Monday, November 21, 2011

शून्य में समृद्धि है…

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शू न्य की एक हक़ीकत तो क़रीब क़रीब हर पढ़ेलिखे व्यक्ति पर उजागर है कि अंकगणित की दुनिया के इस हीरो, जिसे अंग्रेजी में ज़ीरो कहा जाता है, का जन्म भारत में हुआ था। दुनिया को दाशमिक प्रणाली की सौगात भारत ने ही क़रीब डेढ़ हजार साल पहले दी थी और यही शून्य था जिसकी वजह से यह प्रणाली जन्म ले पायी और जिसके बिना अंक गणित की कल्पना भी मुश्किल है। इसके बावजूद आज बोलचाल की हिंदी में शून्य से ज्यादा इस्तेमाल अंग्रेजी के जीरो या सिफर का होता है। मजे़ की बात यह कि दोनो शब्दों के पीछे संस्कृत का शून्यम् हैं। आज इस शून्य को जीरो अंडा कह दिया जाता है। मूर्ख व्यक्ति के दिमाग को सिफर की उपमा दी जाती है। तंत्रिका तंत्र जब काम नहीं करता तो उसे सुन्न होना कहते हैं। जहाँ निविड़ एकांत होता है उसे सूनसान कहते हैं। सूना शब्द भी इसी अर्थ में प्रयोग होता है। ये सभी शब्द शून्य से ही जन्में हैं। संस्कृत के शून्यम् का अर्थ होता है खोखला, खाली या रिक्त स्थान, निर्वात यानी वेक्यूम अथवा आकाश, अंतरिक्ष। इस खोखलेपन में जो अकेलापन, खालीपन या नकारात्मकता का भाव है उसी वजह से मूर्ख व्यक्ति के दिमाग़ को खाली अण्डा, ज़ीरो अण्डा या कद्दू कहा जाता है। मराठी में कद्दू को भोपळा कहते हैं और वहाँ शून्य को भोपळा भी कहा जाता है। कद्दू के आकार पर अगर ध्यान दें तो यह नामकरण अजीब नहीं लगेगा। आखिर अण्डा भी तो गोल ही होता है ! कम समझ रखने वाले को उलाहना दिया जाता है- सिर है या कद्दू!! यहाँ खाली दिमाग़ वाली लक्षणा पर ध्यान देना चाहिए। शून्य के अन्य अर्थों में एकांत निर्जन, वीरान स्थान भी हैं। खिन्नमन, तटस्थता, उदासी, भी शून्य की श्रेणी में आती है। आकाश, अंतरिक्ष, बिंदु आदि भी शून्य हैं।
गौरतलब है कि शून्य की कल्पना के पीछे भारतीय मनीषा की विलक्षणता ही नज़र आती है। शून्य दरअसल क्या है? शून्य के आकार पर गौर करें। गोलाकार मण्डल की आकृति यूँ ही नहीं है। उसके खोखलेपन, पोलेपन पर गौर करें। एक सरल रेखा के दोनों छोर एक निर्दिष्ट बिन्दु की ओर बढ़ाते जाइए और फिर उन्हें मिला दीजिए। यह बन गया शून्य। यह शून्य बना है संस्कृत की ‘शू’ धातु से जिसमें फूलने, फैलने, बढ़ने, चढ़ने, बढ़ोतरी, वृद्धि, उठान, उमड़न और स्फीति का भाव है। मोनियर विलियम्स और आप्टे कोश में ‘शू धातु की तुलना संस्कृत के ही ‘श्वि’ से भी की जाती है जिसमें विकसन, फलना-फूलना, समृद्ध होना जैसे भाव हैं। ये एक ही कड़ी में हैं। ‘श्वि’ से बना एक संस्कृत शब्द है ‘शून’ जिसमें सूजा हुआ, बढ़ा हुआ, उगा हुआ या समृद्ध जैसे ही भाव हैं। स्पष्ट है कि शू से बने शून्य में बाद में चाहे निर्वात, सूनापन, अर्थहीन, खोखला जैसे भाव उसकी आकृति की वजह से समाविष्ट हुए हों, मगर दाशमिक प्रणाली को जन्म देने वालों की निगाह में शून्य में दरअसल फूलने-फैलने, समृद्धि का आशय ही प्रमुख था। इसीलिए यह शून्य जिस भी अंक के साथ जुड़ जाता है, उसकी क्षमता को दस गुना बढ़ा देता है, अर्थात अपने गुण के अनुसार उसे फुला देता है। जब इसके आगे से अंक या इकाई गायब हो जाती है, तब यह सचमुच खोखलापन, निर्वात, शून्यता का बोध कराता है। शून्य के आकार में भी यही सारी विशेषताएँ समाहित हैं। गोलाकार, वलयाकार जिसमें लगातार विस्तार का, फैलने का, वृद्धि का बोध होता है। दरअसल शून्य ही समृद्धि और विस्तार का प्रतीक है।
