जिस तरह से कठोर खुरदुरी चट्टानों को भी पानी चिकना बना देता है ताकि उस पर सुगमता से गुजर सके उसी तरह सदियों तक अलग अलग समाजों के बीच भाषा विकसित होती है। किसी शब्द में दिक्कत होते ही, ध्वनितंत्र अपनी जैविक सीमाओं में शब्दों के उच्चारणों को अनुकूल बना लेता है। स्कूल-इस्कूल, लैन्टर्न-लालटेन, एग्रीमेंट-गिरमिट, गैसलाईट-घासलेट, ऊं नमो सिद्धम्-ओनामासीधम, सिनेमा-सलीमा, प्लाटून-पलटन, बल्ब-बलब-बलप-गुलुप, लैफ्टीनेंट-लपटन जैसे अनेक शब्द हैं जो एक भाषा से दूसरी में गए और फिर उस जब़ान में अलग ही रूप में जगह बनाई। कई शब्द हैं जिनका उच्चारण दूसरी भाषा के ध्वनितंत्र के अनुकूल रहा और उनके उच्चारण में बहुत ज्यादा अंतर नहीं आया। ध्यान रहे शब्दों की अर्थवत्ता और उनके उच्चारणों में बदलाव की प्रक्रिया दुतरफा रहती है। आमतौर पर शासक वर्ग की भाषा किसी क्षेत्र की लोकप्रचलित भाषा को तो प्रभावित करती ही है मगर इसके साथ शासक वर्ग की भाषा भी उसके प्रभाव से अछूती नहीं रहती। अंग्रेजी, फारसी यूं तो इंडो-यूरोपीय परिवार की भाषाएं हैं इसलिए उसकी शब्दावली में अर्थसाम्य और ध्वनिसाम्य नज़र आता है। इसके बावजूद हिन्दी अथवा द्रविड़ भाषाओं के शब्दों को भी अंग्रेजी ने अपनाया है जैसे नमस्कार, गुरु आदि। इसके अलावा भी कुछ शब्द ऐसे हैं जिनकी अर्थवत्ता और उच्चारण अंग्रेजी में जाकर सर्वथा बदल गया जैसे जैगरनॉट। खुरदुरा सा लगनेवाला यह शब्द मूलतः हिन्दी का है। आप गौर करें यह अंग्रेजी भाषा के ध्वनितंत्र के मुताबिक हुआ है इसलिए हमें खुरदुरा लगता है। उड़ीसा का भव्य जगन्नाथ मंदिर और विशाल रथ अंग्रेजी में जैगरनॉट हो गया। शुरुआती दौर में जगन्नाथ के विशाल रथ में निहित शक्ति जैगरनॉट की अर्थवत्ता में स्थापित हुई उसके बाद जैगरनॉट में हर वह वस्तु समा गई जिसमें प्रलयकारी, प्रभावकारी बल है। एक हॉलीवुड फिल्म के दैत्याकार पात्र का नाम भी जैगरनॉट है। जगन्नाथ को जैगरनॉट ही होना था और जयकिशन की नियति जैक्सन होने में ही है। हालांकि असली जैकसन वहां पहले ही है। दिल्ली, डेल्ही हो जाती है। ये तमाम परिवर्तन आसानी के लिए ही हैं। भाषा का स्वभाव तो बहते पानी जैसा ही है।
