ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी, अरुण अरोरा , हर्षवर्धन त्रिपाठी , प्रभाकर पाण्डेय अभिषेक ओझा और रंजना भाटिया को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के चौदहवे पड़ाव और अठहत्तरवें सोपान पर मिलते हैं पेशे से पुलिस अधिकारी और स्वभाव से कवि पल्लवी त्रिवेदी से जो ब्लागजगत की जानी-पहचानी शख्सियत हैं। उनका चिट्ठा है कुछ एहसास जो उनके बहुत कुछ होने का एहसास कराता है। आइये जानते हैं पल्लवी जी की कुछ अनकही-
शुरूआत थानेदारी की ट्रेनिंग से
इस ट्रेनिंग का सबसे exciting पार्ट था जब तीन महीने के लिए एक थाने का प्रभारी बनकर स्वतंत्र रूप से काम करना था! मुझे लटेरी थाना दिया गया जो की विदिशा से करीब १२० किलो मीटर दूर था! और रास्ता इतना ख़राब कि विदिशा से वहाँ तक जाने में करीब तीन घंटे का समय लगता था! लटेरी एक छोटा सा क़स्बा था, जहाँ पहुँच कर पहले तो मेरे पसीने ही छूट गए! इससे पहले गाँव में कभी नही रही थी! कच्ची सड़क, दिन दिन भर लाईट न रहना, चारों तरफ़ धूल ही धूल ,और तो और पानी भी साफ़ नही! कुछ दिन लगे इस जगह के साथ एडजस्ट करने में!
एएफआईआर की फीस !!!
जब वहाँ के थाने पहुँची तो उसका भी हाल बुरा था! सबसे पहले तो उसकी सफाई करवा कर उसे बैठने लायक बनाया! हाँ..थाने का स्टाफ बहुत अच्छा था! थानेदार बनकर थाने पर बैठना बहुत अच्छा लग रहा था! मैं सुबह से ही थाने पर जाकर बैठ जाती , हर आने वाले से बात करना मुझे अच्छा लगता था! पहले ही दिन एक ऐसा वाक्य हुआ जिसने मुझे बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया! एक बूढी औरत माथे पर चोट लिए मेरे पास आई ! उसे उसके पड़ोसी ने पत्थर मार दिया था! वो रिपोर्ट लिखाना चाहती थी! मैंने उसकी ऍफ़.आई.आर लिखने के लिए रजिस्टर मंगवाया! उसकी ऍफ़.आई.आर. लिखी ,इतने में उसने अपने बटुए में से सौ सौ के पाँच नोट निकाले और मुझे देने लगी! मैं अचंभित थी...मैंने पूछा ये पैसे क्यो निकाल रही हो तो वह बड़ी सहजता से बोली " ऍफ़.आई.आर. लिखवाने कि फीस है" ! मैंने कहा रिपोर्ट फ्री में लिखी जाती है , इसके पैसे नही लगते हैं! लेकिन वो मानने को तैयार नही थी....मेरे पैसे न लेने से उसका चेहरा बुझ गया और वो बोली " अगर पैसे नही लोगी तो मेरा काम नही होगा और न ही वो आदमी जेल जायेगा" ! मुझे बहुत समय लगा उसे ये समझाने में कि बिना पैसे के ही उसका सारा काम होगा! मैंने उसे वादा किया कि कल तक वो आदमी गिरफ्तार हो जायेगा! वो चली तो गई लेकिन उसे तब भी ये विश्वास नही था कि पैसे के बिना भी उसका काम हो सकता है! उसके जाने के बाद मैंने एक हवलदार को उस आदमी को पकड़ कर लाने को कहा , बरसात का टाइम था और वो हवलदार इतने छोटे से केस के लिए ४० किलोमीटर दूर उस गाँव में नही जन चाहता था! लेकिन मैंने उसे उसी वक्त भेजा और शाम तक वो उस आदमी को पकड़ लाया!केस वाकई छोटा सा था लेकिन उस वक्त मेरे लिए उस महिला के मन में पुलिस व्यवस्था के प्रति विश्वास पैदा करना ज्यादा ज़रूरी था! अगले दिन वो औरत दोबारा मेरे पास आई और इस बार उसने वादा किया कि अब वो कभी किसी को पैसे नही देगी और यदि कोई मांगेगा तो बड़े अधिकारी से शिकायत करेगी! मुझे खुशी थी कि पहले ही दिन मैं किसी कि अपेक्षाओं पर खरी उतरी!