भारतीयों की ही तरह गणित और खगोलशास्त्र में अरब के विद्वानों की भी गहन रुचि थी। भारतीय विद्वानों की शून्य खोज का जब अरबों को पता चला तो उन्होंने अरबी भाषा में इसके मायने तलाशे। उन्हें मिला सिफ्र (sifr) जिसका मतलब भी रिक्त ही होता है। बारहवीं तेरहवीं सदी के आसपास योरप को जब दाशमिक प्रणाली का पता चला तो अरबी के सिफ्र ने यहां दो रूप ले लिए। पुरानी फ्रेंच में इसे शिफ्रे ( chiffre ) के रूप में जगह मिली जबकि अंग्रेजी में आने से पहले इसका लैटिनीकरण हुआ। पुरानी लैटिन में सिफ्र ने जे़फिरम का रूप लिया। बाद में यही zephirum या zephyrum > zeuero> zepiro> zero छोटा होकर ज़ीरो बन गया। बाद में फ्रेंच के रास्ते से अरबी के cifra का एक और  रूपान्तर cifre हुआ। यही सिफ्र एक बार फिर बदला और भाषा-समाज को मिला एक और नया लफ्ज सिफर।  गौरतलब है कि हिंदी में हम अंग्रेजी के सिफ़र cipher का उच्चारण करते हैं न कि अरबी, उर्दू के सिफ्र का। वैसे सिफ्र की व्युत्पत्ति सेमिटिक धातु sfr से भी मानी जाती है जिसका मतलब होता है उत्कीर्ण करना, लिखना, अंकन करना, गणितीय गणना आदि।
जूलियस पकोर्नी द्वारा खोजी गई इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार की मूल धातुओं में शून्य शब्द की स्थिति को देखना भी दिलचस्प होगा। पकोर्नी के मुताबिक शून्य भी उसी आदिमूल  keu / *keue से उद्भूत है जिससे इंडो-ईरानी और इंडो-यूरोपीय परिवार की भाषाओं के कई अन्य शब्द निकले हैं। डॉ अली
pumpkin1...सब कुछ शून्य  से ही प्रकट हुआ है और  शून्य में ही विलीन हो जाना है…
नूराई द्वारा बनाए रूट चार्ट से पता चलता है कि इस धातु का सम्बन्ध लात्वियाई भाषा के कुरोस से है जिसका अर्थ है सुराख। इसी तरह लैटिन के कुनोस शब्द का अर्थ होता है फूला हुआ, फैला हुआ। अवेस्ता में छिद्र के लिए सुरा sura शब्द है जो इसी मूल का है। पहलवी में इसका रूप surak होता है और फ़ारसी में आते आते सुराख़ साफ नज़र आने लगता है। लैटिन में cavea, cavus और अंग्रेजी के केव cave का अर्थ गुफा होता है, मगर इस धातु से रिश्तेदारी स्पष्ट है जिसमें खोखलापन साफ नज़र आ रहा है। इसी कड़ी में आगे शून्य आता है। डॉ अली नूराई आगे अरबी के सिफ़्र, लैटिन के ज़ेफिरम आदि का उल्लेख भी अपनी तालिका में करते हैं मगर सिर्फ सन्दर्भ बताने के लिए। । हालाँकि सिफ्र घोषित तौर पर संस्कृत के शून्य से प्रभावित होकर किया गया आनुवादिक शब्द है।
शून्य शब्द का दार्शनिक महत्व भी है। प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन ने शून्यवादी दर्शन की स्थापना की थी जिसके मुताबिक सृष्टि में किसी पदार्थ की सत्ता नहीं है बल्कि शून्य की सत्ता है। जीव, ईश्वर आदि की सत्ता को स्वीकार नहीं करने की वजह से इस मत को शून्यवाद नाम मिला। वैसे इसे वैनाशिक मत भी कहते थे। उनका मानना था कि पदार्थ के अस्तित्व को लेकर चार तरह के मत हो सकते हैं। अस्ति या नास्ति। अर्थात है अथवा नहीं। इसके बाद आता है तदुभयम अर्थात हो भी सकता है और नहीं भी। चौथा है नोभयम अर्थात तदुभयम का विलोम। नागार्जुन के मुताबिक परमसत्य इन चारों से हटकर है। सो इस विचार को शून्यवाद कहा गया। यह विचार इतना प्रसिद्ध हुआ कि बौद्धों या नास्तिकों को ही शून्यवादी कहा जाने लगा। यूँ ईश्वर की कल्पना को अगर छोड़ दिया जाए तो खगोल विज्ञान संबंधी आधुनिक खोजों से शून्य से सृष्टि के जन्म की बात को बल मिलता है। सब कुछ शून्य से प्रकट हुआ है और शून्य में विलीन हो जाना है।