याद रहे, विदेशी शब्दों के प्रयोग की दिशा पढ़े लिखे समाज से होकर सामान्य या अनपढ़ समाज की ओर होती है। रेल के इंजन का दैत्याकार रूपवर्णन जब ग्रामीणों आज से करीब दो सदी पहले सुना तब उनकी कल्पना में वह यातायात का साधन न होकर सचमुच का दैत्य ही था। लोकभाषाओं में इंजन के बहुरूप इसलिए नहीं मिलते क्योंकि इस शब्द की ध्वनियां भारतीय भाषाओं के अनुरूप रहीं अलबत्ता अंजन, इंजिन जैसे रूपांतर फिर भी प्रचलित हैं। मालवी, हरियाणवी, पंजाबी में इस इंजन के भीषण रूपाकार को लेकर अनेक लोकगीत रचे गए। इंजन चाले छक-पक, कलेजो धड़के धक-धक, या इंजन की सीटी में म्हारो मन डोले जैसे गीत इसी कतार में हैं। ध्यान रहे इंजन की सीटी में मन डोलने वाली बात में जिया डोलने वाली रुमानियत नहीं बल्की भयभीत होने का ही भाव है। यदि उधर हमारे जगन्नाथ रथ को अंग्रेजी में जैगरनॉट जैसी अर्थवत्ता मिली तो इधर अंग्रेजी का इंजन भी डेढ़ सदी पहले के लोकमानस में भयकारी रूपाकार की तरह छाया हुआ था। इस प्रक्रिया के तहत कई पौराणिक चरित्रों में अलौकिकता का विस्तार होता चला गया। शब्दों के साथ भी यही होता है।
पूरब के अग्निपूजक मग (मागध) पुरोहित जब ईरानियों के अग्निसंस्कारों के लिए पश्चिम की जाने लगे तब मग शब्द के साथ जादू की अर्थवत्ता जुड़ने लगी। उन्हें मागी कहा गया जो अग्निपुरोहित थे। और पश्चिम की तरह यात्रा करते हुए यह मैजिक में तब्दील हुआ जिसका अर्थ जादू था। याद रहे अग्निपूजकों के हवन और आहूति संबंधी संस्कारों में नाटकीयता और अतिरंजना का जो पुट है उससे ही इस शब्द को नई अर्थवत्ता और विस्तार मिला। मराठी, हिन्दी पर फारसी अरबी का प्रभाव और फिर एक अलग उर्दू भाषा के जन्म के पीछे कही न कही राज्यसत्ता का तत्व है। मगर मराठी और हिन्दी कहीं भी फारसी से आक्रान्त नहीं हुई उलट उन्होंने इसे अपने शृंगार का जरिया बना लिया। यह उनकी आन्तरिक ताकत थी। आज भी देवनागरी के जरिये उर्दू का इस्तेमाल करने की ललक से यह साबित होता है।-जारी
इन्हें भी पढ़े-
1.शब्दों की तिजौरी पर ताले की हिमायत...2.शुद्धतावादियों, आंखे खोलो…
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28 कमेंट्स:
बहुत सुंदर आलेख। मैजिक और बुत की व्युत्पत्ति के बारे में जानना रोचक रहा। आभार।
क्या ऑन पर्पज़ एजेंडे के तहत डिसफिगर की जा रही लैंग्वेज के अगेंस्ट प्रोटेस्ट करना भी सो कॉल्ड प्युरिज्म है? वर्नाकुलर्स में जो तत्सम या तद्भव वर्डस प्रेज़ेन्टली भी मास एंड कंटेंपररी यूज़ में हैं, उन्हें भी इक्वीवेलेंट इंग्लिश वोकेब से रिप्लेस करने का अटेम्प्ट किया जा रहा है. फॉर एक्साम्पल, एक्सामिनेशन, स्टुडेंट्स, फ्रेंड्स, मिनिस्टर्स, राईटर/ऑथर, साइंस, एजुकेशन, बॉयज़, गर्ल्स, चाइल्ड, केयर, नैनी (आया), मैगजींस, गन्स, गैजेट्स, लेबर, करेंसी, रेट, कल्चर, इन्डियन, ज्वेलरी, मेटल्स एटसेट्रा एटसेट्रा.
