गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय ।
बलिहारी गुरु आपकी,गोविंद दियो बताय ।।
गुरु शब्द का हिन्दी में सामान्यतौर पर शिक्षक, पूज्य पुरुष अथवा बुजुर्ग के अर्थ में प्रयोग होता है। इस शब्द की बड़ी महिमा रही है और मूल रूप से इसका अर्थ होता है भारी, प्रचंड, बड़ा, तीव्र, श्रद्धेय, आदरणीय आदि। मगर बाद में ठीक उसी तरह इस शब्द की भी अवनति हुई जैसी कि हिन्दी ,बुद्ध या पाखंड जैसे शब्दों की हुई। पूज्य पुरुष या शिक्षक के अर्थ वाले इस शब्द का प्रयोग आज ऐसे व्यक्ति के लिए भी किया जाता है जो बहुत चालबाज, पहुंचा हुआ, शातिर या धूर्त हो। लोगों को सलाह दी जाती है कि फलाना आदमी बहुत गुरु है, उससे सावधान रहना। इसी पर आधारित गुरुघंटाल या गुरु, हो जा शुरू जैसे मुहावरे भी प्रचलित हुए । आजकल लवगुरु काफी शोहरत पा रहे हैं।
गुरु शब्द की व्युत्पत्ति भी ग्र या गृ जैसी प्राचीन भारोपीय ध्वनियों से मानी जा सकती है जिनमें पकड़ने या लपकने का भाव रहा। इससे ही ग्रह् जैसी धातु जन्मी जिससे ग्रहः शब्द बना जिसमें कस कर पकड़ना, थामना, अधिकार जमाना या खुद में समो लेना जैसे भाव निहित हैं।
गौर करें गुरु में समाहित बड़ा , प्रचंड, तीव्र जैसे भावों पर । हिन्दी में आकर्षण का अर्थ होता है खिंचाव। ग्रह् का अर्थ भी खिंचाव ही है। ग्रहों – खगोलीय पिंडों की खिंचाव शक्ति के लिए भी गुरुत्वीय बल शब्द प्रचलित है जिसे अंग्रेजी में ग्रैविटी कहते हैं। यह दोनों शब्द भी इसी मूल से बने हैं। भाषाविज्ञानियों ने अंग्रेजी के ग्रास्प (grasp) या ग्रैब (grab) जैसे शब्दों के लिए इसी ग्रभ् को आधार माना है। बस, उन्होंने किया यह कि प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार से एक काल्पनिक धातु ghrebh खोज निकाली है जो इसी ग्रभ् पर आधारित है और जिसमें पकड़ना, छीनना , झपटना, लपकना आदि भाव छुपे हैं। इसी से मिलते जुलते शब्द कई अन्य भाषाओं में भी हैं जैसे ग्रीक में baros यानी भारी या गोथिक में kaurus यानी वज़नी या अंग्रेजी का ग्रिप आदि। लपकने, हड़पने या अधिकार जमाने के भावों का अर्थ विस्तार ही गुरु या गुरुत्व में है। सूर्य-ग्रहण या चंद्र-ग्रहण जैसे शब्दों के अर्थ ग्रह् की छाया में समझे जा सकते हैं।
गुरु कौन ? जिसमें गुरुता हो। बड़प्पन हो। गुरुता या बड़प्पन के क्या मानी ? यानी जो गुणों को पहचान कर आत्मसात कर सके। जगत का ज्ञान आत्मसात कर सके। वहीं गुरु। गुरु वह जो ज्ञान का भंडार हो। भंडार के अर्थ में इसी मूल से बना है आगर या आगार जैसा शब्द जिसका मतलब ही होता है स्थान , निवास या आश्रय स्थल। जैसे कारागार, रत्नागार, कोषागार आदि। धार्मिक संप्रदायों के प्रमुखों के लिए भी गुरु शब्द का प्रचलन रहा है। सिख पंथ में सर्वोच्च पद गुरुग्रंथ साहिब को प्राप्त है। नाथों व संत सम्प्रदाय में भी गुरु की महिमा न्यारी है इसीलिए गुरु को गोविंद यानी ईश्वर से भी अधिक महत्व दिया गया है। वैसे आजकर गुरुता और गुर्राने में भी रिश्तेदारी बन रही है। लोग अपनी धाक जमाने के लिए बात-बेबात गुर्राते भी हैं । टीवी के गुरुओं को भी ऐसा करते देखा जा सकता है। हालांकि गुर्राना इस धातु से बना शब्द नहीं है बल्कि ध्वनि साम्य पर आधारित शब्द है।
ग्रह् से ही बना है संस्कृत – हिन्दी का आवास-निवास के अर्थ वाला शब्द गृहम् । जिसे घर भी कहते हैं। यानी वह स्थान जो आपको थाम कर रखता है। जहां आप रुकते हैं, ठहरते हैं। गौर करें कि घर एक ऐसी व्यवस्था है जो जीवन में न जाने कितनी बार आपको पकड़ती है , जकड़ती है, रोकती है , थामती है।
आपकी चिट्ठियां
चिंता चिता समाना ,पुलिस और ग्राहक पर सर्वश्री दिनेशराय द्विवेदी, लावण्या शाह, समीरलाल, बालकिशन,अरुण, डॉ चंद्रप्रकाश जैन, मीनाक्षी, नीरज गोस्वामी, कसकाय, नीरज रोहिल्ला की टिप्पणियां मिलीं। आपका आभार।
@अरुण-सही है कि चिंताएं न हों तो आगे बढ़ने की चाह भी खत्म हो जाए। इसीलिए चिंता , चिता समान नहीं बल्कि चिंता तो हमारे जागरुक-विचारशील होने को सिद्ध करती है।
@दिनेशराय द्विवेदी-सही कहा आपने। चिन्त् और चित् चि की ही दो शाखाएं हैं दोनों में ही अर्थविस्तार का क्रम रहा है। चिता शब्द से चिन्तन को न जोड़ते हुए मूल चि में निहित चुनने, बीनने , एकत्र करने के भावों पर गौर करें तो चित्त् और चिन्त् का अर्थ ज्ञानबोध, मनन और चिन्तन से स्पष्ट होता है।
@नीरज रोहिल्ला-चित भी मेरी , पट भी मेरी कहावत के हवाले से आप जिस चित की बात कर रहे हैं वो अलग चित है जिसका संस्कृत धातु चि से रिश्ता नहीं है। याद दिलाने के लिए शुक्रिया। इस पर अगली पोस्ट में ज़रूर लिखूंगा। संचित तो जाहिर है संचय से ही बना है। संचय का मूल भी चि ही है। देखें आप्टेकोश(सम्+चित+अच्=संचयः)
सफर में बने रहें, आभार।
@कसकाय-आप मराठीभाषी होकर भी शब्दों का सफर नियमित पढ़ते हैं, अच्छा लगा। अपना नाम भी बताते तो अच्छा लगता । "shakahar" and "mansahar" व सात्विक और तामसिक के बारे में आपने महत्वपूर्ण बात कही है। कोशिश करूंगा कि इनके बारे में कुछ जानकारी जुटा कर सफर में सबके साथ बांट सकूं।
Saturday, June 7, 2008
गुरुघंटाल लवगुरु, हो जा शुरु....
