इ स्लामी विचारधारा पर प्रायः हर सदी में सवालिया निशान लगता रहा है। ये सवाल वहां भी खड़े हुए जहां इस्लामी परचम मुहम्मद साहब की कोशिशों से फहरा। वहां भी जहां इस्लाम के सिपहसालारों ने दीन के नाम पर हुकुमत कायम की और तमाम ग़ैरमज़हबी काम किए। इस्लाम अपनी जिन खूबियों के तहत फैलता चला गया उन पर ही आज बहस जारी है। सदियों पहले जो मजबूरी में मोमिन बने होंगे, उनके वारिस आज किन्हीं अलग भूमिकाओं के लिए तैयार है। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर हादसे के बाद तो बतौर मज़हब इस्लाम पर चर्चा की जगह इस्लामी आतंकवाद ही चर्चा का विषय बना हुआ है।
मौजूदा दौर में इस्लाम की भूमिका पर चर्चा करती एक पुस्तक पिछले दिनों पढ़ी। इसे लिखा है समाजवादी विचारधारा के विद्वान और चिंतक अरुण भोले ने जिन्होंने वर्षों तक अध्यापन और पटना हाईकोर्ट में वकालत के जरिये लंबा सामाजिक अनुभव बटोरा है। मिश्र टोला,दरभंगा के मूल निवासी श्री भोले अब अहमदाबाद के स्थायी निवासी हैं। धर्मों की कतार में इस्लाम शीर्षक पुस्तक नेशनल पब्लिशिंग हाऊंस, दरियागंज, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है। पुस्तक में इस्लाम के जन्म की परिस्थितियां, इस्लाम पूर्व की अरब जनजातियों की सामाजिक संरचना, संस्कृति और मान्यताओं पर ऐतिहासिक नज़रिये से अध्ययन किया गया है। इस्लाम से पहले की धार्मिक मान्यताओं, प्रचलित पंथों की चर्चा भी महत्वपूर्ण है।
पुस्तक आम गैरमुस्लिम के मन से इस्लाम को लेकर उपजने वाले मूलभूत सवालों का जवाब तलाशती नजर आती है साथ ही कुछ ऐतिहासिक तथ्यों को भी सामने लाती है जो एक सामान्य गैरमुस्लिम नहीं जानता। सबसे बड़ी बात यह कि मैने इस पुस्तक में यह तलाशने की बहुत कोशिश की कि यह किताब हिन्दुओं को खुश करने के लिए लिखी गई है या मुसलमानों को, मगर ऐसा कोई स्पष्ट संकेत हमें नहीं मिलता। 9/11 और गोधरा दंगों के बाद लेखक के गहन वैचारिक मनन से उपजे विचार ही इस पुस्तक का आधार हैं। लेखक बेबाकी से स्वीकारते हैं कि इस्लामी शासकों ने अत्याचार किये मगर यह भी कबूल करते हैं कि इस मुल्क को सजाने-संवारने में मुसलमानों का योगदान महत्वपूर्ण है। इस संदर्भ में लेखक अमीर खुसरो की देशभक्ति को याद करते हैं जिन्होंने एक मसनवी में लिखा कि उन्हें हिन्दुस्तान से इस क़दर मुहब्बत है क्योंकि यह उनका मादरे-वतन है। दिल्ली के खूबसूरत बाग़ान का बयान करते हुए वे लिखते हैं कि अगर मक्का शरीफ यह सुन ले तो वह भी आदरपूर्वक हिन्दुस्तान की ओर ही मुंह घुमा ले। श्री भोले जब मिलीजुली संस्कृति की इस गौरतलब पहचान की चर्चा करते हैं तो साथ ही बहुसंख्यक भारतीय मुसलमानों द्वारा वंदेमातरम् बोले जाने पर एतराज जताने पर भी सवाल खड़े करते हैं।
