Wednesday, October 23, 2024
दिवाली भी शुभ है और दीवाली भी शुभ हो
हर साल की तरह इस बार भी मित्रों ने दीवाली/दिवाली की वर्तनी के बारे में राय जाननी चाही। किसी से चैट पर, किसी से ईमेल पर, किसी से वाट्सएप पर वॉइस मैसेज और किसी से जीमेल-मैसेंजर के ज़रिए बीते दिनों का जो कुछ भी संवाद मेरे फोन और लैपटाप में था, उसे जोड़ घटा कर यह आलेख बना दिया है। दीवाली/दिवाली की दोनों ही रूप हिन्दी में स्वीकृत भी हैं और सहज भी। आज हम जिस हिन्दी को बरत रहे हैं उस पर भी अनेक क्षेत्रीय प्रभाव हैं जो अलग अलग प्राकृतों से प्रभावित लोकरूपों से आए हैं। मिसाल के तौर पर दीपावली तत्सम रूप है। दीप भी। इसके दिया, दीया, दीपक, दीवा जैसे अनेक रूपभेद हैं।
जनभाषा में दिवाली
पंजाबी में दीवा है तो मैथिली में दीया है। यही नहीं, पंजाबी के भी किन्ही इलाक़ों में दीया नज़र आता है। मराठी में दिवा है। ये सब उच्चार लोकग्राह्य हैं। इनकी साहित्यिक स्वीकार्यता भी रही है। यही बात दीवाली, दिवाली के साथ भी है। इतना ही नहीं, शब्दकोशों में दीवाला, दिवाला दोनों रूप भी मिलते हैं। पंजाबी कोशों और अखबारों में दीवाली के साथ दिवाली (ਦਿਵਾਲੀ) रूप दिखाई पड़ता है वहीं जनसामान्य ‘दि/दी’ के फेर में न पड़ते हुए अक्सर दवाल्ली, दुआली बरतना पसंद करता है। इस सन्दर्भ में गुरुवर प्रो. सुरेश वर्मा का कहना है कि मानक हिंदी के लिए ' दीवाली' उपयुक्त है। 'दिवाली 'अगले चरण का विकास है। उच्चारण सौकर्य के लिए 'दी' ने 'दि' के लिए अपना स्थान छोड़ दिया है। जनभाषा में 'दिवाली' ने अपना popular space बना रखा है।
ह्रस्वीकरण की सहज वृत्ति
दीप से बने शब्दरूपों में ह्रस्वीकरण की सहज वृत्ति काम करती रही है। मिसाल के तौर पर अवधी में दिअटि शब्द है। यह वही है जिसे राजस्थानी समेत हिन्दी के अनेक क्षेत्रों में दीवट के तौर पर जाना जाता है। दीवट भी दिया रखने के स्टैंड को कहते हैं। दीवट अपने आप में दीया भी है जिसमें बाती जलाई जाती है। दीयट, दीअट भी इसके अन्य समरूप हैं। भाषाविदों ने इसका मूल दीपस्थ माना है अर्थात लैम्पस्टैंड या दीपाधार। प्राकृत में यह दीवट्ठ है मगर अगला विकास दिअठ ह्रस्वीकरण के साथ सामने आता है। दिया रखने का आला दिअरखा कहलाता है। यह पूरबी बोलियों में प्रयुक्त होता है। दीवार में बनी दीप रखने की जगह। भाव लैम्पस्टैंड का है। ऐसे अनेक उदाहरण मिलेंगे। जैसे दीपक, दीया के लिए दिअना, मिट्टी के छोटे दीप के लिए दिअली और दिउला। इसी तरह मालवी, राजस्थानी में दीवड़ा, दीवड़ौ छोटा दीपक है। गौर करें तत्सम रूप में ही दीप के ‘दी’ में दीर्घस्वर बना रहता है। जैसे ही ‘दीप’ लोकवृत्त में आता है, उसमें दियरा, दियला, दियवा, दिवरी और दियली जैसे पर्याय दिप-दिपाने लगते हैं।
अरण्डी का तेल
