Thursday, August 19, 2010

ऑनर किलिंग के बहाने महिमा गोत्र की…

8-3-07

जातिवादी सामाजिक व्यवस्था की खासियत ही यही रही कि इसमें हर समूह को एक खास पहचान मिली। हिन्दुओं में गोत्र होता है जो किसी समूह के प्रवर्तक अथवा प्रमुख व्यक्ति के नाम पर चलता है। सामान्य रूप से गोत्र का मतलब कुल अथवा वंश परंपरा से है। गोत्र को बहिर्विवाही समूह माना जाता है अर्थात ऐसा समूह जिससे दूसरे परिवार का रक्त संबंध न हो अर्थात एक गोत्र के लोग आपस में विवाह नहीं कर सकते पर  दूसरे गोत्र में विवाह कर सकते, जबकि जाति एक अन्तर्विवाही समूह है यानी एक जाति के लोग समूह से बाहर विवाह संबंध नहीं कर सकते। गोत्र मातृवंशीय भी हो सकता है और पितृवंशीय भी। ज़रूरी नहीं कि गोत्र किसी आदिपुरुष के नाम से चले। जनजातियों में विशिष्ट चिह्नों से भी गोत्र तय होते हैं जो वनस्पतियों से लेकर पशु-पक्षी तक हो सकते हैं। शेर, मगर, सूर्य, मछली, पीपल, बबूल आदि इसमें शामिल हैं। यह परम्परा आर्यों में भी रही है। हालांकि गोत्र प्रणाली काफी जटिल है पर उसे समझने के लिए ये मिसालें सहायक हो सकती हैं। देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय अपनी प्रसिद्ध पुस्तक लोकायत में लिखते हैं कि कोई ब्राह्मण कश्यप गोत्र का है और यह नाम कछुए अथवा कच्छप से बना है। इसका अर्थ यह हुआ कि कश्यप गोत्र के सभी सदस्य एक ही मूल पूर्वज के वंशज हैं जो कश्यप था। इस गोत्र के ब्राह्मण के लिए दो बातें निषिद्ध हैं। एक तो उसे कभी कछुए का मांस नहीं खाना चाहिए और दूसरे उसे कश्यप गोत्र में विवाह नहीं करना चाहिए। आज समाज में विवाह के नाम पर आनर किलिंग का प्रचलन बढ़ रहा है उसके मूल में गोत्र संबंधी यही बहिर्विवाह संबंधी धारणा है।
ह जानना दिलचस्प होगा कि आज जिस गोत्र का संबंध जाति-वंश-कुल से जुड़ रहा है, सदियों पहले यह इस रूप में प्रचलित नहीं था। गोत्र तब था गोशाला या गायों का समूह अथवा गोवंश का बाड़ा। दरअसल संस्कृत में एक धातु है त्रै-जिसका अर्थ है पालना, रक्षा करना और बचाना आदि। गो शब्द में त्रै लगने से जो मूल अर्थ प्रकट होता है जहां गायों को शरण मिलती है, जाहिर है गोशाला मे। इस तरह गोत्र शब्द चलन में आया। गौरतलब है कि ज्यादातर और प्रचलित गोत्र ऋषि-मुनियों के नाम पर ही हैं जैसे भारद्वाज-गौतम आदि मगर ऐसा क्यों ? इसे यूं समझें कि प्राचीनकाल में ऋषिगण HittPlowविद्यार्थियों पढ़ाने के लिए गुरुकुल चलाते थे। इन गुरूकुलों में खान-पान से जुड़ी व्यवस्था के लिए बड़ी-बड़ी गोशालाएं होती थीं जिनकी देखभाल का काम भी विद्यार्थियों के जिम्मे होता था। ये गायें इन गुरुकुलों में दानस्वरूप आती थीं और बड़ी तादाद में पलती थीं। गुरुकुलों के इन गोत्रो में समाज के विभिन्न वर्ग भी दान-पुण्य के लिए पहुंचते थे। कालांतर में गुरूकुल के साथ साथ गोशालाओं को ख्याति मिलने लगी और ऋषिकुल के नाम पर उनके भी नाम चल पड़े। बाद में उस कुल में पढ़ने वाले विद्यार्थियों और समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों ने भी अपनी पहचान इन गोशालाओं यानी गोत्रों से जोड़ ली जो सदियां बीत जाने पर आज भी बनी हुई है।
मूलतः गोत्र शब्द भी हमारी पशुपालन संस्कृति से उपजा है। सप्तसैंधव क्षेत्र के निवासी आर्यों का प्रिय पशुधन गौ था। इसी रूप में गोपालक समुदाय के लिए गोत्र शब्द उपजा होगा जो बाद में वंश के विशिष्ट गुणों की पहचान का आधार बना। सफाई देवता पुस्तक में ओमप्रकाश वाल्मीकि प्रख्यात विद्वान राहुल सांकृत्यायन के हवाले से लिखते हैं कि गोत्रकाल का ज्ञान हमारे पास बहुत ही कम है। विश्वामित्र, भरद्वाज आदि जितने भी गोत्र (ब्राह्मणी काल) प्रसिद्ध हैं, ये वस्तुतः गोत्रकाल या पित्रसत्ताकाल के भी नहीं हैं। ये सारे ऋषि 1500 ईसा पूर्व के काल में दासता और सामन्तवादी युग में हुए हैं। हो सकता है कुभा (काबुल) और सुवास्तु (स्वात) की उपत्यका में रहते वक्त गोत्रसत्ता उनमें मौजूद रही हो। डीएन झा के मुताबिक जो लोग अपनी गायों के साथ एक ही गोष्ठ में रहते थे, उनका संबंध उसी गोत्र से हो जाता था। बाद में रक्तसंबंध का अभिप्राय भी इस शब्द से जुड़ गया। गोत्र का अभिप्राय ऐसे समूह से भी लगाया जाता है जो रक्तसंबंध से बाहर हो। कालांतर में विवाह संबंधों के संदर्भ में गोत्र का अर्थ बहिर्विवाही समूह हो गया। डॉ काणे के अनुसार गोत्र में कोई भी व्यक्ति अपने गुरू के साथ सम्पूर्ण परिवार को संबंधित करता है, ठीक वैसे ही जैसे सामान्य जीवन में हम खुद को अपने पिता से संबंधित करते हैं। हालांकि ऋग्वेदकाल में गोत्र का अर्थ सिर्फ गोशाला या गोपालक समूह ही था मगर उपनिषद काल तक गोत्र की पहचान विशिष्ट समूहों के रूप में हो चुकी थी।

