
इज्ज़त उतारने के लिए बख्शी है इज्ज़त
खुद के बारे में लिखना सचमुच “बहुत कठिन है डगर पनघट की” जैसा है उस पर भी तुर्रा ये कि इस चिरकुट ने अब तक विशुद्ध चिरकुटई के कुछ किया ही नहीं जिसकी चर्चा की जाय। जब इसे लिखने बैठा हूँ तो ऐसा लग रहा है जैसे सैंचुरी बना के आउट हुए सचिन तेंदुलकर के बाद खेलने आने वाले बल्लेबाज को लगता होगा । (देखने वालों में आधे लोग तो टीवी बन्द कर ही लेते हैं ) अनिता जी ने शब्दों के सफर में जो ऊंची ऊंची उड़ान भरी है वह हम जैसे हमेशा कम ऊंचाई पर उड़ने वाले के लिये अलभ्य है। फिर भी अजित जी ने इज्जत उतारने के लिये इज्जत बख्शी है, तो शुरु हो जाते हैं।
जीवन ने जब आंखे खोली
अप्रतिम सुन्दरता से भरपूर अल्मोड़ा मेरा जन्म स्थल बना। बचपन से प्रकृति की गोद में पला-पढ़ा। सामने हिमालय की हिमाच्छादित चोटियां होती जिन्हे सुबह-सुबह उठ कर देखना बहुत अच्छा लगता.चीड़–देवदारु के जंगल होते जिनमें कई बार मैं गाय चराने निकल जाता। दोस्तों के साथ आड़ू,खुबानी, दाणिम के पेड़ों पर चढ़ कर उन फलों को खाता। दूसरों की ककड़ी, नीबू, संतरा या माल्टा चुराता। शाम को हम लोग तरह तरह के जंगली फलों की तलाश में दूर निकल जाते और देर रात घर लौटते.घर आके डांट खाना और अगले दिन से ना जाने का वादा करना यह हर रोज का काम होता। पिताजी सरकारी कर्मचारी थे और माँ गृहिणी। दादा जी पंडिताई करते थे। उनसे ही बचपन में संस्कृत पढ़ना सीखा। उनके द्वारा हाथ से भोजपत्र पर लिखी हुई कुछ किताबें थीय़। उनकी राइटिंग ऐसी लगती थी जैसे छपाई की गयी हो। निगल की कलम और कमेट (सफेद स्याही) से पहले तख्ती पर फिर स्याही से कागज पर मेरी राइटिंग सुधारने की बहुत कोशिश की गयी लेकिन राइटिंग को ना सुधरना था ना सुधरी। जीआईसी अल्मोड़ा से किसी तरह से 12 तक की पढ़ाई पूरी की। उन दिनों जीआईसी के पास ही एक पुस्तकालय हुआ करता था। वहाँ से किताब पढ़ने का चस्का लगा। हिन्दी की बहुत सी किताबें वहीं पढ़ी। उनसे दुनिया के बारे में एक समझ पैदा हुई। कुछ दिनों आकाशवाणी अल्मोड़ा से भी प्रसारित होता रहा। फिर शुरु हुआ हॉस्टल में रहने का किस्सा।

जीवन ने जाना जीवन को,जीना सीखा
घर में बचपन से दो ही चीजें बतायी गयीं थी कि बेटा बड़े होकर या तो डॉक्टर बनना या इंजीनियर। दोनों काम अपन के लिये आसान ना थे। किसी तरह इंजीनियर की प्रवेश परीक्षा को पास किया और इंजीनियर बनने के लिये कानपुर आ गये। पहली बार घर से बाहर हॉस्टल में अकेले। शुरु शुरु में तो डर भी बहुत लगा। कई परेशानियाँ भी हुई।जमकर रैंगिंग भी हुई लेकिन ये चार साल जिन्दगी के सबसे हसीन सालों में रहे। मैं तो कहता हूँ कि हर इंसान को हॉस्टल में एक बार जरूर रहना चाहिये। वहीं इंसान जिन्दगी को करीब से पहचानता है।यहाँ खुद के व्यक्तित्व के कई अनजाने पहलुओं से भी रुबरू हुआ।कॉलेज में स्टेज पर कई कार्यक्रम किये।कंपेयरिंग भी की। लिखने की भी कुछ कोशिशें की।नाटक लिखे, नाटकों का मंचन किया,अपनी वॉल मैगजीन निकाली।कई सारे काम, जो कभी सोचे भी नहीं थे कि मैं कर सकता हूँ,किये। कॉलेज की किताबों के अलावा काफी किताबें भी पढ़ीं। उन दिनों पढ़ने के जुनुन में कई बंगला किताबों के हिन्दी अनुवाद पढ़े। जिनमें विमल मित्र, शरत चंद्र ,शंकर, टैगोर प्रमुख हैं। इन किताबों से बंगला संस्कृति और कलकत्ता के एक छवि दिमाग में बनी।
कम्प्यूटर में दिलचस्पी और पागल समझा जाना
इंजीनियरिंग में मेरी ब्रांच में कंप्यूटर का कोई काम नहीं था। लेकिन न जाने क्यों मुझे कंम्प्यूटर पर काम करना बहुत अच्छा लगता था।
तब आज की तरह के कंप्यूटर नहीं होते थे। तब या तो पंच कार्ड वाले हरी रोशनी वाले कंप्यूटर थे या फिर फ्लॉपी से चालू होने वाले बिना हार्ड-डिस्क वाले ब्लैक एंड व्हाइट कंप्यूटर। हॉस्टल में जब सब लड़के मौज-मस्ती कर रहे होते तब मैं अपने एक मित्र के साथ कंम्यूटर लैब में होता। कंम्प्यूटर की कुछ भाषाएं भी तभी सीखीं। सभी लोग हमें पागल कहते क्योंकि उनके अनुसार हमारी नौकरी में यह कंम्यूटर का यह ज्ञान किसी भी तरह काम नहीं आने वाला था। लेकिन आगे चलकर इसी ज्ञान ने इज्जत बचायी। [बाकी हाल अगली कड़ी में ]