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Sunday, July 3, 2011
जीहुजूरिया, यसमैन और जीमैन
ह र भाषा में विविध भावों को व्यक्त करने वाले विभिन्न उच्चार या संबोधन होते हैं। किसी का संबोधन सुनने या कही गई बात को आत्मसात करने वाली ध्वनि है “हुँ” या “हूँ”। इसी तरह स्वीकार के भाव को व्यक्त करने वाला उच्चार है “हाँ”। नकार के लिए “ना” है। इसी तरह का एक उच्चार है “जी”। इस “जी” की व्याप्ति हिन्दी में जबर्दस्त है। यही नहीं, इस “जी” में शायराना सिफ़त भी है। रूमानी अंदाज़ वाली बात हो या उस्तादाना तबीयत वाली नसीहत, इस “जी” की मौजूदगी से रंगत आ जाती है। मिसाल के तौर पर अनपढ़ फिल्म में राजा मेंहदी अली खान के लिखे गीत की यह पक्ति – “जी” हमें मंजूर है आप का हर फैसला / कह रही है हर नज़र बंदापरवर शुक्रिया....। “जी” की अभिव्यक्ति मुहावरेदार भी होती है जैसे किसी की हाँ में हाँ मिलाने को उर्दू में ‘जीहुज़ूरी’ कहा जाता है। इस ‘जी’ की मौजूदगी यहाँ बखूबी पहचानी जा सकती है।
जी कहाँ से आया इसकी बात इसी “जीहुज़ूरी” से करते हैं। “जीहुज़ूरी” का अर्थ जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है “हाँ में हाँ मिलाना” है। “जीहुजूरी” में “जी हुज़ूर” को साफ़ पहचाना जा सकता है। “हाँ में हाँ मिलाना” का अर्थ है किसी की बात के अंत में “हाँ हाँ” कहते चले जाना। साफ़ है कि सुनने वाला व्यक्ति सभी बातों को स्वीकार कर रहा है। स्वाभाविक है कि “हाँ हाँ” कहने वाला व्यक्ति सामने वाले की सत्ता के आगे नतमस्तक है। अंग्रेजी में इस “हाँ” की जगह ‘यस’ कहने का प्रचलन है। जब सामने वरिष्ठ वयक्ति हो तो ‘यस’ के आगे ‘सर’ जुड़ जाता है अर्थात ‘यस सर’। गौर करें यह ‘यस सर’ दरअसल “जी हुज़र” ही है। हुज़ूर यानी श्रीमान, मान्यवर, मालिक, श्रीमंत, हुकुम आदि। अंग्रेजी में इसे “सर” कहते हैं। समाज ने अंग्रेजी में “यस सर“ कहने वाले के लिए “यसमैन” टर्म विकसित कर ली और हिन्दुस्तानी में इसे “जीहुज़ूरिया” कहा जाने लगा। सरकारी भाषा में श्रीमान शब्द भी सर के लिए प्रचलित है और कई लोग वरिष्टों की बात सुनने के बाद हर बार श्रीमान श्रीमान कहते हैं।
स्पष्ट है कि “जी” दरअसल सामने वाले के लिए आदरयुक्त संबोधन या उच्चार है जिसमें उस व्यक्ति का रुतबा उभरता है। राजस्थान में हुकुम कहने का चलन है। वहाँ के सामंती समाज में वरिष्ठ व्यक्ति के लिए हुकुम, होकम जैसे संबोधन प्रचलित हुए। आज भी वहाँ ‘यस सर’ की तरह सिर्फ़ हुकुम या होकम कहने का प्रचलन है। यह अलग बात है कि होकम कहने में सचमुच जो आत्मीयता और आदर का भाव है वह “यस सर” में निहित जीहुज़ूर वाली चाटूकारिता से नहीं आ रहा है। संस्कृत हिन्दी में श्रीमान, श्रीमन्त, मान्यवर जैसे संबोधन हैं किन्तु प्राचीन भारत में