. एक कोर्स में तो हद हो गई जब दुसरे मिड सेमेस्टर कि परीक्षा हो रही थी और मैं इंस्ट्रक्टर को ही नहीं पहचानता था. पर दोस्तों का साथ उनके नोट्स और रात भर की पढ़ाई इन दोनों कोर्स में अच्छे ग्रेड लगे.   [जारी]

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गांव में बच्चों के बीच यूं बच्चा बन जाने में कितना आनंद है !
हां, जब मनचाहे तब बड़प्पन झाड़ने से भी कौन रोकता है !
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आईआईटी ,कानपुर
में साथियों के साथ कुछ यादगार पल...
 

 

Monday, August 25, 2008

राधिका ने कहा , शुक्रिया आपका ...

नमस्कार !
सोमवार को जब ऑनलाइन हुई तो स्वयं को शब्दों का सफर और कबाड़खाना पर पाया , देखकर आश्चर्य हुआ और आनंद भी।
आज के युग में शास्त्रीय संगीत से परहेज करने वाले तो बहुत मिल जायेंगे, उससे प्रेम करने वाले बिरले ही नज़र आएंगे। मैं खुशनसीब हूं कि मेरे ही घर में मुझे मेरे संगीत को समझने वाले गुनिजन मिले । कलाकार के लिए सबसे बड़ा धन होता हैं,श्रोताओ का प्रेम। सबसे बड़ा सम्मान है श्रोताओं की वाह , सबसे बड़ी उपलब्धि होती हैं प्रशंसा के के दो बोल । मेरे वीणा वादन को आप पाठको में से किसीने अद्भुत कहा किसी ने अमित पुण्य का संचय। सच ! आपके ऐसा कहने से मुझे एक नया बल, एक नया उत्साह मिला हैं कि मैं और अधिक साधना करूं ,रियाज़ करू।
सम्मान्य Udan Tashtariji, रंजना [रंजू भाटिया]जी अनूप शुक्लजी, Sanjeet Tripathiji आप सुनते हैं , यही बहुत बड़ी बात हैं। शास्त्रीय संगीत की पूरी समझ होना जरुरी नही हैं। आप सुरों का आनंद लेते हैं और हमें सुर साधने की धुन में डुबोते हैं यही काफी है। आपका धन्यवाद। Asha Joglekarji , दिनेशराय द्विवेदीजी, Rajesh Roshanji, बालकिशनजी,Parulji,लावण्याजी ,प्रभाकर पाण्डेयजी ,मीनाक्षीजी,महेन,सिद्धेश्वरजी , स्मार्ट इंडियन , अभिषेक ओझाजी और Mohit Ruikarji  को मैं धन्यवाद ज्ञापित करती हूं कि उन्होंने मेरी वीणा को सुना और सराहा। सच कहू तो धूम -धडाका संगीत के इस युग मैं अगर मैं विचित्र वीणा जैसे वाद्य का चयन कर पाई और उसको अपना जीवन ध्येय बना पाई तो आप जैसे श्रोताओ के कारण ।
सम्मान्य डॉ चंद्रकुमार जैन ने मेरे वीणा वादन के लिए जो सुंदर पंक्तिया लिखी हैं,इन पंक्तियों को मैं हमेशा याद रखूंगी। इन पंक्तियों ने मेरी बहुत हौसलाअफजाई की है। आपका बहुत बहुत आभार । पुनः आप सब श्रोताओ को दिल से धन्यवाद देती हूं की उन्होंने विचित्र वीणा वादन सुना, सराहा। मेरी पोस्ट पढ़ी और उनके पर अपनी टिप्पणियां दी। दादा ( अजित जी ) ने बहुत अपनत्व से मुझे अपने ब्लॉग पर स्थान दिया। उनका ब्लॉग मैं पढ़ती रहती हूं।
सधन्यवाद
वीणासाधिका,
राधिका

Sunday, August 24, 2008

इश्क की मुंडेर पर , पहुंचे स्विट्जरलैंड [बकलमखुद-65]

ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने bRhiKxnSi3fTjn गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल  पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी, अरुण अरोरा , हर्षवर्धन त्रिपाठी और प्रभाकर पाण्डेय को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के बारहवें पड़ाव और तिरेसठवें सोपान पर मिलते हैं अभिषेक ओझा से । पुणे में रह रहे अभिषेक प्रौद्योगिकी में उच्च स्नातक हैं और निवेश बैंकिंग से जुड़े हैं। इस नौजवान-संवेदनशील ब्लागर की मौजूदगी प्रायः सभी गंभीर चिट्ठों पर देखी जा सकती है। खुद भी अपने दो ब्लाग चलाते हैं ओझा उवाच और कुछ लोग,कुछ बातें। तो जानते हैं ओझाजी की अब तक अनकही।

ड़कियों से दूरी वाली बात तो आप सुन ही चुके हैं... पर ये सिर्फ़ मेरी दास्ताँ नहीं है ९० प्रतिशत से ज्यादा आई आई टी वालों का यही हाल होता है. क्या करें बेचारे... लडकियां इज्जत बहुत करती है कोई कैसे बताये की इज्जत नहीं बराबरी चाहिए, प्यार चाहिए ! आप ने ये भी देखा की छठी कक्षा के बाद कभी लड़कियों से पाला नहीं पड़ा. आई आई टी में तो ये विलुप्त प्रजाति में ही आती हैं. अगर एक अच्छी लड़की हो तो आगे-पीछे के ४ बैच उसकी कुंडली याद कर लेते हैं. पर इस दौरान लडकियां खूब पसंद आई. हम अक्सर कहते हैं कि 'आज फिर से पहला प्यार हो गया'. लोग अपनी बेटियों को लेकर आते तो कहते कि भइया से टिप्स ले लो... कैसे पढ़ाई करनी है. आज तक ये समझ में नहीं आया कि भइया ही टिप्स दे सकते हैं क्या? कोई दोस्त, गुड फ्रेंड, जास्त फ्रेंड या कोई और रिश्ता हो तो शायद अच्छे टिप्स मिल जाएँ :-) पर ये बिडम्बना जारी है. छोडिये नहीं तो आँखें नम हो जायेगी.
जो हुआ अच्छे के लिए:
२००५ मैं हॉल ८ में रहता था... नया होस्टल, मस्त रूम, स्विस वीसा का इंतज़ार... हसीन दिन थे. मई आ गई... टिकट कैंसल हो गया, सब दोस्त पूरे ग्लोब पर पहुच गए ऑस्ट्रेलिया से अमेरिका तक. मेरा वीसा नहीं आया. टेंशन ना लेने की आदत पता नहीं कहाँ से पायी. खूब फिल्में देखता और किताबे पढता, जब बाकी लोग बोलते की सबसे पहले इन्टर्न लगी थी अभी तक नहीं जा पाया, सहानुभूति लोग बोरे में भर कर देते... बात करते तो सहानुभूति टपकती. मैं मस्ती लेता, बस अपने रूम पार्टनर को बोलता की यार जो होता है अच्छे के लिए होता है. कुछ दिनों तक वो भी कहता की हाँ सही कह रहे हो पर जब दिन बिताते जाते तो बोला की यार वो तो ठीक है पर इतना ज्यादा भी अच्छे के लिए कुछ हो तो ठीक नहीं. मैं फिर भी कूल रहता. अपनी आईएमडीबी की लिस्ट छोटी करता जा रहा था.
प्रोफेसर ब्राईट की सरपरस्ती में
और फिर १ जून को वीसा और ५ जून को जाना हुआ इस पूरे क्रम में गुस्सा आया तो सिर्फ़ एम्बसी वालों पर. हर ४ दिन पर साले दिल्ली बुलाते और कहते की पुलिस वेरिफिकेशन नहीं हुई है (आजतक समझ में नहीं आया कि मेरी वेरिफिकेशन स्विस पुलिस कैसे कर रही थी). खैर मैं पंहुचा तो अच्छाई दिखानी शुरू हुई. मेरे लिए जो फ्लैट बुक हुआ था उसे किसी और को दे दिया गया था और मजबूरी में मेरा रहना तय हुआ प्रोफेसर ब्राईट के घर में. और ये मजबूरी इतना रंग ले आई की क्या कहने... एक दोस्ती जो आज भी कायम है. अगर उनके साथ ना रहा होता तो बहुत कुछ खो दिया होता, इतनी किताबें पढने को मिली, इतने अच्छे प्रोजेक्ट्स पर काम किया, इतने अच्छे से स्विस घुमा... इतने बड़े-बड़े लोगो से मिलता और प्रोफेसर साहब की बड़प्पन... क्या परिचय और बड़ाई करते. कितने बड़े-बड़े लोगों से मिलाया. बस अगर परदेश में घर हो सकता तभी इतना आराम मिल पाता. सो के उठता तो प्रोफेसर दम्पति नाश्ता टेबल पर लगाकर चले गए होते, और अक्सर एक पर्ची छोड़कर की आज शाम आप डिनर पर आमंत्रित हो. हम फलां रेस्टुरेंट जा रहे हैं... ऑफिस से जल्दी आ जाना.