दूर क्यों जाएँ, अभी दो दशक पहले तक तक दिट्ठी, दीठी अथवा दिखना, दीखना पर समाचार कक्षों में सही वर्तनी और उच्चार पर अनुमान लगाए जाते थे। यह सकारात्मक और बहुत अच्छी बात थी। दीप की कड़ी में ही दीप्त है। इसका एक रूप दित्त है। दीप्ति का रूप अवधी में दिपति हो जाता है। ह्रस्वीकरण प्रभावी हो रहा है। दिपना, दिपाना भी बेहद आम से शब्द हैं जो दीपन् से आ रहे हैं। दीपक रखने के स्थान को ‘दियरखा’ भी कहते हैं। गुजराती में अरण्डी को ‘दिवेला’ भी कहते हैं। यह दरअसल दिवेल अर्थात दीवौ (दीप) + तैल(तेल) से बना है। अरण्डी की फसल का उपयोग तेल बनाने में ही किया जाता है। पुराने दौर में जब बिजली सुलभ नहीं थी, इस तेल का उपयोग दिया व प्रकाशित करने वाले अन्य उकरणों में किया जाता था।
दिपावली भी और दीपावली भी
गुजराती में भी दीपावली से विकसित दिवाळी रूप प्रचलित हैं। मगर सबसे दिलचस्प बात यह कि वहाँ दीपोत्सव के सबसे लोकमान्य रूप दीपावली का दिपावली रूप भी दिखता है। गुजराती की सबसे प्रतिष्ठित भगवद्गोमंडल कोश में दिपावली भी प्रयुक्त हुआ है। मराठी कोशों में और भी हैरत में डालने वाली प्रविष्टियाँ मिलेंगी। वहाँ न सिर्फ़ दीपावली का दिपावळी रूप भी दर्ज है बल्कि इसका एक अन्य समरूप दिपवाळी भी ठाठ से हाज़िर है। यही नहीं, दिपवाळीचा पाडवा या दिपावळिची प्रतिपदा जैसी व्याख्या भी देखने को मिलती है। यूँ देखें तो मराठी में दीपावली का दीपावळी रूप देखने को नहीं मिलता बल्कि वहाँ एक तीसरा ही रूप दिपावळि चलता है। इसके अतिरिक्त दिवाळी सबसे ज्यादा प्रचलन में है। इसके अलावा दीपपर्व की तर्ज पर दिवाळ-सण का बरताव भी खूब होता है।
दियासलाई का ‘दीया’
दियासलाई की मिसाल देखिए। इस शब्द के प्रथम सर्ग दिया पर कभी बहस नहीं होती। दीयासलाई को सही बताते हुए दियासलाई पर कुढ़ते कभी किसी को देखा नहीं गया। याद करें, नामी शब्दकोश इसकी व्युत्पत्ति दीया+सलाई लिखते हैं। ये हैरत की बात नहीं है कि दीया और सलाई के मेल से दीयासलाई शब्द बनना चाहिए या दियासलाई ? जो कोशकार दीया+सलाई से बने दियासलाई के चलन पर मौन रहते हैं, वही दीवाली के सम्मुख दिवाली को गलत ठहराते हैं, मगर तर्क नहीं देते। जबकि दियासलाई और दिवाली दोनों के मूल में दीप ही जगमगा रहा है। कुछ विद्वान दिवाली को इसलिए ग़लत ठहराते हैं क्योंकि यह दिवाला से जुड़ता सा लगता है। दिवाला एक दुर्भाग्यपूर्ण और अशुभ प्रसङ्ग है इसलिए दीवाली जैसे सुख-समृद्धि के पर्व दीवाली की वर्तनी में हम दिवाला का ह्रस्व ‘दि’ नहीं देखना चाहते। अन्यथा कोशों में दिवाली और दीवाली के साथ दीवाला और दिवाला दोनों मिलते हैं। क्योंकि दोनों में दीप के लोकरूप दिवा और दीवा ही हैं।
मानक के साथ सरल भी
आम आदमी 'दिया' और 'दीया' रूप समान भाव से बरतता है। पूरबी बोलियों में दीया प्रचलित है जबकि मध्य और पश्चिमी भारत में दिया चलता है। अलबत्ता पंजाबी में दीवा है और मराठी में दिवा और राजस्थानी में ह्रस्व और दीर्घ दोनों ही रूप प्रचलित हैं। अर्थात दिवौ, दीवौ और दिवलौ, दीवलौ दोनों ही प्रकाशमान हैं। दीवाली, दिवाली के अलावा एक अन्य रूप दिवारी भी है। मगर विद्वत समाज में उसे दीवारी करने सम्बन्धी आग्रह कभी नहीं देखा गया। वजह लिखत-पढ़त की हिन्दी में, ख़ासतौर पर संचार माध्यमों में दिवाली और दीवाली ही अधिक बरते जाते हैं। यह बार बार साबित होता है कि जनभाषा सरल राह चुनती है। परिनिष्ठित या मानक होने की चाहत गलत नहीं किन्तु भाषा को दुरूह होने से बचाना किसी भी जनञ्चार माध्यम के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।
