पिछली कड़ियाँ-1.गंदगी और गन्धर्व-विवाह2.क्यों खाते हैं सौगन्ध ?
अ तार (पवित्राग्नि) की अवधारणा के तहत ऐसे ही विधानों में एक शपथ विधान भी था जिसका उल्लेख अवेस्ता में है। इसी अनुष्ठान का मध्यकालीन पर्शियन सन्दर्भों में ‘सोगन्द’ खोरदन (sogand xwardan, xordan) के रूप में ज़िक्र हुआ है। अवेस्ता में गन्धक को ‘सौकन्त’ कहा गया है। ‘सौकन्त’ और ‘सौगन्ध’ की समानता गौरतलब है। विशेषज्ञों का मानना है कि अवेस्ता का ‘सौकन्त’ saokant ही मध्यकालीन पर्शियन में ‘सोगन्द’ sogand हुआ और फिर आज की फ़ारसी में सौगन्द sowgand बना। अवेस्ता में ‘सौकन्त’ का तात्पर्य गन्धक से था। ‘सौकन्त’ के बारे मं बहुत कम सन्दर्भ उपलब्ध हैं और जो हैं उनमें भी इस शब्द की व्युत्पत्ति का कोई सूत्र नहीं मिलता। इन्साइक्लोपीडिया इरानिका में जो जानकारी मिलती है उससे लगता है कि ‘सौकन्त’ पीने (खाने) की परिपाटी ईसापूर्व एक हज़ार साल पहले ईरान में रही होगी। इस शपथ का उद्धेश्य था सत्य का परीक्षण करना। अर्थात ‘सोगन्द’ खोरदन के तहत गन्धक से बनी एक ओषधि को पीना होता था। यह माना जाता था कि गवाही देने से पहले ‘सौकन्त’ युक्त ओषधि पीने वाला व्यक्ति अगर झूठा है तो ‘सौकन्त’ में निहित गन्धक की तीव्रता से उसका गला जल जाएगा। यहाँ जलने की क्रिया ही खास है। अग्नि सत्यशोधक है, यह बात अग्निपूजक ईरानियों में सर्वमान्य थी। यूँ भी आग में तप कर ही सोना कुंदन बनता है। भारतीय सन्दर्भों में भी विष पीने, आग पर चलने, अंगारा उठाने जैसी मिसालें सचाई की चमक की पुष्टि करती हैं। सत्य ही अग्नि का प्रतीक है।
कुछ व्याख्याकारों का मानना है कि खोरदन में पीने का भाव भी है और खाने का भी। रस्म के तौर पर तो गन्धक से बनी ओषधि को पीने का उल्लेख ही सन्दर्भों में है, मगर समझा जा सकता है कि ‘सोगन्द’ के साथ बाद में खाने का भाव रूढ़ हुआ और इसे ‘‘सौगन्द’ ’ खोरदन कहा जाने लगा। यह महत्वपूर्ण है कि शपथ जैसी विधियों या अनुष्ठानों के साथ लेने, उठाने, खाने का ही भाव ज्यादा है। ‘सौगन्ध’ ली भी जाती है और खाई भी जाती है। ‘क़सम’ उठाई भी जाती है, ली भी जाती है और खाई भी जाती है। ‘क़सम’ चढ़ाई भी जाती है और उतारी भी जाती है। हिन्दी मराठी में खायी भी जाती है, ली भी जाती है और उठाई भी जाती है। प्रतिज्ञा की जाती है या ली जाती है। वचन दिया जाता है या लिया जाता है।
‘सौकन्त’ के बारे में गन्धक के अलावा एक अन्य सन्दर्भ पर्वत का मिलता है जिसके बारे में अवेस्ता और फारसी साहित्य में ज्यादा कुछ मिलता नहीं है, लेकिन जहाँ भी इसका उल्लेख हुआ है वहाँ एक वलयाकार स्वर्ण-पथ की मौजूदगी बताई गई है इसका सम्बन्ध धरती के किसी रहस्यमयी जादुई अध्यात्मिक जगह से है। नसरवानजी फ्रामजी बिलिमोरिया द्वारा सम्पादित ‘जोरास्ट्रियनिज्म’ में ‘सौकन्त’ पर्वत की आध्यात्मिक व्याख्या है। किताब के मुताबिक ‘सौकन्त’ पर्वत को हम भारतीय संस्कृति में प्रचलित मेरु पर्वत से जोड़ सकते है जो की पृथ्वी के मध्य स्थित है और वहाँ देवताओ का निवास है। पुस्तक में वलयाकार स्वर्ण-पथ की तुलना मेरुदण्ड से की गई है। मेरु दंड की सरंचना मनुष्य की रीढ़ की हड्डी की तरह होती है और ‘सौकन्त’ पर्वत की तरह ही मेरु पर्वत भी उत्तरी ध्रुव पर ही स्थित है। हम इससे ये अनुमान लगा सकते है की शारीरिक सरंचना में भी हम इस पर्वत को मनुष्य के उपरी भाग में स्थित मान सकते है। दूसरे शब्दों में कहे तो ‘सौकन्त’ पर्वत एक भौगोलिक जगह नहीं है बल्कि मनुष्य के मस्तिष्क के उपरी हिस्से में स्थित है जहाँ ब्रह्मरन्ध्र होता है जहाँ परमज्ञान की अनुभूति होती है। परमज्ञान यानी परमसत्य। अहुरमज्द इसी सत्य के प्रतीक है, परमशक्ति है, अग्नि के सूर्य के प्रतीक हैं। इस मुकाम पर आकर सत्य परीक्षण की बात से ‘सौकन्त’ का रिश्ता जुड़ता है।