स बीच इस सोने की घटना में बहुत खोया... प्रोफेसर साहब कई जगह क्लास लेते तो जिस दिन ऑफिस नहीं जाते मैं बस से जाता, एक दिन ७ बजे की बस से गया तो एक लड़की मिली... ओह क्या हसीन थी, छोडिये ज्यादा नहीं लिखूंगा, उसके फिगर के बारे में तो बिल्कुल नहीं. पर इतना बता दूँ की किस्मत पहली बार इस मामले में काम कर रही थी अक्सर लोग अकेली सीट पर बैठते हैं पर वो आकर बैठी ही नहीं बातें भी करने लगी, उसकी रूचि हिन्दुइस्म और हिन्दुस्तान में बहुत थी और इस मामले में लपेटने में मैं माहिर. पर २-३ दिन के बाद लाख कोशिश कर के भी उठ नहीं पाता ठंड में सोता ही रह जाता, रोज़ कोशिश करता पर ७.२० वाली बस ही मिल पाती... जो सोता है सो खोता है

स्विस प्रोफेसर बन गए शाकाहारी...
प्रोफेसर साहब को जब पता चला की मैं शाकाहारी तो वो भी लगभग बन गए... साथ किचेन में काम करते, गार्डन में भी और साथ ऑफिस जाते. एक मजे की बात ये की ऑफिस पहुचने के पहले कभी काम डिस्कस नहीं होता, बीच में गाड़ी रोककर आल्प्स, झील और किले घूमते, किताबों के बारे में डिस्कस करते, जॉर्ज बुश को गाली देते... धर्म की चर्चा करते... द्वितीय विश्व युद्ध की चर्चा से लेकर गाँधी तक, वैश्वीकरण से लेकर तेल की राजनीती तक. दोनों एक दुसरे से खूब प्रभावित नज़र आते. एक दुसरे की बात तन्मयता से सुनते... अपनी जीवनी एक दुसरे को सुनाते. ट्रेक्किंग पर जाते पहाड़ पर पहुंच जाते तो पीछे से मेरिलिन (उनकी पत्नी) कार लेकर आती और वापस आते. बोलते की आज ऑफिस मत जाओ चलो लुजेर्न घूम लेना... मैं कहता की ये काम है, तो बोलते की मैं बॉस हूँ. मैं जो कह रहा हूँ करो. वीकएंड पर कभी रुकने को ना कहते क्योंकि उन्हें पता था की कई मित्र अभी स्विस में है तो वीकएंड मुझे उनके साथ बिताना चाहिए. यूँ ही नहीं कहता मैं की जहाँ भी गया लगा उसी के लिए बनाया गया हूँ.  
Madeleine Looking at cooking skills यादे-स्विस




प्रो. ब्राइट की पत्नी मेरिलिन के साथ
With Prof. Breit




प्रोफेसर ब्राइट के साथ ब्रेकफास्ट का मज़ा


[जारी]

Saturday, August 23, 2008

ज्ञ की महिमा - ज्ञान, जानकारी और नॉलेज

देवनागरी के ज्ञ वर्ण ने अपने उच्चारण का महत्व खो दिया है। अपभ्रंशों से विकसित भारत की अलग अलग भाषाओं में इस युग्म ध्वनियों वाले अक्षर का अलग अलग उच्चारण होता है। मराठी में यह ग+न+य का योग हो कर ग्न्य सुनाई पड़ती है तो महाराष्ट्र के ही कई हिस्सों में इसका उच्चारण द+न+य अर्थात् द्न्य भी है। गुजराती में ग+न यानी ग्न है तो संस्कृत में ज+ञ के मेल से बनने वाली ध्वनि है। दरअसल इसी ध्वनि के लिए मनीषियों ने देवनागरी लिपि में ज्ञ संकेताक्षर बनाया मगर सही उच्चारण बिना समूचे हिन्दी क्षेत्र में इसे ग+य अर्थात ग्य के रूप में बोला जाता है। शुद्धता के पैरोकार ग्न्य, ग्न , द्न्य को अपने अपने स्तर पर चलाते रहे हैं।

scan0004 यह आलेख दैनिक भास्कर के 9सितंबर 2007 के रविवारीय अंक में शब्दों का सफर कॉलम में प्रकाशित हुआ था।

 ब तो ज्ञ के ग्य उच्चारण को ही लगभग मान्यता मिल गई है इसीलिए इस पर अक्सर बहस चलती है कि क्यों न ज्ञ से पीछा छुड़ा लिया जाए। केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालयों की आलमारियों में विशेषज्ञों की ऐसी अनुशंसाएं ज़रूर मिल जाएंगी। गौरतलब है ज्ञ वर्ण  संस्कृत के अलावा प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार से भी संबंधित है । भाषा विज्ञानियों ने प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार में इसके लिए जो धातु ढूंढी है वह है gno यानी ग्नो। अब ज़रा गौर करें इस ग्नों से ग्न्य् की समानता पर । ये दोनों एक ही हैं। अब बात इसके अर्थ की । संस्कृत में ज्ञ अपने आप में स्वतंत्र अर्थ रखता है जिसका मतलब हुआ जाननेवाला, बुद्धिमान, बुध नक्षत्र और विद्वान। ज्ञा क्रिया का मतलब होता है सीखना, परिचित होना, विज्ञ होना, अनुभव करना आदि। ज्ञा से बने ज्ञान का भी यही मतलब होता है। ज+ञ के उच्चार के आधार पर ज्ञान शब्द से जान अर्थात जानकारी, जानना जैसे शब्दों की व्युत्पत्ति हुई। अनजान शब्द उर्दू का जान पड़ता है मगर वहां भी यह हिन्दी के प्रभाव में चलने लगा है । मूलतः यह हिन्दी के जान यानी ज्ञान से ही बना है जिसमें संस्कृत का अन् उपसर्ग लगा है।
ज्ञा धातु में ठानना, खोज करना, निश्चय करना, घोषणा करना, सूचना देना, सहमत होना, आज्ञा देना आदि अर्थ भी इसमें समाहित हैं। यानी आज के इन्फॉरमेशन टेकनोलॉजी से जुड़ी महत्वपूर्ण बातें अकेले इस वर्ण में समाई हैं। इन तमाम अर्थों में हिन्दी में आज अनुज्ञा, विज्ञ,प्रतिज्ञा और विज्ञान जैसे शब्द प्रचलित हैं। ज्ञा से बने कुछ अन्य महत्वपूर्ण शब्द ज्ञानी, ज्ञान, ज्ञापन खूब चलते हैं। गौर करें जिस तरह संसकृत-हिन्दी में वर्ण में बदल जाता है वैसे ही यूरोपीय भाषा परिवार में भी होता है। प्राचीन भारोपीय भाषा फरिवार की धातु gno का ग्रीक रूप भी ग्नो ही रहा मगर लैटिन में बना gnoscere और फिर अंग्रेजी में ‘ग’ की जगह ‘क’ ने ले और gno का रूप हो गया know हो गया । बाद में नालेज जैसे कई अन्य शब्द भी बने। रूसी का ज्नान (जानना), अंग्रेजी का नोन (ज्ञात) और ग्रीक भाषा के गिग्नोस्को (जानना),ग्नोतॉस(ज्ञान) और ग्नोसिस (ज्ञान) एक ही समूह के सदस्य हैं। गौर करें  हिन्दी-संस्कृत के ज्ञान शब्द से इन विजातीय शब्दों के अर्थ और ध्वनि साम्य पर। 

