Friday, November 12, 2010

सिंह का सिंहावलोकन

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ब्द निर्माण की प्रक्रिया कभी जटिल तो कभी बहुत आसान होती है। वर्ण विपर्यय, वर्णागम या वर्णलोप के जरिए नए नए शब्द बनते रहते हैं। वर्ण विपर्यय यानी किसी शब्द के दो वर्णों का स्थान परिवर्तन जैसे लखनऊ का नखलऊ हो जाना। इसी तरह एक उदाहरण है सिंह का। सिंह अर्थात शेर। जंगल का राजा जिसकी हिंस्त्र प्रवृत्ति का कोई सानी नहीं मिलता। सिंह की व्युत्पत्ति इसी हिंस् के वर्णविपर्यय का परिणाम है। हिंस् यानी मारना, काटना, नष्ट करना आदि। हिंस के मूल में हन् है जिसमें मारने, काटने, तोड़ने, चोट पहुँचाने, खरोचने, घात करने का भाव है। विकास की प्रारम्भिक अवस्था में मनुष्य ने प्राकृतिक आश्रय स्थल खोजे थे। वृक्षों की कोटरों और पर्वतीय कंदराओं में उसका निवास था। कंदराएं प्राकृतिक होती थीं, बाद में मनुष्य ने इनका निर्माण भी शुरू किया। आश्रयों निर्माण का यह आदिकाल था। डॉ रामविलास शर्मा के ऐतिहासिक भाषा विवेचन पद्धति से सोचने पर मुझे लगता है हन् का पूर्ववैदिक रूप खन् रहा होगा जिसमें खरोचने, खोदने, तोड़ने, चोट पहुँचाने का भाव है। खुदाई के लिए खनन शब्द के मूल में यही धातु है। खान, खनिक जैसे शब्द भी यहीं से आ रहे हैं। खन् से ध्वनि का लोप होकर शेष रहा। खोदने, खरोचने, तोड़ने तक सीमित खन् की अर्थवत्ता का विकास इसके अगले रूप हन में हुआ जिसमें किसी का नाश करना, चोट पहुँचाना, जान से मारना जैसे भाव हैं।
प्रोटो इंडो-यूरोपियन भाषा का एक मूल शब्द है ग्वेन। इससे ही भाषाविज्ञानी संस्कृत के हन् या हत् का रिश्ता जोड़ते हैं। इस हन् की व्यापकता इतनी हुई कि अरबी समेत यह यूरोप की कई भाषाओं में जा पहुंचा और चोट पहुँचाना या मार डालना जैसे अर्थों में तो अपनी मौजूदगी दर्ज करवाई ही साथ ही इसके विपरीत अर्थ वाले शब्द जैसे डिफेन्स (रक्षा या बचाव) के जन्म में भी अपना योगदान दिया। यही नहीं हत्या के प्रमुख उपकरण- अंग्रेजी भाषा के गन की रिश्तेदारी भी इसी हन् से है। हन् न सिर्फ हत्या - हनन आदि शब्दों से बल्कि आहत, हताहत, हतभाग जैसे शब्दों से भी झाँक रहा है। यही नहीं, निराशा को उजागर करनेवाले हताशा और हतोत्साह जैसे शब्दों का जन्म भी इससे ही हुआ है। कहावत है कि बेइज्जती मौत से भी बढ़कर है। हन् जब अरबी में पहुँचा तब तक संस्कृत में ही इसका हत् रूप विकसित हो चुका था। अरबी में इसका रूप हुआ हत्क जिसका मतलब है बेइज्जती, अपमान या तिरस्कार। इसी तरह हत्फ़ यानी मृत्यु। यही हत्क जब हिन्दी में आया तो हतक बन गया जिसका अर्थ भी मानहानि है। बात चाहे मौत की हो, हताशा की हो या बेइज्जती की हो भाव तो एक ही है - कुछ नष्ट होने का, चले जाने का। आचार्य किशोरीदास वाजपेयी इसी खन् में नाखून का मूल रूप नख देखते हैं। कहना न होगा कि मनुष्य के पास खरोचने, खोदने का सर्वप्रथम आदिम उपकरण नख ही था जो खन् के वर्णविपर्यय से बना है। ध्यान रहे कि नख ही मनुष्य के आदिम हथियार रहे हैं और सिंह के भी। इसके जरिए ही हिंसक क्रियाओं की शुरुआत और उनका प्रतिकार प्राचीनकाल में होता रहा है।
