दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम, आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने सहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही सफर के पंद्रहवें पड़ाव और पिच्चासीवें सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मा, लावण्या शाह, काकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून,बेजी, अरुण अरोरा, हर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।
घ र किराए का था आसानी से बदला जा सकता था। बदल लिया गया। दूसरे घर में आ गए। यह एक ताऊजी का घर था। ताऊजी जाट थे, गांव के पटेल और पिता जी के बचपन के मित्र। शहर में मकान बना लिया था। मकान में यहाँ उन की एक भाभी और उन की लड़की और ताऊ जी का एक छोटा भाई रहता, नाम धनजी, एक दम बुद्धू। लोग उस से पूछते जलेबी कैसे बनती है? तो बोलता, “मैदा घोल कर छेद वाले रूमाल में भर देते हैं और तई में पानी जाल जब गरम करते हैं, जब गरम हो जाए तो उस में छेद वाले रूमाल से यूँ यूँ घुमाते हुए मैदा डालते जाते हैं, फिर झारी से उसे निकाल कर चाशनी में डाल देते हैं, बन गई जलेबी। सब लोग धनजी से ये सवाल बार बार पूछते और उन का मजा लेते।” काका धनजी भी हर बार ऐसे बताते, जैसे वे जलेबी निर्माण के सब से बड़े विशेषज्ञ हैं। धनजी शहर पढ़ने आए थे, पर पढ़ न सके। फिर गांव चले गए। उन का ब्याह हो गया। पुश्तैनी जमीन थी परिवार की मदद से उस पर खेती करने लगे। उन के बच्चे हुए, सब के सब होशियार और अकल वाले। अब तो पोता भी ब्याह लायक है। उन के अलावा कोई भी बुद्धू नहीं। अब कोई उन से जलेबी वाला सवाल पूछता है तो शरमा जाते हैं, कहते हैं, “मुझे अब उतना ही बुद्दू समझते हो?”
वकील साहब छह माह के हुए तो पिता जी को मामा बैद्जी ने दूध के लिए गाय रखने की सलाह दी, पिता जी को गाय खरीदने हाट ले गए। उस दिन हाट में गाय मिली नहीं। हफ्ते पहले ब्याही पहली ब्यांत की एक भैंस मिल गई, उसे ही साथ ले आए। वकील साहब को भैंस का भरपूर दूध मिलने लगा। ग्वाल भैंस को दुहने आता। वकील साहब के लिए गिलास में धारोष्ण भर देता, झाग से भरपूर। उसे तुरंत पिया जाता, दूध बिना चीनी के भी मीठा और बिना गरम किए भी गरम लगता। घंटे भर बाद दादी चीनी मिला कर दूध उबाल कर कप-तश्तरी में देती। तश्तरी में कप से दूध उड़ेल पकड़ा देती। छोटा सा मुंह तश्तरी से ढक जाता। वकील साहब को उस में भरे दूध के सिवा कुछ न दिखता। तब तक दादी कप फिर भर देती। जब तक पीते, पिलाती रहती। इस दूध पिलाई ने जल्दी ही शरीर को गबदू बना दिया। सिर पर मनौती के बाल थे। माँ उन्हें बांध जूड़ा बना देती। पहली बार माँ के साथ ननिहाल गए तो माथे पर जूड़ा देख मामा जी मजे में ‘सरदार’ कहने लगे। यही नाम चल निकला वकील साहब सरदार जी हो गए। घर, बाहर सब सरदार जी ही कहने लगे। बरसों यही नाम चलता रहा। लोग चिड़ाते, ‘सरदार जी पैंयाँ, आधी रोटी खैयाँ’। इस चिढ़ का क्या अर्थ था, यह आज तक सरदार जी को समझ नहीं आया।
