सबसे पहले ‘हाँ’ की बात। सामान्य वार्तालाप के दौरान अगर इस ‘हाँ’ का इस्तेमाल न किया जाए तो संवाद आगे ही नहीं बढ़ सकता। ‘अच्छा’ से भी ज्यादा इस ‘हाँ’ की अहमियत है। किसी संवाद के दौरान अगर यह ‘हाँ’ सुनाई नहीं पड़े तो समझिए कि बहरा होने का उलाहना अब मिलने ही वाला है। ‘हाँ’ की व्युत्पत्ति संस्कृत के ‘आम्’ से मानी जाती है और इस अव्यय को विद्वानों ने अलग अलग नाम दिए हैं, मगर मूल भाव एक ही है-स्वीकृति, सहमति, समर्थन आदि का। आम् के मूल में विद्वानों का मानना है कि हिन्दी का ‘हाँ’ अव्यय संस्कृत के आम् से बना है। इसका विकासक्रम यूँ रहा है-सं.आम् >(पाली) आम > (प्राकृत) अम्ह। आंचलिक रूपों में ‘म्’ की अनुनासिकता ‘ह’ में समा गई। फिर ‘अ’ स्वर भी ‘ह’ से जुड़ गया। यह क्रम कुछ यूँ रहा-(प्राकृत) अम्ह > अहँ > हआँ > ‘हाँ’। मोनियर विलियम्स और आप्टे कोश के मुताबिक आम् संस्कृत अव्यय है। आप्टे लिखते हैं कि यह विस्मयादि द्योतक अव्यय है और अंगीकरण, स्वीकृति जैसे भावों अर्थात ओह, ‘हाँ’ को अभिव्यक्त करता है। उदय नारायण तिवारी इसे सम्मतिसूचक अव्यय कहते हैं तो वाशि आप्टे, भोलानाथ तिवारी इसे विस्मयबोधक अव्यय मानते हैं। इन तमाम अर्थों में ‘हाँ’ का प्रयोग सिर्फ़ ‘हाँ’ कह कर भी किया जाता है अथवा ‘हाँ’ के साथ वाक्य के जरिए। मिसाल के तौर पर- आपने कुछ खाया? जवाब में सिर्फ़ ‘हाँ’ भी कहा जा सकता है और ‘हाँ’, अभी कुछ देर पहले ही...” भी कहा जा सकता है। विशेष स्थितियों में ‘हाँ’ के प्रयोग से भी वार्तालाप का सिरा पकड़ा जाता है जैसे, ‘हाँ’, बताइये...या फिर, ‘हाँ’, क्या कह रहे थे आप...।
इसी तरह दूसरा स्वीकृति सूचक अव्यय है ‘अच्छा’। आप्टे कोश के मुताबिक प्राप्ति के द्योतन वाला यह अव्यय संस्कृत के ‘अच्छ’ से बना है। व्युत्पत्तिमूलक अर्थ देखें तो ‘अच्छ’ में विशुद्ध, निर्मल, उज्ज्वल, पारदर्शी जैसे भाव हैं अर्थात जो कुछ स्वच्छ है, वही ‘अच्छ’ है। अब अव्यय के रूप में सहमतिसूचक या कहे विस्मयादिबोधक के तौर पर ‘अच्छ’ के इन व्युत्पत्तिमूलक भावों की क्या व्याख्या हो सकती है? आमतौर पर सहमति, स्वीकृति या अनुमोदन करते हुए- ‘अच्छा’, तो ऐसा ही करते हैं, ‘अच्छा’, अब और कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है या ‘अच्छा’, देखते हैं और क्या कर सकते हैं। इन तमाम वाक्यों में यह ‘अच्छा’ शब्द सिर्फ़ संवाद के उपसंहार की औपचारिकता के लिए नहीं बोला गया है बल्कि इसमें यह निश्चय भी झलक रहा है कि बात पूरी तरह स्पष्ट हो चुकी है। ‘अच्छा’ में जो पारदर्शिता, निर्मलता या उज्ज्वलता है, अव्यय के रूप में ‘अच्छ’ में उसका अभिप्राय स्पष्टता से है। यानी संवाद के बाद जब ‘अच्छा’ कहा जाता है तब यह संकेत होता है कि सब कुछ स्पष्ट हो गया है।
अच्छ में जो ‘छ’ है वह ‘छत’ अर्थात ‘छाया’ का प्रतीक है। संस्कृत छाया का ही फारसी रूप साया है। मगर हिन्दी के ‘छाया’ में अब सिर्फ़ परछाईं का भाव रह गया है वहीँ फारसी के साया में परछायी के साथ साथ ‘छत’ का भाव भी बरकरार है। संस्कृत की ‘छद्’ धातु में छत, छाया, ढके होने का भाव है। मोनियर विलियम्स के कोश के मुताबिक यह अ+च्छ है। इसमें जो ‘च्छ’ है वह ‘छद्’ से आ रहा है। इस तरह ‘अच्छ’ का अर्थ हुआ जो ढका हुआ न हो, जो उजागर है, पूरी तरह स्पष्ट है, पारदर्शी है, साफ है। इस तरह संवाद होने के बाद अन्त में जब ‘अच्छा’ कहा जाता है तब अभिप्राय यही होता है कि अब सब कुछ स्पष्ट है, कुछ भी छुपा हुआ नहीं है। “अच्छी बात है, चलते हैं” का अर्थ यह नहीं कि कोई बहुत बढ़िया बात कही गई है और जाने की इजाज़त मांगी जा रही है। इसका अर्थ है- “सब कुछ स्पष्ट है, अब कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। अब वार्तालाप में जो कुछ तय हुआ है उस पर अमल किया जाएगा।” कृपा कुलकर्णी के मराठी कोश में तो ‘अच्छा’ का अर्थ ही अत्यर्थम् या स्वच्छम् बताते हुए स्वचछ्म् की व्युत्पत्ति सु+अच्छम् बताई है। अच्छम् यानी जो शुद्ध है। ज़ाहिर है शुद्धता का बड़ा गुण निर्मलता ही है। निर्मलता में ही स्पष्टता है।