@अजय सक्सेना
भारत जैसे देश में किसी एजेंडा के तहत तो भाषाई परिवर्तन नहीं हो रहा है। हां, एक सामूहिक उदासीनता ज़रूर है भाषाओं के प्रति भारतीय जनमानस में। हम विरासतों को बहुत अच्छी तरह नहीं संभालते। शायद यह हमारी खूबी भी है कि इसीलिए यहां परिवर्तन तेजी से होते हैं और सर्वस्वीकार्यता का भाव अन्य देशों की तुलना में कहीं ज्यादा है। आपने जैसी भाषा लिखी है वह कहीं भी लिखी या बोली नहीं जाती:)
बुत और बुध्द ए कही मूल से निकले है और मग और मेजिक भी वाह । पर अजय जी की तरह मैं भी पूछना चाहती हूँ कि जो टीवी पर हिंदी और अंग्रेजी को मिला कर बोला जाता है और वह भी अशुध्द क्या सही है और उसे भी प्यूरिज्म कहा जायेगा ।
बोलना जिन्हें है वे अपनी सुविधा की ही भाषा बोलेंगे ! भाषाई यथास्थितिवाद के स्टाम्प वेंडर बैठे रहें अपनी दुकान सजा कर ! भाषा का असल मकसद विचार का सम्पूर्ण सम्प्रेषण है जो भी भाषा इस पर खरी उतरे वही सही है !
यहां नस्लें यथावत नहीं , यहां धर्म यथावत नहीं ,खान पान /पहनावे भी यथावत नहीं , सभी को बदलना है इंसानों की अपनी सहूलियत और ज़रूरत के मुताबिक़ ! जिन्हें नहीं बदलना वे ना बदलें उनकी अपनी मर्जी !
इसे भाषाई शुद्धतावाद कहना गलत है यह यथास्थितिवाद है आप चाहें तो कट्टरतावाद भी कह लें !
वैसे एक सवाल ये कि आदिम जीवन की आरंभिक मातृभाषाएँ कहां गईं ? वे मूल है क्यों ना उनका संरक्षण किया जाये ?
। आपने जैसी भाषा लिखी है वह कहीं भी लिखी या बोली नहीं जाती:)
शायद आपने नवभारत टाइम्स नहीं पढ़ा, दैनिक भास्कर, पत्रिका, नईदुनिया, जागरण भी जबरजस्ती 'इंग्लिश वोकैब' वाक्यों में ठूंसते हैं. कहें तो मैं आपको दैनिक भास्कर से उदहारण उपलब्ध करा दूँ?और यह कोई संयोग नहीं, की सारे समाचारपत्र ऐसी ही भाषा प्रमुखता प्रयोग करने लगे हैं.
दो तीन लेखकों ने इसपर चिंता जताई थी, पर अभी प्रभु जोशी का ही नाम याद रहा है. खैर ,
हिन्दी मरे तो हिन्दुस्तान बचे
इसलिए बिदा करना चाहते हैं, हिंदी को हिंदी के कुछ अख़बा
http://www.srijangatha.com/Vichaarveathee2_Jul2k8
http://lekhakmanch.com/2010/09/15/%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E2%80%98%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A5%80%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E2%80%98-%E0%A4%95%E0%A5%87/
हलचल मचाने वाला लेख, 'साहित्य' में 'शब्दों' की शुद्धता पर बहस मुमकिन है, मगर 'सफ़र' में हम सफरों से परहेज़ करना खिलाफे 'अदब' ही कहलायेगा!
जानिबे मग़रिब चले 'बुद्ध',पा गए 'बुत' नाम है,
और पश्चिम को मिला 'बुद्धि' का यूं इनआम है,
हम क्या 'बुद्धू' ही रहे अपनी विरासत भूलकर?
फिर बनाना पड़ रहा अब एक 'खालिस्तान'* है.
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'जादू' पश्चिम का अभी है बरक़रार,
'इंजन' उनका है, भले अपनी हो कार.
हाँ, मगर 'भयभीत' अब उनसे नही!
'I T' में हम दिए उनको पछाड़.
