श्री बलजीत बासी ने `दाना-बीना´ पद की चर्चा की है। यहां `बीना´ शब्द , संस्कृत के विनयन से उद्भूत है, जिसका मूल क्रियारूप `बीनना´ है। उन्होंने देखने के अर्थ में एक और `बीना´ शब्द का तज़किरा उठाया है। निस्सन्देह यह बरास्ते फ़ारसी उर्दू में आया है। `दूरबीन´ में यही शब्द विराज रहा है। दृष्टि का समानार्थक `बीनाई´ काफ़ी प्रचलित है। `बीना´ शब्द एक और अर्थ का वाचक है। वह अर्थ है बाज़ार। यह `बीना´ शब्द संस्कृत के `पण्य´ से विकसित हुआ है। एक रोचक लोकोक्ति का उल्लेख मुनासिब होगा। मांसाहारियों को मालूम होना चाहिये कि बकरे के शरीर का कौन सा हिस्सा अधिक स्वादिष्ट है। शायद उन्हें प्रशिक्षितकरने के लिए ही लोकपरम्परा में यह लोकोक्ति प्रचलित हुई - चले जाओ बीना, तो ले आओ सीना / न मिले सीना, तो ले आओ पुट /न मिले पुट तो चले आओ उठ। उन्होंने पंजाबी शब्द के `बैण´ का जिक्र किया है। हिन्दी में यही `बैन´ है। यह शब्द संस्कृत वाणी से विकसित हुआ है। हिन्दी की बोलियों में `वचन´ या `कथन´ के रूप में `बैन´ शब्द खूब प्रयुक्त हुआ है। `रामचरितमानस´ में राम-वन-गमन के अन्तर्गत गंगा पार करने के प्रसंग में एक सोरठे में इसका प्रयोग हुआ है - `सुनि केवट के बैन, प्रेम लपेटे अटपटे।´ अब कृष्ण जन्माष्टमी का प्रसंग चल रहा है, तो जगन्नासदास रत्नाकर के `उद्धवशतक´ के एक मार्मिक पद को उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं। गोपियां श्रीकृष्ण के प्रेम-रस में पगी थीं। उद्धव उन्हें निर्गुण, निराकार की उपासना के शुश्क उपदेश रूपी पत्थर से घायल करना चाहते हैं। वे दर्पण के दृष्टान्त से अपनी व्यथा को प्रकट करती हैं। यह तथ्य है कि दर्पण जब साबुत रहता है, तो उसमें एक ही छवि प्रतिबिम्बित होती है। दर्पण को जब तोड़ दिया जाता है, तो दर्पण के जितने टुकड़े होते हैं, उसके हर टुकड़े में अलग-अलग उतने ही प्रतिबिम्ब दिखाई देते हैं। गोपियां कहती हैं कि हमारा मन दर्पण के समान है। उसमें कृष्ण का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। कृष्ण के एक ही प्रतिबिम्ब ने हमारी यह दुर्दशा कर रखी है। हे उद्धव, तुम अपने निर्गुण ब्रह्म का वचन (बैन) रूप पत्थर मत चलाओ। तुम्हारे इस पत्थर से हमारा मन-रूपी दर्पण टुकड़े-टुकड़े हो जायगा। मन-रूप दर्पण के जितने टुकड़े होंगे, उतने कृष्ण हमारे मन में बस जायेंगे। एक कृष्ण ने तो हमारी यह दुर्दशा कर रखी है, जब ढेर सारे कृष्ण हमारे मन में बस जायेंगे, तो न जाने हमारी क्या दुर्दशा होगी !
टूकि टूकि जइहै मन मुकुर हमारो हाय/ चूकि ही कठोर बैन पाहन चलावो ना/ एक मनमोहन तो बसि के उजारियौ मोहिं/ हिय में अनेक मनमोहन बसावो ना।
जनता-जनार्दन के मुख की भाषा लोकभाषा है। यह लोकभाषा बाढ़ के पानी के समान नियन्त्रण में नहीं आती। बड़ी मौज से सब तरफ़ बहती है और वैयाकरण का अनुशासन का बर्दाश्त नहीं कर पाती। मूल या तत्सम शब्दों से निस्सृत नये शब्दों को कोई लाख भ्रष्ट कहे, किन्तु वास्तव में वे भाषा के निरन्तर परिवर्तनशील बने रहने के परिचायक हैं। परिवर्तन जीवन्तता का प्रतीक है। परिवर्तन प्रकृति का विधायी तत्त्व है, जो उसे सदैव ताजा़, स्फूर्त और सानन्द बनाये रखता है। बकौल जयशंकर प्रसाद - `पुरातनता का यह निर्मोक, सहन कर सकती न प्रकृति पल एक / नित्य नूतनता का आनन्द, किये है परिवर्तन में टेक।´ शब्दों के सफ़र में भाषा के इन्हीं जीवन्त तत्त्वों की व्याख्या और विवेचना की गई है और जब हमसफ़र जीवन्त हों, तो सफ़र तो जीवन्त और हुलासपूर्ण रहेगा ही।
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13 कमेंट्स:
यह मेरा सौभाग्य है कि मेरी शंकाओं का समाधान करने के लिए सुरेशकुमार वर्मा जी ने पोस्ट लिखने का कष्ट किया.वर्मा जी की किताबें पढ़ कर तो हम ने भाषा-विज्ञान सीखा. बहुत साल पहले मैंने कपड़ों के बारे में एक आलेख किसी अख़बार में छपवाया था. वर्मा जी की किसी किताब से मैंने बहुत से शब्दों के मूल के बारे में पढ़ा तो वैसे ही ठोक दिया और मेरा आलेख बहुत मज़ेदार बन गया. तब पता न था किसी दिन वह खुद मुझे निवाजेंगे. शब्दों के बारे में मेरी दिलचस्पी जाग्रत करने में वर्मा जी का निश्चय ही हाथ है.