बलशाली, सम्भ्रान्त, शिष्ट, कुलीन, शालीन, माननीय, अमीर व्यक्ति के लिए “आर्य” संबोधन प्रचलित था। मुझे लगता है यह “जी” इसी “आर्य” का अपभ्रंश है। भारोपीय भाषाओं में अक्सर संस्कृत की “य” ध्वनि का प्राकृत रूप “ज” हो जाता है। “युवन्” का “जवान”, “जुवनाइल”, “युवा” का “जुवा”, “यौवन” का “जोबन”, “यव” का “जौ” जैसे कई उदाहरण हैं। आर्य > आर्य्य > आज्ज > अज्ज > जी कुछ यह क्रम रहा होगा इस “जी” के विकास का।
“आर्य” शब्द की विस्तृत अर्थवत्ता पर हम अगली किसी कड़ी में चर्चा करेंगें फिलहाल हम इससे बने जी पर ही बात कर रहे हैं। प्राचीनकाल में श्रेष्ठिजनों के लिए “आर्य” शब्द आम था। सामान्य कार्यव्यवहार में जैसे आजकल “यस सर”, या “हुकुम” जैसे संबोधन होते हैं वैसे ही “आर्य” शब्द भी प्रचलित था अर्थात हर वाक्य के बाद सुनने वाला उसी तरह “आर्य” कहता था जैसे अब “सर”, “बॉस” या “हुकुम” कहा जाता है। गौर करें हिन्दी की विभिन्न बोलियों में दादी या नानी के लिए “आजी” शब्द है। यह दरअसल “आर्यिका” से आ रहा है। आर्य का स्त्रीवाची हुआ आर्यिका। आर्य अर्थात श्रेष्ठ, कुलीन इसी तरह आर्य स्त्री के लिए आर्यिका शब्द रूढ़ हुआ। प्राकृत / अपभ्रंश में इसका रूप है “अज्जिका” और आज की बोलियों में यह “आजी” हुआ। मराठी में दादी को “आजी” और दादा को “आजोबा” कहते हैं और परदादा को “पंजोबा”। आर्यिका से बने “आजी” शब्द में निश्चित ही घर की मुखिया, प्रमुख और प्रभावशाली महिला का भाव है। जाहिर है “आजोबा” की पत्नी भी उसी सम्मान की हकदार हुई। संस्कृत ग्रंथों में “आर्या” शब्द का भी उल्लेख है जिसमें भी सम्मानजनक उक्त सभी भाव निहित हैं।
कुल मिला कर “जी” शब्द संबोधनसूचक है प्राचीन भारतीय परम्परा से आ रहा है। हिंग्लिश के इस दौर में “यस मैन” की तर्ज पर हम “जीमैन” जैसी टर्म भी चला सकते हैं। इससे पहले ही हम सरजी और ओकेजी जैसी टर्म तो बना ही चुके हैं। स्वीकारसूचक भाव के लिए हाँ के साथ भी जी जुड़ गया और हाँजी बन गया। याद रखें इस के पीछे “हाँ आर्य” अर्थात सही है श्रीमान ही छुपा हुआ है। प्रश्नवाचक भाव के रूप में क्यों शब्द के साथ भी जी जुड़ा हुआ नज़र आता है यानी क्योंजी। इसमें पूछने वाले के प्रति सम्मान या आदर का भाव है। आर्य से बने अज्ज का एकदम प्राकृत रूप तो अजी में नज़र आता है जो रोजमर्रा की बातचीत के औपचारिक सम्बोधन में आमतौर पर शुमार होता है। इसके अलावा जी साहबजी, जी सरजी में भी इसे देख सकते हैं और व्यक्तिनाम के पीछे, सम्बोधनों के पीछे जैसे रमेशजी, सुरेशजी, ताईजी, भाईजी, पिताजी, माताजी के साथ भी इसके आदरसूचक भाव प्रकट हो रहे हैं।
आर्य और इससे बने अन्य शब्दों की बाबत अगली कड़ी में
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17 कमेंट्स:
इस शब्द के बारे में जानने की बहुत उत्सुकता थी, धन्यवाद!