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18 कमेंट्स:

Baljit Basi said...

'गोत्र को बहिर्विवाही समूह माना जाता है अर्थात ऐसा समूह जिससे दूसरे परिवार का रक्त संबंध न हो अर्थात एक गोत्र के लोग दूसरे गोत्र में विवाह नहीं कर सकते जबकि जाति एक अन्तर्विवाही समूह है यानी एक जाति के लोग समूह से बाहर विवाह संबंध नहीं कर सकते।' दोनों बातें एक ही हैं. कुछ गड़बड़ है. एक गोत्र के लोग आपने को छोड़ कर दुसरे गोत्र में ही शादी करते हैं, तभी तो उन्हें बहिर्विवाही समूह कहा जाता है जब कि आप उल्ट लिख रहे हैं. कृपया स्पष्ट करें.

Udan Tashtari said...

एक गोत्र के लोग दूसरे गोत्र में विवाह नहीं कर सकते ??

खैर, बलजीत जी को आप जबाब देंगे तो पढ़ लेंगे हम

Mansoor ali Hashmi said...

ग़ोता लगा के 'गौत्र' के सागर में ये मिला,
बन्दर* को हम से ज़्यादा मिली है स्वतंत्रता

[*पोस्ट पर छपी तस्वीर को देख उपजा ख्याल.]

-mansoorali hashmi

के सी said...

धर्म के भीतर जाति और जाति के भीतर गौत्र
एक ही गौत्र में विवाह अस्वीकार्य है और जाति के बाहर भी विवाह अस्वीकार्य है. सजातीय विवाह होते हैं किन्तु सगौत्रीय विवाहों पर पाबन्दी है. जाति में वंश विशेष के नाम से गौत्रों की पहचान स्थापित है. वंश अथवा गौत्र में जन्मे सभी आपस में भाई और बहन है अतः उनमे विवाह अनुचित है. अलग अलग गौत्रों में भी निकट के चार गौत्र जिनमे इस पीढ़ी में रक्त संबन्ध है वहां भी विवाह वर्जित है. मैं जिस जाति अथवा कुल में जन्मा हूँ उसका वैवाहिक संविधान कुछ इस तरह का है.