मकान वाले ताऊजी के बड़े भाई जमींदार थे, गाँव में बहुत जमीन थी, बहुत जानवर थे खेती होती थी। वे कभी कभी ही बाराँ आते। भैंस ने दूध देना बंद कर दिया। सुना की वह ग्याबण हो गई। उसे पडिया समेत ताऊजी के कारिंदे गाँव ले गए। भैंस फिर ब्याई तो एक नई पडिया को साथ ले वापस लौटी। पुरानी पडिया ताऊजी के गाँव रह गई। वहाँ उसे खाने और घूमने को खूब जो मिलता था। ताऊ जी ने एक बार लाटरी का टिकट खरीदा। लाटरी में मोटर-कार निकल आई। गांव तक मोटर का रास्ता नहीं था। चलाना भी
बारां का प्रसिद्ध श्रीनाथजी का मंदिर। राजस्थान में वल्लभ सम्प्रदाय के अनुयायी काफी हैं।
पिछली कड़ीः तारीखों और वारों का चक्कर कोई नहीं जानता था। मकान में बनी तीन दुकानों में से एक में ड़्राईवर मोटर कार को चढ़ा गया। उस के बाद वह मोटर कार दुकान से कभी कभी बाहर नहीं निकली। वहीं पड़ी पड़ी मोरचा खा गई। कोई पन्द्रह बरस तक उसे वहीं देखता रहा। बाद में वह किसी कबाड़ी के ही काम आई।
इधर जैसे जैसे उमर बढ़ी मंदिर में आना जाना और वहाँ बने रहने के समय में बढ़ोतरी हुई। लगभग दिन भर मंदिर में ही बने रहते। मंदिर पर जगह बहुत थी। दादाजी गांव से दादी के भतीजे को भी ले आए। वे भी चाचा दोनों चाचाओं के साथ मंदिर में ही रहने लगे। तीनों चाचा पढ़ते और दादा जी के कामों में हाथ बंटाते। सुबह का भोजन मंदिर में ही बनता। वहाँ ठाकुर जी को भोग जो लगता था। सब लोग रोज नहा धो कर मंदिर आ जाते। माँ भोग बनातीं। दादी उन की और कभी दादा जी की मंदिर के कामों में मदद करती। ठाकुर जी को भोग लगने के बाद ही सब लोग भोजन करते। उस से पहले कुछ भी खाने को नहीं मिलता। हाँ मंदिर में प्रसाद जो अक्सर मिश्री का और कभी कभी मावे का होता मिलता रहता।
मंदिर में खेलने को खूब जगह थी। मंदिर के अंदर ठाकुर जी के ठीक सामने का चौक, मंदिर के सामने बाहर का चौक, लम्बी चौड़ी छतें। छत पर जाने के दो चौड़े-चौड़े जीने थे, तीसरा जीना रसोई में जाता था, रसोई से छत पर जाने की एक बिना जंगले की खिड़की थी। इस तरह छत पर जाने के तीन रास्ते थे। दोनों जीनों की छत पर पिंजरियाँ थीं जिन में खिड़कियां, जिन से हवा आती रहती। ये पिंजरियाँ खेलने के आदर्श स्थान थे। एक जीना कम काम आता था तो उस की पिंजरी गर्मी में सोने के काम भी आती। मंदिर के पीछे बाड़ा भी था। जिस में बरसात में घास और कई तरह के पोधे उग आते थे। बाद में उन्हें साफ कर दिया जाता। बाड़ें में दो कमरे मंदिर के थे और टीन शेड था। सामने एक छप्पर था जिस में बड़ी बड़ी भट्टियाँ बनी थीं। शादी ब्याह के जलसों की रसोई वहाँ बनती और ज्योनारें लगतीं।
अगले मंगलवार फिर वकील साब की पेशी:)
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25 कमेंट्स:
बहुत बढ़िया संस्मरण हैं पंडितजी...आनंद आ रहा है। अभी तो परिवेश से ही परिचित हो रहे हैं हम...लीलाएं तो आगे आएंगी :)
एक आग्रह है-हाड़ौती के बारां अंचल की संस्कृति-समाज से जितना संभव हो परिचित कराते चलें इस बहाने।
वाह,
बहुत दिनों से बकलमखुद की नयी किस्त का इन्तजार हो रहा था। वकील साहब के बारे में जानने की बहुत उत्सुकता है।
यह प्रारब्ध है या पूर्वार्ध -काफी गडमड है ! जो भी है रोचक है !
रोचक कथा, परन्तु पल्ले कुछ नही पड़ा।
ये तो वकील साहेब की पेशी हो गई. अब वकील की पेशी-ऐसे तो न समझ आ पायेगी...वो भी ऐसा वकील जो बचपन में सरदार रहा हो..क्यूँ लिग खामखां परेशान हैं.