Friday, August 22, 2008

क्लास में खर्राटों के दिन...[बकलमखुद-64]

bRhiKxnSi3fTjn ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल  पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी, अरुण अरोरा , हर्षवर्धन त्रिपाठी और प्रभाकर पाण्डेय को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के बारहवें पड़ाव और साठवें सोपान पर मिलते हैं अभिषेक ओझा से । पुणे में रह रहे अभिषेक प्रौद्योगिकी में उच्च स्नातक हैं और निवेश बैंकिंग से जुड़े हैं। इस नौजवान-संवेदनशील ब्लागर की मौजूदगी प्रायः सभी गंभीर चिट्ठों पर देखी जा सकती है। खुद भी अपने दो ब्लाग चलाते हैं ओझा उवाच और कुछ लोग,कुछ बातें। तो जानते हैं ओझाजी की अब तक अनकही।

हले ही सुन रखा था की बहुत पढ़ाई करनी पड़ती है और बहुत लोग फेल होते हैं यहाँ आया तो पता चला की सही बात है. पर अब एक नई आदत लग गई क्लास में सोने की... और इस आदत ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए. खूब मस्ती की. कई बार फेल होते-होते बचे. नींद का मतलब ही बदल गया ऐसे आए न आए क्लास में जरूर आती. पहली रो में बैठकर भी सोता, मेकेनिकल की लैब तक में सोया, इलेक्ट्रिकल की लैब में सोया तो प्रोफेसर ने उठाकर पूछा की क्या तबियत ठीक नहीं है, तो जाओ रूम पे जा के सो जाओ. (उस दिन लैब से निकल कर बहुत मज़ा आया, प्रोफेसर ने ही समस्या सुलझा दी) .

हज्जाम के यहां भी नींद...

नाई के पास बाल कटवाने जाता तो वहीं सो जाता. इलेक्ट्रिकल के एक कोर्स में हर क्लास में क्विज होती बाद में पता चला की इसका वेटेज कम है तो फिर लगातार झुक्का मारा (० अंक पाना) ६-७- क्विज में. मेरी सीपीआई का ग्राफ देखें तो ५.५ से ९.६ तक सब कुछ आया ग्रेड 'ए' से 'डी' तक बस 'एफ' नहीं लगा कभी. कोशिश उसकी भी हुई पर रिलेटिव ग्रेडिंग का कमाल मुझसे भी बड़े उस्ताद होते और मैं पास करता गया. एक बार क्लास में प्रोफेसर ने कहा जिसको पढने का मन नहीं है चले जाओ. मैं उठ कर चला गया. बाद में पता चला की मैं अकेला ही बाहर आया... अगले दिन जा के सॉरी बोला तो प्रोफेसर साहब मुस्कुरा कर रह गए बोले 'उम्र है जी लो'.

दोस्त बहुत अच्छे मिले...

जिनसे दोस्ती को परिभाषित किया जा सके ऐसे-ऐसे दोस्त मिले. रूम पार्टनर इतना अच्छा मिला की लॉटरी से रूम मिलता है इस बात पर भरोसा ही नहीं हुआ. लगा की भगवान ने फैसला दिया की इन दोनों को साथ रखो... सबके साथ हंसते-खेलते जिंदगी के हसीं दिन कब बीत गए पता ही नहीं चला. दोस्तों का मजाक खूब उडाया, थोडी बहुत राजनीति भी की... किसी में झगडा होता तो अधिकतर दोनों तरफ़ रहता. खेलना कूदना पहले कभी हुआ नहीं था यहाँ स्वीमिंग की और खूब की. दुनिया देखना भी यहीं से चालु हुआ. इन सब के बीच महात्वाकांक्षा कभी कम नहीं हुई... कभी-कभी मन करता की सारे संसार का ज्ञान ले लूँ, रात-रात भर गूगल सर्च करके पढता.एक-एक समय पर चार-चार प्रोजेक्ट पर काम करता... फ्रॉड भी खूब मचाता. ४ इन्टर्नशिप कर डाली दो बार आईआईएम बंगलोर गया, दो बार स्विस. मैंने अपनी प्रोफाइल में एक लाइन लिखी है 'जहाँ भी गया लगा उसी के लिए बना हूँ', जहाँ भी गया ऐसा घुला-मिला की लगता था की यहीं के लिए बनाया गया हूँ. काम अच्छा हो न हो दोस्ती खूब होती जिन भी प्रोफेसर के साथ काम किया सब अच्छे दोस्त बने. लोग कहते हैं की मेरी दोस्ती उम्र में बड़े लोगो से ज्यादा होती है. ये भी नहीं कह सकता की गणित नहीं पढता तो क्या करता.

धर्म में हमेशा से रूचि रही

कई अच्छे दोस्त दुसरे धर्मों से रहे, सब धर्मों के बारे में जानना और इज्जत करना धीरे-धीरे शौक सा हो गया. धार्मिक पुस्तकें भी खूब पढ़ी. आईआईटी में एक बार अभिज्ञानशाकुंतलम लेकर आया तो लाइब्रेरी वाला भी देखने लगा की कहाँ से आ गया ऐसा आदमी. इस बीच भैया का बहुत सहयोग मिला कुछ सोचना नहीं पड़ता महीने के शुरू में खाते में पैसे आ जाते... ये सख्त हिदायत थी की सोचना नहीं है की कहाँ से आ रहे हैं. संयुक्त परिवार की समस्याएं कभी मुझसे नहीं बताई जाती, एक बार माँ बीमार थी ६ महीने तक मुझे नहीं बताया गया. घर गया तो पता चला... तब बहुत गुस्सा आया. लगता है घर वालों के इतनी मेहनत के बाद भी जीवन में कुछ नहीं कर पाया... पर अभी भी महात्वाकांक्षा मरी नहीं है. खैर एक बार स्विस गया तो ५ साल का खर्च निकल गया दूसरी बार लौट के आया तो लाखों में रुपये हो गए खाते में. भगवान ने भी साथ देना नहीं छोड़ा (हाँ लड़कियों के मामले में वही हाल रहा)

Wednesday, August 20, 2008

ज़रूरी है नापजोख और मापतौल...