कई चिंतक, घुमाफिरा कर जो बात कहते रहे हैं, वही बात श्री भोले साफ लफ्जों में कहते हैं। इस्लाम का आधार यानी कुरआन की मंशा समझने में कई ऐतिहासिक भूलें हुई हैं। मुल्ला जमात हमेशा मुस्तैद रही कि इस आसमानी किताब की व्याख्या का एकाधिकार उन तक ही सीमित रहे। इस्लाम पर मुक्त चिंतन के दरवाजे बंद रहें। बडे़ तबके को गुमराह कर यह पट्टी पढ़ाई जाती रही कि दीन और सियासत एक चीज़ है और इस्लाम का मक़सद वैसे राज्य की स्थापना है जो शरीयत के मकसद और उसुलों के मुताबिक चले। इसी व्याख्या के तहत जन्म के कुछ दशक बाद से
धर्मों की कतार में इस्लाम सबसे युवा है। यानी उम्र के पायदान पर सबसे पीछे, मगर इल्म और नेकी में सबसे आगे निकलने की राह सब देख रहे हैं, क्योंकि इसी में दुनिया की भलाई है। भारतीय मुसलमानों का इतिहास सिर्फ हज़ार पांचसौ साल का नहीं माना जाएगा, बल्कि उन्हें अपने पुरखों के इतिहास से भी खुद को जोड़कर देखना होगा और उस विरासत पर गर्व करना होगा
ही तथाकथित इस्लामी अमल कायम हुआ। अरब मुल्कों में ही इसने गैर इस्लामी व्यवस्थाओं के खिलाफ जिहाद की शक्ल ली। हिन्दुस्तान को भी काफिर जैसे अनुभव हुए। यही जिहाद इक्कीसवी सदी में आतंकवाद की शक्ल अख्तियार कर चुका है। मगर नतीजा कुछ नहीं है। इस्लाम पिछड़ गया, इस्लाम के माननेवाले पिछड़ गए तरक्की की दौड़ में। हिन्दुस्तान को इस्लाम से कभी दिक्क़त नहीं हुई, लेकिन भारत को इस्लामी धर्मराज्य बनाने का सपना देखने वाली कट्टरपंथी ताकतों को यहां कोई भी गै़रमोमिन बर्दाश्त नहीं। पाकिस्तान बनने के बावजूद उनका लक्ष्य भारत को पाप से पवित्र कराना है।
श्री भोले का आकलन है कि शायद भारतीय मुसलमान ही खुद को ठीक ठीक नहीं पहचान पा रहे हैं। भोले सवाल खड़ा करते हैं कि गैर मुस्लिम दुनिया के नौजवानों की तुलना में मुसलमान नौजवान खुद को कमतर स्थिति में पाता है। ग़रीबी-बेरोज़गारी के चलते वह जिहाद का रास्ता अपनाता है, मगर इन समस्याओं से तो दीगर तबकों के लोग कहीं ज्यादा परेशान हैं ? हमारा भी यही मानना है कि बेहतर तालीम हासिल करने की दिशा में किसी भी गैरमुस्लिम देश में किसी मोमिन को कभी नहीं रोका गया। भारत की ही मिसाल लें तो आजादी के बाद से मोटे अंदाज के मुताबिक करीब चार लाख करोड़ रुपए सिर्फ जम्मू-कश्मीर पर खर्च किए जा चुके हैं। यह रकम कम नही होती। इससे पूरे भारत की तस्वीर बदली जा सकती है। पुस्तक एक महत्वपूर्ण सुझाव इस देश के मुसलमानों, खास कर उस तबके के लिए सुझाती है जो सदियों पहले धर्मान्तरित हुआ था। लेखक कहते हैं कि भारतीय मुसलमानों का इतिहास सिर्फ हज़ार पांचसौ साल का नहीं माना जाएगा, बल्कि उन्हें अपने पुरखों के इतिहास से भी खुद को जोड़कर देखना होगा और उस विरासत पर गर्व करना होगा।