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12 कमेंट्स:

प्रवीण पाण्डेय said...

सब शून्य से ही निकला है और सब शून्य में ही समाना है।

चंदन कुमार मिश्र said...

बढिया…ज्ञानवर्धक…रामानुजन के बचपन वाली घटना याद आई। चलिए उसे भी कह डालता हूँ। शिक्षक ने सिखाया। 1000 केले हैं, और 1000 व्यक्ति हैं तो सबको एक-एक केला मिलेगा। तीन केले, तीन आदमी मतलब हरेक को एक केला। इससे साबित होता है कि किसी भी संख्या में उसी संख्या से भाग देने पर, भागफल एक आता है। एक छात्र पूछ बैठता है- महाशय, शून्य केले हैं, व्यक्ति भी शून्य तो सबको एक केला मिलेगा। शिक्षक आश्चर्यचकित और सारे छात्र हँसने लगते हैं। और यह सवाल गणित की दुनिया का बहुत मजबूत सवाल बना रहता है। सम्भवत: इसे हल भी रामानुजन ने ही किया था। क्योंकि 1919 में वे चल बसे थे।

Abhishek Ojha said...

शून्य पर अद्भुत पोस्ट !

DR. ANWER JAMAL said...

@ अजित जी ! आपकी पोस्ट निश्चय ही अच्छी है।
आपने बताया है कि भारत ने शून्य की खोज की और अरबी भाषा में इसे सिफ़र कहा गया है।
यह सही है।
अब हम आपको बताते हैं कि अरब लोग केवल शून्य को ही भारत की देन नहीं मानते बल्कि वे सारे अंकों को ही भारत की देन मानते हैं इसीलिए उन्होंने गिनती के सभी अंकों को ‘हिन्दसा‘ का नाम दिया है।
भारतीय दर्शन ने ईश्वर के नाम-रूप-गुण के साथ ही सृष्टि रहस्य पर विचार किया और उसके सभी संभावित पक्षों पर बात की है।
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने भारतीय ज्ञान की तारीफ़ करते हुए कहा है कि
‘मुझे हिन्द की तरफ़ से रब्बानी ख़ुश्बूएं (अर्थात दिव्य ज्ञान की सुगंध) आती हैं।
आप शब्दों पर ग़ौर करने वाले आदमी हैं।
इसीलिए ‘हिन्दसा‘ शब्द आपके सुपुर्द किया जाता है।

शुक्रिया !

Mansoor ali Hashmi said...

खूबसूरती से फैलाया है शून्य को , 'भाई भोपाली' से शून्य का 'भोपला' बनना रोचक लगा.

'शून्य' का विस्तार देखा , 'सन्न' में तो रह गया !
भूल वश ही आज जब उसको मैं 'ज़ीरो' कह गया !!
इक से ले के ९ तलक सबसे ही "मिल" आया है वो !!!
ले के 'compliment' मुझसे वो तो 'हीरो' हो गया.
http://aatm-manthan.com

Mansoor ali Hashmi said...

में ='मैं '

Smart Indian said...

बहुत सुन्दर! शून्यवाद का परिचय अच्छा लगा।

अनूप शुक्ल said...

वाह! क्या बात है जी।
बहुत दिन बाद शब्दों का सफ़र पढ़ा! आनन्द आ गया।

"बाकी रह गया अंडा"। जीरो को अंडा भी कहते हैं ! :)

Advo. SHEKHAR Dugchara/Rampur maniharan said...

brother, shunya ko anda bhi kaha jata hai, anda na khali iota h na khokhla phir iska kya karan hai...?

विष्णु बैरागी said...

याने शून्‍य, शून्‍य नहीं है, सब पर भारी है। शून्‍य में ही सब कुछ समाहित है। शून्‍य के बिना सब शुन्‍य है। सब को 'कुछ' बने रहने के लिए शून्‍य पर ही निर्भर होना है। शून्‍य में ही 'सब' है और 'सब' तो शून्‍य है ही।

ज्ञानवर्ध्‍दक और आनन्‍ददायक पोस्‍ट।

डा श्याम गुप्त said...

"एक सरल रेखा के दोनों छोर एक निर्दिष्ट बिन्दु की ओर बढ़ाते जाइए और फिर उन्हें मिला दीजिए। यह बन गया शून्य।"..--
--यह रेखागणित समझ में नही आया.....जब तक वह निर्दिष्ट बिन्दु एक निश्चित गति, निश्चित दिशा व निश्चित कोण से स्थान नहीं बदलता शून्य नहीं बन सकता ...इस निश्चितता के रहते ही वह बिन्दु पुनः लौटकर उसी बिन्दु पर या रेखा के दोनों ओर के बिन्दु आपस में मिल सक्ते हैं तभी शून्य बनेगा।
---शेखर जी ...वास्तव में शून्य में समस्त ब्रह्मान्ड समाया है...इसीलिये उसे अन्ड या अन्डा कहा जाता है..ब्रह्म का अन्डा...अन्डे में भी तो जीव रूप में समस्त ब्रह्मान्ड समाया होता है....
---शून्य होजाओ ...समस्त ब्रह्मान्ड आपका और आप स्वयं ब्रह्मांड हो जायेंगे ....स्वयंभू...परिभू...
---शून्य का अन्य नाम अनंत भी है.....

Unknown said...

अद्भुत .... Mishraji आपने बहुत अच्छी जानकारी दी इसके लिए धन्यवाद

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