किसी वस्तु की मात्रा, परिमाण आदि के निर्धारण के लिए नापजोख या नापतौल जैसे शब्द हिन्दी में प्रयोग किए जाते हैं। इन दोनों ही शब्द युग्मों में नाप शब्द समान है। इसी तरह मापजोख और मापतौल शब्द भी इन्हीं अर्थों-संदर्भों में प्रयुक्त होते रहे हैं।
TapeMeasure2 संस्कृत की तुल् धातु का मतलब होता है मापना, तौलना, ऊपर करना, उठाना, जांच-परीक्षण करना आदि। किन्हीं घटनाओं, वस्तुओं, परिस्थितियों और चिंतन में समानता का आधार ढूंढने को तुलना करना कहा जाता है जो इसी मूल से बना है
बसे पहले बात नापजोख की। यह शब्द बना है नाप+जोख के मेल से । नाप शब्द पैमाइश से जुड़ा है और किसी वस्तु , स्थान या ढांचे के निर्माण या रचना की प्रक्रिया से के तहत प्रयोग होता है। इसमें वस्तु की लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई, मात्रा अथवा परिमाण का निर्धारण आ जाता है। नापना दरअसल इसी क्रिया का नाम है। गौर करें नापने की क्रिया से प्राप्त निष्कर्षों पर। ये आंकड़े दरअसल उस वस्तु के बारे में विशिष्ट ज्ञान कराते हैं। वस्तु के सभी आयामों का परीक्षण करना ही नापजोख है। संस्कृत धातु ज्ञा में जानना, समझना, परिचित होना, परीक्षण करना आता है। संस्कृत के ज्ञ वर्ण में अधिकांश लोगों को ग+य अर्थात् ग्य ध्वनि सुनाई पड़ती है। मगर शुद्ध रूप में यह है ज+ञ है मगर इसके कुछ अन्य रूप भी हैं मसलन गुजराती में ग्+न्+य अर्थात् ग्न्य की ध्वनि। ज्ञा से बने ज्ञाप् में भी यही सारे भाव हैं। इसमें से ग् ध्वनि का लोप होने से बना नाप। जॉन प्लैट्स के मुताबिक क्रम कुछ यूं रहा ज्ञाप्य = नप्प = नाप । गौर करें ज्ञान, ज्ञापन और विज्ञापन जैसे शब्द भी इसी कड़ी से जुड़े और सूचना व जानकारी का माध्यम हैं। 
जोख भी एक क्रिया है जिसका मतलब भी पैमाइश और तौल ही होता है इसमें वस्तु का वज़न, लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई आदि का हिसाब शामिल है। इससे ही जोखना शब्द भी बना है। यह बना है जुष् धातु से जिसमें परीक्षण, चिंतन-मनन, जांच-पड़ताल के अलावा सुखी और प्रसन्न होना जैसे भाव भी शामिल है।
नापतौल भी नाप+तौल इन दो शब्दों से मिलकर बना है। तौल यानी तराजू के एक पलड़े पर बाट या बटखरा व दूसरे पलड़े पर कोई पदार्थ रख कर उसका भार अथवा परिमाण मापना। यह बना है संस्कृत की तुल् धातु से जिसका मतलब होता है मापना, तौलना, ऊपर करना, उठाना, जांच-परीक्षण करना आदि। किन्हीं घटनाओं, वस्तुओं, परिस्थितियों और चिंतन में समानता का आधार ढूंढने को तुलना करना कहा जाता है जो इसी मूल से बना है। इसके अलावा तराजू के लिए तुला, योग्य, समरूप, बराबर के अर्थ में तुल्य, समतुल्य, तुलनीय या तुलना जैसे शब्द या बेमिसाल, अनुपम अथवा बेशुमार के अर्थ में अतुल शब्द भी इसी मूल से निकले हैं।
सी तरह मापतौल और मापजोख शब्द भी है। इन दोनों में माप शब्द समान रूप से मौजूद है। संस्कृत में एक धातु है मा जिसमें सीमांकन, नापतौल, तुलना करना आदि भाव हैं। इससे ही बना है माप शब्द। किसी वस्तु के समतुल्य या उसका मान बढ़ाने के लिए प्रायः उपमा शब्द का प्रयोग किया जाता हैं। यह इसी कड़ी का शब्द है। इसी तरह प्रति उपसर्ग लगने से मूर्ति के अर्थ वाला प्रतिमा शब्द बना। प्रतिमा का मतलब ही सादृश्य, तुलनीय, समरूप होता है। दिलचस्प बात यह कि फारसी का पैमाँ, पैमाना या पैमाइश शब्द भी इसी मूल से जन्मा है। बस, वर्ण विपर्यय के चलते माप का पैमाँ हो गया ।
आपकी चिट्ठियां
बीते करीब एक हफ्ते से हरिद्वार यात्रा पर था इसलिए शब्दों सफर पर अल्प विराम था। पिछली पोस्ट जोखिम उठाएं या न उठाएं ! पर कई साथियों की प्रतिक्रियाएं मिलीं।
@अभय तिवारी
अभयजी, माप - तौल के लिए जोख शब्द की रिश्तेदारी जोखिम से जोड़ना सही नहीं लग रहा है। जुष् के मापने-नापने संबंधी अर्थों से इसका साम्य नहीं बन रहा , व्याख्या करना दूर की बात है। अलबत्ता योगक्षेम में सन्निहित  प्राप्ति और उसकी सुरक्षा यानी कल्याण संबंधी भावों से जोखिम शब्द सीधे-सीधे जुड़ता है।  जॉन प्लैट्स की डिक्शनरी में भी इसका यही मूल बताया गया है । यही नहीं, धर्मकोश में भी योगक्षेम को प्राचीन आर्थिक व्यवस्था का शब्द भी बताया है। आधुनिक अर्थशास्त्र में भी जोखिम शब्द का महत्व है। जोखिम शब्द में प्राप्ति की सुरक्षा के प्रति आशंका का भाव वक्त के साथ जुड़ गया।हिन्दी में संस्कृत ष् यदि में बदलता है तो क्ष ध्वनि भी में ही बदलती है।
जोखिम वाली पोस्ट पर अनुराग रंजना [रंजू भाटिया] राज भाटिय़ा कुश एक खूबसूरत ख्याल radhika budhkar अभिराम Dr. Chandra Kumar Jain Shiv Kumar Mishra मीनाक्षी Udan Tashtari siddharth दिनेशराय द्विवेदी अभय तिवारी Smart Indian - स्मार्ट इंडियन ravindra vyas Mrs. Asha Joglekar अभिषेक ओझा. आप सबका आभारी हूं ।    

Monday, August 18, 2008

टीचर्स को पीठ-पीछे गालियां !!![बकलमखुद-63]

bRhiKxnSi3fTjn ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल  पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी, अरुण अरोरा , हर्षवर्धन त्रिपाठी और प्रभाकर पाण्डेय को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के बारहवें पड़ाव और इकसठवें सोपान पर मिलते हैं अभिषेक ओझा से । पुणे में रह रहे अभिषेक प्रौद्योगिकी में उच्च स्नातक हैं और निवेश बैंकिंग से जुड़े हैं। इस नौजवान-संवेदनशील ब्लागर की मौजूदगी प्रायः सभी गंभीर चिट्ठों पर देखी जा सकती है। खुद भी अपने दो ब्लाग चलाते हैं ओझा उवाच और कुछ लोग,कुछ बातें। तो जानते हैं ओझाजी की अब तक अनकही।

स्कूल में कभी नहीं खेला, परेड करने से हमेशा कतराया... एनसीसी नहीं लिया. इसके लिए शिक्षकों से भी खूब पंगा लिया. एक बार फुटबॉल को पैर से मारा, पैर में चोट लग गई तब से दुबारा फुटबॉल को पैर ही नहीं लगाया. कई नए दोस्त बने... पर उस सांवली लड़की के बार लड़की से दोस्ती नहीं हुई. केवल लड़को का स्कूल था. ८ वीं तक गंभीर छात्र के रूप में जाना जाता रहा।

लड़कियां देखने जाते !

९ वीं १० वीं में हमारा ग्रुप था जो लंच में घुमने निकल जाता. हमारे स्कूल के पीछे २ किलोमीटर की दूरी पर लड़कियों का एक स्कूल था. कुछ लोगों ने हमें उधर देख लिया और प्रिंसिपल ने असेम्बली में घोषणा कर दी की कुछ लड़के, लडकियां देखने जाते हैं और अगर ये जारी रहा तो लंच में गेट नहीं खोला जायेगा. शिक्षकों का प्यार अपनी जगह था पर उस उमर में ऐसी शरारतों से नाम जुड़ने का अपना मज़ा होता है. पर कुछ दिनों के बाद ये बंद हो गया और हमारा ग्रुप एक पुराने कुवें से इमली के पेडों से होते हुए पास की नदी तक जाकर लौट आता. खूब चर्चा होती।  लगता दुनिया बदल के रख देंगे ! शिक्षको को गालियाँ देते । मैं देता तो लोगों को मजाक लगता, पर गालियाँ तो दिल से मैं भी देता था. स्कूल के एक दोस्त से अनबन हो गई तो उससे फिर कभी बात ही नहीं की. २ महीने पहले बड़ी मशक्कत से नंबर जुगाड़ कर फोन किया और घंटो बात की. उसे भी भरोसा नहीं हुआ पर खूब बात हुई.

तीन नंबर क्यों कटे ?

