ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून और बेजी को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के नवें पड़ाव और छियालीसवें सोपान पर मिलते हैं फरीदाबाद के अरूण से। हमें उनके ब्लाग का पता एक खास खबर पढ़कर चला कि उनका ब्लाग पंगेबाज हिन्दी का सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला ब्लाग है और वे सर्वश्रेष्ठ ब्लागर हैं। बस, तबसे हम नियमित रूप से वहां जाते ज़रूर हैं पर बिना कुछ कहे चुपचाप आ जाते हैं। ब्लाग जगत में पंगेबाज से पंगे लेने का हौसला किसी में नहीं हैं। पर बकलमखुद की खातिर आखिर पंगेबाज से पंगा लेना ही पड़ा।
जोड़-घटाव-गुणा-भाग
सब दरवाजे बंद थे. पिताजी ने मुझे तो बचा लिया पर बैंक वालों को देने के लिये उनके पास अब कुछ नही था.पिताजी के सामने अभी भी दो बच्चो की जिम्मेदारी और थी,जिसमे मेरी और से उनकी सहायता का कोना बंद हो चुका था. उस वक्त भी मै उनकी जिम्मेदारी बना हुआ था. इस बीच मैं बाप भी बन चुका था. रवि हमारी दुनिया मे शामिल हो चुका था. दादा-पोते और बहू की जिम्मेदारी तो उठा रहे थे पर बाप को भी बाप बनकर दिखाने की चुनौती सामने मुंह बाये खडी थी.
अब कोई चारा नही था , हमने तुरंत सारी मशीनें बेचीं, दहेज मे मिला स्कूटर बेचा और जिस-जिस की उधारी थी,उन्हे पैसे टिपा दिये. बैंक की किस्तें जमा की. कुछ अग्रिम भी जमा कर दी. बैंक वाले खुश हुये और हम बारोजगार से बेरोजगार. मै टूट चुका था . जिस सपने को लेकर नौकरी छोडी थी (पूरे घर के विरोध के बावजूद, आखिर हम नौकरी छोड कर व्यापार जैसी चीज करने जा रहे थे,जिसके लिये ना पैसा था और ना ही अनुभव) वो टूट कर किरच-किरच हो चुका था. इलेक्ट्रोनिक्स की दुनिया हर पल बदल रही थी, ऐसे मे साढ़े चार साल बहुत मायने रखते हैं. इलेक्ट्रोनिक्स की दुनिया मे वापसी का रास्ता लगभग बंद था. जिस आखिरी नौकरी को मै बड़े आत्म विश्वास के साथ छोड़ आया था वहां गरदन झुका कर लौटना मुझे इस दुनिया का सबसे आखिरी रास्ता लगा और वो मुझे मंजूर नही था. ऐसे में एक दोस्त की सहायता से परचूनी की दुकान खोलने की कोशिश गाजियाबाद मे की,लेकिन वो मेरे चाचाजी को नामंजूर लगी. उन्होने कहा, ये तुम्हारे बस का काम नही है. फ़िर चाचाजी ने किसी से कहलाकर नोयेडा मे एक प्लास्टिक मोल्डिंग यूनिट मे क्वालिटी इंस्पेक्टर की नौकरी दिलवा दी . वक्त का तगादा था कल को याद करने से तो जीवन बदलने वाला नही था .
शून्य से शुरुआत...
दादा नाराजगी मे पोते बहू को लिवा ले गये. हमने भी झॊला उठाया और फ़िर निकल पड़े अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा लिखने वाले राहुल सांकृत्यायन की तरह.
सैर कर दुनिया की गाफ़िल,जिंदगानी फ़िर कहां
जिंदगानी गर रही तो नौजवानी फ़िर कहां
इसे हमने कुछ इस अंदाज़ में लिया-
मुफ़लिसी का दौर है ये,घूम ले सारा जहां
एश गर अब भी ना की, तो फ़िर करेगा तू कहां
बस जम कर तीन महीने वहीं नौकरी की . तीन हजार रुपये महीना की नौकरी से हमने छह से आठ हजार रूपये महिना कमाये जी. जीवन मे पहली बार जाना की ओवरटाईम कैसे कमाया जाता है. लेकिन आत्म विश्वास जो टूट गया था वो वापस आ गया .लगा की मै फ़िर से आने वाले कल की जंग मे लड़ सकूंगा,वक्त जरूर लगता है, लेकिन जीवन अपना रास्ता ढूढ ही लेता है.