*खालिस= शुद्ध, /[खालिस्तान का अर्थ पाठक अपने-अपने दृष्टिकोण से लगा सकते है]
ज्ञानवर्धक लेख....बहुत सी बातें नयी पता चली....धन्यवाद
पंजाबी में कुछ अंग्रेज़ी के प्रभाव से बने शब्द: फुल्त्रू (full through), गिटमिट (agreement), गड़बडेशन(गड़बड़+tion),कोटी(सवैटर के लिए).मारूती कार से बेढ़बी सी बस के लिए 'मारूता' शब्द बन गया. छोटी मोटर को बंबी और रेल इंजन को बंबा कहा जाता रहा है. लोक गीत है, बाराँ बंबे लग्गे हैं, पटिआले वाली रेल नूँ. रेल इंजन को भूतनी भी कहा जाता रहा है. ऐसा लगता है कि लोगों के प्रतक्षण में डाक्टर शब्द का 'डाक' दवाई का अर्थ देता है
इस लिए दवाखाना के लिए डाकखाना और डाक्टर के लिए डाकदार शब्द चले .
अजय सक्सेना जी ने जैसी भाषा लिखी है, मध्य-वर्गी पढ़े लिखे लोग ऐसी भाषा ही बोलते हैं. वास्तवक तौर पर बोले जानी वाली भाषा में जो शब्द सामने आए, बोल दिया जाता है.फिर भी उन के कई शब्द हमारी भाषा का हिस्सा बन गए हैं जैसे स्टुडेंट्स, मिनिस्टर्स, साइंस, नैनी, मैगजींस, लेबर, करेंसी, रेट, कल्चर, इन्डियन.बेशक हमारे पास इन के लिए शब्द मौजूद हों लेकिन यह इतने परचलत हो गए हैं कि अगर यह वरत लिए जाएँ तो कोई हर्ज नहीं.
बहुत सही कहा आपने...भाषा और शब्द तो कल कल बहती नदी है,जो स्थानविशेष के हिसाब से तुद्ती मुडती रहती है,स्थान स्थान पर आकार बदलती चलती है.....इस क्रम को प्रयास कर भी नहीं बाधित किया जा सकता...
बहुत रोचक जानकारियां भी मिल गयीं इस महत आलेख क्रम में...
बहुत बहुत आभार.
@ मंसूर अली,
आप की कविता के क्या कहने. फिर भी एक बात कहनी चाहता हूँ . बहुत कम सिख हैं, और उन में खालिस्तानी भी हैं, जो यह नहीं जानते कि सिख सन्दर्भ में खालसा का अर्थ शुद्ध नहीं है. अरबी में खालसा का मतलब होता है वह ज़मीन या मुल्क जो बादशाह की है, जिस पर किसी सामंत अथवा ज़मीदार की मल्कीअत नहीं है. गुरू गिबिंद सिंह के खालसे का मतलब है वह सिख जो सीधे गुरु के लिए निष्ठावान हैं. गुरु ग्रन्थ में एक बार ही यह शब्द आया और वह भी कबीर के दोहे में:
कहु कबीर जन भए खालसे प्रेम भगति जिह जानी
यहाँ मेरे ख्याल में इस का अर्थ है जो लोग भगति करते हैं वह परमात्मा के अपने(मल्कीअत) बन जाते हैं.
पिस्टल से पिस्तोल भी हो गया ....... फ़ैशन के युग मे शुद्धता ना भाई ना
अजित जी यदि सामूहिक उदासीनता होती तो, अजय ये प्रश्न नहीं पूछते, वैसे भी शुद्धता, संन्स्क्रिति अदि की चिन्ता का भार सदैव विग्य जनों पर ही होता है, जनसमूह पर नहीं जिसे मूलतः स्वकर्म रत रहना होता है, ताकि समाज का अर्थशास्त्र गतिमान रहे। यह भाषा-पर्वर्तन निश्च्य ही एक एजेन्डे के तहत है जिसका चिन्तन अजय सक्सेना ने किया है।
-अली जी--यथावत व यथास्थिति एवं अशुद्धता व मिलावट में अन्तर होता है। भावसंप्रेषण होना चाहिये या उचित भावसंप्रेषण ?? सब कुछ यथावत इसलिये नहीं रहा कि आदमी के आचरण-विचार यथावत नहीं रहे.
