Friday, September 30, 2011

श्रवणकुमार की सुन-गुन

Hear
कि सी भाषा की लम्बी उम्र और शब्द-समृद्धि के मूल में उस भाषा का अन्य भाषाओं से जीवंत सम्पर्क महत्वपूर्ण है। प्राचीन काल से भाषाई आदान-प्रदान होता रहा है। सभ्यता के विकासक्रम में क्षेत्रीय भाषाओं में से कोई एक भाषा परिनिष्ठित भाषा का रूप लेती है। तब शुद्धता का आग्रह भी सामने आता है। आज के दौर में हिन्दी भी ऐसी ही परिस्थिति से जूझ रही है। हिन्दी में अब बोली-भाषा के शब्द धीरे धीरे गायब हो रहे हैं। गौरतलब है कि लोक बोलियों के विभिन्न शब्दों की अर्थवत्ता बड़ी व्यापक होती है। साहित्यिक प्रयोगों के ज़रिये इन शब्दों से पढ़ा-लिखा समाज परिचित होता है। दो दशक पहले तक परिनिष्ठित हिन्दी में आंचलिक बोली के शब्दों का इस्तेमाल होता था। समर्थ अभिव्यक्ति के लिए भाषा में शब्दों की आवाजाही ज़रूरी है, किन्तु हिन्दी वालों में साहित्यानुराग भी धीरे धीरे कम हो रहा है लिहाज़ा लोकभाषा के शब्दो से अपरिचय वाला हिन्दी समाज हमारे सामने है।

