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Saturday, November 12, 2011
अश्लील में ‘श्री’ की तलाश
हि न्दी में किन्हीं विशिष्ट भावों को व्यक्त करने के लिए ‘अश्लील’ का प्रयोग होता है। ‘अश्लील’ का कोई ठोस पर्याय भी हिन्दी में नहीं है। सबसे पहले देखते हैं, ‘अश्लील’ क्या है। इसे भाषा के उदाहरण से समझते हैं। हर भाषा में असभ्य और फूहड़ शब्दावली होती है। ऐसी धारणा है कि जो कुछ प्राकृत है, पहले से बना हुआ है, वह सब अनघड़, विरूप या भद्दा है। मिसाल के तौर पर खदान से निकला हीरा और सामान्य पत्थर एक दूसरे से बहुत अलहदा नहीं होते। तराशने, चमकाने के बाद ही हीरे को अपनी असली पहचान मिलती है। भाषा के सन्दर्भ में एक और मिसाल देखते हैं। पेड़ के लिए ‘रुक्ख’ प्राकृत रूप है और ‘वृक्ष’ परिनिष्ठित रूप है। आमतौर पर नागरी भाषा परिनिष्ठित होती क्योंकि उसकी शब्दावली में तत्सम शब्द ज्यादा होते हैं। इसके विपरीत ग्रामीण बोलियाँ प्राकृत शब्दावली से प्रभावित होती हैं। ग्रामीण भाषा को इसलिए गँवारू कहा जाता है। नागरी बोलियों में जो सलीका होता है वह शब्द के मूल स्वरूप को सही ढंग से उच्चारने की वजह से आता है। उच्चारण की शुद्धता ही नागरी बोली की प्रमुख खासियत है। देशी बोली में उच्चारण अपने ठेठ अन्दाज़ में सामने आता है। दरअसल इसी ठेठपन, गँवारूपन, फूहड़ता को अश्लीलता कहते हैं। पंडितों की निगाह में यह भाषा श्रीहीन है। मगर ‘अश्लील’ के प्रचलित आशय से यह विवेचन मेल नहीं खाता।
हिन्दी में ‘अश्लील’ शब्द का प्रयोग एक खास सन्दर्भ में ही किया जाता है। काम (SEX) सम्बन्धी बुरी, घटिया सी कोई बात, कुत्सित मानसिकता से रची गई कोई कृति, उन्मुक्त यौनाचरण की रचना, किन्हीं व्यक्तियों के यौन सम्बन्धों पर अशोभनीय टिप्पणी, अपशब्द या गाली-गलौज समेत लज्जाजनक, फूहड़ और गंदी बातचीत या सामग्री का प्रदर्शन अश्लीलता की श्रेणी में आता है। यौन भावनाओं को उभारने के लिए देह का नग्न प्रदर्शन भी अश्लीलता है। इन अर्थों से हट कर कही गई कोई भी बात घटिया, भद्दा, गँवारू, असभ्य, अशिष्ट कह दी जाती है। मगर प्रचलित अर्थों में ‘अश्लील’ को अभिव्यक्त करने के लिए अगर ‘अश्लील’ का प्रयोग न किया जाए तब तो अशोभनीय, गंदी या लज्जाजनक जैसे शब्दों का ही प्रयोग करना पड़ता है। इसके बावजूद ‘अश्लीलता’ का भाव उजागर नहीं होता। ‘अश्लील’ शब्द की व्याप्ति जबर्दस्त है और हिन्दीभाषियों ने हर क्षेत्र में ‘अश्लील’ का प्रयोग अपनी अभिव्यक्ति के लिए किया है जैसे वस्तु, संवाद, शब्द, भाषा, कला, विचारधारा, सोच, लोग, ग्रन्थ, संकेत, अभिव्यक्ति, शिक्षा वगैरह वगैरह।
अश्लील बना है ‘अश्रीर’ से। बोलचाल की भाषा में ‘र’ के स्थान पक ‘ल’ उच्चारने में लोगों को सुविधा होती है। अक्सर बालक या ग्रामीणजन ऐसा करते हैं क्योंकि शुद्ध उच्चारण से अधिक अभिव्यक्ति की उन्हें जल्दी रहती है। इसीलिए संस्कृत में उक्ति है- रलयोः अभेदः। ‘अश्रीर’ से बने ‘अश्लील’ में भी यही हो रहा है। ‘अश्रीर’ में अ + श्री स्पष्ट है। संस्कृत में ‘श्री’ का अर्थ है सौन्दर्य, वैभव, मांगल्य अथवा गुणकारी। मंगल, कल्याण, ऐश्वर्य और श्रेष्ठत्व से जुड़े सभी भाव “श्री” में समाहित हैं। ‘श्री’ तो स्वयंभू है। “श्री” का जन्म संस्कृत की ‘श्रि’ धातु से हुआ है जिसमें धारण करना और शरण लेना जैसे भाव हैं। जाहिर है समूची सृष्टि के मूल में स्त्री शक्ति ही है जो सबकुछ धारण करती है। इसीलिए उसे “श्री” कहा गया अर्थात जिसमें सब आश्रय पाए, जिसके गर्भ से सब जन्मे हों। सर्वस्व जिसका हो। ‘श्री’ आदि शक्ति है, मातृशक्ति है। प्रकृति ‘श्री’ है और वसुधा भी ‘श्री’ है।