मुस्लिम समाज की जो समस्याएं हैं, कमोबेश अन्य तबके भी इनसे जूझ रहे हैं, पर वैसी असहिष्णुता और अराजकता वहां नहीं है। यह भी मुमकिन नहीं है दुनिया को उस मुकाम पर वापस लौटाया जा सके जहां राम-कृष्ण, बुद्ध-लाओत्से,मूसा-ईसा-मुहम्मद खड़े थे। बेहतर सोच और नज़रिया रखें तो हम इन विभूतियों का अस्तित्व हमेशा अपने इर्दगिर्द पाएंगे और उन्हीं से प्रकाशमान भविष्य की राह भी हमें नजर आएगी। धर्मों की कतार में इस्लाम सबसे युवा है। यानी उम्र के पायदान पर सबसे पीछे, मगर इल्म और नेकी में सबसे आगे निकलने की राह सब देख रहे हैं, क्योंकि इसी में दुनिया की भलाई है। 250 रुपए मूल्य की इस पुस्तक को ज़रूर पढ़ने की सलाह मैं सफर के साथियों को दूंगा।
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31 कमेंट्स:
बहुत अच्छी पुस्तक विवेचना की आपने........मैं इस पुस्तक को पढने की कोशिश करुंगा.
कुरान पढ़नी शुरु की है इन दिनों । मैं भी महसूस कर रहा हूँ कि इस ग्रंथ की व्याख्यायें शायद ठीक नहीं हुई । कुरान की आयतों में साफ-साफ सौहार्द्रपूर्ण जीवन के संदेश देख रहा हूँ मैं ।
यह पुस्तक जरूर पढ़ना चाहूँगा ।
सूरा अल फ़ातिहा की पहली लाइन ही है..
" अल्लाह के नाम से, जो अत्यन्त करूणामय और दयावान है ! "
इसके आगे की सात आयतों का शब्दार्थ है..
" प्रशंसा यह अल्लाह के लिये ही है, जो अखिल जगत का प्रभु है, अत्यन्त करूणामय औए दयावान है, फ़ैसला लिये जाने दिन का मालिक है । हम तेरी ही बन्दगी करते हैं और तुझी से मदद माँगते हैं । हमें सीधा मार्ग दिखा, उन लोगों का मर्ग जो तेरे कृपापात्र हुये, जो भटके हुये नहीं हैं । "
इतना कुछ लिखे होने और पढ़े जाने के बाद भी गड़बड़ कहाँ है ?
एक अविद्वान की दृष्टि से और साधारण समझ से मैंने पाया, कि.. इस्लामी कट्टरता एक असँतोष है, उनमें जो
पहले किसी स्वार्थ या उद्देश्य से मुसलमान बन गये थे ! सदियों के सुविधाजनक ज़िन्दगी के बाद आज अपने को बदहाल पाते हैं । नवाबों ज़मिंदारों ताल्लुकदारों के वँशज अपने पुरखों की ऎय्याशी की इंतिहाँ से आज दाने दाने को मोहताज़ हैं ।
दूसरा वह तबका है, जो इतना शिक्षित हो चुका है, कि अब वह बाकी दुनिया को सन्देह, दुविधा और अपने द्वारा परिभाषित ईमान में कमजोर ( ? ) पाता हैं ।
खाँटी मुसलमान समय के सँग चल रहा है, चाहे वह ईरान हो या फारस ! आक्राँताओं के फ़तेह की उपज का मुस्लिम आज भी अपने मानस में आक्राँताओं के फ़तेह को दोहराने का मध्ययुगीन सपना पाले हुये है । वह मौज़ूदा सच को स्वीकार नहीं पाता ।