किरण राजपुरोहित नितिला said...

हिन्दुओं में एक ही गोत्र में विवाह वर्जित है।
और जाति से बाहर भी । खासकर मातृगोत्र और पितृ गोत्र को छोड़ा जाता है और साथ ही इन दोनों की भाईगोत्र को भी मातृ व पितृ गोत्र ही माना जाता है।

दिनेशराय द्विवेदी said...

पशुपालकों की मूल संपत्ति पशु ही थे। अपने आरंभिक रूप में संपत्ति वैयक्तिक नहीं हो सकती थी, खास तौर पर पशुधन। वह एक परिवार या एक कुल की संपत्ति ही रही होगी। परिवार और उस की संपत्ति पशुधन मिल कर गोत्र हुए। किसी भी कारण से जब गोत्र समूह टूटा होगा तब भी उन की गोत्र की पहचान बनी रही।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

अब समाज का इतना विस्तार हो गया है और लोग गोत्र से भी अनभिज्ञ होते जा रहे हैं, तो क्या इस प्रथा से चिपके रहना चाहिए और आनर किलिंग के नाम पर हत्याये होनी चाहिए?

अजित वडनेरकर said...

सभी से माफी चाहता हूं। गड़बड़ी मेरी ओर से हुई है। पोस्ट लिखी जा रही थी और उधर बारिश भी हो रही थी। अंदेशा बिजली जाने का था, सो पोस्ट खत्म करते ही उसे बिना पढ़े पब्लिश कर दिया। देख लेता तो रात में ही गलती ठीक हो जाती। तब से अब तक दोबारा देखने का मौका नहीं मिला। अब दुरुस्त कर दिया है।

रंजना said...

इस विषय पर आज तक जो कुछ भी पढ़ा जाना,पूर्णतः वह मेरे जिज्ञासाओं का समाधान नहीं कर पाया है...
व्यवहार में हिन्दू समाज में एक साथ दो वर्जनाएं हैं- पहली विजातीय विवाह की और दूसरी सगोत्रीय विवाह की...
जातीयता तो ठीक है,पर गोत्र तो जातिविशेष के लिए एक ही नहीं है...
उदाहरनार्थ - यदि कोई शांडिल्य गोत्रोत्पन्न है तो यह गोत्र एक साथ कई जातियों में होता है...
इतना अंदाजा तो है कि रक्त(नस्ल,ब्रीड) की शुद्धता कायम रखने के लिए यह व्यवस्था की गयी जो कि केवल हिन्दुओं में ही नहीं,विश्व के लगभग सभी धर्मों में है..बल्कि कहें कि इस परंपरा को पारसी तथा कई अन्य हिन्दुओं से भी अधिक कट्टरता से मानते हैं तो अतिशयोक्ति न होगी...
इस सम्बन्ध में अभी भी खोज में हूँ कि विस्तृत कुछ पढने को मिल जाय...

रंजना said...

हाँ,यह अवश्य कहूंगी कि जाति धर्म गोत्र के नाम पर किसी की हत्या कर देने से अमानुषिक और कुछ नहीं हो सकता...

उम्मतें said...

कश्यप गोत्र ब्राह्मण में , कुर्मियों में और अलग अलग आदिवासियों में भी , मतलब ये कि अलग अलग वर्ण और अलग जाति / समुदायों के लोगों का गोत्र एक ही हो सकता है !

प्रवीण पाण्डेय said...

रोचक विवरण

Baljit Basi said...

पंजाब में जट्टों के कुछ ऐसे गोत्र हैं जो रक्त शुद्धता कायम रखने के लिए अपने ही गोत्र में शादी करते हैं.
रंजना जी की बात समझ में नहीं आई, क्या रक्त शुद्धता कायम रखने के लिए सगोत्रीय विवाह की वर्जना की गई? इससे रक्त शुद्ध कैसे रहता है? हाँ, जाति की स्तर पर(अर्थात एक ही जाति में शादी) यह बात सही है.

shyam gupta said...