र पर पापा अपने होस्टल जीवन की और शरारत की कहानियाँ सुनाते... हम खूब हंसते और सुनते... लोग कहते की लड़कों को बिगाड़ रहे हैं! जीव विज्ञान के अलावा और किसी विषय से कभी भय नहीं लगा भूगोल से थोडी दूरी जरूर रही पर वो भी दूर हो गई थी. साल में बस दो दिन विद्यालय नहीं जाता, उन २ दिनों जिस दिन गाँव से वापस आता, गर्मी और क्रिसमस की छुट्टियों के बाद. शिक्षक कह देते की ये देखो मॉडल उत्तर है तो सातवें आसमान पर पहुच जाता... १० वीं की परीक्षा का केन्द्र मामा के घर के पास पड़ा... परीक्षा देकर गाँव आया और भूल गया, रांची आया तो पता चला की रिजल्ट १० दिनों से निकला हुआ है... ऑटो से आ रहा था वो भी ख़राब हो गया. वहीँ एक चाय की दूकान पर 'आज' अखबार में देखा 'डॉन बोस्को के विद्यार्थियों का उत्कृष्ट प्रदर्शन' उसी में देख लिया की कितना नंबर है और ये भी पता चल गया की राँची टॉप करते-करते रह गया दूसरे नंबर पर. घर पर होने के कारण अखबार में फोटो नहीं आया बस नाम तक ही रहा. इन सब का कोई मलाल नहीं रहा । कभी ये सोचा ही नहीं, परीक्षा भूल कर घर पे बाल्टी के आम खाता... लेकिन गणित में ३ नंबर जो कटे उसका मलाल आज तक है.

आईआईटी की तैयारी

पास हुआ तो अब सोचने का कोई सवाल ही नहीं था इंटरमिडिएट में सेंट जेवियर्स कॉलेज में नाम लिखाने के अलावा, गणित लेना भी तय था. अब देखिये किस्मत: सेंट  जेवियर्स ने फैसला लिया की उस बीच में कोई लडकियां नहीं ली जायेंगी :( . खैर छोडिये... ६ महीने तक खूब मस्ती में रहे, स्कूल ड्रेस नहीं पहनना होता... शहर के बीचों-बीच कॉलेज, बैच में लड़किया तो नहीं थी पर बी.एससी., आर्ट्स और कामर्स में एक-से-एक. पुस्तकों पर सोने की आदत पड़ गई... हाँ कक्षा में सोने की आदत अभी भी नहीं पड़ी. दोस्त कम ही बने. फिर पता चला की सब आईआईटी की तैयारी कर रहे हैं. हमने कहा की हम भी कर लेते हैं उसमें क्या है ! फिर पता चला की कोचिंग करनी होती है... ट्यूशन और कोचिंग को बहुत बुरी नज़र से देखता. मौसेरे भाई के यहाँ से किताबे ले आया और पढ़ना चालु कर दिया... समझ में भी सब कुछ नहीं आता और किताबों पर सो जाता. पर भी किस्मत का साथ स्क्रीनिंग में हो गया और हम फूल के कुप्पा हो गए.

और औकात पता चल गई...

में लगा की अरे इसमें क्या है अब तो image1 हो ही जायेगा. गणित ही धोखा दे गया और रैंक आ गई ४३०० के आस पास कुछ. अब जा के औकात में आए... टी.एस.चाणक्य की काउंसिलिंग में गए तो डर के ही भाग आए... शरीर में जान नहीं और जहाज पर जायेंगे. डी.सी.इ. की काउंसिलिंग में गया पर एक साल रुकना ही पसंद आया. पर वापस आकर सोचा की एडमिशन भी ले लेते हैं, वैसे ही औकात में तो आ ही चुके थे । तो भौतिकी में बी.एससी. में नाम लिखवा लिया फिर से सेंट जेवियर्स में. नामांकन उस समय कराया जब क्लासेस चालू हो गई थीं. नाम लिखने का कोई चांस ही नहीं था पर उस कॉलेज में एक लड़कों के भगवान रहते हैं फादर डी ब्रावर उनसे साइन करा के हेड को दिया तो झुंझलाते हुए ही सही उन्होंने भी अप्रूव कर दिया. क्लास तो कभी जाता था नहीं, कॉलेज घुमने का मन करता तो चला जाता. लडकियां भी नहीं थी क्लास में।  बस २ थी तो अपना कोई चांस भी नहीं दीखता.

गणितज्ञ कम, साईको ज्यादा...

क दिन विभागाध्यक्ष ने जम के डांट लगा दी की जब आईआईटी जाना है तो यहाँ क्यों नाम लिखवाया बताओ?... जाकर पढ़ाई करो नहीं तो क्लास आओ.  उस दिन से कभी गया ही नहीं... बीच में सोचा की गणित ख़राब हुआ था तो गणित ही पढ़ लेते हैं एक जगह गणित की कोचिंग जानी शुरू की शिक्षक गणितज्ञ कम साइको ज्यादा लगता १५ दिन में वो भी छोड़ दिया. स्क्रीनिंग में तो फिर हो गया पर इस बार तय था की अगर मेन में नहीं हुआ तो कोई चारा नहीं था इस बार तो फादर डी ब्रावर भी कुछ नहीं कर पायेंगे. बीच में एसएसबी देने इलाहबाद गए तो पहले राउंड में ही भगा दिया गया. एयरफोर्स का एक फॉर्म भी भरा पापा ने बस इतना ही कहा की तुम्हे तो गणित अच्छा लगता था अब एयरफोर्स में जाने की सोच रहे हो क्या? उसी समय एडमिट कार्ड फाड़ के फेंक दिया. खैर इन सबसे डर लगा पर इनकी नौबत नहीं आई और हम पहुच गए कानपुर. और भी कुछ जगह हुआ पर जहाँ जो पढने की सोचा था वही मिल गया तो फिर कुछ और सोचने का सवाल ही नहीं था.    जारी

Tuesday, August 12, 2008

जोखिम उठाएं या न उठाएं !

जिंदगी में आए दिन तरह तरह की आशंकाएं बनी रहती हैं। आर्थिक नुकसान से लेकर शारीरिक हानि यहां तक की मौत तक इनमें शामिल है। इससे निजात मिलनी असंभव है। जीवन है , तो जोखिम है। मगर इसे कम किया जा सकता है, इससे उत्पन्न स्थितियों के नुकसान की भरपाई की जा सकती है। आर्थिक हानि अथवा अन्य नुकसान की आशंका, खतरा, अनिष्ट के लिए हिन्दी में एक शब्द है जोखिम। जान का जोखिम जैसा मुहावरा भी इससे ही बना है। जोखिम में प्रयुक्त ध्वनियों की प्रकृति से इस शब्द के उर्दू होने का आभास होता है। वैसे पूर्वी शैलियों में इसके जोखम या जोखिऊं जैसे रूप भी मिलते है।
योगक्षेमं वहाम्यहम् -

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कैसी विडम्बना है कि प्राचीनकाल मे योगक्षेम की बात करने वाला समाज आज किसी भी तरह का जोखिम न उठाने की सलाह देता है।