इन शब्दों का असर देश विदेश के राजनैतिक क्षेत्रों में ज्यादा अधिक दिखाई देता है...
बहुत पसंद आया, आज का लेख
जब भी वे सपत्नीक आते हर बात के बाद अपनी पत्नी से कहते -क्यों जी? पत्नी जवाब देती -हाँ जी। जब पत्नी बात करती तो पति से कहती -क्यों जी? पत्नी जवाब देती -हाँ जी। दोनों का नाम ही हो गया क्योंजी हाँजी।
< आर्य्य > आज्ज > अज्ज > जी कुछ यह क्रम रहा होगा इस “जी” के विकास का। >>
मेरा भी यही विचार है ।
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उनकी तो ये आदत है कि वो ना नही कहते,
अक्सर तो वो 'जीजा' को भी 'जी-जी' ही है कहते !
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डरते नहीं बीबी से वो रुस्तम है गली के!
थकते नहीं फिर भी कभी 'जी-जी' उसे कहते!!
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हर बात में कहते रहे इक बात वो अक्सर,
'उल्लू' भी कहे बॉस, तो कह देते थे 'यस सर'
दस 'मातहत' अब उनकी 'हुज़ूरी' में रहे है,
हरइक से, हर एक बात पे कहते है वो 'यस सर'!
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'क्यों जी' को तो 'हाँ जी' ही मिला करते है,
एक-दूजे में वो खूब 'रमा' करते है,
बनना हो 'बुरा' बीच में आओ उनके,
गैरो से तो बस सिर्फ गिला करते है.
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यह 'आर्य' से निकला है तो संस्कारी तो होगा,
जी! ठीक ही कहते है, सदा आप, अजितजी.
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http://aatm-manthan.com
जी भाऊसाहेब,जी।
..“जी” के “आर्य” का अपभ्रंश होने की बात हजम नहीं हो रही।
हाँ जी।
आजी शब्द की जानकारी अच्छी लगी। भोजपुरीभाषी होने के चलते यह शब्द मालूम है।
जी, बहुत अच्छा जी। आपकी जितनी तारीफ की जाए कम है जी।
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उड़ीसा में इस "जी सर" या आदरसूचक शब्द रूप में "आज्ञां" शब्द व्यवहृत होता है,बड़ा ही अच्छा लगा यह मुझे....
बहुत दिनों बाद सुन्दर शब्द विवेचना पढने का अवसर मिला...
बहुत बहुत आभार...
मुझे तो लगता था कि श्री के स्थान पर जी प्रयोग होने लगा । जैसे भ्राता श्री को भैया जी पिता श्री को पिताजी और माताश्री को माताजी । श्री यानी संपन्नता । पर मैने कोई अभ्यास नही किया है इस बारे में ।
इस संदर्भ में एक सचमुच का जोक याद आ रहा है । बहुत ही पुरानी बात है । हमारे घर एक डेढ साल का प्यारा सा बालक टॉनी आया करता था । वह हम सब को नाम से बुलाता था, मीना, आशा मिलिंद वगैरा । तब उसकी माँ ने समझाया बेटे ऐसा नही कहते, मीना जी आशा जी ऐसा बोलते हैं । दूसरे दिन जब वह आया तो मेरे पिताजी ने उसे खूब ऊँचा उठा लिया । इस पर वह घबरा कर कहने लगा, बाबूजी जी दिल पलोदे उताल दो । सब लोग हँस पडे ।
वाह, वैसे नौकरी करने के बाद एक ही तमन्ना है कि, दुनिया के सारे सर कलम हों.
बहुत ही अच्छी बातें...
"अक्षय-मन !!कुछ मुक्तक कुछ क्षणिकाएं!! से"
अजित वडनेरकर जी,
नमस्कार,
आपके ब्लॉग को "सिटी जलालाबाद डाट ब्लॉगपोस्ट डाट काम"के "हिंदी ब्लॉग लिस्ट पेज" पर लिंक किया जा रहा है|
जी, यह तो शानदार पोस्ट है. आभार.
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