बहरा बावर्ची, लज़ीज़ खाना
कुछ ही दिनों में मुझे उस कसबे में अच्छा लगने लगा! वहाँ के लोग जुआ बहुत खेलते थे! मैं अक्सर जुआ खेलने वालों को पकड़ा करती थी और जब जुआरी मुझे देखकर भागने लगते था तो गाँव के बच्चे मेरी मदद करते थे और भाग भाग कर उन्हें पकड़ते थे! कुछ दिनों में गाँव के बच्चे मेरे दोस्त बन गए थे और ख़ुद थाने पर आकर मुझे जुए, सट्टे और दूसरे अपराधों कि ख़बर देने लगे थे! उस तीन महीने के पीरियड में मुझे इतना कुछ सीखने को मिला जितना मुझे इसके पहले कि ट्रेनिंग में कभी सीखने को नही मिला था! उस बार दीवाली पर मुझे छुट्टी नही मिली....पहली बार अकेले दीवाली मनाने के ख़याल से मैं बड़ी दुखी थी! लकिन दीवाली के दिन मेरे थाने के स्टाफ ने महसूस ही नही होने दिया कि
श्रीनगर में तीनों बहनों के साथ
मैं घर से दूर हूँ! मैंने पूरे स्टाफ के साथ मिलकर रात में खूब सारे पटाखे चलाये! आज भी वो दीवाली मुझे हमेशा याद आती है! जिस रेस्ट हॉउस में मैं खाना खाती थी वहाँ का कुक बहुत लजीज खाना बनाता था लेकिन उसके साथ एक समस्या थी कि वो बहरा था! उसका नाम सुंदर था....बड़ी मुश्किल होती थी जब उसे बताना होता था कि अगले दिन क्या सब्जी बनेगी! मैं कभी धीरे धीरे होंठ हिलाते , कभी सब्जी का शेप बनाकर इशारे सेबताती ! बड़ी मुश्किल से उसकी समझ में आती! फ़िर इसका उपाय ये निकला कि सब्जी के चित्रों वाला कैलेंडर लाकर रेस्ट हॉउस में टांग दिया! बस...फ़िर मैं चित्र पर हाथ रख देती और सुंदर तुंरत समझ जाता!सिस्टम का दोष
तीन महीने तक थाना प्रभारी की कुर्सी पर बैठने से मुझे महसूस हुआ कि लोगों कि पुलिस से कितनी अपेक्षाएं होती हैं और सिर्फ़ उनकी बात ध्यान से सुन लेने भर से उन्हें कितनी तसल्ली मिलती है! और थानेदार का रोल इस मायने में सबसे ज्यादा इम्पोर्टेंट होता है क्योंकि व्यक्ति सबसे पहले थाने पर ही जाता है...जब वहाँ से निराश होता है तब वो ऊपर जाता है! जहाँ एक ओर थानेदार को कितना संवेदन शील होना चाहिए, ये समझ में आया वहीं उसे कितनी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है! और कौन सी परिस्थितियाँ है जो उसे भ्रष्टाचार की ओर धकेलती हैं...ये भी कुछ कुछ समझ में आने लगा था! एक थानेदार को कई ऐसे काम करने पड़ते हैं जिसके लिए उसे अपनी जेब से पैसे खर्च करने होते हैं! और ये हमारे सिस्टम की बहुत बड़ी खामी मुझे लगती है! थाने में सिपाही हवलदारों को पेट्रोल का पैसा सरकार नही देती है लेकिन उन्हें अपनी ड्यूटी के लिए दिन भर अपनी मोटर साइकल से दौड़ भाग करनी पड़ती है! रोज़ सौ रुपये का पेट्रोल डलवाना यानी अपनी ५००० या ६००० तनख्वाह में से ३००० खर्च कर देना! जाहिर है... इसके लिए वे दूसरे तरीके से पैसे लेते हैं और जब एक बार ज़रूरत पूरा करने के लिए भ्रष्ट बन ही गए तो अमीर बनने के लिए भी उन्हें भ्रष्टाचार बुरा नही लगता! मुझे महसूस हुआ कि इंसान को भ्रष्ट बनाने के लिए जितना वह व्यक्ति दोषी है उतना ही दोषी हमारा सिस्टम भी है![जारी]
इससे पहले की कड़ियों के लिंक साइडबार में जाएं
ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें
19 कमेंट्स:
पुलिस वालों का ये चेहरा सामने लाकर अपने ब्लॉग को एक नए मार्ग पर ला दिया है, बधाई हो...
