.पुस्तक चर्चा में इस बार प्रख्यात लेखक डॉ भगवतशरण उपाध्याय की चर्चित कृति पुरातत्व का रोमांस पर बात। यह पुस्तक करीब चार दशक पहले प्रकाशित हुई थी। किताबों के शौकीनों के लिए यह पुस्तक दिलचस्प साबित होगी। इतिहास पुरातत्व में रुचि रखनेवालों को तो इसे पढ़ना ही चाहिए। इस पुस्तक के ज्यादातर आलेख मैने स्कूली जीवन के दौरान धर्मयुग में पढ़े थे जिनके जरिये मेरी कल्पनाशक्ति को खूब विस्तार मिला। 180 पृष्ठ की पुस्तक के हार्डबाऊंड संस्करण का मूल्य है 150 रुपए और इसे भारतीय ज्ञानपीठ ने प्रकाशित किया है।
सु प्रसिद्ध लेखक, चिंतक
डॉ भगवतशरण उपाध्याय का अगले साल जन्मशताब्दी वर्ष है। डॉ.उपाध्याय इतिहास, कला, संस्कृति, पुरातत्व के मर्मज्ञ थे। इन विषयों को आम लोगों में लोकप्रिय बनाने में उनकी सरस लेखन शैली का बड़ा योगदान रहा है।
प्रख्यात विद्याविद डॉ भगवतशरण उपाध्याय का जन्म 1910 में हुआ। वे अन्तरराष्ट्रीय ख्याति के विद्वान थे। यूरोप-अमेरिका के कई शिक्षा संस्थानों में विजिटिंग प्रोफेसर और भारत की कई शीर्ष संस्थाओं में वरिष्ठ पदों पर रहे, 1982 में मारीशस के राजदूत पद पर जब वे तैनात थे, तब उनका निधन हुआ।
इतिहास और पुरातत्व के प्रति उनका अगाध लगाव था। उनके भीतर लेखक और अन्वेषक एक साथ जागृत रहता था। इसके अतिरिक्त उन्होने साहित्यिक निबंध, कहानियां, रिपोर्ताज, नाटक, समीक्षा, यात्रावृत्त, कोश और प्रचूर मात्रा में बाल साहित्य पर करीब सौ ग्रन्थ लिखे। उनके जन्मशताब्दी वर्ष में उम्मीद है कि इस अमूल्य साहित्यिक निधि में से कुछ श्रेष्ठ कृतियों का पुनर्प्रकाशन करने की दिशा में ज़रूर प्रकाशक और शिक्षा संस्थान सोचेंगे।
हाल ही में उनकी चर्चित पुस्तक पुरातत्व का रोमांस कई वर्षों बाद सामने आई है। इसका पुनर्प्रकाशन किया है भारतीय ज्ञानपीठ ने। इसका प्रथम संस्करण करीब चालीस साल पहले ज्ञानपीठ ने ही 1967 में निकाला था। इसके आमुख में खुद डॉ उपाध्याय लिखते हैं-“पुरातत्व का रोमांस जैसा कोई प्रकाशन भारतीय भाषाओं में नहीं हुआ।” दुनियाभर में जहां पुरातात्विक खोजें लगातार चल रही हैं और लगातार मानवेतिहास से जुड़े नए नए तथ्यों का लगातार उद्घाटन हो रहा है, यह हिन्दी के लिए बड़े आश्चर्य की बात है चार दशक बीत जाने के बाद भी उसी पुस्तक का प्रकाशन हो रहा है। इस बीच कोई नई कृति इस विषय में सामने नहीं आई। हिन्दी में कहानी, कविता और उपन्यास तो खूब मिल जाएंगे, आलोचना पर भी सवा-सत्ताईस किताबे हर साल निकलती हैं मगर इससे हटकर अन्य विधाओं-विषयों में पुस्तकों का प्रकाशन नहीं के बराबर होता है। पुरातत्व का रोमांस पुस्तक डॉ उपाध्याय की प्राचीन सभ्यताओं के उत्खनन स्थलों की बरसों तक की गई लगातार यात्राओं का परिणाम है।
हजारों वर्ष पुराने पत्थरों, मिट्टी के टुकड़ो, हड्डियों के हिस्सों और खंडित प्रतिमाओं में ऊपरी तौर पर चाहे किसी को आकर्षण नज़र न आए, मगर इनमें एक रोमांस छुपा है। अतीत से लगाव मनुष्य का स्वभाव है। सिर्फ निकट इतिहास तक इस लगाव को देखने के आदी लोग शायद इस रोमांस को
महसूस न कर सकें। इतिहास को पौराणिक आख्यानों के जरिये समझनेवालों नें तो समाज की ऐतिहासिक चेतना को जबर्दस्त नुकसान पहुंचाया है। लोग राजा-महाराजाओं की प्रेम कहानियों अथवा युद्धों की वीरगाथाओं को ही इतिहास समझ बैठे हैं जो प्राचीन ग्रंथों में दर्ज है। दरअसल इतिहास इन सबसे परे वहां अपने असली रूप में ठिठका खड़ा है जहां उसे काल ने दफ्न कर दिया था। यह रोमांस तब उपजता है जब ज़मीन में दबी शिलाओं, अस्थियों, शिलाखंडों के बीच से सदियों पूर्व के जीवन उभर कर मूर्त होने लगता है। पुरातत्वेत्ता और इतिहासकार जब ठिठके खड़े इतिहास तक पहुंचते हैं तब यह रोमांस उभरता है। प्रस्तुत पुस्तक में दुनियाभर के प्रसिद्ध पुरातात्विक उत्खनन स्थलों के बारे में सपाट ब्योरा नहीं है बल्कि इन सभी स्थानों पर जाकर डॉ उपाध्याय ने उस रोमांस को महसूस किया है। इनमें से कुछ स्थानों के उत्खनन में वे स्वयं भी शामिल थे। मिस्र में तुतनखामुन के मकबरे की खोज, ईस्वी ’79 में रोम के हरकुलेनियम और पाम्पेई नगरों के ज्वालामुखी फटने से लुप्त हो जाने की घटना और फिर सत्रहवी सदी में इन अभिषप्त नगरों के अवशेषों के मिलने की सनसनीखेज़ घटना जिसके बाद ही दो हजार साल पुराना वह इतिहास सामने आया जिसे लोग सिर्फ पौराणिक कथा मानते थे।