हर मर्ज़ की एक दवा
भाषा का मानकीकरण आवश्यक है मगर क्या इसका अर्थ यह है कि किसी भी शब्द का कोई एक मानक रूप ही स्वीकार्य होगा? सर्दी, खाँसी, सिरदर्द दूर करने के अनेक निदान हैं मगर इन सब पर्यायों में से कोई एक उपचार ही स्थिर कर दिया जाए तो क्या यह सही होगा ? जब तक दवा नहीं मिल जाती तब तक राहत की उम्मीद में सिर पर पट्टी बांधी जाती है या नहीं ? मानकीकरण में भी इस तरह के दुराग्रहों से बचने की आवश्यकता है। हिन्दी का क्षेत्र बहुत विशाल है। तरह तरह की हिन्दियाँ लिखी-बोली जाती रही हैं। दिवाली और दीवाली से यह स्पष्ट है। दोनों में ही दियों की अवली यानी दीपों की कतार दिखती है, कोई और चीज़ नहीं।
पङ्क्तिपावन और पङ्क्तिच्युत
दिलचस्प यह कि जिस तरह तत्सम दीप के अनेक रूपभेद दिखाई पड़ते हैं, हिन्दी कोशों में अवलि, अवली, आवली तथा औली जैसे रूपों का भी उल्लेख होता है। इऩ सबमें ही कतार, पङ्क्ति, श्रेणी, लाइन, तरतीब, माला या अनुक्रम का आशय स्पष्ट है। इसी तरह संस्कृत में भी अवली और आवली, आवलि दोनों रूप हैं। औली तो प्रत्ययरूप में स्थापित होकर मण्डौली, सिधौली, खतौली, बिजौली, अतरौली, महरौली में स्थायी हो गए हैं। राजस्थानी में यह अवळी है। मानक रूप तय करते हुए किसी एक उच्चार को पङ्क्तिपावन बताते हुए शेष जिन उच्चारों (शब्दों) को पङ्क्तिच्युत किया जाएगा तब उनके क्या दोष गिनाए जाएँगे, यह जानना दिलचस्प होगा। पता नहीं गिनाए भी जाएँगे या नहीं।
अनेक शब्दरूप समस्या नहीं
किन्हीं शब्दों की अनेक वर्तनियाँ और उच्चार किसी भाषा की समस्या नहीं, गुण माना जाना चाहिए। अलबत्ता सरकारी कामकाज या संस्थागत व्यवहार की कोई न कोई मानक शब्दावली ज़रूर होती है। उस नाते दिवाली या दीवाली दोनों में से कोई एक रूप अपनाना बेहतर होगा। ध्यान रहे यह बाता अखबारों पर अधिक लागू होती है। ख़ासतौर पर किसी सूचना-विज्ञप्ति, साक्षात्कार अथवा आलेख में किसी एक शब्दरूप को ही बरता जाए। समूचे अखबार में भी कोशिश रहे कि किसी एक वर्तनी को स्थिर किया जाए, मगर ऐसा न हो पाने को दोष या चूक न माना जाए। यह उन विभागों, संस्थानों या समूहों को तय करना है कि वे इस सूची में किन शब्दों को बरतना चाहते हैं।
अर्थविचलन को पहचानें