जोखिम भी संस्कृत मूल का ही शब्द है जो बना है योगक्षेमं से । भारतीय जीवन बीमा का स्लोगन योगक्षेमं वहाम्यहम् सबने विज्ञापनों में देखा है। योगक्षेमं शब्द बना है योग+क्षेम से । इसका पहला हिस्सा योग संस्कृत धातु यु से ही बना है यह शब्द भी जिसमें मिलना, जुड़ना, संप्रक्त होना अथवा युक्त होना जैसा भाव शामिल हैं। इसमें ही एक अर्थ और जुड़ जाता है प्राप्ति का। कुछ प्राप्त होने में मिलने, जुड़ने , युक्त होने का भाव ही निहित है। दूसरे हिस्से क्षेम का अर्थ है प्रसन्नता, शुभ, सुखी, आराम आदि।
हिन्दी में प्रचलित कुशलक्षेम में इसका आए दिन प्रयोग होता है। क्षेम में शामिल शुभ, कल्याण, प्रसन्नता आदि भावों का ही विस्तार है सुरक्षा, बचाव, संरक्षण आदि सो ये तमाम अर्थ भी क्षेम में शामिल हैं। एलआईसी ने अपने स्लोगन में योगक्षेमं शब्द का प्रयोग यूं ही नहीं किया है। इस शब्द का प्राचीनकाल से ही अर्थशास्त्र से रिश्ता रहा है। योग शब्द में शामिल प्राप्ति के भाव का अर्थ हुआ अप्राप्त की प्राप्ति ही योग है और जो प्राप्त हो गया है उसकी रक्षा करना क्षेम कहलाता है- अलभ्यलाभो योगः स्यात् क्षेमो लब्धस्य पालनम् । इस तरह योगक्षेमं यानी प्राप्ति और उसकी रक्षा की मंगलकामना। भारतीय जीवन बीमा निगम ने अपना स्लोगन गीता के नवें अध्याय में आए इस श्लोक से उठाया है-
अनन्‍याश्चिन्‍तयन्‍तो मां ये जना: पर्युपासते ।
तेषां नित्‍याभियुक्‍तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।।
सका अर्थ हुआ कि ‘जो निरंतर मेरा चिंतन करते हैं, मुझमे आस्था रखते हैं उनके योगक्षेम मैं वहन करूंगा।’ यानी ईश्वर भी आस्था के निवेश के साथ सुरक्षा और समृद्धि की गारंटी दे रहे हैं। इससे बेहतर स्लोगन तो जीवन बीमा निगम के लिए हो ही नहीं सकता था। सो इस तरह योगक्षेम का अर्थ हुआ सामान की सुरक्षा, संपत्ति की देखभाल,कल्याण, बीमा आदि। मगर योग बना जोग और योगक्षेम हुआ जोखम या जोखिम और इसका अर्थ सिर्फ नुकसान या हानि तक सीमित हो गया । योगक्षेमं वहाम्यहम् में कुशलता-सुरक्षा का दायित्व वहन करने अर्थात उठाने की बात कही गई है। इसी तरह जोखिम शब्द के साथ भी उठाना शब्द ही प्रयोग किया जाता है। बीमा करने वाले जोखिम उठाते हैं । कैसी विडम्बना है कि प्राचीनकाल मे योगक्षेम की बात करने वाला समाज आज किसी भी तरह का जोखिम न उठाने की सलाह देता है।

Monday, August 11, 2008

सुनें राधिका की वीणा और वाणी ...

Radhika Budhkar
साथियो, आज शब्दों के सफर में शब्दों से नहीं बल्कि नादब्रह्म की साधना करनेवाली एक ऐसी शख्सियत से मिलवाने जा रहे हैं जिसने कम उम्र में संगीत के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई है। देश की प्रथम व एकमात्र महिला विचित्रवीणा वादिका होने का गौरव प्राप्त राधिका का  जिक्र यहां हम इसलिए कर रहे हैं क्योंकि  उन्होंने भी ब्लागजगत में दाखिला लिया है अपने ब्लाग्स सुरश्री और मंथन के जरिये । यहां राधिका का संगीत भी हम सुनवाएंगे।

इये मिलते हैं राधिका उमड़ेकर बुधकर से। ग्वालियर संगीत घराने की राधिका ने सुरों की दुनिया से अपना रिश्ता विचित्रवीणा नाम के एक ऐसे वाद्ययंत्र से जोड़ा है जो सितार,सरोद, बांसुरी , वायलिन जैसे लोकप्रिय वाद्यों की तुलना में कम जाना-पहचाना है। खासतौर पर महिलाओं के लिए इस विशिष्ट मगर प्राचीन वाद्य को चुनना विरल सी बात है। विचित्रवीणा एक अत्यन्त कठिन वाद्य हैं । इसमें स्वर के परदे नही होते। यह वाद्य शालिग्राम से बजाया जाता हैं और  यह  आकार में बहुत बड़ा होता

Of a vichitra girl

and her veena

radhika Radhika Umdekar has everything deceptive about her appearance. Her seemingly school-going girl frail looks and a barely audible voice are enough to mislead you into believing that you're meeting an ordinary person. But probe her and you find a girl who has designed her destiny with the extraordinary, by choice. Not only is she the only woman vichitra veena player in the world, she has already made a few modifications in the veena to lend a contemporary sound to this almost-extinct instrument.[डेविड राफेल के ब्लाग पर राधिका के बारे में यहां विस्तार से पढ़ें ]

हैं। इस वाद्य की कठिनता के कारण इसका चलन प्रायः नहीं के बराबर है। राधिका ने इस वाद्य की लोकप्रियता बढाने के लिए इसमें परिवर्तन भी किए हैं। राधिका ने संगीत में ही हाल ही में अपना शोधप्रबंध भी पूरा किया हैं।

ग्वालियर के एक संगीतकार घराने में  पली-बढ़ी राधिका ने बचपन से ही संगीत की शिक्षा अपने पिता पंडित श्रीराम उमड़ेकर से पाई। राधिका के सुर सोना बिखेरते हैं। वीणावादन में उन्होंने स्वर्णपदक के साथ कोविद की उपाधि प्राप्त की है साथ ही संगीत में एमए की डिग्री भी स्वर्णपदक के साथ प्राप्त की हैं। आकाशवाणी संगीत प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक हासिल किया हैं। साथ ही कई प्रतियोगिताओ में भी अपनी कला की स्वर्णिम आभा बिखेरी है और सोना पाया  हैं। देश के प्रसिद्ध संगीत आयोजनों , तानसेन संगीत समारोह, उत्तराधिकार, स्वयंसिद्धा, हरिदास समारोह, दुर्लभ वाद्य विनोद आदि में वरिष्ठ संगीतकारों की उपस्थिति में राधिका वीणा वादन कर चुकी हैं और उनसे आशीष पाए हैं। उन्हें सुरमणि, संगीत कला रत्न ,नाद साधक जैसे कई सम्मान मिल चुके हैं। राधिका को अभी खूब-खूब आगे जाना है। हमारी उन्हें शुभकामनाएं।

मुझे गर्व है कि वे अब हमारे कुटुम्ब की भी सद्स्य हैं। राधिका मेरे छोटे भाई (मामाश्री के सुपुत्र) अभिराम बुधकर की जीवनसंगिनी हैं और अपने पति , नन्हीं बिटिया के साथ वड़ोदरा में रहती हैं। आपसे अनुरोध है कि एक बार उनके ब्लाग पर ज़रूर जाएं,  उत्साहवर्धन करें और फिर चाहें तो उम्दा संगीत की फरमाइश भी करें । उनके वाद्य के बारे में भी जान-समझ सकते हैं। ब्लाग एग्रीगेटर्स पर भी उन्हें जल्दी ही जगह मिल जाएगी ऐसी उम्मीद है। आइये, पहले सुनते हैं राधिका की विचित्र वीणा जिस पर उन्होंने बजाया है राग किरवानी ।

 

Sunday, August 10, 2008

उसे मुझसे प्यार हो गया था...[बकलमखुद-62]

bRhiKxnSi3fTjn ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल  पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी, अरुण अरोरा , हर्षवर्धन त्रिपाठी और प्रभाकर पाण्डेय को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के बारहवें पड़ाव और साठवें सोपान पर मिलते हैं अभिषेक ओझा से । पुणे में रह रहे अभिषेक प्रौद्योगिकी में उच्च स्नातक हैं और निवेश बैंकिंग से जुड़े हैं। इस नौजवान-संवेदनशील ब्लागर की मौजूदगी प्रायः सभी गंभीर चिट्ठों पर देखी जा सकती है। खुद भी अपने दो ब्लाग चलाते हैं ओझा उवाच और कुछ लोग,कुछ बातें। तो जानते हैं ओझाजी की अब तक अनकही।

स्कूल की शुरुआत तो आप सुन ही चुके हैं... पंडीजी जमीन पर बैठा के पढाते... गिनती-पहाडा और भाषा, २५ तक पहाडा का रट्टा... बस अंधों में काना राजा और तेज कहा जाने लगा. कोई बोलता चलो हिसाब करके बताओ कि कितने पैसे बचे... तुरहा को बगीचा दिया और इतने के आम दिए उसने तो अब कितने लेने हैं या फिर खेत की जुताई के कितने पैसे देने हैं... लोगो की चिट्ठी लिखने-पढने भी जाता (चिट्ठी पढने में बहुत मज़ा आता).