दुनियाभर की सभ्यताओं और धर्मग्रंथों में जिस जलप्रलय का उल्लेख है, उसकी सत्यता को प्रमाणित करनेवाली विश्व की महानतम पुरातात्विक खोज का रोमांचक वर्णन भी पुस्तक में है। 19वी सदी के मध्य में ईस्ट इंडिया कंपनी के कारिंदे कर्नल रॉलिंसन ने ईरान में तैनाती के दौरान पुरातात्विक स्थलों की खूब खाक छानी। उसने कीलाक्षर लिपि पढ़ डाली। जलप्रलय की गाथा का पहला लिखित प्रमाण इन्ही कीलाक्षरों में मिला था। शिलाओं, मिट्टी की ईंटों पर उत्कीर्ण साहित्य विश्व के प्राचीनतम लिखित दस्तावेज हैं। वर्तमान के प्रतीकों की पुष्टि जब अतीत के प्रतीकों अर्थात पुरातात्विक प्रमाणों से हो जाती है तब सच्चा इतिहास जीवंत होता है। धर्म, पुराण और गाथाओं से परे। अतीत का रोमांस, पुरातत्व का रोमांस यहीं उभरता है।
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14 कमेंट्स:
bhagavat sharan ki kitab burjiyo ke pichhe ko padhane ka bad se mai unke likhe ka murid ho gya.....
mahan vidvan ko sradhanjali.
mai aapke blog ko apne blog role me lagaa rahaa hu ummid hai aapki sajmati mil jayegi...
@रंगनाथसिंह
भाई,
डॉक्टर साहब का मैं बचपन से फैन हूं। इनकी वजह से ही मुझे पुरातत्व, इतिहास, भाषाविज्ञान में दिलचस्पी जागी। कुछ लोग डॉक्टसाब के वामपंथी रुझान के चलते उनकी इतिहास संस्कृति विषयक व्याख्याओं और विवेचनाओं को स्वीकार नहीं करते मगर ऐसा करते हुए वे उनकी विद्वत्ता का अनादर भी करते पाए गए हैं। खैर, यह तो होता ही रहा है।
शब्दों का सफर को अपने ब्लागरोल में स्थान देने का शुक्रिया। याद रखें, शब्दों का सफर सामूहिक चिट्ठा ज़रूर नहीं है, पर इसका दायरा और साझेदारी आप सबसे है। एक तरह से यह मेरा नहीं, आप सबका ब्लाग है। सो इसमें पूछने की कोई बात ही नहीं। यहां सिर्फ साझेदारी चाहिये। सहयात्री के रूप में भी और शब्दयात्री के रूप में भी।
dhanyvad aap ka blog likhne padhne me ruchi rakhne walo ke liye, sabse
priy sahitya hai
"हाल ही में उनकी चर्चित पुस्तक पुरातत्व का रोमांस का कई वर्षों बाद सामने आई है।" में से दूसरा 'का' हटाइए।
यह पुस्तक तो खरीदनी और पढ़नी पड़ेगी। मूल्य कितना है ?
महनीय लेखक की उल्लेखनीय़ कृति का पुनः प्रकाशन कर ज्ञानपीठ ने महत्वपूर्ण काम किया है । इसकी चर्चा का आभार ।
बहुत सराहनिय कार्य है. आभार आपका इस सूचना के लिये.
रामराम.
डॉ भगवतशरण उपाध्याय का तो मैं भी ऋणी हूँ, उन की पुस्तकों से बहुत कुछ सीखने को मिला है। यह पुस्तक अब उपलब्ध है यह नए पाठकों के लिए सौभाग्य की बात है।
मैंने यह किताब पढ़ी है। हाल ही में। बहुत ही अच्छी है। सबको पढ़ना चाहिए।
यह किताब जल्द ही पढना चाहूंगा
भगवत जी अपने तरह के जीनियस थे।
सचमुच सराहनीय!
अच्छी चर्चा रही."जलप्रलय की गाथा का "पहला लिखित प्रमाण" नहीं बल्कि प्राचीनतम "वर्णन" कहना ज़्यादा स्पष्ट रहेगा शायद.
अवसर मिला तो इस पुस्त् को अवश्य पढ़ूँगा।
सफर मे यह चर्चा अचेछी रही।
बधाई।
आपकी पुस्तक चर्चा मुझे भी पुस्तक पढने को प्रेरित कर रही है
विक्रम विस्वविद्यालय मे भगवत्शरण जी और वाकण्कर जी का सानिध्य मुझे मिला एक मार्क्सवादी एक रा.स्व. संघ के कार्यकर्ता , मै दोनो के ही पास जाया करता था । मेरा द्वन्दात्मक विकास क्यों हुआ आप समझ सकते है । इसीका परिणाम है 53 पृष्ठो की मेरी लम्बी कविता "पुरातत्व वेत्ता " जो शीघ्र ही आप्को किसी ब्लॉग पर देखने को मिलेगी बहर हाल यह पुस्तक अवश्य पढ़ें
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