हिन्दी में मंगलकारी, वैभवकारी, सुंदर जैसे अर्थों में अकले ‘श्लील’ या ‘श्रीर’ का प्रयोग नहीं होता। ‘अ’ युक्त ‘श्लील’ यानी ‘अश्लील’को ही हिन्दी ने अपनाया क्योंकि ‘श्लील’ से जुड़े भावों को अभिव्यक्ति करनेवाली एक सुदीर्घ शब्दावली पहले से उसके पास थी।
इस तरह देखें तो लक्ष्मी, समृद्धि, सम्पत्ति, धन, ऐश्वर्य आदि सब कुछ श्रीमय है। सत्ता, राज्य, सम्मान, गौरव, महिमा, सद्गुण, श्रेष्ठता, बुद्धि आदि भाव भी इसमें समाहित हैं। धर्म, अर्थ, काम भी इसमें शामिल हैं। वनस्पति जगत, जीव जगत इसमें वास करते हैं। अर्थात समूचा परिवेश श्रीमय है। भगवान विष्णु को ‘श्रीमान’ या ‘श्रीमत्’ की सज्ञा भी दी जाती है। गौरतलब है कि “श्री” स्त्रीवाची शब्द है। उपरोक्त जितने भी गुणों की महिमा “श्री” में है, उससे जाहिर है कि सारा संसार “श्री” में ही आश्रय लेता है। अर्थात समस्त संसार को आश्रय प्रदान करनेवाली “श्री” के साथ रहने के कारण भगवान विष्णु को ‘श्रीमान’ कहा गया है। इसलिए वे ‘श्रीपति’ हुए। इसीलिए ‘श्रीमत्’ हुए। भावार्थ यही है कि ईश्वर कण-कण में व्याप्त हैं। “श्री” और ‘श्रीमान’ शब्द अत्यंत प्राचीन हैं। इनमें मातृसत्तात्मक समाज का स्पष्ट संकेत है। विष्णु सहस्रनाम के विद्वान टीकाकार पाण्डुरंग राव के अनुसार समस्त सृष्टि में स्त्री और पुरुष का योग है। ‘श्रीमान’ नाम में परा प्रकृति और परमपुरुष का योग है।
यहाँ “श्रीर” का अर्थ स्पष्टतः ‘श्री’ से युक्त समझ में आ रहा है। जिसमें ‘श्री’ से जुड़े सभी गुण हैं। विपुलता, वैभव, समृद्धि, सौभाग्यपूर्ण, मंगलकारी जैसे भाव हैं। इस महिमायुक्त “श्री” से पहले जब नकारात्मक उपसर्ग ‘अ’ लगता है तो “श्री” की महिमा श्रीहीन हो जाती है। अश्रीर का अर्थ हुआ अशोभनीय, लज्जाजनक, पतित, अमंगलकारी। ऐसी भाषा या शब्द जिनसे फूहड़ता, अभद्रता, अंमगल, अकल्याण की अभिव्यक्ति होती हो। निर्लज्जता की पराकाष्ठा, अश्रवणीय वचन या अश्रवणीय दृष्य या कृति सभी कुछ ‘अश्रीर’ है। इस तरह ‘श्रीहीन’ ही ‘अश्लील’ है। बोली भाषा में ‘श्रीर’ का ‘श्लील’ हुआ। संस्कृत के पौराणिक साहित्य में ये दोनों ही रूप हैं और समकालीन हैं। मोनियर विलियम्स कोश के मुताबिक ब्राह्मण साहित्य अर्थात ऐतरेय ब्रह्मण, शाङ्खायन ब्राह्मण आदि में इनका प्रयोग मिलता है। मगर लकारयुक्त ‘श्लील’ का प्रचलन अधिक हुआ। हिन्दी में मंगलकारी, वैभवकारी, सुंदर जैसे अर्थों में अकले ‘श्लील’ या ‘श्रीर’ का प्रयोग नहीं होता। ‘अ’ युक्त ‘श्लील’ यानी ‘अश्लील’को ही हिन्दी ने अपनाया क्योंकि ‘श्लील’ से जुड़े भावों को अभिव्यक्ति करनेवाली एक सुदीर्घ शब्दावली पहले से उसके पास थी। बहरहाल, अश्लील में चाहे ‘श्री’ की महिमा से रहित होने का भाव है फिर भी इसमें ‘श्री’ मौजूद है।
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प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 8:29 PM लेबल: god and saints
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13 कमेंट्स:
लेख श्लील या श्रीर रहा…वैसे अश्लील का पहला प्रयोग कब हुआ?