---रन्जना जी--भाषा कल कल करती नदी है ठीक , पर वह किनारों के दायरे में रहती हुई ही ठीक लगती है, यदि नदी तट्बंध तोडती है तो वह क्या करती है सब जानते हैं।
रेणु जी की कहानी का शीर्षक 'पंचलैट' याद आया. अलेक्जेंडर से अलक्षेन्द्र से अलिकसुंदर होकर सिकंदर बनना भी मजेदार उदाहरण है. भारतीय इतिहास में सैंड्रॉकोट्टस को चन्द्रगुप्त से समीकृत कर लिये जाने के बाद व्यवस्थित कालक्रम निर्धारण संभव और आरंभ हुआ.
@बलजीत बासीजी,
शुक्रिया, सिख परिप्रेक्ष्य में 'खालसा' शब्द जानना, ज्ञान वृद्धक रहा.
उर्दू में 'खालिस' शब्द 'असली' [शायद बोल-चाल ही की ज़ुबान में] में इस्तेमाल होता रहा है >सो मैंने किया. और 'खालिस्तान' को उसके साथ "शुद्ध्तावादिता" के लिए प्रयोग करते हुए, धर्म और राजनीति के लिए गुंजाईश छोड़ दी थी. इसी बहाने आप से हमकलामी हो गयी. 'शब्दों का सफ़र' पर आपकी निरंतर मौजूदगी अजित भाई को थकने नहीं देगी. नेट पर खालिस की search का नतीजा ये रहा है:-
खालिस > Pronunciation >khālisa
Meanings >adjective > neat > नेट > pure
----------------------------------------------------------
pure
Pronunciation
प्युर
Meanings [Show Transliteration]
noun
ब्रह्मचारी (m)
सती (f)
adjective
अमिश्रित
असली
खरा
खालिस _/
निपट
निरा
निर्मल
निष्कलंक
पवित्र
विशुद्ध
शुद्ध
साफ
अमल
अजय जी, ज़ी न्यूज़ ने ऐसी भाषा शुरू की थी। जिसे हिंग्लिश कहा गया। यह एक किस्म की बाजीगरी है। अल्पसमय तक जीवित रहनेवाले प्रयोग। ऐसी भाषा अनायास लिखी या बोली नहीं जा सकती। यह एजेंडा नहीं बल्कि चंद मीडियासमूहों की मनमानी का नतीजा है। इस शृंखला की अगली कड़ी में इसी विषय पर कुछ बात होगी।
ऐसे कई शब्दों का अर्थोत्कर्ष हुआ है।
@ मंसूर अली
मेरी बात समझाने के लिए यहाँ चेक कीजिये:
http://www.thesikhencyclopedia.com/moral-codes-and-sikh-practices/khalsa.html
जी न्यूज़ को कुछ ही समय में समझ आ गई. फिर किसी खबरी चैनल ने यह जुर्रत नहीं की, बल्कि लगभग सभी ने कैप्शन वगैरह तक देवनागरी में कर दीए.
उदाहरण के लिए, डिस्कवरी चैनल की भाषा करीब करीब शुद्ध और स्तरीय है, उसे गावों कस्बों में भी पसंद किया जाता है . पर नए इन्फो-टेन्मेट नेशनल जियोग्राफिक, फोक्स को वही हिंगलिश की बीमारी लग गई है. हिंगलिश की इतनी गजब खिचीड़ी बनाते हैं की सर पिराने लगता है. और गावों में तो छोडिये इनके हिंदी कार्यक्रम शहरों में भी शायद ही कोई देखता हो.
मौज मस्ती के लिए ठीक है पर हिंगलिश में आप गंभीर विमर्श कैसे करेंगे? विज्ञान, वित्त, अर्थव्यवस्था, तकनीक, दर्शन, जीवन के बारे में औपचारिक रूप से कैसे समझायेंगे? पाठ्यपुस्तक कैसे लिखेंगे? शुद्ध और व्याकरण से बंधी भाषा की ज़रूरत तो रहेगी ही, फिर वह हिंदी हो या अंग्रेजी.