भाषाविज्ञानी इसी हन् की रिश्तेदारी वाले हिंस के वर्णविपर्यय से खूँखार वन्यजीव सिंह की व्युत्पत्ति मानते हैं। काफ़ी हद तक यह तार्किक भी है। हिन्दी और उसकी कई बोलियों में सिंह शब्द का उच्चारण बहुधा सिंघ या सिंग भी होता है। यूँ कहें कि सभी भाषा-भाषियों में सिंह को सिंग बोलने की प्रवृत्ति ज्यादा है, तो भी ग़लत नहीं होगा। कुछ लोगों का मानना है कि सिंह का मूल रूप सिंघ है और सिंह इसका रूपान्तर है, मगर यह धारणा ठीक नहीं है। कुछ तो यह तक कहते हैं कि अंग्रेजी में सिंह को singh लिखा जाता है इसलिए हिन्दी में सिंह को सिंघ लिखने का चलन हुआ। ज्यादातर भाषाविज्ञानी सिंह उच्चारण को ही सही मानते हैं। वैदिक स्वरूप भी सिंह ही है।
मैं पहले भी कह चुका हूँ कि किसी शब्द के मूल तक पहुँचने के उसे बोलनेवाले भाषायी समूह के ध्वनितंत्र पर भी ध्यान देना चाहिए।
... मनुष्य के पास खरोचने, खोदने का सर्वप्रथम आदिम उपकरण नख ही था जो खन् के वर्णविपर्यय से बना है। ध्यान रहे कि नख ही मनुष्य के आदिम हथियार रहे हैं और सिंह के भी...
यहाँ भी वही बात हो रही है। मोनियर विलियम्स से लेकर जान प्लैट्स तक और  किशोरीदास वाजपेयी से लेकर रामविलास शर्मा तक सभी विदेशी-देशी विद्वान सिंघ को सिंह का रूपांतर ही मानते हैं। सिंह का प्राकृत रूप हुआ सिंघ, यह बना है सिंहः > सिंहो > सिंघो > सिंघ के क्रम में। भारतीय संदर्भों में सिंह को हिंस् का वर्णव्यत्यय बताया जाता है जबकि सिर्फ़ मोनियर विलियम्स ने व्युत्पत्ति के इस आधार का उल्लेख न करते हुए इसके जन्मसूत्र संस्कृत की सह धातु में छिपे होने की संभावना जताई है। सह् का अर्थ सहारा देना, सहन करना या भुगतना होता है। इसका रिश्ता खींचतान कर तो सिंह से स्थापित होता है, मगर सीधे सीधे नहीं। सह् से बने सिंह का अर्थ सिंह की मूल प्रवृत्ति हिंसा से कैसे जोड़ा जाए, यह प्रश्न है। सिंह की हिंसा का शिकार ही हिंसा को भुगतता है, तब सिंह तो शिकार की संज्ञा हुई न कि शिकारी की। हालाँकि मोनियर विलियम्स आगे यह भी लिखते हैं कि सिहं का सिंघ रूपांतर मुखसुख के आधार पर बना है। जाहिर है कि सिंह को वे भी मूल शब्द मान कर चल रहे हैं। इसका महत्वपूर्ण प्रमाण है सिंह की उनकी प्रविष्टि में इसके रोमन हिज्जों को sinh लिखा जाना। मोनियर विलियम्स ने कही भी सिंह के लिए मूल रूप singh नहीं लिखा है।
वैसे शरदचंद्र पेंढारकर सिंह की व्युत्पत्ति चार तरह से बताते हैं जैसे सह् से सिंह की व्युत्पत्ति के लिए सहनात् सिंहः जैसा पद दिया है जिसके अनुसार जो दूसरों को दबाए, वह सिंह है। इसके साथ ही वे हन् में सम उपसर्ग के जरिए भी सिंह की व्युत्पत्ति बताते हैं जिसका अर्थ है खूब हिंसा करना। इसी तरह हिंस के वर्णविपर्यय से सिंह बनने का भी उल्लेख है साथ ही संहाय हंतीती जैसे पद के जरिए वे यह बताते हैं कि चूँकि शिकार करते समय खुद को संकुचित करता है इसलिए उसे सिंह कहा जाता है। मगर ये सब पद व्युत्पत्ति सिद्ध करने के लिए गढ़े गए हैं। संस्कृत में यह परम्परा पुरानी है। –जारी
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12 कमेंट्स:

सोमेश सक्सेना said...