बहुत ज्ञानवर्धक अनुभव था.. सबके साथ बांटने के लिए शुक्रिया..
पल्लवी जी की यह पोस्ट पढ़ कर बहुत ही अच्छा लगा --- इतनी ईमानदारी से सब कुछ लिख देना बहुत ही हौंसलेवालों का काम है -- बार बार मेरा ध्यान मेरे ही शहर ( अमृतसर) की उस हौंसले की देवी सुश्री किरण बेदी की तरफ़ जा रहा था । खरी बात है कि जो लोग बहुत ईमानदार होते हैं ना वे बहुत ही बैखौफ़ होते हैं और ऐसे लोगों के बलबूते ही यह सिस्टम एक टांग पर खड़ा हुआ है --- और उस बूढ़ी अम्मा जैसे लाखों लोगों की उम्मीदें ( जो पल्लवी के पास रिपोर्ट लिखवाने आई थीं)भी इन इमानदार लोगों पर ही टिकी हुई हैं --- वे टकटकी लगा कर इन्हें ही निहार रहे हैं।
सुरेश जी, आप का प्रयास सार्थक रहा ---नववर्ष की आप को एवं आप के अपनों को बहुत बहुत बधाईयां।
अजित जी आप को सुरेश जी लिखने के लिये खेद है। क्षमा करियेगा।
तीन घण्टों में 120 किलो मीटर ? विश्वास नहीं होता । याने, लटेरी जाने वाली सडक 'बहुत अच्छी' थी । मेरे अंचल में आईए, 28 किलोमीटर की यात्रा करने में कम से कम सवा घण्टा लग रहा है ।
संस्मरण निस्सन्देह 'ईमानदार' हैं । यद्यपि अपेक्षा ही दुखों का मूल है फिर भी अपेक्षा है कि आपके अधीनस्थ थानेदारों की व्यावहारिक कठिनाइयों का निदान आप निकाल रही होंगी और उन्हें अपनी पेट्रोल-पूर्ति के लिए भ्रष्टाचार नहीं करना पड रहा होगा ।
अजित भाई को विशेष धन्यवाद - इतने खनकदार संस्मरण सामने लाने के लिए ।
पल्लवी जी, आप के बकलम खुद की सब से महत्वपूर्ण कड़ी है यह। बहुत महत्वपूर्ण निष्कर्ष दिए हैं इस ने।
1. थानाधिकारी का संवेदनशील होना आवश्यक है।
2.उस का व्यवहार हो कि लोगों में शिकायत पर कार्यवाही के प्रति विश्वास पैदा हो, यह भी कि यदि शिकायत मिथ्या है तो खुद शिकायतकर्ता भी नहीं बचेगा।
3. जनता का एक बड़ा हिस्सा अपराध की समाप्ति के लिए सदैव पुलिस की मदद करने को तैयार रहता है(जैसे यहाँ बच्चे), पर पुलिस अधिकारी इस का उपयोग करना जानें।
4.यह बहुत बड़ी विडम्बना है कि पुलिस की कार्यप्रणाली के खर्चों का भार इस की पैदाइश से ही, संपर्क में आने वाली जनता (शिकायतकर्ता) से वसूल करने की परंपरा अभी तक कायम है। सरकार. संसद और विधानसभाओं को इस ओर ध्यान देना चाहिए। वरना जनतंत्र की आवश्यकताएँ कभी पूरी नहीं हो सकेंगी।
5.इस के अलावा भी अनेक निष्कर्ष हैं। कभी उन का पूरा उल्लेख तीसरा खंबा में करने का प्रयत्न करूंगा। आखिर न्यायप्रणाली का मह्त्वपूर्ण अंग पुलिस भी है।
एएफआईआर की फीस वाला हिस्सा सच में बहुत अच्छा लगा.. आपको शुभकामनाये..
