शब्दों को
रटते हुए
बुढ़ाती रहीं
पीढ़ियां
शब्दों को
अर्थ से जोड़ कर
बरतना
उन्हें
तब भी न आया
-7 अप्रैल, 2010
बहुत शोधपरक, उपयोगी और महत्वपूर्ण जानकारियां। हिंदी में इतनी संलग्नता के साथ ऐसा परिश्रम करने वाले विरले ही होंगे।
'शब्दों का सफर' मुझे व्यक्तिगत रूप से हिन्दी का सबसे समृद्ध और श्रमसाध्य ब्लॉग लगता रहा है।
आप के समर्पण और लगन के लिए मेरे पास ढेर सारी प्रशंसा है और काफ़ी सारी ईर्ष्या भी।
सच कहूँ ,ब्लॉग-जगत का सूर और ससी ही है शब्दों का सफ़र . बधाई.... अंतर्मन से
लिखते रहें. यह मेरे इष्ट चिट्ठों मे से एक है क्योंकि आप काफी उपयोगी जानकारी दे रहे हैं.
थोड़े में कितना कुछ कह जाते हैं आप. आपके ब्लाँग का नियमित पारायण कर रहा हूं और शब्दों की दुनिया से नया राब्ता बन रहा है.
आपकी मेहनत कमाल की है। आपका ये ब्लॉग प्रकाशित होने वाली सामग्री से अटा पड़ा है - आप इसे छपाइये !
बेहतरीन उपलब्धि है आपका ब्लाग! मैं आपकी इस बात की तारीफ़ करता हूं और जबरदस्त जलन भी रखता हूं कि आप अपनी पोस्ट इतने अच्छे से मय समुचित फोटो ,कैसे लिख लेते हैं.
सोमाद्रि
इस सफर में आकर सब कुछ सरल और सहज लगने लगता है। बस, ऐसे ही बनाये रखिये. आपको शायद अंदाजा न हो कि आप कितने कितने साधुवाद के पात्र हैं.
शब्दों का सफर मेरी सर्वोच्च बुकमार्क पसंद है -मैं इसे नियमित पढ़ता हूँ और आनंद विभोर होता हूँ !आपकी ये पहल हिन्दी चिट्ठाजगत मे सदैव याद रखी जायेगी.
भाषिक विकास के साथ-साथ आप शब्दों के सामाजिक योगदान और समाज में उनके स्थान का वर्णन भी बडी सुन्दरता से कर रहे हैं।आपको पढना सुखद लगता है।
आपकी मेहनत को कैसे सराहूं। बस, लोगों के बीच आपके ब्लाग की चर्चा करता रहता हूं। आपका ढिंढोरची बन गया हूं। व्यक्तिगत रूप से तो मैं रोजाना ऋणी होता ही हूं.
आपकी पोस्ट पढ़ने में थोड़ा धैर्य दिखाना पड़ता है. पर पढ़ने पर जो ज्ञानवर्धन होताहै,वह बहुत आनन्ददायक होता है.
किसी हिन्दी चिट्ठे को मैं ब्लागजगत में अगर हमेशा जिन्दा देखना चाहूंगा, तो वो यही होगा-शब्दों का सफर.
निश्चित ही हिन्दी ब्लागिंग में आपका ब्लाग महत्वपूर्ण है. जहां भाषा विज्ञान पर मह्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध रह्ती है. 
good,innovative explanation of well known words look easy but it is an experts job.My heartly best wishes.