विशेषण के तौर पर तो ‘अच्छा’ का अर्थ रूप, गुण और योग्यता में औरों से बढ़ कर या काबिलेतारीफ़ वाला भाव है जैसे ‘अच्छा’ शहर। शुभ मुहूर्त को ‘अच्छा’ दिन कहा जाता है। यहाँ ‘अच्छा’ में मंगलकारी भाव है। कई बार निर्दोष वस्तु के तौर पर भी ‘अच्छा’ का प्रयोग होता है जैसे ‘अच्छा’ वस्त्र, ‘अच्छा’ खाना। क्रिया विशेषण या अव्यय के रूप में हमेशा ‘अच्छा’ ही प्रयोग होता है, वैसे ‘अच्छा’ का बहुवचन अच्छे होता है जैसे अच्छे बच्चे, अच्छे लोग। व्यंग्य या नकारात्मक भाव के तौर पर भी अच्छे का प्रयोग होता है जैसे, काम बिगाड़ देने वाले के लिए कहा गया जुमला- बहुत अच्छे ! ‘अच्छा’ की अभिव्यक्ति हिन्दी समेत अनेक भाषाओं में होती है। टर्नर कोश के मुताबिक, कश्मीरी में यह ओछू है, सिन्धी में अछो है, तो बांग्ला में आच्च्छा, राजस्थानी में आछो, कुमाऊनी में आछो है। ‘अच्छा’ के इस्तेमाल में ‘ह’ का प्रयोग भी मिलता है जैसे लहँदा और पंजाबी में ‘अच्छा’ (हच्छा) है तो पहल्वी की पश्चिमी शैली या भद्रवाही में हच्च्छो सुनाई पड़ता है।
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9 कमेंट्स:
हाँ, अच्छा है…वैसे अच्छा का इस्तेमाल भगाने या टालने के लिए भी किया जाता है
जैसे बिना संतुष्ट हुए ही यह कहना कि 'अच्छा चलिए' या 'अच्छा, ठीक है'
…यानी स्वच्छ अच्छ से ही बना है
“अच्छी बात है, चलते हैं”
आभार आप का ...
हमारे यहाँ कथा के श्रोता हर विराम पर अरे!नमः कहते हैं उसे कैसे विस्मृत कर गए आप?
अच्छा, तो यह बात है
थोड़ी हैरानी हुई कि आपने 'हूँ' का उलेख क्यों नहीं किया. पंजाबी में हाँ
और हूँ दोनों चलते हैं लेकिन अलग अलग सन्दर्भों में जैसे 'हाँ, तां मैं
कह रिहा सी' चलेगा 'हूँ, तां मैं कह रिहा सी' नहीं. मुझे और भी हैरानी
हुई कि आपने ऐसे शब्दों के लिए ' हुंगारा ' पद का इस्तेमाल नहीं किया.
मुझे लगता है यह हिन्दी में कम चलता है वह भी शायद पंजाबी के प्रभाव
से . 'हुंगारा' भी हूँ से ही बना है.गारा' 'कार' का रूपांतर लगता है जो
लगातारता का सूचक है. 'हूँ' मुझे संस्कृत ' हूम्' से व्युतप्त हुआ लगता
है. क्या ख्याल है? हूँ-हाँ करना मुहवरा भी होता है, जिस का मतलब किसी
की मांग के प्रति अधिक ध्यान न देना है. एक अस्वीकृति सूचक अव्यय होता है
जो लिखने में कम आता है जैसे 'ऊँहूँ'. दिलचस्प बात है पंजाबी में इसके
उल्ट होता है यानि 'हुंऊँ'. कुछ भी हो, यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि
अन्य भाषाओँ जैसे अंग्रेज़ी में भी ऐसे अव्ययों का लगभग ऐसा ही ध्वनि
रूप है. अच्छा के बीर फिर सही.
अवध में आछो-आछो करना एक मुहावरा है। जब कोई किसी का अतिरिक्त आदर सत्कार करता है
जिसमें कुछ चापलूसी भी शामिल हो तो उसे आछो-आछो करना कहते हैं। वाक्य कुछ ऐसे होगा। बहुत आछो-आछो कर रहे थे उस दिन सक्सेना साहब आपकी की....कुछ लोग अच्छाई से आच्छादित रहते हैं और सबकी आछो-आछो करते हैं..
बहुत बढ़िया बोधि भाई।
आपकी बात से याद आया कि राजस्थानी में भी यह आछो चलता है।
मोरिया आछो रे बोल्यो रे ढळती रात मां
पर यहाँ क्रिया विशेषण रूप ही है।
आपके इस 'अच्छा' ने तो अच्छे-अच्छों की छुट्टी कर दी।
बलजीतजी बासी की बात को थोडा सा आगे बढा रहा हूँ। पंजाबी के 'हुँगारा' को मालवी में 'हुँकारा' कहते हैं जिसके बिना दादी/नानी की कहानी आगे नहीं बढ पाती। कहानी सुनते-सुनते हुँकारा देना एक अनिवार्यता है। कभी-कभी इस काम (हुँकारा देने के लिए) के लिए तो किसी व्यक्ति को तैनात कर दिया जाता है। दिनेशरायजी द्विवेदी का 'अरे!नम:' भी यही 'हुँकारा' ही है।
यह तो सर्वथा नवीन लगा । अच्छा की व्युत्पत्ती बहुत अचछी समझाई आपने ।
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