ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी और अरुण अरोरा को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के दसवें पड़ाव और उनपचासवें सोपान पर मिलते हैं खुद को इलाहाबादी माननेवाले मगर फिलहाल मुंबईकर बने हुए हर्षवर्धन त्रिपाठी से। हर्षवर्धन पेशे से पत्रकार हैं और मुंबई में एक हिन्दी न्यूज़ चैनल से जुड़े हैं। बतंगड़ नाम से एक ब्लाग चलाते हैं जिसमें समाज,राजनीति पर लगातार डायरी-रिपोर्ताज के अंदाज़ में कभी देश और कभी उत्तरप्रदेश के हाल बताते हैं। जानते हैं बतंगड़ की आपबीती जो है अब तक अनकही-
मेरा अब तक का सफर
पहली बार समझ में आया कि खुद के बारे में लिखना कितना मुश्किल होता है अजितजी ने जब ये कॉलम शुरू किया था तो, सोच ये थी कि ज्यादातर लोगों ने ब्लॉग पर अपने प्रोफाइल में अपने बारे में बहुत ही कम लिखा है। और, ब्लॉगर्स एक दूसरे से परिचित हो सकें इसके लिए बकलमखुद अच्छा जरिया बन रहा है। वैसे लिखा तो, मैंने भी अपने प्रोफाइल में लिखा तो बहुत ज्यादा नहीं है लेकिन, सच्चाई यही है कि जितना लिखा है वही मेरा अब तक का सफर है। ब्लॉग प्रोफाइल एक लघु उत्तरीय प्रश्न का जवाब है जिसे, अब मैं दीर्घ उत्तरीय बनाने की कोशिश कर रहा हूं।
शर्मीला बचपन
मेरी खुद की बात करें तो, बचपन से अब तक का सफर मेरे व्यक्तित्व में गजब के परिवर्तन की कहानी है। मैं बचपन में बेहद शर्मीला था (कृपया इसका ये सार न निकालें कि अब मैं बेशर्म हो गया हूं)। शायद तब ज्यादातर लड़के, साथ की लड़कियों से थोड़ा शरमाते ही रहे होंगे। हो सकता है तब के पाठ्यक्रम में सेक्स एजुकेशन शामिल नहीं होना! इसकी बड़ी वजह रही हो। मुझे याद है कि पांचवीं कक्षा में मेरे दोस्त ने मुझे जानबूझकर (बदमाशी में) साथ की लड़कियों के आसपास से गुजरते धक्का दे देते थे और मैं तेजी से वहां से भाग खड़ा होता था। पढ़ने-लिखने में टॉपर नहीं था लेकिन, कक्षा के अच्छे बच्चों में गिनती होती थी। साल के अंत में परीक्षा परिणामों के बाद कुछ किताबें इनाम में मिल जाती थीं जो, मेरे अच्छे छात्र होने का सबूत बन जाती थीं।
संस्कृत का प्रकांड विद्वान!