प्रस्तुत आलेख में मूलतः भ्रमात्मक तथ्य निहित हैं---


१..--- "गोत्र तब था गोशाला या गायों का समूह अथवा गोवंश का बाड़ा।"---गायों के समूह को ’गोष्ठ” कहा जाता था व है न कि गोत्र; --गौ का अर्थ सिर्फ़ गाय नहीं अपितु= इन्द्रियां, विद्या, प्रिथ्वी, वाणी भी होता है। गोत्र का अर्थ= विद्या/इन्द्रियों के त्राण कर्ता समूह = स्कूल, नियम के पालन कर्ता वर्ग , इसीलिये सभी गोत्रों के मूल में रिषी-कुल है। एवं आहार संहिता की विशेषता, जो बाद में जेनेटिक-कोड में समाहित हुई।

२.--- "ये सारे ऋषि 1500 ईसा पूर्व के काल में दासता और सामन्तवादी युग में हुए हैं।"-------क्या दासता काल में इतने ग्यान -वान लोग पैदा हुए? तथा किस की दासता में थे यह बतायेंगे, किस देश, जाति, वर्ग ,समूह, सामंत की दासता में थे ये सब रिषि- विद्वान लोग।

--- ऋग्वेदकाल में गोत्र का अर्थ सिर्फ गोशाला या गोपालक समूह ही था मगर उपनिषद काल तक गोत्र की पहचान विशिष्ट समूहों के रूप में हो चुकी थी।---यह ग्यान कहां से प्राप्त हुआ--रिग्वेद में गोत्र की अवधारणा किस श्लोक में है?---मूलतः उस समय समस्त मानव जाति ही पशु-पालक वर्ग थी,अतः सभी मानवों के गौपालन नियम/ विधान एक से ही थे तो भिन्नता( गोत्र) कैसे हुई?---वस्तुतः गौ=इन्द्रियों/आचरण/ ग्यान की भिन्नता ही आगे चलकर उपनिषद व पौराणिक काल में रिषि-समूह =गोत्र बनी।

अजित वडनेरकर said...

गुप्ताजी,
प्रस्तुत आलेख में संदर्भों का उल्लेख भी किया गया है, शायद आपने ध्यान नहीं दिया।

shyam gupta said...

""ओमप्रकाश वाल्मीकि प्रख्यात विद्वान राहुल सांकृत्यायन के हवाले से लिखते हैं कि गोत्रकाल का ज्ञान हमारे पास बहुत ही कम है। विश्वामित्र, भरद्वाज आदि जितने भी गोत्र (ब्राह्मणी काल) प्रसिद्ध हैं, ये वस्तुतः गोत्रकाल या पित्रसत्ताकाल के भी नहीं हैं। ये सारे ऋषि 1500 ईसा पूर्व के काल में दासता और सामन्तवादी युग में हुए हैं।""" ---इस संदर्भित संदर्भ का क्या लाभ जिसमेंउस विद्वान को कुछ पता ही नहीं। कोए सीधे सीधे संदर्भ/उदाहरण कहीं नहीं हैं। इससे आलेख की प्रामाणिकता पर प्रश्न चिन्ह लगाया जा सकता है।
---""गोत्र का अभिप्राय ऐसे समूह से भी लगाया जाता है जो रक्तसंबंध से बाहर हो। " ---- परन्तु गोत्र का अभिप्राय तो अपने ही रक्त संबंध से होता है क्रपया स्पष्ट करें ।

shyam gupta said...