हिंगलिश का दायरा कितना सीमित है, सोशल नेटवर्क, अनौपचारिक बातचीत, रोडीज, एमटीवी, एफएम चैनल और चटपटी ख़बरों के आलावा इसे कहाँ प्रयोग किया जा सकता है?
हिंगलिश की खुराक पर पली बढ़ी पीढ़ी के पास गंभीर विमर्श के लिए भाषा ही नहीं है. जी न्यूज़ को कुछ ही समय में समझ आ गई. फिर किसी खबरी चैनल ने यह जुर्रत नहीं की, बल्कि लगभग सभी ने कैप्शन वगैरह भी देवनागरी में कर दीए.
उदाहरणार्थ, डिस्कवरी चैनल की भाषा करीब करीब शुद्ध और स्तरीय है, उसे गावों कस्बों में भी पसंद किया जाता है . पर नए इन्फो-टेन्मेट नेशनल जियोग्राफिक, फोक्स को वही हिंगलिश की बीमारी लग गई है. हिंगलिश की इतनी गजब खिचीड़ी बनाते हैं की सर दर्द करने लगता है. और गावों में तो छोडिये इनके हिंदी कार्यक्रम शहरों में भी शायद ही कोई देखता हो.
मौज मस्ती के लिए ठीक है पर हिंगलिश में आप गंभीर विमर्श कैसे करेंगे? विज्ञान, वित्त, अर्थव्यवस्था, तकनीक, दर्शन, जीवन के बारे में औपचारिक रूप से कैसे समझायेंगे? पाठ्यपुस्तक कैसे लिखेंगे? शुद्ध और व्याकरण से बंधी भाषा की ज़रूरत तो रहेगी ही, फिर वह हिंदी हो या अंग्रेजी.
हिंगलिश का दायरा कितना सीमित है, सोशल नेटवर्क, अनौपचारिक बातचीत, रोडीज, एमटीवी, एफएम चैनल और चटपटी ख़बरों के आलावा इसे कहाँ प्रयोग किया जा सकता है?
गंभीर विचार स्तरीय भाषा की मांग करते हैं.
हिंगलिश की खुराक पर पली बढ़ी पीढ़ी के पास गंभीर विमर्श के लिए भाषा ही नहीं है. वह सोचती और बतियाती किसी और भाषा में है, पर कामकाज, पढाई, औपचरिक संवाद किसी और भाषा में करना होता है. मुझे लगता है यही कारण है की हमारे पास मानव संसाधन की भरमार है पर मौलिक सोच और रचनात्मकता की गंभीर कमी है.
रचनात्मकता उन्ही देशों में सबसे अधिक है जहाँ अपनी मातृभाषा में शिक्षा और काम होता है. हिंगलिश में कैसे शिक्षा दी जा सकती है, हमें या तो हिंदी की तरफ लौटना होगा या अंग्रेजी की और बढ़ना होगा. हिंगलिश ज्यादा से ज्यादा संक्रमण भाषा है.
तार्किक रूप से देखें तो हिंगलिश से सहारे हम अंग्रेजी तक पहुंचेंगे. जीवन केवल अनौपचारिकता, फैशन, मौजमस्ती, चटपटी ख़बरों का नाम नहीं है, इससे आगे भी काफी कुछ है :)
पिछली टिप्पणी के कुछ अंश संपादन की गलती से इधर उधर हो गए हैं.
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जी न्यूज़ को कुछ ही समय में समझ आ गई. फिर किसी खबरी चैनल ने यह जुर्रत नहीं की, बल्कि लगभग सभी ने कैप्शन वगैरह तक देवनागरी में कर दीए.
उदाहरण के लिए, डिस्कवरी चैनल की भाषा करीब करीब शुद्ध और स्तरीय है, उसे गावों कस्बों में भी पसंद किया जाता है . पर नए इन्फो-टेन्मेट नेशनल जियोग्राफिक, फोक्स को वही हिंगलिश की बीमारी लग गई है. हिंगलिश की इतनी गजब खिचीड़ी बनाते हैं की सर पिराने लगता है. और गावों में तो छोडिये इनके हिंदी कार्यक्रम शहरों में भी शायद ही कोई देखता हो.