मेरे पास यहाँ गुरु ग्रन्थ का एक ही टीका है और मैं उससे संतुष्ट नहीं हूँ. जो मैंने शंकाएँ ज़ाहिर कीं, वह वहां से ही आई थी बाज़ार के लिया बीना शब्द मेरे लिए नया है और जो लोकोक्ति आप ने सुनाई उस का पंजाबी रूप कुछ ऐसा है:
लिआवीं सीना, चाहे लग जाए महीना.
लिआवीं पुठ, नहीं तां जावीं उठ
लगते हाथ अगर सांप निकलने वाली बीन के बारे में लिख देते तो अच्छा होता. अंत में गुरु ग्रन्थ में भक्त बेणी जी के कथन पेश करके मैं गुरू सुरेशकुमार वर्मा जी के प्रति कृतज्ञता ज़ाहिर करनी चाहता हूँ. यहाँ *अबीनिआ* का मतलब *अँधा* लिया जाता है:
जिनि आतम ततु न चीन्हिआ, सभ फोकट धरम अबीनिआ.
कहु बेणी गुरमुखि धिआवै, बिनु सतिगुर बाट न पावै.
लोकभाषा में जो शब्द सम्माहित हो जाते है उनके वही अर्थ हो जाते है जिसके लिये वह प्रयोग मे लाये जा रहे है . ऎसा मेरा मानना है .
सुरेश वर्मा जी का लेख पढ़ कर काफी नई जानकारी मिली . बीन के देखना भी होता है यह जानकारी नई तो है लेकिन samaz में आने वाली है जो देखेगा वही तो बीनेगा. अजित जी, आपकी पुस्तक की प्रतीक्षा रहेगी. जब छप जाये तो कहाँ से प्राप्त करें यह जरूर बताएं.
'वीना' की 'बैना' पर 'गुरुवर' पधारे है,
तट बैठे बासीजी, 'कंकर' जो मारे है,
शब्दों के सागर से उड़ती 'फुहारे' है,
'जिज्ञासा' तृप्त हो गयी, भाग्य हमारे है.
हमेशा की तरह जानकारीपूर्ण और सुन्दर लेख…
पुस्तक का इंतज़ार रहेगा…
शुभकामनाएं
मानना होगा की विमर्श इतना महत्त्व पूर्ण क्यों है /बात निकली तो फिर दूर तक जानी ही थी /अजित भाई ,गुरु जी तो गुरु हैं ही ,उनको हार्दिक साधुवाद इस गवेषणा पूर्ण आलेख हेतु.आपकी पुस्तक के अन्तिम्चरण मे होने का समाचार सुखद है,हम लोगों की बहुत पुरानी मांग पूरी होने को है .हार्दिक शुभ कामनाएं .सादर,
डॉ.भूपेन्द्र /रीवां
-----वीणा से वाणी व वाण भी बना है या वाणी से वीणा ? और बान, बानगी ?
---मुझे लगता है---लोकभाषा के शब्द पहले बने यथा...करम. धरम.शरम---- शास्त्रीय भाषा (यथा खडी बोली) बाद में बनती है , इस प्रकार ...कर्म. धर्म..शर्म शब्द बाद में बने।
हमेशा की तरह ग्यानवर्द्धक पोस्ट। वर्मा जी का आलेख पढवाने के लिये धन्यवाद। पुस्तक प्रकाशित हो रही है ये जान कर बहुत खुशी हुयी। बहुत बहुत बधाई।
अच्छा लगा ज्ञान वर्धक लेख अच्छा लगा बधाई
अतिशय आनंददायी पोस्ट...किस किस बात की प्रशंशा करूँ...प्रत्येक विवेचना और प्रसंग पर मन मुग्ध हुआ...
कोटिशः आभार आपका...
शब्दों का सफ़र जानना हमेशा रोचक रहा है , ज्ञानवर्धक आलेख के लिए धन्यवाद .
दिवाली तक पुस्तक पुणे पहुच सकती है क्या? तो फिर मेरे मित्र की सहायता से मुझ तक पहुच जायेगी. संभव हो तो बताइए मैं बात करूँ.
...रीडर में पढ़ लेता हूँ. ये बक्सा कई बार धोखा दे जाता है मुझे.
आपके ब्लॉग को आज चर्चामंच पर संकलित किया है.. एक बार देखिएगा जरूर..
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