सर्वस्वीकृत और लोक में प्रचलित एकाधिक रूपों पर किसी तरह खींचतान कर व्याकरण के खाँचे में कसने और एक को सही, दूसरे को अशुद्ध़ करार देने की कवायद व्यर्थ होगी। सन्दर्भ दीवाली/दिवाली का ही है। व्यक्तिगत स्तर पर मेरी कोशिश होती है कि दीवाली लिखूं मगर विचार-प्रवाह में अगर दिवाली लिखने में आता है तो उसे मिटाता भी नहीं हूँ। क्योंकि दोनों ही सही हैं और भाषिक परम्परा में हैं। रूढ़ हैं। भाषा प्रवाह में बहते हुए घिसते हुए अपने अनेक रूपाकारों में हमारी शब्दमञ्जूषा में आज तक टिके हुए हैं। हाँ, ह्रस्व या दीर्घ होने पर अर्थविचलन होने का कोई तर्क हो तो अलग बात है। ये वैविध्य इसीलिए है क्योंकि शब्दों को अपनी अभिव्यक्ति के अनुरूप ढालते हुए उसमें बदलाव के उपकरण भी हमारे पास होते हैं। छन्दप्रबन्ध करते हुए प्रचलित शब्दों में ह्रस्व-दीर्घ का बदलाव करना बहुत सामान्य बात रही है।
मानकीकरण की चुनौतियाँ
भाषाओं में ह्रस्वीकरण या दीर्घीकरण की वृत्ति होना बहुत सहज बात है। और भी अनेक कारण हैं जिनके चलते भाषा में टिके रहने का गुण पैदा होता है। इसीलिए भाषा बदलती रहती है। देश भर में हिन्दी की अनेक शैलियाँ हैं और वे सब समझी-गुनी जाती हैं। दिवाली का जिक्र आने पर कितने लोगों के मन में “खराद के पट्टे” की छवि उपस्थित हो जाती होगी ? यह भी जानना दिलचस्प होगा कि क्या इसी खरादपट्टे की वजह से जानकारों की राय में दिवाली लिखना उचित नहीं? जबकि 'दिवाली' को दीपपर्व रूप में बरते जाने के अनगिनत प्रमाणों ने ही इसे आज तक लक्ष्मीपूजन से जोड़े रखा है। दिवाले का अपशकुन इसे बरतने के आड़े नहीं आता। और अन्त में आरम्भ की बात दोहराता चलूँ- दिवाली भी शुभ है और दीवाली भी शुभ हो।
और चलते चलते
यह भी महत्वपूर्ण है कि सर्च बॉक्स में 'दिवाली' लिखने पर गूगल एक पल से भी कम समय में तीन करोड़ से भी अधिक नतीजे दिखाता है जबकि उतने ही समय में 'दीवाली' के लिए सिर्फ़ चालीस लाख नतीजे दिखाता है। इसका आशय गलत वर्तनी को मान्यता नहीं बल्कि प्रयोक्ताओं की संख्या बताना है।
असम्पादित
अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...
Monday, October 7, 2024
‘आमतौर पर’ ख़ास चर्चा
उम्मा, उम्मत, अवाम से आम तक
ऐसा कुछ, जो ख़ास न हो
बोलचाल की भाषा में मुहावरों से रवानी आ जाती है। भाषा ख़ूबसूरत लगने लगती है। दिलचस्प मानी पैदा हो जाते हैं। लय में आ जाती है। हिन्दी में एक मुहावरा हर किसी की ज़बान पर रहता है- ‘आमतौर से’ या ‘आमतौर पर’। यह बताने की ज़रूरत नहीं कि आम व तौर अलग अलग शब्द हैं। दोनों ने ही अरब से चल कर फ़ारसी की सवारी करते हुए हिन्दी की राह पकड़ी है। हिन्दी वाले दोनों को अलग अलग भी बरतते हैं और साथ साथ भी जैसे- ‘आम दिनों में’, ‘आम बात है’ आदि। या ‘मोटे तौर पर’, ‘किसी तौर पर’ वग़ैरह। मगर जब साथ साथ बरतते हैं तो मुहावरा बनता है जिसका आशय होता है साधारणया, सामान्यतया अथवा बहुधा।
‘आम’ और ‘तौर’
यूँ तो बात यहाँ से भी शुरू की जा सकती है कि ‘आमतौर’ को मिला कर समास की तरह लिखना ठीक है या अलग अलग करते हुए। जैसे आम-तौर अथवा आम तौर। हिन्दी के अनेक जानकार भी ‘आमतौर’ लिखते रहे हैं। मैं स्वयं मिला कर ही लिखता हूँ। शुद्धतावादी विवाद भी इस पर नहीं है। वैसे कोशों में ‘आम’ और ‘तौर’ यथास्थान सामान्य शब्द की तरह अलग अलग दर्ज़ हैं। बतौर मुहावरा, इसकी युग्मपदी अथवा वाक्यपदी विवेचना भी नहीं मिलती। थोड़े में कहें तो अलग-अलग लिखें या मिला कर, ‘आमतौर’ के मायने वही रहते हैं। भाषा प्रचलन और अभिव्यक्ति से चलती है। अधिकांश बरताव ‘आमतौर’ का ही है, मगर रूढ़ि की तरह। यूँ अलग अलग लिखा जाना ही सिद्ध है, मगर ‘ब’तौर की मिसाल भी सामने है।