पढ़ाई इलाहाबाद के अल्लापुर मोहल्ले में सरस्वती शिशु मंदिर में हुई। इसकी वजह से ढेर सारे श्लोक मुंहजबानी रटे हुए थे। गर्मियों की छुट्टी में जब गांव जाना होता (अब तो , शायद ही पूरा कोई श्लोक याद हो, गांव अभी 5 साल बाद होकर लौटा हूं।) तो, हर जगह से श्लोक सुनाने की फरमाइश होती और मैं पूरे उत्साह से एक साथ 30-40 श्लोक सुना डालता और जमकर वाहवाही लूटता। ब्राह्मण परिवार में जन्म की वजह से इन संस्कारों पर कुछ ज्यादा ही शाबासी मिलती थी। यहां तक कि मुझे ब्याह-तिलक के समय द्वारचार पर पंडितों के बगल में ही बिठा दिया जाता। शादी के भी काफी मंत्र याद थे अब तो, करीब साल भर पहले हुई अपनी शादी के कई मंत्र समझ में भी नहीं आए। लेकिन, बचपन की नादानी थी कि अगर कोई मुझे रुपए देता तो, मैं उसे छोड़कर सारे सिक्के ही लेता।
कॉलेज से व्यक्तित्व बदलने की शुरुआत
शर्मीला स्वभाव और कुछ गिने-चुने दोस्त। मैं पहुंच गया इलाहाबाद के केपी कॉलेज में। केपी कॉलेज की इमारत शहर की बेहतर इमारतों में शुमार की जाती है लेकिन, यहां पढ़ाई का माहौल कुछ बदमाश लड़कों की वजह से बेहद खराब था। या यूं कह लें कि, इस कॉलेज में आकर भी लड़के कुछ बदमाश हो जाते थे। शहर का सबसे बड़ा मैदान भी हमारे ही कॉलेज का था। यूपी रणजी टीम के खिलाड़ी अकसर वहां खेलते (प्रैक्टिस या मैच) रहते थे। इसी मैदान मैं एक बार बैठकर बहुत रोया था। हुआ यूं कि मैं अपने दोस्त के साथ साइकिल पर बैठकर कॉलेज आ रहा था। पता नहीं कैसे मेरा पैर किसी से रास्ते चलते लग गया। थोड़ी देर बाद वहां के आसपास के दो-तीन दूध बेचने वाले आए और मुझे गालियां दीं और एक झापड़ रसीद दिया। मैं और मेरा दोस्त रोते हुए कॉलेज के मैदान में चले गए। जबकि , इसमें मेरी कोई दलती नहीं थी। लेकिन, उस झापड़ ने मुझे बदल दिया। उस दिन मुझे लगा कि ऐसे तो, कोई भी मुझे राह चलते बिना गलती के पीट देगा। और, उस दिन के बाद मैंने ही लोगों को पीटने का एजेंडा बना लिया-बस पिटने का काम खत्म हो गया (फिलहाल अब मारपीट लगभग बंद, गुस्सा आता भी है तो, दबा लेता हूं)। [जारी]
Sunday, June 22, 2008
बतंगड़ की बतकही [बकलमखुद-49]
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23 कमेंट्स:
अरे वाह ! हर्षवर्धन जी आपने शुरुआत बढिया की है
जारी रखेँ ..
- लावण्या
ये हुई न बात!! स्वागत हैं भाई हर्षवर्धन का. बहुत इच्छा थी कि उनके बारे में और ज्यादा जाने और मिलें. मेरी इस बम्बई यात्रा के दौरान, मुझ जैसे साधारण जन्तु से, वो अपना काम अधूरा छोड़ कर एयरपोर्ट से सीधे मिलने पहूँचे. दिल गदगद हो गया.
तो जनाब क्यास्थ पाठ्शाला के प्रोडक्ट हैं, नोट कर लिया. :)
बात आगे बढ़ाई जाये...इन्तजार लगा ह्है.
बहुत आभार अजित भाई आपका. हर्षवर्धन भाई को यहाँ लाने का.
धन्यवाद अजित जी;
अब हर्षवर्धन जी के बारे में अधिक जानने का अवसर मिलेगा
सुन्दर शुरुआत! गुस्सा कमजोर आदमी का काम है जी। अच्छा किया करना बन्द कर दिया।
इस बकलमखुद की क्या बात है!! हर्षवर्धन जी अपनी बात बता रहे हैं. शर्माना, पिटाई खाने के बाद पीटना... और उसके बाद उम्र जो सिखलाता है वो हुआ...गुस्से पर काबू... अच्छा है... जारी रहे
शर्मीला बालपन बेशक जिया
लेकिन ज़वानी से,
सबक निर्लज्ज को देकर
कहानी अपनी बुन रहे हैं.
बतंगड़-बादशाह की दास्तां
बकलम ख़ुद सुन रहे हैं,
उनके हर्ष और संघर्ष को
मन में ही गुन रहे हैं.
=====================
स्वागत
डा.चन्द्रकुमार जैन
अजित जी, हर्ष जी को यहाँ पा कर बहुत प्रसन्नता हुई। पहला चित्र तो ठीक है पर दूसरे में हमारे हर्ष जी कहाँ है?
