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Monday, August 17, 2009
सलामत रहे अदब-ऐ-सलाम…
...सलामत या सलामती भी स-ल-म धातु से निकले ऐसे शब्दों में शामिल हैं जो उर्दू के साथ साथ हिन्दी में भी हैं...
पिछली कड़ी- हैलो! हाय!! प्रणाम!!! नमस्ते!!!! अ रबी का शब्द सलाम यूं तो अभिवादन और शिष्टाचार का एक ऐसा शब्द है जो हैलो और नमस्कार की तरह लगभग समूचे विश्व में समझा जाता है। दिलचस्प बात यह कि सलाम और इससे मिलते-जुलते कई शब्द भी प्रचलित हैं जिनका जन्म एक ही मूल से हुआ है। इस्लाम धर्म के अनुयायियों में सामान्य अभिवादन प्रायः अस्सलाम अलैकुम से होता है जिसका प्रत्युत्तर वालैकुम अस्सलाम कह कर दिया जाता है।
सलाम salaam बना है सेमिटिक भाषा परिवार की धातु s-l-m यानी स-ल-म (अरबी लिपि में सीन-लाम-मीम) जिसका मूल भाव है। इस धातु में सर्वव्यापी, सुरक्षित और अखंड जैसे भाव हैं। जाहिर है ये वही तत्व हैं जिनसे शांति उपजती है। इस्लामी परम्परा के मुताबिक जब अस्सलाम अलैकुम कहा जाता है तो दरअसल उस व्यक्ति पर ईश्वर की कृपा की कामना की जा रही होती है। वालैकुम अस्सलाम कह कर वह व्यक्ति भी ऐसी ही कामना के साथ प्रत्युत्तर देता है। स-ल-म धातु से कई अन्य शब्द भी बने हैं जो अरबी, फारसी, उर्दू में प्रचलित हैं तथा हिन्दी परिवेश भी इनसे परिचित हैं। ऐसे ही शब्द है सलामत या सलामती जिसमें कुशल-क्षेम का भाव है। यूं सलामत का अर्थ होता है जीवित, पूर्ण, सुरक्षित, स्वस्थ आदि मगर इसके मूल में शांति ही है। इसी तरह किसी वरिष्ठ, अधिकारी अथवा बुजुर्ग को इज्जत बख्शने के लिए उसका विशिष्ट अंदाज़ में अभिवादन किया जाता है। अंग्रेजी में अभिवादन के जिस प्रकार को सेल्यूट कहते हैं वही अरबी संस्कृति में सलामी है। सलाम, सलामत, सलामती की तरह सलामी भी हिन्दी में खूब प्रचलित शब्द है।
इस्लाम शब्द के पीछे भी यही धातु s-l-m है जिसका मतलब शांति है। इस्लाम दरअसल अरबी शब्द अस्लम से बना है जिसका मतलब है बहुत सहिष्णु, बहुत सुरक्षित, बहुत निश्चिन्त। धर्म या पंथ के तौर पर इस्लाम में एकेश्वरवाद का संदेश है और वह है s-l-m में निहित अखंडता का भाव। ‘इश्वराज्ञा’, ‘समर्पण’ और ‘शरण में’ एकेश्वरवाद के ये तीन तत्व बहुत महत्वपूर्ण हैं। हिन्दी उर्दू का मसलमान शब्द भी इसी कड़ी का हिस्सा है। अरबी में इसके लिए मुस्लिमुन शब्द है। तुर्की में इसका रूप मुस्लमान और उर्दू-हिन्दी में मुसलमान हुआ। कुछ लोगमुसलम-ईमान अर्थात 'जो सत्य पर अडिग रहे', को भी मुसलमान शब्द की व्युत्पत्ति मानते हैं । सत्य ही ईश्वर है। ईश्वर एक है। भाव यही है कि एक ईश्वर में आस्था रखनेवाला व्यक्ति ही मुसलमान है। इस्लाम एकेश्वरवादी पंथ है सो इस्लाम के अनुयायी मुसलमान हुए। इसी कड़ी से जुड़े सलीम(गंभीर, शांत, तंदुरुस्त), तस्लीम(कुबूल, स्वीकार, समर्पण आदि) जैसे कई अन्य शब्द भी हैं। चूंकि s-l-m सेमिटिक धातु है इसलिए हिब्रू में भी इसी आशय के शब्द बने हैं जैसे सलाम के लिए हिब्रू में शालोम शब्द है।
सलाम की तरह ही अरबी का आदाब शब्द भी अभिवादन के लिए प्रचलित है। बरास्ता फारसी, उर्दू यह हिन्दी में भी खूब जाना पहचाना है। यह बना है सेमिटिक धातु अ-द-ब(अलिफ-दाल-बा) से जिसकी अर्थवत्ता बहुत व्यापक है। मूल रूप से इस धातु में सहभोज करना, सहभोज के लिए लोगों को निमंत्रित करने का भाव समाया है। जाहिर सी बात है भोजन जिसे ईश्वर का प्रसाद माना जाता है, जिसे हासिल करने के लिए ही तमाम जतन होते हैं, उस प्रसाद को पाने के बाद सबके साथ उसका भोग लगाने से बड़ा संस्कार-शिष्टाचार और कोई नहीं। फारस की दस्तरख्वान और कश्मीर की वाज़वान परम्परा की तरह अरबी में सहभोज के लिए मादुबा शब्द है जो इसी मूल से बना है। इसीलिए बाद में इस्लाम धर्म के तहत अ-द-ब से बने अदब में