१.----गोत्र--के बारे में पढिये ये प्रामाणिक आलेख---

Aryasamaj
कृण्वन्तो विश्वमार्यम् 'सच का' सामना AryasamajOnline
By--subodhkumar


--सगोत्र विवाह भारतीय वैदिक परम्परा मे निषिद्ध माना जाता है.गोत्र शब्द का प्रयोग वैदिक ग्रंथों मे कहीं दिखायी नही देता. सपिण्ड (सगे बहन भाइ) के विवाह निषेध के बारे में ऋग्वेद 10वें मण्डल के 10वें सूक्त मे यम यमि जुडवा बहन भाइ के सम्वाद के रूप में आख्यान द्वारा उपदेश मिलता है.
यमी अपने सगे भाई यम से विवाह द्वारा संतान उत्पन्न करने की प्रबल इच्छा प्रकट करती है.परन्तु यम उसे यह अच्छे तरह से समझाता है ,कि ऐसा विवाह प्रकृति के नियमों के विरुद्ध होता है,और जो इस प्रकार संतान उत्पन्न करते हैं वे घोर पाप करते है, “सलक्षमा यद्विषुरुषा भवाति” ऋ10/10/2 (“सलक्ष्मा सहोदर बहन से पीडाप्रद संतान उत्पन्न होने की सम्भावना होती है”)
“ पापमाहुर्य: सस्वारं निगच्छात” ऋ10/10/12 ( “जो अपने सगे बहन भाई से संतानोत्पत्ति करते हैं, भद्र जन उन्हें पापी कहते हैं)
इस विषय पर स्पष्ट जानकारी पाणिनी कालीन भारत से भी मिलती है.
अष्टाध्यायी के अनुसार “ अपत्यं पौत्र प्रभृति यद गोत्रम् “, एक पुरखा के पोते,पडपोते आदि जितनी संतान होगी वह एक गोत्र की कही जायेगी.
यहां पर सपिण्ड का उद्धरण करना आवश्यक हो जाता है.
“ सपिण्डता तु पुरुषे सप्तमे विनिवर्तते !
समानोदकभावस्तु जन्मनाम्नोरवेदन!! “—मनु-५/६०.
“सगापन तो सातवीं पीढी में समाप्त हो जाता है. और घनिष्टपन जन्म और नाम के ज्ञात ना रहने पर छूट जाता है.”
आधुनिक जेनेटिक अनुवांशिक विज्ञान के अनुसार inbreeding multiplier अंत:प्रजनन से उत्पन्न विकारों की सम्भावना का वर्धक गुणांक इकाई से यानी एक से कम सातवीं पीढी मे जा कर ही होता है, गणित के समीकरण के अनुसार,
अंत:प्रजनन विकार गुणांक= (0.5)raised to the power N x100, ( N पीढी का सूचक है,)
पहली पीढी मे N=1,से यह गुणांक 50 होगा, छटी पीढी मे N=6 से यह गुणांक 1.58 हो कर भी इकाई से बडा रहता है. सातवी पीढी मे जा कर N=7 होने पर ही यह अंत:पजनन गुणांक 0.78 हो कर इकाई यानी एक से कम हो जाता है, मतलब साफ है कि सातवी पीढी के बाद ही अनुवांशिक रोगों की सम्भावना समाप्त होती है.
यह एक अत्यंत विस्मयकारी आधुनिक विज्ञान के अनुरूप सत्य है जिसे हमारे ऋषियो ने
२.
सपिण्ड विवाह निषेध कर के बताया था; सगोत्र विवाह से शारीरिक रोग , अल्पायु , कम बुद्धि, रोग निरोधक क्षमता की कमी, अपंगता, विकलांगता सामान्य विकार होते हैं. भारतीय परम्परा मे सगोत्र विवाह न होने का यह भी एक परिणाम है कि सम्पूर्ण विश्व मे भारतीय सब से अधिक बुद्धिमान माने जाते हैं.

shyam gupta said...