रांची आगमन

५वीं तक अंग्रेजी नहीं पढ़नी होती लेकिन ५वीं तक पहुचते-पहुचते बड़े पिताजी ने ८वीं तक की अंग्रेजी रटा दी थी. खूब अनुवाद कराते... अच्छी बात थी की बच्चों को कभी मारते नहीं थे. पूरा गाँव अभी भी उन्हें पंडीजी ही कहता है. हाँ गाली खूब देते हैं और इसे अपनी जमींदारी की पुश्तैनी देन मानते हैं. छठी कक्षा में था तो पहली बार दिल्ली के पढ़े एक भाई-बहन आए और एक स्पेल्लिंग वाले खेल मैं हार गया... अगले दिन से डिक्सनरी हाथ में लेकर चलता और उसके बाद कभी नहीं हारा. ६ महीने के बाद स्कूल छोड़कर रांची आ गया. उस भाई बहन में जो सांवली सी बहन वाला हिस्सा था वो अब भी याद है, मुझे खूब छेड़ती (कहती मुझे अपना भाभी बनाएगी). मुझसे बड़ी थी २-३ साल. कई साल बाद भी लोग कहते की मुझे याद करती रही. कहने वाले तो ये भी कहते की उसे मुझसे प्यार हो गया था... पर उस उमर में ये भी नहीं जानता था की प्यार किस चिडिया का नाम है. पर हाँ सुना है लडकियां ये जल्दी समझने लगती है... पर दुर्भाग्य उसके बाद कभी मिलना ही नहीं हो पाया.

टूटी, केरकेट्टा, नाग, मरांडी...

रांची आने पर जमीन पर बैठकर पढने वाला गाँव का छोरा बेंच पर बैठने लगा श्यामपट्ट की जगह हरे कांच के बोर्ड्स ने ले ली...पंडीजी की जगह सर और मैडम. नाम ऐसे बदले की समझ ही नहीं आते थे... टूटी, केरकेट्टा, नाग, मरांडी, मुंडू, कच्छप, डुंग-डुंग (एक लड़के का नाम था दीपक डुंग-डुंग और उसे हम लोग डी-क्यूब बुलाते). पहले ही दिन एक लड़का मिला नाम मेल्क्योर केरकेट्टा और जिस स्कूल से आया था उसका नाम था 'डॉन बोस्को रुडूनकोचा'. उसकी पूरी जानकारी तो लाख कोशिश करके भी उस दिन नहीं याद हो पायी थी पर अभी तक नहीं भुला. यहाँ आने के पहले यादव, ओझा, चौबे, पांडे और मिश्रा जैसे गिने चुने नाम होते. मास्टरजी बड़े-बड़े हिसाब देते और सही होने पर पीठ ठोकी जाती यहाँ होमवर्क जैसी चीज से पाला पड़ा और पीठ की ठुकाई बंद. 'वह शक्ति हमें दो दयानिधे' और त्वमेव माता' की जगह 'ओ माय फादर इन हेवेन' होने लगा. चार-चार परीक्षाएं होगी सुन के ही डर लगा... पहली परीक्षा के बाद घर पर बताया की २ विषय में लटक जाऊंगा... पर बाद में पता चला की पंडीजी की विद्या यहाँ भी कमाल कर गई और सबको पीछे छोड़ते हुए छोरा फर्स्ट आ गया. फिर पता चला की शाबाशी यहाँ भी मिलती है तो बस पंडीजी की वो विद्या जो गिनती-पहाडा से चालु हुई थी कुछ उसका कमाल और शाबाशी लेने का नशा चार साल तक विद्यालय में सर्वोच्च अंक पाता रहा...

ममता कुलकर्णी की फोटो

कुछ कहानियाँ भी बन गयी... ८ वीं में था तो गणित का पेपर भी चेक किया... इस सिलसिले में कई सहपाठियों से मार खाते-खाते बचा :-) मेरे एक दोस्त के पिताजी ने कहा की ओझा से ज्यादा अंक ले आओ तो बाइक मिलेगी...उस समय की बात कुछ और थी आज वाला होता तो फ़ेल भी हो गया होता. शिक्षकों का भरपूर प्यार मिला, किताबें भी खूब जीती पर साथ में कक्षा में बात करने के लिए खूब डांट भी खाई... सज़ा में सोशल सर्विस के नाम पर.. स्कूल में फूलों की क्यारी भी खूब साफ़ की. स्कूलों के शिक्षक आज भी पहचानते हैं एक बार ममता कुलकर्णी की फोटो वाली एक नोट बुक लेकर स्कूल चला गया एक शिक्षक ने कह दिया 'तुम भी यही खरीदते हो?' उस दिन बहुत बुरा लगा.

प्रेमचंद को घोट डाला ....

इस बीच माँ को गाँव जाना पड़ता था... अधिकतर समय के लिए बिना माँ के भी रहना पड़ता... खूब रोता, खेलने जाना बंद कर दिया, मन ही नहीं लगता..., एकांत से लगाव होने लगा, दोनों भाई छुट्टी के दिन जगन्नाथ मन्दिर की पहाड़ी पर जाकर घंटो बैठते, भिखारियों से लेकर मन्दिर आने वालो की श्रद्धा, स्कूल के शिक्षक से लेकर किताबें, पड़ोसियों के बारे में सब कुछ चर्चा करते. मन बहलाने के लिए किताबें उठा ली, प्रेमचंद को घोट डाला पता नहीं कितनी बार, फिर शरतचंद, अंग्रेजी की बी.ए. की किताबें, शेक्सपियर, मुल्कराज आनंद फिर मिली किशोर उपन्यास श्रृंखला (पुस्तकालय से) लगभग सारी निपटा डाली. पाठ्यक्रम की किताबों की कभी कमी नहीं हुई एक-एक विषय की ५-५ लेखकों की किताबें होती, प्रकाशन वाले पापा को दे जाते उन्हें पता चलता की इनका लड़का इस कक्षा में है तो उस कक्षा की हर विषय की किताब दे जाते.- जारी

Saturday, August 9, 2008

तुर्रमखाँ तूरानी, दुर्र-ऐ-दुर्रानी

385px-Turkestan हिन्दी में प्रचलित तेज़-तर्रार और तुर्रमखाँ जैसे मुहावरों के पीछे यही तुरुष्क, तूरान और तुर्क झांक रहा है।
 रान का उत्तरी क्षेत्र प्राचीन काल में तूरान के नाम से जाना जाता था और यहां के जातीय समूह और भाषा के लिए तूरानी शब्द का प्रयोग होता रहा। ईरान की प्राचीन भाषा अवेस्ता में इसके लिए तुर्य शब्द मिलता है। गौरतलब है कि ईरान शब्द की व्युत्पत्ति आर्य से हुई है। संस्कृत की बहन और ईरान की प्राचीन भाषा अवेस्ता में ऐर्य-तुर्य शब्दों का उल्लेख है जिसकी वजह से इस पूरे भूक्षेत्र के लिए ईरान के साथ तूरान नाम भी चलन में आया । किसी ज़माने में इस इलाके में पश्च्चिम में तुर्की से लेकर पूर्व में मंगोलिया और उत्तर में साइबेरिया तक का विशाल क्षेत्र आता था। तूरान का संबंध तुर्क जाति से है। गौरतलब है कि संस्कृत में तुर्क के लिए तुरुष्क शब्द है। अवेस्ता में इसे ही तुर्य कहा गया है। इसके अलावा अवेस्ता की कथाओं में एक उल्लेख मध्यएशिया के प्रतापी सम्राट फरीदुन का भी मिलता है जिसके तीन पुत्र थे । सल्म (अरबी में सलामत), तूर और इरज़। किन्ही संदर्भों में तूर का उल्लेख तुरज़ भी आया है।सम्राट ने पश्चिमी क्षेत्र के सभी राज्य जिसमें अनातोलिया भी था सल्म को दिए। तूर को मंगोलिया, तुर्किस्तान और चीन के प्रांत दिए और साम्राज्य का सबसे अच्छा इलाका तीसरे पुत्र ईरज़ को सौंपा।  ईर का बहुवचन ईरान हुआ और तूर का तूरान। अर्थात जहां तूर शासित क्षेत्र तूरान और ईर शासित क्षेत्र ईरान। यह गाथा काफी लंबी है मगर इतना तो बताती है की संस्कृत और अवेस्ता में उल्लेखित तुरुष्कः , तुर्य अथवा तूर से ही तुर्क शब्द बना है और प्राचीन काल में इसे ही तूरान या तुरान कहा जाता था। इस शब्द के दायरे में सभी मंगोल, तुर्क,
कज़ाख, उज़बेक आदि जाति समूह आ जाते हैं। उल्लेखनीय है कि अवेस्ता में आर्य का उच्चारण ऐर्य होता है। एर का अर्थ होता है सीधा, सरल, सभ्य । तूर का मतलब होता है ताकतवर, कठोर, मज़बूत। हिन्दी में प्रचलित तेज़-तर्रार और तुर्रमखाँ जैसे मुहावरों के पीछे यही तुरुष्क, तूरान और तुर्क झांक रहा है।