खाद पानी देने को मज़हबी कठमुल्ले हैं, दीनी तालीम के नाम पर आयतें रटा दी जाती हैं, इससे आगे जाने पर अल्लाह के क़ुफ़्र का ख़ौफ़ दिखा बरज उन्हें दिया जाता है ! क्यॊकि वह दीन के नाम पर एक समानांतर सत्ता के ख़्वाब में ग़ाफ़िल हैं ।
सुबह सुबह एक विचारोत्तेजक आलेख मिला । अजित जी, आपने जिस तटस्थता से पुस्तक विवेचना की है, सराहनीय है । अलबत्ता यह पुस्तक मैं स्वयं भी पढ़ना चाहूँगा । सभी को आज का दिन शुभ हो ।
इस पुस्तक के प्रति उत्सुकता बढ़ा दी है आपने। कोशिस करता हूं पढ़ने की।
किताब पढनी पड़ेगी।
वडनेकर जी।
शब्दों के सफर में पुस्तक चर्चा उपयोगी रही।
आपने बहुत अच्छी पुस्तक विवेचना प्रस्तुत की है।
आभार।
शब्दों के सफ़र में इस्लाम पर सार्थक चर्चा ! दीगर बात यह कि आज दुनिया का सबसे विकृत धर्म अगर कोई है तो वह इस्लाम ही है -विकृतियां तो कमोबेश सभी धर्मों में समयांतर से आयीं पर जितना इस्लाम विकृत हुआ है उतना कोई भी नहीं ! कारण ? यह परले दर्जे का कट्टर धर्म है -नए ज्ञान को स्वीकारता नहीं है -कठमुल्ले भरे पड़े हैं ! और यही कारण है दुनिया भर में इस धर्म के प्रति लोगों में खीझ है -यह आज आतंकवाद का पर्याय बना बैठा है -और यह नासूर अब इतना बजबजा गया है कि खुद आत्मघाती बन गया -पाकिस्तान की सेना और तालिबानियों में इस पार उस पार की भिडंत जारी है -ध्यान रहे यह जमीन और संसाधनों ,मूल वाशिंदों सरीखी लडाई नहीं है -यह लडाई अल्लाह के नाम पर शैतान के खिलाफ लड़ी जा रही है ! क्या इससे भी बड़ी कोई बेवकूफी हो सकती है ! ये गुमराह लोग मानवता पर कितने भारी पड़ रहे हैं -ये मानव सभ्यता पर कलंक हैं ! मैं बेलगाम हुए इस लाम को धरती से मिटते देखना चाहूंगा !
इस्लाम की कुछ मूल मान्यताएं हैं, जो सारी समस्याओं की जड् हैं:
(१) मुहम्मद अंतिम पैगम्बर थ्e.
(२) क़ुरान अल्ला की वाणी है जिसमें सार्वजनीन सत्य है और् उसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता.
(३) सारे गैर मुस्लिम या तो दिम्मी हैं या क़ाफ़िर जिंहें किसी भी तरीके से दीन में लाना हर मुसलमान का पवित्र कर्तव्य है.
(४) उनके ख़िलॊफ़ लडना ज़िहाद है जो हर मुसलमान का पवित्र कर्तव्य है.
. . . .
इस्लाम का भाइचारा सिर्फ़् मुसलमानों के लिए है. बाकी जनता तो काफ़िर् है जिसे दोज़ख की आग में जलना है. दुर्भाग्य यह है कि इन प्रतिक्रियावादी, बेहूदी और अप्रासंगिक मान्यताओं के विरुद्ध मुस्लिम नेत्Rत्त्व कभी सामने नहीं आया. आए भी कैसे, ज़िबह थोडे होना है !
अधिकाँश विदेशी आक्रान्ता जो भारत को लूटने आये इस्लाम के मानने वाले थे लेकिन उनको महान भारत के सपूतो ने आमंत्रित किया था अपने दुश्मनों को नुक्सान पहुचाने के लिए .
धर्म कोई भी हो बिना तलवारों के उसका प्रसार नहीं हुआ चाहे वह इस्लाम हो ,बौद्ध हो या जैन .