घूरे के भी दिन बदलते हैं...
हमारे यहा एक कहावत है कि सात साल मे तो घूरे (कचरे) के दिन भी बदलते है, लेकिन मेरा वक्त मियाद खत्म होने से दो साल पहले ही आ गया. हमारे एक जानकार के मालिक को जो पेंट शाप मे मैंटीनेंस की ठेकेदारी करते थे, एक सस्ता सुन्दर और टिकाऊ तकनीकी बंदा चाहिये था.उन्हे मेरे बारे मे पता चला कि बंदा गर्जाऊ है. जुगाडू है, मजबूर है .जिंदगी का धकियाया हुआ है और प्रमाणित तकनीक पढा-लिखा भी है .अब इतनी खूबिया वाले कर्मचारी को कोई बेवकूफ़ ही छोडता है. उन्होने मुझे घेरा .
-देखो हम उनसे पिछले चार सालों से एक तकनीकी बंदे की तन्खाह ले रहे है अब तक चल रहा था , लेकिन अब नया प्रबंधक कह रहा है बंदा यहां चाहिये.
मैने कहा की मै पेंट शाप के बारे मे कुछ नही जानता. उन्होंने समझाया, देखो तुम्हे कुछ नही करना,कुछ नही बोलना,बाकी हम सब संभाल लेगे. और मैने नौकरी फ़िर छोड दी और मैं पहुंच गया सीधे भारत की सबसे बडी कार कंपनी की कमप्यूट्राईज्ड पेंट शाप मे. जीवन मे पहली बार देखी .पहली बार पता चला की पेंट खाली ब्रश से नही होता. इससे पहले मैने केवल स्कूटर की डेंटिंग पेंटिंग देखी थी और सुना था की एक भट्टी वाला पेंट होता है .आते ही परिचय के तुरंत बाद एक स्प्रे गन जो दिक्कत कर रही थी. जिसे जापानियो ने नयी लगाने की राय दे दी थी . उसी को ठीक करने काम थमा दिया गया. उन्हे मेरा तकनीकी ज्ञान परखना था. मेरे नये मालिक ने अपना सर पकड़ लिया .
मुझे यह कहते हुये निकल लिये हो सके तो नुकसान इतने पर ही रखना कि मै भर सकूं..धंधा तो मेरा ये गया ही समझो .
टर्निंग प्वाइंट...
मेरे पास भी खोने को कुछ नही था, पाने को शायद बहुत कुछ . क्या पता इस सांप जैसी गुजरती जिंदगी मे कोई बिल ऐसा भी मिल जाये जिस के उस पार उजाला हो . रात को शिफ़्ट के बाद हमने अकेले मे स्प्रे गन को ठीक करने की जिम्मेदारी निभानी शुरु की. जीवन मे पहली बार हमने जापानी स्प्रे गन को छुआ फ़िर ध्यान से देखा.धीरे धीरे पूरी खॊल डाली और अंदर जमा पेंट कैमिकलो की सहायता से साफ़ कर वापिस बंद कर दी .चला कर देखी, बिना दिक्कत के टेस्ट स्प्रे मे सफ़ल हो गई. और शायद यही मेरी जीवन का टर्निंग पाईंट भी था.
सुबह हुई और पेंट्शाप चालू हुई,तुरंत ही एक फ़ोन प्रबंधक की और से मेरे नये मालिक को गया कि आप अगले एक घंटे मे यहां हाजिरी बजाये.और हमने आपके तकनीकी बंदे को भी यही रोका हुआ है. मेरे नये मालिक ने समझ लिया कि काम गया, वो बहुत उदास से मुझे प्लांट मे आते दिखाई दिये . मुझे देखकर तो उन्होने और मुंह फ़ेर लिया. लेकिन दस मिनिट बाद ही मैने अपने को उनकी बाहों मे पाया . उन्होंने फ़ौरन मौके का फ़ायदा उठाकर मेरी विजिट चार्ज बढ़वा लिये और आदेश पास किया गया की मै कम से कम हफ़्ते मे दो दिन मेरी ड्यूटी यही रहेगी.
मिली मक्खनी रोटी...शुक्रिया ऊपर वाले का...
