Friday, October 14, 2011

क्यों खाते हैं सौगन्ध ? [गन्ध-2]

बीते साल गन्ध पर लिखते हुए मुझे कुछ महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिली थीं और उसे मैने दो कड़ियों में देना तय किया था। पर जैसा कि अब तक होता आया है, कई शब्दों पर एक साथ काम करते हुए अक्सर सीरीज वाले शब्दों की अगली कड़ी लिखना मैं भूलता रहा और फिर नया शब्द शुरू। शब्दचर्चा समूह पर विचरण के दौरान भाई अभय तिवारी को सौगन्ध पर चर्चा करते पाया तो अपनी सौगन्ध याद आई। फौरन पुराने सन्दर्भ टटोले। दूसरी कड़ी कुछ लम्बी हो गई है इसलिए इसे भी दो किस्तों में पढ़ें-
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सु गन्ध और ‘सौगन्ध’ में क्या अन्तर है? बड़ी आसान सी बात है कि ‘सुगन्ध’ यानी खुशबू और ‘सौगन्ध’ यानी शपथ, क़सम आदि। पूर्वी बोलियों में ‘सौगन्ध’ यानी शपथ ‘सौंह’ रूप में बसा है जबकि फ़ारसी में इसका रूप ‘सौगन्द’ या ‘सोगन्द’ होता है। मतलब समान है- शपथ। आमतौर पर माना जाता है कि ‘सुगन्ध’ का रिश्ता ‘सौगन्ध’ से हैं। बात भी सही है कि ‘सौगन्ध’ और ‘सुगन्ध’ में बड़ी दिलचस्प रिश्तेदारी है क्योंकि दोनों में ही ‘गन्ध’ का बसी है। ध्वनि, वर्ण समानता के आधार पर ‘सुगन्ध’ और ‘सौगन्ध’ लगभग समान लगते हैं, मगर शब्दकोशों में ‘सौगन्ध’ का सिर्फ़ शपथ वाला अभिप्राय प्रकट होता है, ‘सुगन्ध’ वाला नहीं। हालाँकि जॉन प्लैट्स के कोश में ‘सौगन्ध’ का एक अर्थ ‘सुगन्ध’ ही बताया गया है। ‘सौगन्ध’ यानी एक खुशबूदार घास। वे इससे जुड़ा एक मुहावरा “सुगन्ध-सना” भी बताते हैं। इस प्रविष्टि में ‘सौगन्ध’ का रिश्ता क़सम या शपथ से नहीं जोड़ा गया है। यही नहीं, ‘सौगन्ध खाना’ जैसे मुहावरे के साथ खाने की, भक्षण करने की जो क्रिया है उससे इसका सम्बन्ध ‘सुगन्ध’ से नहीं हो सकता क्योंकि उसका रिश्ता सूँघने की क्रिया से है। आखिर ‘सौगन्ध’ क्यों खायी जाती है?

बसे पहले ‘गन्ध’ की बात। संस्कृत में गंध का रूप गन्धः है जिसका अर्थ ‘वास’ या ‘बू’ है। इसमें अच्छा या बुरा विशेषण नहीं लगा है। मगर यही ‘गन्ध’ फारसी में ‘गंद’ के रूप में दुर्गन्ध की अर्थवत्ता धारण करती है। फारसी में सामान्य गन्ध के लिए ‘बू’ शब्द है जिसके खुशबू और बदबू जैसे रूप प्रचलित हैं, किंतु हिन्दी में सिर्फ ‘बू’ के मायने भी खराब गंध होता है। ठीक इसी तरह जैसे संस्कृत के ‘वास्’ का अर्थ सुगंधित करना होता है मगर उसका हिन्दी रूप बना ‘बास’ जिसे ‘बदबू’ समझा जाता है। ‘गन्ध’ का फारसी रूप ‘गंद’ व्यापक अर्थवत्ता रखता है और इसमें मलिनता, गलीजपन, घिनौनापन, निर्लज्जता या व्यवहारगत अनैतिककर्म, प्रदूषित अथवा लज्जास्पद शब्द भी शामिल हैं।