नियम या रीति का संकेत
‘आमतौर’ में बहुधा और साधारणता का आशय है। जो ख़ास न हो, विशेष न हो, प्रचलित हो, सामान्य हो हो, उसके बारे में कुछ कहते हुए इस पद का प्रयोग कर लिया जाता है। जेनरली, नॉर्मली, कॉमनली जैसे सन्दर्भों में इसे बरता जाता है। इस तथ्य पर भी ध्यान देना चाहिए कि ‘आमतौर’ में रूढ़ि, रीति या ढर्रे पर चलने वाली बात भी गहराई तक धँसी हुई है। हम जिसे सामान्य समझते हैं, दरअसल वहाँ से पुरानी राह-बाट निकलती है। उस हवाले से भी आमतौर पर बरत लिया जाता है। इसमें अलिखित संविधान, नियम का संकेत होता है किसी पुरातन सूत्र का हवाला होता है। किसी नुस्ख़े, प्रणाली या जुगाड़ पर ज़ोर होता है। किसी सिद्धान्त या मर्यादा का स्मरण होता है। यह सब ‘आमतौर’ के हवाले से कहा, सुना और याद किया जाता है।
तरीका, ढंग, प्रकार
तो पहले बात ‘तौर’ की। तौर का प्रयोग आमतौर में जितना आम है, उतना ही तौर-तरीक़ा युग्म में भी दिखाई पड़ता है। तौर का मूल है त्रिवर्णी क्रिया तूर (ط و ر यानी ता-वाओ-रा) से, जिसमें गोल मँडराना, घूमना, रास्ता, अवस्था, तरीका, ढंग, भाँति, प्रकार जैसे आशय हैं। तूर अरब क्षेत्रों में प्रसिद्ध हुए यहूदी, ईसाई और इस्लाम पन्थ में प्रचलित कथाओं में अलग अलग पहाड़ों का नाम भी है जैसे तूरी-मूसा, तूरी-जिबा या जबल-तूर। कहीं उसे जॉर्डन में बताया जाता है, कहीं मिस्र में, कहीं सीरिया में तो कहीं इस्राइल में। अक्कद से होते हुए हिब्रू तक इसके सूत्र मिलते हैं। तौर, तरीका, तरह, तौरात (तौराह) जैसे शब्दों के हिब्रू-अरबी भाषायी सूत्र एक दूसरे से सम्बद्ध हैं, इस पर विस्तार से अलग से लिखा था। जल्दी ही उसे भी पेश किया जाएगा।
ढंग या बरताव की बात
‘तौर’ का प्रयोग करते हुए हम ढंग या बरताव के बारे में बात कर रहे होते हैं। इस तौर, उस तौर का आशय इस प्रकार या उस प्रकार होता है। समझा जा सकता है कि तौर प्राचीन यहूदी, इस्लामी धार्मिक शब्दावली से निकला हुआ शब्द होगा जिसमें ज्ञानार्जन, सिद्धि, पाना जैसे आशय हैं। अक्कद में तारु है जिसमें लौटाना, उत्तराधिकार, देना जैसे आशय हैं वहीं सीरिया की लुप्त उगारतिक ज़बान के तॉर को इसी कड़ी का माना गया है। इसमें आना, घूमना जैसे आशय हैं। ग़ौर करें, घूमने में चक्रगति है जिसमें प्रतिक्षण दोहराव होता है। यानी फिर फिर लौटना होता है। मूल आशय अथवा प्रसंग किसी मनीषी बोधिज्ञान प्राप्त करने है।
दार्शनिक आयाम