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 1:17 AM
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11 कमेंट्स:
बड़ा ज्ञान भंडार है आपके पास. धन्य है गुरु आप. यह गुरु शब्द यूँ ही नहीं प्रयोग कर लिया है. अभी अभी पूरा अर्थ जानने के बाद पूरे होशोहवास में किया है.
आभार.
आज सुबह सुबह ही आनंद की सृष्टि हो गई है। एक तो गुरू और गुरूता को समझाती यह गुरुत्वमय आलेख और तिस पर समीर भाई की टिप्पणी। सब कुछ समझ आ गया गुरू भी और गुरुत्व भी। जैसे समीर भाई भारी है उन्हें गुरू कहा जा सकता है। उनमें गुरूत्व भी है। उन के आलेखों में भी भारी गुरूत्व है और उसी के अनुरूप आकर्षण भी। तभी टिप्पणियों की उल्काएँ वैसे ही टपकती हैं जैसे बृहस्पति ग्रह पर।
आपको "शब्द गुरु" की संज्ञा दी जानी चाहिए. अच्छे गुर सीखने को मिल रहे हैं. :-)
वाह जी वाह गुरू की महिमा अनंत, और इसी पर कबीर जी ने एक दिन हमे सपने मे दर्शन देकर अपने पुराने दोहो मे परिवर्तन कराया था जी तो पेश है वो दोहे
१. गुरु गोविंद दोनो खड़े काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपने कुर्सी दई दिवाय॥
२. बलिहारी गुरु आपने दिखा दियो जो बार।
दो पगन के लगत ही दिखन लगत है चार॥
३.गुरु सारे माल समेटिये, चेले को बस नाम।
मन राखि संतोषिये, घूम फिरत सब गाम॥
४.सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
जब तक माल बटोरो, कियो प्रेम व्यवहार॥
माया सारी निखस गई, दियो सरक पे डार।
लोचन अनंत उघाडिया, अनंत दिखावण हार॥
५.अच्छा सतगुरु मिल गया अच्छी मिल गई सीख।
गुरु तो खावै माल पुये, मैं घर-घर मांगू भीख॥
अब अगर आप अर्थ भी समझना वाहते हैतो आपको http://www.hindiblogs.com/masti/2007/07/blog-post_03.html यहा जाना पडेगा जी :)
गुरु से उऋण हम नाही.
प्रकाश के पर्याय पर
पर्याप्त प्रकाश का आभार...
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डा.चंद्रकुमार जैन
भई अपन तो प्रेत विनाशक जी से सहमत हैं।
आपका शब्द शोध वंदनीय है.आपका परिश्रम तो अप्रतिम तो है ही अनुकरणीय भी..क्योंकि ये लगातार एक काम में ईमानदारी से लगे रहने का जज़्बा देता है.
हाँ इस बार शब्दावली पर बहुत दिन बाद आया और तीन चार बाक़ी रही पोस्ट्स पढ़ डाली.हमारी भाभी को ब्लॉग पर आपकी इस नई तस्वीर चढ़वाने के लिये साधुवाद १ उन्होने (ही)प्रयत्नपूर्वक से बदलवाया होगा....जँच रहे हैं !.
शब्द गुरु से सीख रहे हम शब्दों के गुर.
हम शब्दों के गुर खुलते नित नए पन्ने
हर पन्ना है अद्भुत हर शब्द बेजोड़.
हर शब्द बेजोड़ साथ मे बकलमख़ुद
येही खूबियाँ बनाती आपके चिट्ठे को बेजोड़.
शब्द गुरु से सीख रहे हम शब्दों के गुर.
हम शब्दों के गुर खुलते नित नए पन्ने
हर पन्ना है अद्भुत हर शब्द बेजोड़.
हर शब्द बेजोड़ साथ मे बकलमख़ुद
येही खूबियाँ बनाती आपके चिट्ठे को बेजोड़.
आजकल हम शब्दों के इस सफर में पीछे छूट जाते हैं... कोशिश करके आगे निकले पड़ाव तक अभी पहुँचते ही हैं कि आप और आगे बढ़ जाते हैं.... शायद हमारे पैरों में चक्र हैं.... एक जगह टिकते ही नही..
आज गुरु की महत्ता पढ़ कर आनंद आ गया.....
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