ईश्वर की बनाई दुनिया में जो कुछ भी सुंदर, सराहनीय संस्कार, कायदे, नियम, आचार-व्यवहार आदि हैं, वह सब इस शब्द के दायरे में आ गए। इस्लामी दर्शन और सिद्धांतों की व्याख्या विवेचना का काम भी अदब के दायरे में आया। ऐसे व्याख्याकार, टीकाकार अदीब कहलाए। बाद में इस्लाम के दायरे से बाहर अन्य विषयों की मीमांसा को भी अदब में शामिल किया जाने लगा। आज अदब शब्द का मतलब होता है शिष्टता, सभ्यता, तमीज़, आदर, सत्कार, साहित्य, कला, बुद्धि आदि। इसी गुणी और चमत्कारी शब्द का बहुवचन है आदाब। जिस शब्द के दायरे में तमाम संस्कृति और शिष्टाचार समाए हों, इस्लामी परम्परा में बतौर अभिवादन इस शब्द का बहुवचन ही सबसे उचित शब्द समझा गया है।
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 12:29 AM
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17 कमेंट्स:
अभिवादन के इन प्रचलित शब्दो में निहित अर्थगाम्भीर्य को कुशलता से रेखांकित किया है आपने । आदाब की व्यापक अर्थवत्ता ने प्रभावित किया ।
बहुत महत्वपूर्ण मिल बांट कर उपभोग करना, मादुबा से अदब और अदीब बने। अर्थात मिल बांट कर उपभोग करना बेअदबी है। काशः लोग अदब का ये अर्थ समझ पाएँ।
आदाब को बेहतरी से जाना।आभार।
एक बार फिर बेमिसाल पोस्ट. आप की पोस्ट्स क्लास हैं जहां हर बार कुछ सीखने को मिलता है. अब हम कितना याद रख पाते हैं ये अलग बात है.
आदरणीय अजीत भाई,अदब, आदाब और अदीब के अजीब रिश्तों को करीब से देखने का अवसर देने के लिए आभार स्वीकारें ,
आपकी कलम रचनाधर्मिता और नवोन्मेष के नूतन आयामों का संस्पर्श कर रही है ,आपकी निरंतरता,शोध और प्रस्तुतीकरण सभी अनुकरणीय हैं,
सादर,
भूपेन्द्र
अदब की सभ्यता को आदाब।
आदत-ए-अदब को आदाब।
ज़नाब आदाब-अर्ज़ है !
इस्लामी संस्कृति में अदब की बहुत गहरी पैठ है उर्दू सिखाने की किताबों के नाम ही भाषा के बजाय अदब से शुरू होते है जैसे, ''उर्दू अदब की पहली क़िताब" ! इसी तरह सलाम के सम्बन्ध में मान्यता है कि सलाम का ज़वाब देने पर एक नेकी मिलती है जबकि पहले सलाम करने वाले बन्दे को खुदा दो नेकियाँ देता है |
शुक्रिया !!
अदब लिख रहे है, अदब रच रहे है,
समझ को बढ़ा कर ग़ज़ब कर रहे है.
डाँ. भूपेंद्र कुमार सिंह ने सही आकलन किया है आपकी कोशिशों का.
बचपन से ही इन पंक्तियों को आत्म सात कर रखा है जो अपने वालिद मरहूम की जुबानी सुनता रहा था....
# अदब से ही इंसान इंसान है,
अदब जो न सीखे वह है हैवान है.
तस्लीम अर्ज़ है !
अभिवादन के इन प्रचलित शब्दो पर फिर एक बेमिसाल पोस्ट.....शुक्रिया !!
अस्सलाम अलैकुम काफिरों से नहीं कहा जाता इसलिए आदाब अर्ज है
अच्छा, सलाम भी उतना मजहबी है जितना "जै श्री राम" या "सत श्री अकाल"!
सच कहूँ तो पहली बार इस्लाम का शाब्दिक सुन्दर रूप जानने का अवसर मिला आपके इस आलेख के माध्यम से....बड़ी ही सुखद अनुभूति हुई...
मेरा विश्वास है की विश्व के सभी मत का आधार सात्विक सुख शांति की कामना ही है,परन्तु बड़ा ही अफसोश होता है जब धर्म/पंथ विशेष के मतावलंबियों को हिंसा के मार्ग पर चलते देखती हूँ....
आपकी शब्दयात्रा का यह पड़ाव ज्ञानवर्धक ही नहीं अपितु गहन विचारणीय भी रहा....
इस अप्रतिम आलेख हेतु आपका बहुत बहुत आभार..
इसलाम में ही सलाम शब्द भी निहित है और आदाब में अदब हमेशा की तरह ज्ञान वर्धन करने वाली पोस्ट.
बहुत अच्छी पोस्ट है: आभार !
आपका यह ब्लाग बहुत ही उपयोगी और सार्थक है! आप तमाम लोगों को महत्त्वपूर्ण जानकारी देने के साथ-साथ हिंदी भाषा के प्रति प्रेम जगाने का महत्त्वपूर्ण कार्य भी कर रहे हैं! गागर में सागर भरने का महत्त्वपूर्ण कार्य करने हेतु हार्दिक साधुवाद!
मैं ऐसा मनाता रहा कि इस्लाम में 'ईश' और 'सलाम' की कहीं कोई संधि है.
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