श्रवण करने की क्रिया के लिए हिन्दी में ‘सुनना’ शब्द के अलावा कोई अन्य विकल्प हमारे सामने नहीं है। इसका प्रयोग सुनवाई, सुनना, सुनाई पड़ना जैसे अर्थों में होता है। इसके अलावा विचार करना, ध्यान देना जैसे भाव भी इसमें शामिल हैं। सुनना क्रिया से सुन-गुन लेना जैसा मुहावरा भी हिन्दी में चल पड़ा है। संस्कृत में सुनने के लिए ‘श्रवण’ शब्द है। यह बना है ‘श्रु’ धातु से जिसमें सुनने, सुनाई पड़ने का भाव है। ‘श्रवण करना’ यूँ तो सुनने के संदर्भ में हिन्दी में बोला जा सकता है, मगर ऐसे वाक्य प्रयोग व्यवहार में नहीं है। पाली में ‘श्रवण’ का ‘सवन’ रूप है और प्राकृत में ‘सवण’। इसी कड़ी में हिन्दी की ‘सुनना’ क्रिया का विकास हुआ। ताज्जुब होता है कि सुनने की क्रिया के लिए कभी हमारे पास ‘अकनि/अकुनि’ जैसी क्रिया भी थी। सूरदास, तुलसीदास जैसे मध्यकालीन कवियों ने इसके विविध रूपों का प्रयोग किया है। डॉ रामविलास शर्मा इस ‘अकनि/अकुनि’ क्रिया के बारे में लिखते हैं कि अन्य भारतीय आर्यभाषाओं में भी सुनने के अर्थ वाली इस क्रिया का इस्तेमाल होता है। उनके मुताबिक ‘अकनि’ क्रिया के मूल में ‘अक्’ जैसी धातु होनी चाहिए, मगर संस्कृत में ‘अक्’ जैसी कोई क्रिया नहीं है। वे ग्रीक भाषा की क्रिया ‘अकोउओ’ से ‘अकनि’ की तुलना करते हैं जिसका अर्थ भी सुनना ही होता है। उनका मानना है कि ‘अकनि’ या ‘अकुनि’ और ‘अकोउओ’ परस्पर सम्बद्ध हैं। माना जाता है कि आर्यों के भारत आने से पहले प्रोटो इंडो-यूरोपीय भाषा से ग्रीक शाखा अलग हो गई थी। ‘अकोउओ’ प्राचीन ग्रीक का शब्द है, आधुनिक ग्रीक का नहीं। इस तरह के शब्द साम्य से ऐसा लगता है कि इंडो-यूरोपीय भाषाओं के विकास को समझने के लिए उनका तुलनात्मक अध्ययन केवल संस्कृत से नहीं बल्कि आधुनिक आर्य भाषाओं से भी करना चाहिए।
ब्रज, अवधि में प्रचलित ‘अकनि/अकुनि’ , ‘अकनना’ जैसी क्रियाओं से मिलती जुलती एक क्रिया मराठी में भी है। हिन्दी की ’सुनना’ जैसी ही स्थिति मराठी के ‘ऐकणे’ (अइकणे) की भी है अर्थात यहाँ भी ‘श्रवण’ करने के लिए ‘ऐकणे’ (अइकणे) के अलावा कोई अन्य पर्यायी शब्द नहीं है। डॉ रामविलास शर्मा जिस दिशा में संकेत कर रहे हैं उससे ऐसा आभास होता है कि संभवतः प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार कि भारतीय शाखाओं में ‘ऐकणे’ (अइकणे), ‘अकनि / अकुनि’ जैसे शब्दों की उपस्थित प्राचीन ग्रीक के
ear tumpet‘अकनि’ और ‘ऐकणे’ की व्युत्पत्ति कल्पित ‘अक्’ धातु की बजाय ‘कर्ण’ में ही निहित है। प्रोटो भारोपीय भाषाओं के मूल स्रोतों की दिशा में महान काम करने वाले जूलियस पकोर्नी जैसे ख्यात भाषा शास्त्री का ध्यान इस ओर नहीं गया होगा, यह बात मानना मुश्किल है।
‘अकोउओ’ का प्रभाव मानी जानी चाहिए। इसे आर्यों के आप्रवासन का परिणाम भी माना जा सकता है और प्राचीन यूनान से वृहत्तर भारत के सांस्कृतिक सम्बंधों का नतीजा भी। ग्रीक ‘अकोउओ’ का परवर्ती रूपान्तर ‘अकूस्टोस’ होता है जिसमें सुनने लायक जैसा भाव है। इसका ही एक रूप ‘अकूस्टिकोस’ होता है जिसका अर्थ भी सुनना ही है। अंग्रेजी के ‘अकूस्टिक’ acoustic और फ्रैंच के acoustique से इसकी रिश्तेदारी निर्विवाद है। जूलियस पकोर्नी द्वारा बताई गईं प्रोटो भारोपीय धातु kous से इसकी रिश्तेदारी है। डॉ शर्मा का सुझाव महत्वपूर्ण है कि प्राचीन भारोपीय भाषाओं के विकास को परखने के लिए संस्कृत समेत आधुनिक आर्यभाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन भी होना चाहिए। मगर विभिन्न संदर्भों के मद्देनज़र अवधी शब्दों ‘अकनि/अकुनि’  और मराठी के ‘ऐकणे’ (अइकणे) की रिश्तेदारी ग्रीक की बजाय संस्कृत से ही जुड़ती लग रही है। ‘अकनि’ और ‘ऐकणे’ की व्युत्पत्ति कल्पित ‘अक्’ धातु की बजाय ‘कर्ण’ में ही निहित है। प्रोटो भारोपीय भाषाओं के मूल स्रोतों की दिशा में महान काम करने वाले जूलियस पकोर्नी जैसे ख्यात भाषा शास्त्री का ध्यान इस ओर नहीं गया होगा, यह बात मानना मुश्किल है।हिन्दी शब्दसागर के मुताबिक ‘अकनि’ दरअसल संस्कृत के ‘आकर्णन’ का रूपान्तर है। आकर्णन का प्राकृत रूप ‘आकण्णण’ होता है। इसका एक रूप ‘आकर्णे’ भी है। ‘आकण्णण’ के अवहट्ठ भाषा में ‘आकण्ड’, ‘आकण्णे’ जैसे रूप भी हैं। ‘अकनि/अकुनि’ इसी कड़ी में आता है।
ह मानना दूर की कौड़ी लगती है कि ‘आकर्णन’ से बने ‘आकण्ण’, ‘अकनि / अकनि’ और ‘ऐकणे’ जैसे शब्दों की ग्रीक ‘अकोउओ’ से रिश्तेदारी है। ध्यान देना चाहिए कि ग्रीक ‘अकोउओ akouo’ का उच्चारण a-koo-oh अर्थात ‘अ कू ओह’ होता है। यह स्पष्ट है कि संस्कृत के आकर्णन की अर्थवत्ता ‘कर्ण’ अर्थात कान से स्थापित हो रही है जिसका गुण सुनना है। हिन्दी शब्दसागर के मुताबिक ‘आकर्णन’ से बनी ‘अकनना’ क्रिया का अर्थ सुनना, कर्णागोचर करना जैसे भाव हैं। आहट लेने, अंदाज़ा लेने के लिए बना सुन-गुन वाला भाव भी आकर्णन या अकनना में है। ‘कान लगा कर सुनना’ जैसा भाव ही वाशि आप्टे के संस्कृत कोश में भी है। यहाँ ‘आकर्णनम्’ शब्द की व्युत्पत्ति आ + कर्ण+ल्युट बताते हुए इसका अर्थ सुनना, कान लगा कर सुनना दिया है। इसके विपरीत कृ.पा. कुलकर्णी के मराठी व्युत्पत्ति कोश में ‘ऐकणे’ की व्युत्पत्ति संस्कृत के ‘अभिकर्ण’ से बताई गई है। संस्कृत के ‘अभि’ उपसर्ग का अर्थ ‘की ओर’, ‘की दिशा में’ होता है। इस तरह अभिकर्ण में भी कान लगा कर सुनने का भाव ही है। इसका मराठी प्राकृत रूप होता है अहिकण्ण > अहिक्खण्ण > ऐकणे। मेरा मानना है कि मराठी ऐकणे का विकास भी संस्कृत के आकर्णनम् से ही हुआ होगा। क्योंकि संस्कृत कोशों में अभिकर्ण शब्द की प्रविष्टि मुझे नहीं मिली।
संस्कृत के ‘कर्ण’ की व्युत्पत्ति हुई है ‘कर्ण्’ धातु से जिसकी व्यापक अर्थवत्ता है और इससे बने अनेक शब्द हिन्दी में प्रचलित हैं। ‘कर्ण्’ में छेदना, प्रवेश करना, घुसना जैसे भाव शामिल हैं। कान  की संरचना के संदर्भ में इन भावों का अर्थ स्पष्ट है। कान दरअसल एक दीर्घ विवर जैसी संरचना ही है। ‘कर्ण्’ से बने ‘कर्ण’ का अर्थ है किसी वस्तु को थामने वाली संरचना, बाहर निकला हुआ हिस्सा, हत्था, दस्ता या मूठ आदि। कर्ण शब्द की कान के संदर्भ में यहां गुणवाचक अर्थवत्ता भी है और भाववाचक भी। श्रवणेन्द्रिय होने की वजह से यहां स्पष्ट है कि कानों में ध्वनि प्रवेश करती है। इस तरह स्पष्ट है कि ग्रीक ‘अकोउओ’ या अवधी के ‘अकनि/अकनि’ में शब्द साम्य है मगर यह मानना थोड़ा मुश्किल लगता है कि ‘आकर्णनम्’ के प्राकृत रूपों का प्रसार ग्रीक भाषा में हज़ारों वर्ष पहले हुआ होगा। खास बात यह कि ‘अकनि / अकनि’ की रिश्तेदारी जिस तरह से कान अर्थात कर्ण ( संस्कृत धातुमूल कर्ण्) से सिद्ध हो रही है, ग्रीक के ‘अकोउओ’, उसकी मूल धातु kous और इससे बने ‘अकूस्टिक’ जैसे शब्दों में कहीं भी शरीरांग ‘कान’ का भाव नहीं है। प्रोटो भारोपीय शब्दों के मूल स्रोत खोजने का बड़ा काम करने वाले ख्यात भाषाविद् जूलियस पकोर्नी ने इस पहलू की जानबूझ कर अनदेखी की है, यह बात माननी मुश्किल है। ‘अकनि’ और ‘ऐकणे’ की व्युत्पत्ति कल्पित ‘अक्’ धातु की बजाय ‘कर्ण’ में ही निहित है।
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7 कमेंट्स:

चंदन कुमार मिश्र said...

सुनना के लिए सचमुच हमारे पास शब्द की कमी है। भोजपुरी में भी मैंने इसके लिए ध्यान देना जैसा ही प्रयोग देखा है। इस शब्द के लिए हम तो वास्तव में निर्धन हैं। एक शब्द निशामन भी है शायद सुनने के लिए जैसा कि शब्दतंत्र यानी वर्डनेट बताता है।

विभूति" said...

सार्थक पोस्ट....

Mansoor ali Hashmi said...

# 'शब्द' लिखते थे, शब्द पढ़ते थे,
आज बारी है उसके 'सुनने' की,
जो ध्वनि रूप में सुरक्षित है,
आज बारी है उसके 'गुनने' की.
---------------------------------------
# 'कर्ण' भी एक कोष 'शब्दों' का,
जिसमे प्रविष्ट होके जीवित है,
कितनी भाषाए और संस्कृति,
होके समृद्ध आज पल्लवित है..
http://aatm-manthan.com

प्रवीण पाण्डेय said...

पूरी पोस्ट सुन गये।

रवि कुमार, रावतभाटा said...

हमेशा की तरह बेहतर...

विष्णु बैरागी said...

यह पोस्‍ट तनिक बोझिल लगी। शायद इसकी शास्‍त्रोक्‍तता के कारण। किन्‍तु यह अनिवार्य रही होगी। फिर भी कुछ-कुछ तो पल्‍ले पडी ही।
अंग्रेजी के 'एकोस्टिक' शब्‍द 'अनुनादहीन' अथवा 'अनुनाद रहित' के अर्थ में प्रयुक्‍त होते सुना है। क्‍या यह सही है?

Dr. Rajrani Sharma said...

बहुत खूब ! मैं तो समझ रही थी की आकर्ण्य से ही अकनि बना है ..... ! acoustic भी मूल में है ये जान कर अचंभा हुआ ! बहुत गहन चिंतन ...! मानस में और सूर में भी अकनि आकर्ण्य के अर्थ में ही आया है !
साधुवाद आपको !!!

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