सपिण्ड विवाह निषेध भारतीय वैदिक परम्परा की विश्व भर मे एक अत्यन्त आधुनिक विज्ञान से अनुमोदित व्यवस्था है. पुरानी सभ्यता चीन, कोरिया, इत्यादि मे भी गोत्र /सपिण्ड विवाह अमान्य है. परन्तु मुस्लिम और दूसरे पश्चिमी सभ्यताओं मे यह विषय आधुनिक विज्ञान के द्वारा ही लाया जाने के प्रयास चल रहे हैं. एक जानकारी भारत वर्ष के कुछ मुस्लिम समुदायों के बारे मे भी पता चली है. ये मुसलमान भाई मुस्लिम धर्म मे जाने से पहले के अपने हिंदु गोत्रों को अब भी याद रखते हैं, और विवाह सम्बंध बनाने समय पर सगोत्र विवाह नही करते.
आधुनिक अनुसंधान और सर्वेक्षणों के अनुसार फिनलेंड मे कई शताब्दियों से चले आ रहे शादियों के रिवाज मे अंत:प्रजनन के कारण ढेर सारी ऐसी बीमारियां सामने आंयी हैं जिन के बारे वैज्ञानिक अभी तक कुछ भी नही जान पाए हैं.
मेडिकल अनुसंधानो द्वारा , कोरोनरी हृदय रोग, स्ट्रोक, कैंसर , गठिया, द्विध्रुवी अवसाद (डिप्रेशन), दमा, पेप्टिक अल्सर, और हड्डियों की कमजोरी. मानसिक दुर्बलता यानी कम बुद्धि का होना भी ऐसे विकार हैं जो अंत:प्रजनन से जुडे पाए गए हैं
बीबीसी की पाकिस्तानियों पर ब्रिटेन की एक रिपोर्ट के अनुसार, उन के बच्चों मे 13 गुना आनुवंशिक विकारों के होने की संभावना अधिक मिली, बर्मिंघम में पहली चचेरे भाई से विवाह के दस बच्चों में एक या तो बचपन में मर जाता है या एक गंभीर विकलांगता विकसित करता है. बीबीसी ने यह भी कहा कि, पाकिस्तान में ब्रिटेन, के पाकिस्तानी समुदाय में प्रसवकालीन मृत्यु दर काफी अधिक है. इस का मतलब यह है कि ब्रिटेन में अन्य सभी जातीय समूहों. के मुकाबले मे जन्मजात सभी ब्रिटिश पाकिस्तानी शिशु मौते 41 प्रतिशत अधिक पाई गयी. इसी प्रकार Epidermolysis bullosa अत्यधिक शारीरिक कष्ट का जीवन, सीमित मानवीय और संपर्क शायद त्वचा कैंसर से एक जल्दी मौत माना जाता है, कि मूल पुरुष ब्रह्मा के चार पुत्र हुए, भृगु, अंगिरा, मरीचि और अत्रि. भृगु के कुल मे जमदग्नि, अंगिरा के गौतम और भरद्वाज,मरीचि के कश्यप,वसिष्ट, एवं अत्रि के विश्वामित्र हुए;

इस प्रकार जमदग्नि, गौतम, भरद्वाज, कश्यप, वसिष्ट, अगस्त्य और विश्वामित्र ये सात ऋषि आगे चल कर गोत्रकर्ता या वंश चलाने वाले हुए. अत्रि के विश्वामित्र के साथ एक और भी गोत्र चला बताते हैं.इस प्रकार के विवरण से प्राप्त होती है आदि ऋषियों के भीआनुवंशिक स्थितियों की संभावना बताती है.
आश्रम के नाम.
अपने नाम के साथ गुरु शिष्य परम्परा, पिता पुत्र परम्परा आदि, अपने नगर, क्षेत्र, व्यवसाय समुदाय के नाम जोड कर बताने की प्रथा चल पडी थीं. परन्तु वैवाहिक सम्बंध के लिए सपिंड की सावधानी सदैव वांछित रहती है. आधुनिक काल मे जनसंख्या वृद्धि से उत्तरोत्तर समाज, आज इतना बडा हो गया है कि सगोत्र होने पर भी सपिंड न होंने की सम्भावना होती है. इस लिए विवाह सम्बंध के लिए आधुनिक काल मे अपना गोत्र छोड देना आवश्यक नही रह गया है. परंतु सगोत्र होने पर सपिण्ड की परीक्षा आवश्यक हो जाती है.यह इतनी सुगम नही होती. सात पीढी पहले के पूर्वजों की जानकारी साधारणत: उपलब्ध नही रह्ती. इसी लिए सगोत्र विवाह न करना ही ठीक माना जाता है.
इसी लिए 1955 के हिंदु विवाह सम्बंधित कानून मे सगोत्र विवाह को भारतीय न्याय व्यवस्था मे अनुचित नही माना गया. परंतु अंत:प्रजनन की रोक के लिए कुछ मार्ग निर्देशन भी किया गया है.
वैदिक सभ्यता मे हर जन को उचित है के अपनी बुद्धि का विकास अवश्य करे. इसी लिए गायत्री मंत्र सब से अधिक महत्वपूर्ण माना और पाया जाता है.
निष्कर्ष यह निकलता है कि सपिण्ड विवाह नही करना चाहिये. गोत्र या दूसरे प्रचलित नामों, उपाधियों को बिना विवेक के सपिण्ड निरोधक नही समझना चाहिये.

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