मेरी दुनिया बदल चुकी थी धीरे धीरे मैने खुद की कंसलटेंसी शुरु करदी जिसकी सेवाये मेरे नये मालिक को भी हमेशा उपलब्ध थी, काम भी मिलने लगा , मेरा पहला बडा काम मुझे अलवर शाहजहांपुर मे मिला . पहला काम पेंट्शाप मेंटीनेन्स का. मै वहा सिर्फ़ कोटेशन देने गया था. मुझे कहा गया पेंट्शाप मे स्प्रेलाईन डाऊन है चालू करो . काम तुम्हारा. वहीं से कुछ लोग पकड़े काम शुरू किया. लगातार सात दिन, रात दिन काम चला. मै रात को दो चार घंटे पास मे बस अड्डे पर बने ढाबो पर कोई खाली चारपाई देखकर सो जाता था . कभी नही मिली तो कुरसी जिंदाबाद थी. वहा पर कच्ची लहसुन खाने मे डालते है तो खाने की वैसे ही छुट्टी हो गई . लेकिन मिली रोटी ,रोटी मिली, सात दिन बाद मिली और ऐसी मिली कि मै शुक्रगुजार हूं बनाने वाले का. मक्खन के साथ मिली और अब तक मिल रही है.
आखिर मेहनत रंग लाई सातवें दिन पेंट शाप चल पडी थी. मुझे काम भी मिल गया था.मेंटीनेंस के साथ आपरेशन का काम भी अगले कुछ दिनों मे मुझे ही थमा दिया गया और. इसके बाद मुझे पीछे देखने की जरूरत नही पडी वक्त गुजरता गया,काम बढ़ता गया,मेरा स्टाफ़ एक से दो और दो से दो सो कब बन गया पता ना चला . आज मै खुद की एक अर्ध स्वचालित पेंट शाप मे कार्य करता हूं.पैतीस-चालिस कामगार भी है. स्टाफ़ मे भी पांच छह लोग है . जगह जरूर किराये की है पर भरोसा है कल अपनी भी होगी. आखिर इसकी भी कब तमन्ना की थी,उपर वाला मेहरबान तो गधा पहलवान. [अगली कड़ी में समाप्त ]
आपकी चिट्ठियां
पंगेबाज की अब तक छपी कड़ियों पर सर्वश्री भुवनेश शर्मा, ममता,बालकिशन, नीलिमा सुखीजा अरोरा, रोहित त्रिपाठी,विजय शंकर चतुर्वेदी, अलोक पुराणिक ,संजय पटेल, मीनाक्षी , राजेश रोशन, नीरज गोस्वामी, अनुराग आर्य ,अफलातून, नीरज रोहिल्ला, पल्लवी त्रिवेदी, समीरलाल, मैथिली, संजय , सिरिल, दिनेशराय द्विवेदी, अनूप शुक्ल, विजय गौर, यूनुस, घोस्टबस्टर, उन्मुक्त, हर्षवर्धन , बोधिसत्व, शिवकुमार मिश्र, काकेश, राजेश रोशन, बेजी, प्रशांत प्रियदर्शी, संजीत त्रिपाठी, अनिताकुमार ,ज्ञानदत्त पांडेय, अरूण, अफ़लातून, प्रमोदसिंह , डा चंद्रकुमार जैन, अनुराग आर्य , प्रमेंद्र प्रताप सिहं, महाशक्ति, हरिमोहनसिंह, सुरेश चिपलूणकर, संजय बैंगाणी , अरविंद मिश्र, अजित वडनेरकर, घुघूति बासूती और सागर नाहर की टिप्पणियां मिलीं । आप सबका आभार।
[प्रियवर अरुण जी की तेज़ रफ्तार जिंदगी में कामा, फुलस्टाप की गुंजाइश कम ही दिखी है मगर उन्होने इतनी तेज रफ्तारी में लिखा है कि जब उन्हें शब्द नहीं सूझे तो कामा फुलस्टाप लगाते गए। अब हमें तो अपने पाठकों की परवाह है , सो जहां गैर ज़रूरी लगे, उसे हटाते गए हैं। फिर भी तादाद काफी थी और कुछ जो छूट गए हों उसके लिए माफी चाहते हैं.]
Friday, June 6, 2008
और पंगेबाज जीत गया...[बकलमखुद-47]
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21 कमेंट्स:
मेहनत को रंग तो लाना ही था प्यारे.
सफलता मुबारक हो. आगे भी ऐसे ही नये आयाम छुयें.
अजित जी, अरुण जी को कहें यह पहलवान गधा तो बिलकुल नहीं है, और मुझे अग्निदीक्षा अब भी याद आ रही है।
रोचक जीवनानुभव। बधाई।
ओह, यह बन्दा (अरुण) तो बहुत इम्प्रेसिव है और मुझे इमोशनल बना रहा है!