आज से हज़ारों साल पहले मानवता के विकासक्रम में किन्हीं सुधारकों की दी गई नसीहतों, सीखों पर अमल करने, उनकी बताए रास्तों पर चलने के अभ्यास से तूर, तॉर, तौर, तरीका, तरह, तौरात जैसे शब्दों के दार्शनिक आयाम प्रकट हुए। संकेत मूसा, हारुन आदि को ज्ञान प्राप्ति से जुड़े हैं। इस सन्दर्भ में तौरात को भी याद कर सकते हैं जो यहूदियों का धर्मग्रन्थ है। माना जाता है कि यह ईश्वर द्वारा मूसा को दिया गया था। ‘तौर’ के विभिन्न अर्थायाम है जैसे- आचरण, चाल, चलन, चाल-ढाल, बरताव, ढंग, व्यवहार, तरह, तरीक़ा, प्रणाली, भांति, रंग, रूप, रीति, शिष्टता, शैली, सूरत, भाँति, वज़ा, अंदाज़, आचरण, किस्म, अवस्था, गुण, प्रकार, स्तर, आचार आदि।
अब बात आम की।
ज्यादातर लोग आम को सिर्फ़ साधारण तक सीमित मानते हैं। दरअसल यह सेमिटिक भाषा परिवार का इतना महत्वपूर्ण शब्द है कि आम की अर्थवत्ता के एक छोर पर माँ है, दूसरे पर अवाम है तो तीसरे पर मुल्क। यही नहीं, इस शब्द से आर्य भाषा परिवार और सामी भाषा परिवार की रिश्तेदारी पता चलती है । ‘आम्’ का मूल आज से साढ़े चार हज़ाल साल पहले दजला-फ़रात के मैदानों में पसरी सुमेर सभ्यता में समूहवाची अम्मु में मूलतः सुरक्षा, संरक्षण का भाव है। अर्थ हुआ राष्ट्र या अवाम। अम्मु शब्द है यह समूहवाची शब्द है जिसमें सुरक्षा और संरक्षण का भाव भी है। ‘अम्मु’ का अर्थ है राष्ट्र या अवाम।
उम्मा, उम्मत, अवाम
ग़ौर करें, सियासी या मज़हबी सन्दर्भों में अक्सर उम्मा, उम्मत का उल्लेख आता है आशय समूहवाची ही होता है, लोग, जनता, राष्ट्र जैसे अभिप्राय ही मूल हैं। मगर भारत में ग़ैरमुस्लिम इसे नहीं बरतते। इसलिए उम्मा का आशय मुस्लिम समुदाय ही लगाया जाता है। साढ़े चार हज़ार साल पहले के अरब समाज में सुमेर संस्कृति के उम्मतु से यह शब्द पहुँचा था। अर्थ था आकार, आयतन, परिमाण, तादाद आदि। स्पष्ट है कि समुदाय, जाति, वर्ग या राष्ट्र का आधार क्षेत्र नहीं, जन होता है और उम्मतु इसी की अभिव्यक्ति थी। बाद में अरबी के उम्मत, उम्मा तक पहुँचते पहुँचते इसमें जन कुल वर्ग जाति पन्थ राष्ट्र अनुयायी अनुगामी जैसे अर्थायाम भी उभरते चले गए।
बात आश्रय की
यह भी महत्वपूर्ण है कि सेमिटिक भाषा परिवार की कई भाषाओं में अम्मु से माँ के आशय वाले विपर्ययी रूप बने हैं जैसे अक्कद में ‘उम्मु’, अरबी में ‘उम्म’, हिब्रू में ‘एम’, सीरियाई में ‘एमा’ आदि। ध्यान रहे कि प्रकृति में, पृथ्वी में मातृभाव है क्योंकि ये हमें संरक्षण देते हैं, हमारा पालन-पोषण करते हैं। अक्कद भाषा के ‘अम्मु’ और ‘उम्मु’ दरअसल पालन-पोषण वाले भावों को ही व्यक्त कर रहे हैं। राष्ट्र के रूप में ‘अम्मु’ समूहवाची है, अवाम यानी जनता तो अपने आप में समूह ही है। किसी भी विचार सरणी, धर्म, पन्थ का मूल आधार या आश्रय समूह ही होता है। आम लोगों वाला अवाम। बेहद सामान्य, साधारणत्व का विशेषीकृत समूह।
तो कुल मिला कर...
आमतौर के पहले सर्ग में साधारणता और दूसरे में ढंग, अवस्था, स्तर, आचरण जैसी बात है। ईश्वर और इन्सान की बनाई दुनिया में जो कुछ भी सहज, सामान्य, आमफ़हम, हस्बे-मामूल है, आमतौर के दायरे में आता है। वह सब जो ‘ख़ासतौर पर’ नहीं होता, ‘आमतौर पर’ होता है।
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