प्राचीन ईरान की अग्निपूजा से जुड़ी एक आनुष्ठानिक परम्परा का ‘सौगन्ध’ से गहरा रिश्ता है। यह वैदिकयुगीन ईरान की बात है यानी अग्निपूजक पारसिकों के दौर की। यहाँ की प्राचीनतम भाषा अवेस्ता थी। जरथुस्त्र (ईपू दसवीं सदी) के पूर्व के ईरानी-आर्य, भारतीय-आर्यों की भाँति ही अग्निपूजक, यज्ञपरायण तथा देवोपासक थे परन्तु मतभेद के कारण ईरानियों के लिए ‘देव’ का अपकर्ष हो गया और भारतीय आर्यों के लिए ‘असुर’ का। ईरानियों ने ‘असुर’ को देवता के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। ऋग्वेद के प्राचीनमंत्रों में ‘असुर’ शब्द वरुण आदि देवताओं के विशेषण के रूप में व्यवहृत हुआ है। अवेस्ता में ईश्वर को अहुरमज़्दा-असुरमेधा कहा गया है। प्रायः हर संस्कृति में मनुष्य ने अपने निवास के पास अग्निस्थापना की है। प्राचीन ईरान में भी हर घर में अग्निस्थान होता था। वैदिक काल से आज तक हिन्दू परिवारों में घर के भीतर अग्निस्थान निश्चित होता है। इन स्थानों के कुछ विशिष्ट नाम भी हैं जैसे अग्निकुण्ड, अग्निवेदी, अग्निगृह, अग्निधान, अग्निष्ठस्। रसोईघर तो पारम्परिक अग्निस्थान है ही।
भाषाशास्त्रियों और इतिहासकारों का मानना है कि प्राचीन ईरान के अग्निविधान मगध के अग्निपुरोहितों द्वारा कराए जाते थे, जो बाद में वहीं बस गए। ‘मागध‘ ब्राह्मण होने की वजह से वहाँ वे ‘मागी’ कहलाए। पश्चिमी यात्रियों ने इन मागियों के अग्निविधानों को चमत्कार माना। प्राचीन यूनानी ग्रन्थों में इन्हें ‘मागीज़‘ कहा गया है। बाद में मागीज़ का रूपान्तर ‘मैजिक’ हुआ। अपने विचित्र अनुष्ठानों की वजह से मागी से ही मैजिशियन शब्द भी बना जिसका अर्थ हुआ जादूगर। वैदिक काल में अग्निकर्म कराने वाले पुरोहित को अथर्वन् कहते थे। पश्चिमी विचारकों ने इस अथर्वन् को भी तंत्र-मंत्र कर्ता के रूप में ही देखा। पारसिकों में पवित्र-अग्नि की अवधारणा है जिससे समूची सृष्टि ऊर्जा प्राप्त करती है, इसे ‘अतर’ या ‘अतार’ कहते हैं। ‘अथर्व’ या ‘अथर्वन् ‘से इसका शब्द साम्य देखा जा सकता है। अवेस्ता में रचित पारसिकों के प्राचीन धर्मग्रन्थ गाथा में भी ‘अतार’ का उल्लेख हुआ है।
क बार फिर ‘गन्ध’ पर आते हैं। एक प्रसिद्ध रसायन ‘गन्धक’ का नामकरण भी इसी ‘गन्ध्’ धातुमूल से हुआ है। दरअसल ‘सौगन्ध’ में जो गन्ध है उसमें अभिप्राय ‘गन्धक’ का है। अत्यंत तीक्ष्ण गंध वाले इस पदार्थ को अंग्रेजी में सल्फर कहते हैं। दिलचस्प यह भी कि प्रकृति में गन्धक परिशुद्ध रूप में नहीं मिलता। वह किसी न किसी यौगिक के रूप में होता है और इसीलिए उसमें से गन्ध आती है। परिशुद्ध सल्फर गन्धहीन होता है। इसके औद्योगिक और ओषधीय उपयोग हैं। एक पाचक दवा को ‘गंधवटी’ भी कहते हैं। वैसे गन्धक अत्यधिक ज्वलनशील और अग्निमित्र पदार्थ है। तेज गन्ध की वजह से ही इस पदार्थ को गन्धक कहा गया। प्याज में सल्फ़र बड़ी मात्रा में होता है और इसकी तेज़ गन्ध के पीछे, जिसे कई लोगो बदबू कहते हैं, गन्धक ही है। बहरहाल, यज्ञप्रिय वैदिक आर्यों की भांति ही पारसिकों के आचारव्यवहार पर भी अग्निपूजक संस्कृति की छाप थी। तमाम अनुष्ठानों में अग्निपूजा का महत्व था। अहुरमज्द ही परमज्ञान अथवा शक्तिपुंज का भी प्रतीक है।
प्राचीन ईरान में पारसिक ‘यज्ञ’ (यज्, यजन) करते थे जिसे अवेस्ता में ‘यश्न’ कहा जाता था। यही ‘यश्न’ कालान्तर में ‘जश्न’ बन कर फिर भारत लौट आया। यह ‘यश्न’ अहुरमज्द की उपासना के लिए था। जिस तरह से भारत के ग्रामीण समाज में आज भी प्रेतबाधा ग्रस्त व्यक्ति को दागा जाता है, अथवा ईमान की परीक्षा के लिए अग्निपरीक्षा का विधान है, ऐसे ही कर्मकाण्ड प्राचीन ईरानी समाज में भी प्रचलित थे। मूलतः ये कर्मकाण्ड अग्निपूजा का विधान ही थे और इसके मूल में अग्नि को साक्षी कर सत्य या बुराई का परीक्षण करना था। जैसे झूठ बोलने पर आग को जीभ पर रखना, धोखाधड़ी करने पर शरीर को गर्म लोहे की छड़ों से दागना या शरीर पर खौलता हुआ पानी डालना जैसे परीक्षण होते थे जो मूलतः अग्निपरीक्षा ही थी। अर्थात अगर आरोपी निर्दोष है तो पवित्र-अग्नि उसे नुकसान नहीं पहुँचाएगी। बाद में ये सब ढकोसला बन गए।
-अगली कड़ी में समाप्त
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7 कमेंट्स:

चंदन कुमार मिश्र said...

सुगन्ध-सौगन्ध का मामला उतना स्पष्ट नहीं हुआ।

Patali-The-Village said...

अगली कड़ी का इंतजार है|

प्रवीण पाण्डेय said...

एक शब्द है, दो भाषायें, अलग रंग दिखलाते हैं।

अजित वडनेरकर said...

@चन्दन मिश्र
गलती हो गई।
ये पोस्ट दो कड़ियों में जानी थी।
मैं जल्दबाजी में यह सूचना लगा नहीं पाया।
प्रस्तुत पोस्ट से पहले भी एक पोस्ट आ चुकी है।
उसका लिंक भी लगाना बाकी है।

इन तीनों को एक साथ पढ़ोगे तो ही चित्र स्पष्ट हो पाएगा।
असुविधा के लिए क्षमा।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत बढ़िया!
--
इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
यदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।

देवेन्द्र पाण्डेय said...

शब्द चमत्कार
चमत्कार को नमस्कार।

विष्णु बैरागी said...

किश्‍तों में होने के कारण यह पोस्‍ट अधिक सहज लगी। मालवी में आते-आते 'सौगन्‍ध' ने 'सोगन' या 'होगन' का रूप ले लिया।

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