मौज मस्ती के लिए ठीक है पर हिंगलिश में आप गंभीर विमर्श कैसे करेंगे? विज्ञान, वित्त, अर्थव्यवस्था, तकनीक, दर्शन, जीवन के बारे में औपचारिक रूप से कैसे समझायेंगे? पाठ्यपुस्तक कैसे लिखेंगे? शुद्ध और व्याकरण से बंधी भाषा की ज़रूरत तो रहेगी ही, फिर वह हिंदी हो या अंग्रेजी.
हिंगलिश का दायरा कितना सीमित है, सोशल नेटवर्क, अनौपचारिक बातचीत, रोडीज, एमटीवी, एफएम चैनल और चटपटी ख़बरों के आलावा इसे कहाँ प्रयोग किया जा सकता है?
हिंगलिश की खुराक पर पली बढ़ी पीढ़ी के पास गंभीर विमर्श के लिए भाषा ही नहीं है. जी न्यूज़ को कुछ ही समय में समझ आ गई. फिर किसी खबरी चैनल ने यह जुर्रत नहीं की, बल्कि लगभग सभी ने कैप्शन वगैरह भी देवनागरी में कर दीए.
उदाहरणार्थ, डिस्कवरी चैनल की भाषा करीब करीब शुद्ध और स्तरीय है, उसे गावों कस्बों में भी पसंद किया जाता है . पर नए इन्फो-टेन्मेट नेशनल जियोग्राफिक, फोक्स को वही हिंगलिश की बीमारी लग गई है. हिंगलिश की इतनी गजब खिचीड़ी बनाते हैं की सर दर्द करने लगता है. और गावों में तो छोडिये इनके हिंदी कार्यक्रम शहरों में भी शायद ही कोई देखता हो.
गंभीर विचार स्तरीय भाषा की मांग करते हैं.
हिंगलिश की खुराक पर पली बढ़ी पीढ़ी के पास गंभीर विमर्श के लिए भाषा ही नहीं है. वह सोचती और बतियाती किसी और भाषा में है, पर कामकाज, पढाई, औपचरिक संवाद किसी और भाषा में करना होता है. मुझे लगता है यही कारण है की हमारे पास मानव संसाधन की भरमार है पर मौलिक सोच और रचनात्मकता की गंभीर कमी है.
रचनात्मकता उन्ही देशों में सबसे अधिक है जहाँ अपनी मातृभाषा में शिक्षा और काम होता है. हिंगलिश में कैसे शिक्षा दी जा सकती है, हमें या तो हिंदी की तरफ लौटना होगा या अंग्रेजी की और बढ़ना होगा. हिंगलिश ज्यादा से ज्यादा संक्रमण भाषा है.
तार्किक रूप से देखें तो हिंगलिश से सहारे हम अंग्रेजी तक पहुंचेंगे. जीवन केवल अनौपचारिकता, फैशन, मौजमस्ती, चटपटी ख़बरों का नाम नहीं है, इससे आगे भी काफी कुछ है :)
सक्सेना जी! तुस्सी गेट हो जी। चंगे रहो।
अजयजी,
आपकी सभी बातें सही हैं। मैं यहां बाज़ारवाद की पैरवी या प्रदूषित भाषा की पैरवी नहीं कर रहा हूं। खासतौर पर हिंग्लिश का तो ज़रा भी नहीं। यूं भी हिंग्लिश चर्चा में ज्यादा रहती है, उसका अस्तित्व चंद न्यूज़ चैनलों में ही है। वैसे आप मेरी बात का ही समर्थन कर रहे हैं यह लिख कर-
"हिंगलिश की इतनी गजब खिचीड़ी बनाते हैं की सर पिराने लगता है"
आपकी पहली टिप्पणी के बाद मैने भी यही कहा था कि किन्ही मूर्खताओं के चलते मीडिया के कुछ हिस्से हिंग्लिश का प्रयोग करते हैं पर उसे बोलता-समझता या अपनाता कौन है? फिर उससे क्या डरना? हिंग्लिश का कोई अस्तित्व समाज में नहीं है, सिर्फ मीडिया चैनलों पर है। इसका हव्वा ज्यादा खड़ा किया गया।
बाज़ारवाद का हिंग्लिश से भी कोई रिश्ता नहीं है। शायद इतनी कठिन भाषा संभव है विदेशों में बसे भारतीय बोलते हों....हालांकि इसमें भी मुझे संदेह है। बाज़ार कभी ऐसी कमज़ोर, नकली भाषा की पैरवी नहीं करता जिसमें संवाद बनाया ही न जा सके। हां, ठण्डा यानी कूल कूल जैसे मुहावरे भी बाजा़रवाद की देन है। एक वर्ग की अभिव्यक्ति इसमें हो रही है। ज़रूरी नहीं कि यह सभी को अच्छा लगे।
बाकी फिर....