चंदन भाई,
कब हुआ का महत्व नहीं है। र को ल बोलने वाले समाज ने इसका लकार के साथ उच्चार किया और यही रूढ़ हो गया।
लखनऊ कब नखलऊ हुआ जैसे इसका महत्व नहीं है, वही बात यहाँ है। ये दोनों शब्द साथ साथ चलते हैं। भाषायी बर्ताव का मामला है ये।
पुनः साधुवाद । अश्लील शब्द पर व्याप्त भ्रांतियों नें इसे अभद्रता की पराकाष्ठा का पर्याय बना दिया था । रूढियों के चलते इतना सफर अस्वाभाविक भी नहीं । जैसा कि आपके आलेख से ध्वनित होता है, देशज शैली में बोली जाने पर परिष्कृत भाषा भी अश्लील ही कही जायेगी । बिहार प्रांत यूँ तो हिन्दी को पल्लवित करने के लिये प्रख्यात रहा है परंतु न जाने क्यों भाषाई शुद्धता का आग्रह अब यहाँ कहीं दृष्टिगोचर नही होता । आचलिक दुराग्रह के कारण, भाषा ही नहीं क्षेत्र भी श्रीहीन प्रतीत होता है ।
अश्लील यानी श्रीहीन। अश्लील हरकत यानी श्रीहीन हरकत। बिल्कुल सही।
@चंदन कुमार मिश्र
समझ लीजिए कि ये दोनों ही समकालीन हैं। पौराणिक ग्रन्थों में इनका प्रयोग हुआ है।
मोनियर विलियम्स कोश के मुताबिक इन दोनों शब्दों का प्रयोग ब्राह्मण साहित्य अर्थात ऐतरेय ब्राह्मण, शाङ्खायन-ब्राह्मण आदि में मिलता है।
बिहार में तो मैंने पढ़ा है कि हिन्दी को लेकर लोगों में कोई अच्छी भावना ही नहीं थी। बंगाल के कुछ लोगों की मेहनत से बिहार में हिन्दी के प्रति राष्ट्रभाषा का माहौल बना और भाषायी चेतना बढ़ी।
'श्री' ही तो 'श्लील' है; हसीन है, जमील है,
है दुष्टता से पाक; सत्यता की ये दलील है.
अनुशास्मकता शील है, धरम का संगे मील है,
श्री ज़मीं भी स्वर्ग और 'मुक्ति की सबील'* है.
है दौर ये तो कलयुगी; 'श्री' न धूंद अब "श्री",
श्लील आचरण के लोग मिलते अब क़लील* है.
* मुक्ति की सबील = नजाती का रास्ता
* क़लील = थोड़े
परिभाषाएँ !
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न पकड़े जाए जब तलक गुनाह भी 'श्लील' है,
तुतलाते आदमी से 'रन' बुलवाना, अश्लील है!
http://aatm-manthan.com
अश्रीर टाइप कर रहे थे तो कीबोर्ड भी अश्लील का सुझाव दे रहा था, समाज में भी यही हुआ होगा।
श्री और अश्रीर की सुंदर व्याख्या !
आभार!
अश्रीर से अश्लील यानि जो श्री से विहीन हो ऐसी भाषा या कार्य । जानकारी पूर्ण लेख का आभार ।
यह तो रोचक ही नहीं, जोरदार भी है - 'अश्लील में भी श्री है।'
पोस्ट पढकर याद आ रहा है कि 'अश्रीर' कहीं पढा था किन्तु कब और कहॉं - यह याद नहीं आ रहा।
इसे भी श्री लगा दो, कुछ शर्म आ जावेगी
शरारत वाले शरीर से भी इस का कोई संबंध है या नहीं? पर नजदीकी जरूर नजर आते हैं।
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