leader1 अरबी में दुर्र या दुर का मतलब होता है मोती। दुर्र का बहुवचन हुआ दुर्रान इस तरह दुर्र ऐ दुर्रान का मतलब हुआ मोतियों में सबसे बेशकीमती

फोटो साभार-www.afghanland.com/

दुर्रान-दुर्रानी -   रानी, तूरानी की तरह दुर्रानी शब्द भी भारत में सुनाई पड़ता है। इसका रिश्ता भारत के एक आक्रांता से जुड़ा हुआ है। नादिरशाह की मौत के बाद उसका सिपहसालार अहमदशाह अब्दाली (1723-1773) ने काबुल की गद्दी कब्जा ली। अपने आक़ा की तरह दिल्ली फतह के इरादे उसके भी थे और कई बार उसने भारत पर चढ़ाई भी की। दिल्ली फतह की उसकी इच्छा इतनी प्रबल थी कि उसका उल्लेख उसने एक कविता में भी किया है। हरहाल , अहमदशाह अब्दाली पख्तून (पठान) था। पठानों की एक उपजाति है अब्दाली । इन्हीं अब्दालियों का एक कबीला है सबदोजाई जिससे ताल्लुक था उसका। अहमदशाह की बहादुरी को देखते हुए उसे दुर्र ए दुर्रान की उपाधि मिली। अरबी में दुर्र या दुर का मतलब होता है मोती। दुर्र का बहुवचन हुआ दुर्रान इस तरह दुर्र ऐ दुर्रान का मतलब हुआ मोतियों में सबसे बेशकीमती । सबसे अव्वल। सो अहमदशाह अब्दाली को दुर्रानी कहा जाने लगा। कई लोग दुर्रानी का अर्थ कबीले अथवा जाति से लगाते हैं, जबकि ऐसा नहीं है। अलबत्ता सबदोजाई कबीले के लोगों ने अहमदशाह के बाद खुद को दुर्रानी कहलवाना ज़रूर शुरू कर दिया। हालांकि एक अन्य व्युत्पत्ति के अनुसार यह शब्द दुर्र-ऐ-दौरान से  बना है अर्थात दौर यानी काल, वक्त, समय का बहुवचन दौरान। इसका मतलब हुआ वक्त का बेशकीमती मोती।
 तातार- तूरानियों की तरह ही भारतीय इतिहास में तातारियों का भी उल्लेख है। दरअसल तातार शब्द से अभिप्राय तुर्क और उज़बेक लोगों से ही है। मूलतः एक मंगोलियाई कबीले के नाम के तौर पर तातार शब्द प्रचलित हुआ। पुराने ज़माने में चीन के लोग उत्तर पश्चिमी सीमा से लगते प्रांतवासियों के लिए तातान अथवा दादान शब्द का प्रयोग करते थे। तातार शब्द इससे ही चला। बाद में चंगेज़ खान द्वारा शासित मंगोल जाति समूहों ने खुद को तातार कहना शुरू कर दिया।

Friday, August 8, 2008

जालसाज़ी के उपहार का योगदान !


दुनियादारी निभा लेना बहुत कठिन है। इससे घबराकर कई लोगों ने गृहस्थी की राह छोड़ वैराग्य की राह पकड़ी और हो गए बैरागी। मगर क्या बैराग भी इतना आसान है ?

तन को जोगी सब करे , मन को बिरला कोय।
सहजै सब बिधि पाईये, जो मन जोगी होय।।


बीरदास जी ने इस दोहे में योगी को परिभाषित करते हुए बताया है कि योगियों का बाना और धज बना लेने से कोई योगी नहीं हो जाता। सच्चा योगी वही है जिसका मन ईश्वर में रमा रहे। जोग-बैराग का रंग मन पर कम और तन पर ज्यादा चढ़ाया तो इस लोक से भी गए और परलोक से भी।


प्राचीनकाल में योगदान का मतलब होता था जालसाज़ी से प्राप्त उपहार। पुराने अर्थ में आज योगदान करना या मांगना आफ़त में पड़ना होगा।

चित्र साभार-http://forum.isratrance.com/


योगी शब्द बना है युज् धातु से । योग शब्द भी इससे ही बना है जिसमें जोड़ना, मिलाना, फल परिणाम, चिन्तन-मनन आदि। युज् से ही बने हैं युक्त-युक्ति जैसे शब्द जिसका अर्थ भी जोड़ना मिलाना अथवा तरकीब, उपाय होता है। इस तरह उपचार, चिकित्सा आदि अर्थ भी इसमें शामिल हो गए क्योंकि रोग के निदान के लिए औषधि तैयार करने में किन्ही पदार्थों को आपस में मिलाने (योग) की क्रिया शामिल है। औषधि को यौगिक भी इसी वजह से कहते हैं। बाद में मिलते-जुलते कुछ अन्य अर्थ भी इसमें समाहित हैं जैसे इंद्रजाल, जादू-टोना, छल-कपट आदि। गौर करें कि जादूगर मुख्य रूप से अपने हाथ और मुख की चेष्टाओं से किन्ही वस्तुओं को जोड़ता-मिलाता है (योग) और उससे चमत्कार दिखाता है।

हिन्दी का योगी दरअसल संस्कृत के योगिन से बना है । युज् से बने योगिन् में योग से जुड़े तमाम अर्थों का ही कर्ता अर्थात करनेवाले के रूप में ही विस्तार है। योगिन् यानी चिन्तन-मनन करनेवाला, सन्यासी, महापुरुष, जादूगर, बाजीगर आदि। नाथ योगियों की तांत्रिक क्रियाओं की वजह से योगियों के साथ जादू-टोना आदि क्रियाएं जुड़ गईं। हठयोगियों ने भी इस अर्थ को बढ़ावा दिया। योगिनी शब्द का अर्थ ही तंत्रविद्या है। इनकी संख्या चौंसठ मानी जाती है। जबलपुर में चौंसठ योगिनियों का प्रसिद्ध मंदिर भी है। गांव देहात में सिद्धयोगी बन गया जोगी। इसी वजह से कहावत चल पड़ी घर का जोगी जोगड़ा, आन गांव का सिद्ध। ये जोगी तंत्र-मंत्र के नाम पर चमत्कार दिखाते हुए ज़माने भर में बदनाम भी हुए।



योग में उपसर्गों और प्रत्ययों के लगने से वियोग और संयोग जैसे शब्द भी बने जिनके देशज रूप बिजोग और संजोग भी प्रचलित हैं। योग्य, योग्यता जैसे शब्द भी इसी कड़ी में आते हैं। सहयोग भी इससे ही बना है। योगदान का अर्थ भी सहयोग होता है इसके अलावा मदद करना, सहायता करना, अंशदान करना आदि भाव भी इसमें समाहित हैं। गौरतलब है किसी ज़माने में योगदान शब्द के मायने ये नहीं थे । योग के छल-कपट, जादू-टोना वाले भाव इसमें प्रबल थे और इस तरह प्राचीनकाल में योगदान का मतलब होता था जालसाज़ी से प्राप्त उपहार। पुराने अर्थ में आज योगदान करना या मांगना आफ़त में पड़ना होगा।