बहुत ही सही कहा आपने....ये सिस्टम ही ऐसा है...नव वर्ष की आपको हार्दिक शुभकामनाये
एफ आई आर लिखाने वाली महिला के साथ विनम्रता
भाग भाग कर जुआरियो को पकड़ने में बहादुरी..
बावरची को केलेंडर से समझाने में बुद्धिमता
फोटो में सौंदर्य
एक कंप्लीट इंसान का पेकेज हो आप तो...
बहुत ही बढ़िया
f I R की फीस वाला किस्सा क्या हकीकत है जी। ऐसे ही इंसानो की वजह से तो संतुलन बना हुआ है नहीं तो....। और साथ ही नव वर्ष की शुभकामनाएं।
अच्छा लगता है इस तरह की संघर्ष यात्राएं पढ़ कर. और भी लोग लिखें. पल्लवी जी भी और लिखें
पल्लवी जी, बकलमखुद की यह कड़ी विशेष है।
दर-असल हम जब भी मौका पाते हैं पुलिस व्यवस्था की आलोचना करने से नहीं चूकते।
पर आपने पक्ष बहुत ही अच्छे तरीके से रखा है और इमानदारी के साथ रखा है।
काश! सभी पुलिसवाले इतने ही संवेदनशील हो जाएं।
नव वर्ष की शुभकामनाएं आप सभी को
अजीत जी
पल्लवी जोशी जी के सटीक संस्मरण बेबाकी के साथ प्रस्तुत करने के लिए आभार. वास्तव में यह कहा जाय कि पुलिस विभाग को पल्लवी जोशी जैसी कर्मठ ईमानदार ऑफिसर की जरुरत है जो एक बिगडैल विभाग को काफी हद तक सही लाइन में ला सके.. सटीक संस्मरण पढ़कर बहुत अच्छा लगा. नववर्ष की शुभकामना के साथ आपका भविष्य उज्जवल हो की कामना के साथ.
महेंद्र मिश्रा
जबलपुर.
बकलम खुद की यह कडी लाजवाब लगी ! बहुत शुभकानाएं आपको !
नये साल की रामराम !
रोचक! मुझे अपनी नौकरी के प्रारम्भिक वर्ष याद आने लगे।
पल्लवी जी का लेखन हमेशा की तरह बढ़िया है. पुलिस विभाग से लोगों की अपेक्षाएं और पुलिस विभाग की मुश्किलों के बारे में पता चला.
आगे की कड़ियों का इंतजार है.
हिन्दी ब्लोग जगत से जुडे सभी को ढेरोँ शुभकामना
आगामी वर्ष सुख शाँति दे
२००९ अब आया ही समझिये :)
और पल्लवी जी आपकी बातेँ पढकर यही कहूँगी आप जितनी सच्ची इन्सान हैँ उतनी ही अच्छी हैँ
अजित भाई, "बकलमखुद" पर अब आपको भी प्रक़ट होने का समय आ गया है :)
इस प्रयास के लिये बहुत आभार
- स स्नेह, लावण्या
अच्छा लगा यह संस्मरण भी। चीफ़ विजिलेंस कमिश्नर ठक्कर की बात याद आती है कि लोग ईमानदार भर्ती होते हैं लेकिन सिस्टम उनको बेईमान बना देता है। अपने पैसे पेट्रोल भरवा के थानेदार कैसे नौकरी करेगा?
पल्लवीजी के बारे में जानना बड़ा अच्छा लग रहा है. काश सारे पुलिस वाले ऐसे होते !
Post a Comment