चयन करते हैं, जिनके अर्थ को लेकर लोकमानस में जिज्ञासा हो सकती हो। फिर वे उस शब्द की धातु, उस धातु के अर्थ और अर्थ की विविध भंगिमाओं तक पहुँचते हैं। फिर वे समानार्थी शब्दों की तलाश करते हुए विविध कोनों से उनका परीक्षण करते हैं. फिर उनकी तलाश शब्द के तद्भव रूपों तक पहुंचती है और उन तद्बवों की अर्थ-छायाओं में परिभ्रमण करती है। फिर अजित अपने भाषा-परिवार से बाहर निकलकर इतर भाषाओँ और भाषा-परिवारों में जा पहुँचते हैं। वहां उन देशों की सांस्कृतिक पृष्टभूमि में सम्बंधित शब्द का परीक्षणकर, पुनः समष्टिमूलक वैश्विक परिदृश्य का निर्माण कर देते हैं। यह सब रचनाकार की प्रतिभा और उसके अध्यवसाय के मणिकांचन योग से ही संभव हो सका है। व्युत्पत्तिविज्ञान की एक नयी और अनूठी समग्र शैली सामने आई है।
16.चंद्रभूषण-
[1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8 .9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 17. 18. 19. 20. 21. 22. 23. 24. 25. 26.]
15.दिनेशराय द्विवेदी-[1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. 22.]
13.रंजना भाटिया-
12.अभिषेक ओझा-
[1. 2. 3.4.5 .6 .7 .8 .9 . 10]
11.प्रभाकर पाण्डेय-
10.हर्षवर्धन-
9.अरुण अरोरा-
8.बेजी-
7. अफ़लातून-
6.शिवकुमार मिश्र -
5.मीनाक्षी-
4.काकेश-
3.लावण्या शाह-
1.अनिताकुमार-
शब्दों के प्रति लापरवाही से भरे इस दौर में हर शब्द को अर्थविहीन बनाने का चलन आम हो गया है। इस्तेमाल किए जाने भर के लिए ही शब्दों का वाक्यों के बाच में आना जाना हो रहा है, खासकर पत्रारिता ने सरल शब्दों के चुनाव क क्रम में कई सारे शब्दों को हमेशा के लिए स्मृति से बाहर कर दिया। जो बोला जाता है वही तो लिखा जाएगा। तभी तो सर्वजन से संवाद होगा। लेकिन क्या जो बोला जा रहा है, वही अर्थसहित समझ लिया जा रहा है ? उर्दू का एक शब्द है खुलासा । इसका असली अर्थ और इस्तेमाल के संदर्भ की दूरी को कोई नहीं पाट सका। इसीलिए बीस साल से पत्रकारिता में लगा एक शख्स शब्दों का साथी बन गया है। वो शब्दों के साथ सफर पर निकला है। अजित वडनेरकर। ब्लॉग का पता है http://shabdavali.blogspot.com दो साल से चल रहे इस ब्लॉग पर जाते ही तमाम तरह के शब्द अपने पूरे खानदान और अड़ोसी-पड़ोसी के साथ मौजूद होते हैं। मसलन संस्कृत से आया ऊन अकेला नहीं है। वह ऊर्ण से तो बना है, लेकिन उसके खानदान में उरा (भेड़), उरन (भेड़) ऊर्णायु (भेड़), ऊर्णु (छिपाना)आदि भी हैं । इन तमाम शब्दों का अर्थ है ढांकना या छिपाना। एक भेड़ जिस तरह से अपने बालों से छिपी रहती है, उसी तरह अपने शरीर को छुपाना या ढांकना। और जिन बालों को आप दिन भर संवारते हैं वह तो संस्कृत-हिंदी का नहीं बल्कि हिब्रू से आया है। जिनके बाल नहीं होते, उन्हें समझना चाहिए कि बाल मेसोपोटामिया की सभ्यता के धूलकणों में लौट गया है। गंजे लोगों को गर्व करना चाहिए। इससे पहले कि आप इस जानकारी पर हैरान हों अजित वडनेरकर बताते हैं कि जिस नी धातु से नैन शब्द शब्द का उद्गम हुआ है, उसी से न्याय का भी हुआ है। संस्कृत में अरबी जबां और वहां से हिंदी-उर्दू में आए रकम शब्द का मतलब सिर्फ नगद नहीं बल्कि लोहा भी है। रुक्कम से बना रकम जसका मतलब होता है सोना या लोहा । कृष्ण की पत्नी