एक अच्छी पुस्तक चर्चा ....लेकिन इस्लाम का बिना पूर्वाग्रह के अध्ययन हो तभी इस्लाम के बारे मे जान पायेंगे .
जिज्ञासा बढ गई है. शांत करनी ही पडेगी.
रामराम.
आपकी पुस्तक समीक्षा के सन्दर्भ में डॉ. अमर कुमार की टिप्पणी भी सारगर्भित और पठनीय है.
@डॉ अमरकुमार
इस्लामी समाज के अंतर्विरोध को बहुत सही स्पष्ट किया है आपने।
@गिरिजेश राव
आपने जो बिंदु उठाए है, उनमें सच्चाई है। इससे सभी सहमत होंगे।
@डॉ अरविंद मिश्र
क्या बात है डॉक्टर साहब...यह विडम्बना ही होगी किसी कि मज़हब के लिए कि वहां गुमराह लोगों की खासी तादाद हो....वे खुद को आलिम मानें और बदकारियों को नैतिक बताएं।
मुझे तो पाकिस्तान की पढ़ी लिखी जनता पर ताज्जुब होता है। कराची और लाहौर के क्लबों में इन्हें हर आधुनिकता से सराबोर देखिये...तथाकथित इस्लाम वहां नज़र नहीं आएगा।
आपने इसको देखनें पढनें के लिए आकर्षित किया है,इस्लाम को लेकर वैसे भी लोंगों में काफी गलतफहमियां भी हैं .
बात तो ये है कि ' इस्लामी कौम की जन सँख्या दुनिया भर मेँ बढ रही है और उन्हेँ दूसरे धर्मोँ के प्रति
सद्`भाव अपनाना जरुरी है - पुस्तक समीक्षा अच्छी रही
मैने शानी पर अपना शोधकार्य करते हुए पवित्र क़ुरान पढ़ी और पाया की वो दरअस्ल ज़िंदगीं को तरतीब से जीने का एक संविधान है. क़ुरान से पहले के बर्बर अरबी समाज को ऐसी किताब की सख़्त ज़रूरत थी और मोहम्मद साहब ने वो उन्हें दी.
अब ईश्वर और परलोक अपने दिमाग़ से बाहर है इसलिए उस पर कोई टिप्पणी नहीं. इतना फिर कहूँगा की क़ुरान का पक्ष मानवता का पक्ष है !
@शिरीष कुमार मौर्य
सच है शिरीष भाई,
धर्म तो लगभग सभी सही राह ही दिखलाते हैं। सारी दिक्कत उनकी व्याख्याओं और कालांतर में उसके आनुष्ठानिक रूपांतर की वजह से है। इसके बाद ही मुल्ला, मौलवी, पंडित, ओझा, तांत्रिक, बैगा सब पैदा होते हैं।
सहज भी इतना सहज कहां रहा इन सूफियों-कलंदरों-बाऊलों के चक्कर में !!
अच्छा लगा कि आपने भी शानी पर काम किया। मेरा एमए का शोधप्रबंध शानी के साहित्य पर ही था। 1982 में लिखा था। दिल्ली में उनसे कई मुलाकातें कीं। बाद में उसके एक अध्याय का संचयन नेशनल पब्लिशिंग हाऊस से प्रकाशित शानीःआदमी और अदीब में हुआ।
डा. अमर जी ने सौ फी सदी मेरे मन की बात कह दी.
आपके विवेचन से लगता है यह किताब ज़रूर पढ़ी जानी चाहिए मगर मुस्लिम जगत इस किताब को कहीं अपने खिलाफ फतवा न समझ ले.
वैसे सच तो यह है कि भारत में हिन्दू-मुस्लिम का गणित देखकर, धार्मिक प्राणी न होते हुए और ईश्वर को अपने दायरे से बाहर की बात मानते हुए भी, कई बार अपने को कट्टर हिन्दू महसूस करता हूँ और इसकी वजह मुस्लिम समाज न होकर धर्म पर होने वाली राजनीति है.