लाइफ से ऐसा पंगा लेते किसी को नहीं देखा....अब जल्दी से अंतिम कड़ी भी छाप दीजिए..
पता नहीं क्यूँ इस जज्बेदार आदमी का लेखन मुझे भाव्य्क कर जाता है..जिम्मेदार तो पंगेबाज कहलायेंगे अगर मेरे ब्लडप्रेशर मे ज्यादा फेर बदल दिखा तो.
मुफ़लिसी का दौर है ये,घूम ले सारा जहां
एश गर अब भी ना की, तो फ़िर करेगा तू कहां
-यही ऐसे लोगों का जज़्बा है वरना कौन कब यह कह पाया है.
अब तो सलाम करने को जी चाहता है भाई अरुण को और आपने यह हम तक पहुँचाया सो आपको भी, अजीत भाई.
अरुण जी को बहुत बहुत बधाई. वाकई जीना इसी का नाम है. मेहनत और काबिलियत कभी न कभी, कैसे न कैसे अपना रास्ता बना ही लेते हैं. पढ़ते हुए भी ऊर्जा का तीव्र संचार होते महसूस किया.
बेशक जगह आपकी होगी
क्योंकि आपने अपनी जगह ख़ुद बनाई है.
ज़िंदगी की तयशुदा राहों पर चलने
और अंजान राहों पर
बेखौफ निकल पड़ने में बड़ा फर्क है....
जीत आदमी की नहीं, चाह की होती है,
और मुझे लगता है कि
अजित जी ने सफरनामे के इस पड़ाव पर
आपके लिए निहायत सही शीर्षक चुना है कि
....और पंगेबाज जीत गया !
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मैं भी यही कहूँगा कि जीवन की ज़ंग में
जीत गया भई जीत गया !
पंगेबाज़ जीत गया !!
इंतज़ार जिंदगी के इस अजेय पेंटर के
एक और रंग का......
शुभकामनाएँ
चंद्रकुमार
बहुत खूब पंगेबाज.
और आपका भी आभार जो ये किस्से यहाँ रखे, वरना बहुत सी बातों से अनजान ही रहते.
आपको पढकर जीने के लिये एक नई उर्जा का संचार होता सा दिख रहा है..
भावुक तो आपने बना ही दिया है.
कुछ कहने को मिल नही रहा.
हाँ अगर कुछ सीख सका तो ये गर्व की बात होगी मेरे लिए.
एक बार फ़िर
बधाई और शुभकामनाएं.
बस किसी की पंक्तिया याद आ गई आपको पढ़कर.....
'
कुछ इस तरह तय किया हमने सफर
गिर पड़े गिरकर उठे ओर चल दिये '
पंगा से प्रेरणा तक... बहुत खूब !
zindgi se jung ki ye daastan wakai kaabile taareef hai...agli kadi ka intzaar hai.
आपको पढ़कर काफी अच्छा लगा, सच कहूँ तो अच्छाईयों से सीखने को मिलता है। जब से जानता हूँ मेरा विश्वास है कि आप बहुत अच्छे, नेक और हमदिल इंसान है।
आप की हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी, मुझे लगता है मैं जब भी डाउन और आउट महसूस कर रही होउंगी आप की ये पोस्ट जरुर पड़ूगीं
आपके संघर्ष को सलाम। आपकी जीवटता के आगे नत-मस्तक हूँ। अब कभी प्रगति का ग्राफ न गिरे- यही ईश्वर से कामना है।
अरुण भाई,
संघर्ष करना और उसके बाद मंजिल पाना, बहुत सारे लोगों को कितना कुछ सिखाता है. बहुत कुछ सीखने को मिला, आपकी आत्मकथा से. बहुत गर्व हो रहा है हमें कि हम आपको जानते हैं.
आपकी पोस्ट पर पूरी दुनिया लाइन लगाये खड़ी है। बढ़िया तो लिख रहे हैं, माफी किस बात की। फालतू में?
हम तो कुछ भी नही थे, जो थे आप और आपका हमारे उपर विश्वास जो मै आपके साथ काम कर सका। कहा जाता है कि विश्वास में बड़ी तकत होती है वही ताकत आपने मुझे दी। आपके बारे में कोई कैसा भी सोचे हम तो अच्छा ही सोचते है और सोचेगें।
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