हमेशा नई और अच्छी जानकारी मिलती है आपकी पोस्ट मे--- कम से कम मेरे लिये। ज्ञानवर्धक आलेख के लिये धन्यवाद।
शब्दों के सफर में शब्दों के आदिम रूप की यह खोज रोचक है ।
इससे हमारा ज्ञान बढ रहा है इसमे कोई शक नहीं ।
बाज़ारवाद अपने लिये जिस भाषा का निर्माण करता है उसका अस्तित्व क्षणिक होता है । वह जनमानस मे रचती बसती नही है इसलिये उससे भयभीत होने की आवश्यकता नही है । कुछ वर्षों पूर्व एक विज्ञापन आता था जिसमे एक माँ अपने बच्चे को सच्चाई के मायने साबुन बताती थी । उस वक़्त भी लोग इसका मतलब समझते थे और आज भी समझते हैं ।इसलिये वे ठंडा मतलब कोकाकोला के प्रभाव मे नही आते ।
शब्द ऐसे ही बनते हैं कि मारिशस मे एग्रीमेंट से गिरमिटिया होता है और वह एक समूह का नाम बन जाता है । स का उच्चारण न होने के कारण सिन्धु हिन्दु बन जाता है । मालवा मे हाँटा का अर्थ साँटा ( गन्ना ) होता है और यह सबकी हमज ( समझ ) मे आता है }
बहरहाल इस सफर को जारी रखें । शुभकामनायें ।
भाषा जल की तरह हैं ये अपना रास्ता खोज ही लेती है, बशर्ते हम उस भाषा के रथ पर सवार तो हों?
सेकेण्ड लिंक में फुल टेक्स्ट क्लियर नहीं है. देयरफोर आप यह न्यू युआरएल उसके सब्सटीट्यूट की तरह यूज़ कर सकते हैं.
http://lekhakmanch.com/2010/09/13/इसलिए-बिदा-करना-चाहते-हैं/
एंड ऑफ़कोर्स, आपके नेक्स्ट पोस्ट को एन्क्सीयस्ली एंटीसिपेट कर रहा हूँ.
++++++++++++++++++
प्रेग्नेंसी में प्रॉब्लम!
http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/6647425.cms
अजय भाई,
बहुत शुक्रिया। देखता हूं। प्रभुजोशी के आलेख का लिंक भेजने के लिए बहुत आभार। इत्मीनान से देखता हूं। बहुत व्यस्त हूं। जल्दी ही तीसरी कड़ी भी आएगी। लेकिन आपने जो कुछ लिखा है उसके आसपास ही हैं मेरे विचार भी:)
http://www.livehindustan.com/news/editorial/guestcolumn/article1-story-57-62-230615.html
भाषा तो जबरन भी चलती है। मैंने सुना है कि अरस्तू ने एनर्जी जैसे कई नये शब्द बनाये और आज वे प्रचलन में हैं, पिछले 2400 सालों से।
चाहे कोई भाषाविद् कहता रहे लेकिन हम तो मानते हैं कि भाषा चलती है और चलवाई भी जाती है।
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