बहुत सही लिखा है आपने. मुस्लिम-गैर मुस्लिम का विवाद, विरोध कुछ तर्कों के सहारे ही मिट सकता है.
हमेशा की तरह सुन्दर जानकारी देने के लिए आभार.
पुस्तक किसीको खुश करने के लिए नहीं लिखी जाती है.और कट्टरपंथी तो हर हाल में किसी पुस्तक से खुश नहीं होते न ही किसी कविता कहानी या लेख से (सन्दर्भ देवीप्रसाद मिश्र की कविता "मुसलमान")यह तो हमारे आपके जैसे लोगों के लिए है (वे लोग पुस्तके पढ़ते ही कहाँ है!)और निश्चित ही लोगों को यह पुस्तक पसंद आयेगी .बहरहाल इसी तरह पुस्तक चर्चा प्रस्तुत करते रहे .मै भी यदा कदा पुस्तक समीक्षा लिखता हूँ .मेरे लायक सेवा हो तो बताएं ..
इतनी सुन्दर समीक्षा के लिए धन्यवाद. डा. अमर कुमार के विचारों से पूर्ण सहमति है.
@शरद कोकास
भाई, आपकी बात में थोड़ा संशोधन करना चाहूंगा। साहित्य किसी को खुश करने के लिए नहीं रचा जाता, अलबत्ता किताबें तो इस नज़रिये और मक़सद से खूब लिखी जाती हैं। हालांकि आपका आशय भी साहित्यिक पुस्तकों से ही रहा है, यह मैं जानता हूं। प्रस्तुत चर्चा में मैने खुश करनेवाली बात इसलिए लिखी क्योंकि एक पत्रकार होने के नाते इस तुष्टिकरण की पड़ताल करना मेरे स्वभाव और पेशे का हिस्सा है:)
धीरूभाई जरा बता दें कि जैन धर्म का प्रसार तलवार से कैसे हुआ तो ज्ञान वर्धन हो जाएगा.
मुसलमानों की सबसे बड़ी तकलिफ हर बात को कुरान में खोजने कि रही है. यह लेख (समीक्षा) भी कुरान की मात्र प्रशंसा करता लग रहा है. बाकी अरविन्द मिश्रा ने लिखा ही है.
@संजय बैंगाणी
पुस्तक चर्चा का उद्धेश्य सार्थक चर्चा है। किसी को खुश करने का मंच नहीं है यह। ताज्जुब है कि इसमें आपको कुरान की प्रशंसा नज़र आई। यहां पुस्तक पर चर्चा हुई है,उसमें उल्लेख्य बातों के आधार पर। न तो प्रशंसा उद्धेश्य था और न आलोचना। मेरे हाथों में समीक्ष्य पुस्तक है, न कि कुरान:)
पढना होगी पुस्तक ।
ये पुस्तक अपने रूचि की लग रही है. पढ़ी जायेगी. टिपण्णी में बड़ी सार्थक चर्चा हुई है.
बहुत अच्छी जानकारी,
बड़े काम की किताब है यह.
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आपकी हर पोस्ट तिश्नगी बढ़ा देती है.
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
किसी मुसलमान की इस पे टिपण्णी न होना खटकता है
धीरू भाई बता नहीं पाए की जैन धर्म का प्रसार तलवार के बल पर कैसे हुआ. संजय बैंगाणी जी ने भी पूछा था. मेरा विनम्र निवेदन है की बिना पुरे अध्ययन एवं सामग्री के कोई आक्षेप नहीं करना चाहिए. ऐसा आक्षेप तो व्यक्तिगत चर्चा में भी अनुचित है फिर यह तो एक प्रकार का सार्वजनिक मंच है. समझदारी तो इसमें होती है कि त्रुटि का परिमार्जन कर लिया जाए. वैसे तो यह भी अपनी -अपनी सोच, समझ एवं संस्कारों पर निर्भर करता है. के० के०
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