अभी तो यात्रा पर निकल रहा हूं. बीच में कही मौका लगा तो पढूंगा. नहीं लौटने के बाद पढने का मन तो रहेगा ही.
बहुत बढ़िया...हर्षवर्धन जी के बारे में जानने की शुरुआत अच्छी है. आगे की कड़ियों का इंतजार है.
अजित भाई को एक बार फिर से धन्यवाद.
सुन्दर शब्द चित्र ...
ब्लैक एंड व्हाईट (वाइट लिखो तो मराठी में ठीक नहीं रहता न अजित भाई) दौर भी क्या था कितना लुभावन और शार्प चित्र है परिवार का.लोग भी वैसे ही सादा तबियत थे...अब चित्रों से ज़्यादा मनुष्य डिजिटल हो गया है.
वाह! मौके का एक झापड़ कितना बड़ा व्यक्तित्व परिवर्तक है - यह जाना!
ब्लॉगजगत के बतंगड़ हर्षवर्धन जी के बारे में जानना अच्छा लग रहा है। इसके लिए अजित जी को धन्यवाद। अगड़ी कड़ी का इंतजार रहेगा।
वाह अजीत भाई एक बार फ़िर बकलम की गाड़ी आगे चल पड़ी और गाड़ी बम्बई से चली है तो मजा तो आना ही है। हर्ष जी अभी भी बहुत नपा तुला बोलते है ये हमने ब्लोगर मीट में देखा था।
हर्ष जी थप्पड़ खाने की बात ने हमें गांधी के अफ़्रिका में ट्रेन से धकियाये जाने की बात याद दिला दी। उस थप्पड़ ने आप का भविष्य उज्जवल कर दिया , आगे की कड़ी का इंतजार है।
अजीत जी हमें आप की बकलम का भी इंतजार है ।
vah.. harsh ji jaldi se agla part likhiye.. :)
ह्म्म, जनाब शर्मीले से अब भी लगते ही हो आप चेहरा ही कहता है। हे हे हे।
जे अच्छा हुआ कि बदल गए एक ही थप्पड़ में।
इंतजार रहेगा।
ये श्लोक और स्कूल वाली बात तो हमसे मेल खा गई... आगे भी बताइए.. अब तो उत्सुकता हो रही है... अजित जी का शुक्रिया.
हर्ष जी गुस्सा कतई कंट्रोल ना करे , हमारी पंगे लेने की आदत के कारण हमे कभी भी आपकी सहायती की जरूरत पड सकती है :)
रोचक लग रहा है हर्ष जी को पढ़ना और जानना।
बाप रे ! संस्कृत के ३०-४० श्लोक एक साथ ।
कमाल है।
वहीँ सोच रहा हूँ फोटो में और लिखाई में तो अपना बंद शेर लगता है "शर्मीला" कैसे ? इलाहाबादी अमिताभ अपने अधिकाँश फ़िल्म में मार खाने के बाद ही तोड़ ताड़ के बराबर करते आयें हैं .एकाध सीन बिना दिखाए टर्न लेना निर्देशक के अधीन है क्या ?
वैसे यहाँ दिखना अच्छा लगा .
मेरा सफर आप लोगों को अच्छा लगा। शुक्रिया
लेकिन, ईमानदारी से कह रहा हूं कि मेरे सफर से शानदार टिप्पणियां हैं, मजा आ गया।
दिनेशजी, दूसरे चित्र में मैं पिताजी के दाहिने खड़ा हूं।
अरुणजी, पंगा लीजिए कोई दिक्कत नहीं है। गुस्सा दबा लेता हूं-मारपीट की नौबत आने पर तो, फिर..
समीरभाई, मेरे कॉलेज का असली नाम आपको पता है कायस्थ पाठशाला .. वैसे kpic का मतलब हुआ काली प्रसाद इंटरमीडिएट कॉलेज
यह तो जून में प्रकाशित हुआ था और मै अब टिप्पणी दे रही हूँ पर कहते हैं ना देर आय दुरुस्त आये तो बहुत अचछा लगा आपका बकलम खुद ।
hkjk
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