धार्मिक आधार पर लोगों की भावनाएं उभारने और अतिवादी भड़कीली तकरीरें करनेवाले लोग भी अपने नाम के साथ मुल्ला शब्द का प्रयोग करते रहे हैं। |
मुल्ला शब्द में भी धार्मिक व्यक्तित्व का भाव है और आम तौर पर इबादतगाह में नमाज़ पढ़वाने का काम इन्ही
के सिपुर्द होता है। इसके अलावा धार्मिक प्रवचन और शिक्षा भी ये लोग देते हैं। मगर बदलते वक्त में इस शब्द की गरिमा को धक्का लगा है। यह हर धर्म में होता आया है। हिन्दुओं में भी नाम के आगे स्वामी और महंत शब्द लगाकर अपना उल्लू सीधा करनेवाले पाखंडियों का पर्दाफाश होता रहा है। मुल्ला शब्द अतिवाद, कट्टरवादी छवि का शिकार हुआ है। धार्मिक आधार पर लोगों की भावनाएं भड़काने और अतिवादी भड़कीली तकरीरें करनेवाले लोग भी अपने नाम के साथ मुल्ला शब्द का प्रयोग करते रहे हैं।
हाल की घटनाएं और उसमें उभर कर आए नाम इस बात का सबूत हैं कि इस सम्बोधन की आड़ में चंद लोग इल्म की नहीं, दहशत की सियासत कायम करना चाहते हैं।
प्रसंगवश "नया मुल्ला प्याज ज्यादा खाता है" या "नया मुसलमान पाँच वक्त की नमाज़ पढ़ता है" जैसी कहावत में भी यही मुल्ला नजर आता है। मुस्लिम जाटों की एक बिरादरी को मुल्ला जाट कहते हैं। इन्हें मूला, मूले, मोला जाट जैसे रूपान्तरों से भी जाना जाता है। पंजाब, हरियाणा से होकर ये उत्तर प्रदेश तक पसरे हुए हैं। कुछ लोग आंध्र, महाराष्ट्र और कर्नाटक भी मिलेंगे। दरअसल ये वो जाट योद्धा थे जिन्होंनें मुस्लिम दौर में अन्यान्य कारणों से इस्लाम कुबूल कर लिया था। इस देश में मुसलमानों को उनकी लम्बी दाढ़ी और पाँच वक्त की नमाज़ जैसे मज़हबी तौर तरीकों की वजह से मुल्ला के तौर पर ही पहचाना जाता था। दरअसल यह व्यंग्योक्ति थी। नए मुसलमान बने जाटों को भी को मुल्ला जाट कहा गया।
हालाँकि कुछ लोग इसे "मूल" यानी origin से जोड़ते हैं पर इससे कुछ स्थापित नहीं होता। अगर मुस्लिम जाट मूल जाट हैं तो हिन्दू जाट क्या नकली है? "मूला जाट" की यह व्याख्या करना कि "जो मूल रूप से कभी जाट थे" भी खींचतान कर इस नाम को संस्कृत के करीब लाना है। ध्यान रहे, मुस्लिम समुदाय कभी मूला जाट जैसा पद नहीं बनाएगा। वह इसके लिए अरबी-फ़ारसी पद बनाएगा। मूला जाट में मूलतः व्यंग्य है जो हिन्दुओं की सहज प्रतिक्रिया रही होगी।
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11 कमेंट्स:
डॉ.कमलकांत बुधकर
अच्छी पोस्ट है भाई। मुझे लगने लगा है कि डॉ. प्रभाकर माचवे के बाद तुम हमारे परिवार के दूसरे शब्दकौतुकी सिद्ध होते जा रहे हो।
अतिवादी इमेज बताने के चक्कर में मुल्ला के बराबर स्वामी और महन्त को खड़ा करने की सेकुलर मजबूरी से फ्रीडम, ब्लॉगर की असली फ्रीडम है।
भाई वडनेकर जी!
मुल्ला, मौलवी, औलिया, वली सभी का आपने बड़ी खूबी के साथ विश्लेषण प्रस्तुत किया है।
मैं कमलकान्त बुधकर जी के स्वर में स्वर मिला कर उनकी बात का समर्थन करता हूँ।
आपकी खोजपरक लेखनी को प्रणाम करता हूँ।
आपको क्या कहा जाए - शब्दों का वली
जिस जिस शब्द ने जनता में इज्जत पाई है उसी का गलत लोगों ने इस्तेमाल किया है। इस्तेमालियों का कुछ हुआ या नहीं पर शब्द बदनाम हो गया। अब कोई अपने को टाइटलर कहलाना पसंद करेगा?
बहुत सुन्दर सफ़र है शब्दों की खोज का.ज्ञानदत्त जी की बात से सहमत हू. मगर आपका शब्दों का सामाजिक परिप्रेक्ष्य में देखना ही तो आपके blogs का आकर्षण है. और विचारो की भिन्नता को स्वीकारना भी तो हमें ब्लोगिंग ने अधिक स्पष्ट रूप से सिखाया है.
आज के टाइटल पर एक शेर याद आ रहा है:
"काश वाइज़* ने मोहब्बत भी सिखाई होती,
और क्या कीजिए अल्लाह से डरने के सिवा.
*वाइज़=उपदेशक
-मंसूर अली हाशमी
मंसूर अली साहब के शेर ने
खुश कर दिया....ऐसी मोहब्बत
बेहद ज़रूरी है इस दौर में.
और हाँ...अजित जी,
मैंने कभी...कहीं पढ़ा था -
हद तपे सो औलिया,बेहद तपे सो पीर,
हद,बेहद दोनों तपे, ताको नाम फकीर.
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
बहुत सुंदर जानकारी. आप इतनी जानकारी कैसे जुटाते हैं? कितनी अथक मेहनत करते होंगे आप? इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है.
इतनी पुख्ता जानकारी ..बहुत बहुत धन्यवाद और शुभकामनाएं.
रामराम.
धीरू सिंह से सहमत ,शब्दो के महंत जी को प्रणाम्।
ज्ञानदा ने बहुत महीन और बढ़िया बात कही है...
अल्लाह से डरे ना डरे मुल्ला से जरूर डर लगता है । औलिया तो राहगीर हैं
फकीर हैं ।
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