पहली पेशी तो शायद नींव बनाने का काम कर रही है, शायद अगली पेशी में पंडितजी का केस कुछ समझ में आये। इंतज़ार रहेगा। उम्मीद है इसकी तारीख़ें जल्दी जल्दी लगती रहेगी :)
वकील साहब जो भी करते हैं, जोरदार करते हैं। यह लिख भी रहे हैं तो जोरदार!
वहुत सुन्दर!
हमें तो पढ़कर बहुत मज़ा आया ...आगे का इंतजार रहेगा
पेशी ज़ल्दी-ज़ल्दी देना भाऊ।
पढ़े जा रहे हैं ।
बहुत ही रोचक संस्मरण...
नीरज
Mandir PrangaN ka parivesh Jeevanta ho raha hai...!
‘सरदार जी पैंयाँ, आधी रोटी खैयाँ’ ऐसी बहुत सारी चिढ़ें हैं जिनका कोई अर्थ नहीं होता परंतु व्यक्ति चिढ़ता है, अच्छा लिखते हैं आप।
क्या बचपन जीया है 'सरदार' जी ने।
लेखन इतना रोचक है कि अफ़सोस होने लगा कि क्यों किश्तों में है।
प्रतीक्षा रहेगी अगली कड़ी की।
अरे वाह। बहुत दिन बाद फिर से बकलमखुद। और वो भी अपने दिनेशजी। अब तो हर पेशी पर आना पड़ेगा। आएंगे भई मुकदमा लगा है तो आना ही पड़ेगा।
वैसे जलेबी बनती कैसे है . बहुत आनंद आया पढ़कर . अगली तारीख जल्द ही पड़े
तारीखे थोडी जल्दी दिया कीजिये... और हड़ताल तो बिलकुल नहीं होनी चाहिए :) वैसे तारीख के चक्कर में तो पिछली पोस्ट में ही पड़ गए थे आप. अभी आगे बहुत किस्से आने हैं... अभी तो गणित वाला प्रेम भी बाकी है. और उसके अलावा बाकी के प्रेम भी हो तो...
अभी कई संभावनाएं हैं. इंतज़ार के अलावा कोई अन्य उपाय नहीं :(
दिनेशजी का लिखा हम पढ़ते रहते हैं,अपने से लगते है अब उनके बारे में भी जानने का मौका हाथ लगा है....अजित भाई आपके काम की जीतनी भी तारीफ़ करें कम है |
दिनेशजी का लिखा हम पढ़ते रहते हैं,अपने से लगते है अब उनके बारे में भी जानने का मौका हाथ लगा है....अजित भाई आपके काम की जीतनी भी तारीफ़ करें कम है |
इतने रोचक ढंग से संस्मरण लिखा गया है की सारा दृश्य आँखों के सामने चलचित्र से उपस्थित हो जाते हैं...
सुन्दर संस्मरण...
द्विवेजी का लेखन जादुई चित्र आँखो के सामने खड़ा कर देता है..बहुत आनन्द से पढ़ रहे है....लेकिन अंतराल लम्बा हो रहा है...
बहुत ही रोचक और आनंद दायक .
आपकी जीवनी की कथा तो अद्`भुत जा रही है दिनेश भाई जी ! मँदिर के आँगन मेँ बचपन बितना भी बडे सौभाग्य की बात है -
अजित भाई का "बकलमखुद " प्रयास हिन्दी ब्लोग जगत को दिया अनमोल उपहार है
-- लावण्या
वाह्। ऐसा लगता है किसी और ही दुनिया के बारे में पढ़ रहे हैं
"वह ग्याबण हो गई। उसे पडिया समेत ताऊजी के कारिंदे गाँव ले गए। भैंस फिर ब्याई तो एक नई पडिया को साथ ले वापस लौटी" अपने पल्ले नहीं पड़ा। हमने तो भैंस सिर्फ़ तबेले में देखी हैं या सड़क पर कभी कभी। मंदिर में भी कुछ मिनिटों के लिए जाते हैं कभी सोचा ही नहीं कि वहां के पुजारियों की जीवन शैली कैसी होती होगी।
अब जान रहे हैं, तो कौतुहल और बढ़ रहा है। अगली कड़ी का इंतजार है
सरदार-असरदार!
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