अच्छी जानकारी.

समय चक्र said...

बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति ... आभार

Arvind Mishra said...

आप सिंहावलोकन को भी व्याख्यायित करेगें ही ...

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

मेरा वाला सिंह का मतलब भी बताइये

Rahul Singh said...

हमेशा की तरह बढि़या, एकबारगी चौंकाने वाला, क्‍योंकि मुझ (राहुल) ''सिंह का सिंहावलोकन'' ब्‍लॉग शीर्षक है.

किरण राजपुरोहित नितिला said...

नाम के साथ सिंह लगाने के बारे में भी कुछ बताये हुकुम.
यह क्यों शुरू हुआ? और अब तक कायम है .

Mansoor ali Hashmi said...

"हंसी" आती है सुन के "सिंह" पे अत्याचार होते है,
सुना तो हमने ये था वो बड़े खूंखार होते है.

'खन-क' सुन कर लगा घूंगरू कोई 'आहत' हुआ होगा,
'खनिक' की बस्तियों में तो बड़े ब्योपार होते है.

कभी 'नखलऊ' बना, 'लतराम' अब 'रतलाम' को कहले,
'विपर्यय' 'वर्ण' होने पर "चमत" "कार" होते है .

हताहत है मियाँ 'नाखूने' लैला से सुबहानल्लाह
गली के शेर ख़लवत* में बड़े लाचार होते है. [*एकांत]

'हतक' इज्ज़त के दावे का है हक अब किन्नरों को भी,
जो प्रजा तक नही थे पहले, अब सरकार होते है.

मिरे शेअरो में 'सकुचित' रही 'संहाय हंतीती'*, [*सिन्हनीयता]
किया है 'आत्म-मंथन', इसलिए यलगार होते है.


--मंसूर अली हाश्मी
http://aatm-manthan.com

प्रवीण पाण्डेय said...

सिंहावलोकनीय पोस्ट।

RAJ SINH said...

अजित जी मैंने तो अपने उपनाम को sinh बना दिया :) .

सिंह से सिंघ ( singh ) तो मेरा ख्याल है अंग्रेजों ने बना दिया जो भारतीय भाषाओँ के कठिन उच्चारणों को इसी अंदाज़ में ' सही ' कर देते थे .
वैसे यह ' सिंहावलोकन ' अच्छा लगा . राजसिंहासन.......से , पर जाये बिना भी काम चल सकता है :) .

राम त्यागी said...

बहुत उपयोगी जानकारी !!

आपकी हर पोस्ट संजोने लायक, ज्ञानवर्धन और एक नयी, उपयोगी , अद्वितीय जानकरी लिए होती है इसलिए जब भी इधर आना होता है कुछ सीख कर ही जाता हूँ, कभी खाली हाथ नहीं लौटा अभी तक !!

निर्मला कपिला said...

अब समझ आया पंजाब की राजनीति इतनी गर्म क्यों रहती है\ सिंह जो अधिक हैं यहाँ। शुभकामनायें।

प्रतिभा सक्सेना said...

नाम के साथ सिंह लगाने के बारे में भी कुछ बताये हुकुम.
यह क्यों शुरू हुआ?
मुझे जो लगता है - हमारे यहां सिंह को शक्ति(देवी )का वाहन माना जाता है ,राजपूत लोग अपनी जुझारू प्रवृत्ति एवं शक्ति के उपासक होने के कारण उसे(शक्ति को ) वहन करने हेतु नाम के साथ सिंह का प्रयोग करने लगे .
यह केवल एक विचार है . सही कारण क्या है यह तो अजित जी बताएंगे .जानने की उत्सुकता मुझे भी रहेगी .

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