‘सौकन्त’ के ‘सौ’ को अगर भूल जाएँ तो शेष रहता है ‘कन्त’ जिसका साम्य संस्कृत ‘गन्ध’ से होता है। इंडो-ईरानी, ईरानी- सेमिटिक भाषाओं में ‘क’ और ‘ग’ में परिवर्तन होता है। मध्यकालीन फ़ारसी में इस ‘कन्त’ का रूपान्तर ‘गन्द’ हो गया। ‘त-द-ध’ वर्णों में भी रूपान्तर आम बात है। यह सिर्फ़ अनुमान है, मगर इसका पुख्ता आधार है ‘सौकन्त’ में निहित गन्धक का अर्थ। गौर करें गन्धक का जन्म भी गन्ध ( बू ) से ही हुआ है। फ़ारसी सौगन्द में चाहे गन्ध ( बू ) नहीं है, मगर इसमें जो ‘गन्द’ है, वह अवेस्ताई ‘सौकन्त’ के ‘कन्त’ से आ रही है जिसका अर्थ गन्धक ( सल्फ़र ) होता है और गन्धक में ‘बू’ वाली ‘गन्ध्’ धातु ही है। फ़िलहाल यह तो तय है कि कसम या शपथ के अर्थ में हिन्दी के ‘सौगन्ध’ का मूल फ़ारसी का ‘सौगन्द’ है जिसकी रिश्तेदारी सीधे सीधे ‘सुगन्ध’ से नहीं हैं। फ़ारसी ‘सौगन्द’ हिन्दी की सुगन्ध के प्रभाव में आकर ‘सौगन्ध’ हो जाता है। फिर बोली भाषा में इसका रूप ‘सौन्ध’ होता है। अवधी में इस ‘सौन्ध’ के ‘ध’ (द+ह) ‘द’ का लोप होकर ‘ह’ शेष रहता है अलबत्ता अनुनासिकता बरकरार रहती है। इस तरह सौगन्ध का ‘सौंह’ रूप बनता है। एक दिलचस्प बात और ध्यान आ रही है। अवेस्ता में अगर ‘सौकन्त’ (गन्ध) का एक सन्दर्भ पर्वत मिलता है तो संस्कृत में भी इस ‘गन्ध’ का रिश्ता एक पर्वत से है जिसका नाम ‘गन्धमादन’ पर्वत है और इसका उल्लेख पुराणों में है। -समाप्त
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6 कमेंट्स:
इस कड़ी मे जाकर सुगन्ध और सौगन्ध का मामला साफ हुआ सा लगता है। हमारे यहाँ भी सोन्ह जिसे 'सौंधी' या 'सौंधा' कहते हैं, प्रचलित है।
सौगन्ध की कठिनता को सुगन्ध में ढाल दिया समय ने।
# 'बद' हो कि 'खुश' हो 'बू' की यही है विशेषता,
खाओं-पीओं और सूँघो वो 'सौगन्ध' ही तो है.
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# वो देश हो कि धर्म या रिश्तो की बात हो,
सबसे ज़्यादा टूटती सौगन्ध ही तो है.
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http://aatm-manthan.com
और वैदिक संस्कृत व संस्कृत में ....यह कहाँ है ???? क्या संस्कृत में सौगंध नहीं होती ...उर्दू- में तो कसम कहते हैं वह कहाँ से आया ---सब कुछ उलटा-पुल्टा लगता है ....बेतरतीव ...अतार्किक ..गंधक में तो गंध होती ही नहीं ..फिर कान्त का गंध कैसे ..और ..कन्त .का अर्थ गंद या गंध नहीं ...अपितु संस्कृत में पति होता है ..
--हिन्दी में शब्द तो संस्कृत से आये हैं अवेस्ता से नहीं ...यह उल्टी गंगा बहाई जा रही है ....
शाम गुप्ता जी लगता है आपने लेख ठीक से पढा नही ।
इंडो-ईरानी, ईरानी- सेमिटिक भाषाओं में ‘क’ और ‘ग’ में परिवर्तन होता है। मध्यकालीन फ़ारसी में इस ‘कन्त’ का रूपान्तर ‘गन्द’ हो गया। ‘त-द-ध’ वर्णों में भी रूपान्तर आम बात है। यह सिर्फ़ अनुमान है, मगर इसका पुख्ता आधार है ‘सौकन्त’ में निहित गन्धक का अर्थ। गौर करें गन्धक का जन्म भी गन्ध ( बू ) से ही हुआ है
गंधक में गंध नही होती ? गंधक को ही सौकंत कहा जाता है ये भी ऊपर कहा है ।
गंद में जरूर गंध का अर्थ समाया हुआ है । अत्तारों को गंधीगर या गंदीगर कहा जाता है ।
पर ये गंधक से सौगन्ध और सुगंध की उत्पत्ती सर्वथा नवीन रही ।
बढिया आलेख ।
आपके सफल ब्लॉग के लिए साधुवाद!
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