रुक्मिणी का नाम भी इस रुक्म से बना है जिससे आप रकम का इस्तेमाल करते हैं। ऐसे तमाम शब्दों का यह संग्रहालय कमाल का लगता है। इस ब्लॉग के पाठकों की प्रतिक्रियाएं भी अजब -गजब हैं। रवि रतलामी लिखते हैं कि किसी हिंदी चिट्ठे को हमेशा के लिए जिंदा देखना चाहेंगे तो वह है शब्दों का सफर । अजित वडनेरकर अपने बारे में बताते हुए लिखते हैं कि शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर भाषा विज्ञानियों का नज़रिया अलग अलग होता है। मैं भाषाविज्ञानी नहीं हूं, लेकिन जज्बा उत्पति की तलाश में निकलें तो शब्दों का एक दिलचस्प सफर नजर आता है। अजित की विनम्रता जायज़ भी है और ज़रूरी भी है क्योंकि शब्दों को बटोरने का काम आप दंभ के साथ तो नहीं कर सकते। इसीलिए वे इनके साथ घूमते-फिरते हैं। घूमना-फिरना भी तो यही है कि जो आपका नहीं है, आप उसे देखने- जानने की कोशिश करते हैं। वरना कम लोगों को याद होगा कि मुहावरा अरबी शब्द हौर से आया है, जिसका अर्थ होता है परस्पर वार्तालाप, संवाद । शब्दों को लेकर जब बहस होती है तो यह ब्लॉग और दिलचस्प होने लगता है। दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के नोएडा का एक लोकप्रिय लैंडमार्क है- अट्टा बाजार। इसके बारे में एक ब्लॉगर साथी अजित वडनेरकर को बताता है कि इसका नाम अट्टापीर के कारण अट्टा बाजार है, लेकिन अजित बताते हैं कि अट्ट से ही बना अड्डा । अट्ट में ऊंचाई, जमना, अटना जैसे भाव हैं, लेकिन अट्टा का मतलब तो बाजार होता है। अट्टा बाजार । तो पहले से बाजार है उसके पीछे एक और बाजार । बाजार के लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द हाट भी अट्टा से ही आया है। इसलिए हो सकता है कि अट्टापीर का नामकरण भी अट्ट या अड्डे से हुआ हो। बात कहां से कहा पहुंच जाती है। बल्कि शब्दों के पीछे-पीछे अजित पहुंचने लगते हैं। वो शब्दों को भारी-भरकम बताकर उन्हें ओबेसिटी के मरीज की तरह खारिज नहीं करते। उनका वज़न कम कर दिमाग में घुसने लायक बना देते हैं। हिंदी ब्लॉगिंग की विविधता से नेटयुग में कमाल की बौद्धिक संपदा बनती जा रही है। टीवी पत्रकारिता में इन दिनों अनुप्रास और युग्म शब्दों की भरमार है। जो सुनने में ठीक लगे और दिखने में आक्रामक। रही बात अर्थ की तो इस दौर में सभी अर्थ ही तो ढूंढ़ रहे हैं। इस पत्रकारिता का अर्थ क्या है? अजित ने अपनी गाड़ी सबसे पहले स्टार्ट कर दी और अर्थ ढूंढ़ने निकल पड़े हैं। --रवीशकुमार [लेखक का ब्लाग है http://naisadak.blogspot.com/ ]
मुहावरा अरबी के हौर शब्द से जन्मा है जिसके मायने हैं परस्पर वार्तालाप, संवाद।
लंबी ज़ुबान -इस बार जानते हैं ज़ुबान को जो देखते हैं कितनी लंबी है और कहां-कहा समायी है। ज़बान यूं तो मुँह में ही समायी रहती है मगर जब चलने लगती है तो मुहावरा बन जाती है । ज़बान चलाना के मायने हुए उद्दंडता के साथ बोलना। ज्यादा चलने से ज़बान पर लगाम हट जाती है और बदतमीज़ी समझी जाती है। इसी तरह जब ज़बान लंबी हो जाती है तो भी मुश्किल । ज़बान लंबी होना मुहावरे की मूल फारसी कहन है ज़बान दराज़ करदन यानी लंबी जीभ होना अर्थात उद्दंडतापूर्वक बोलना।
दांत खट्टे करना- किसी को मात देने, पराजित करने के अर्थ में अक्सर इस मुहावरे का प्रयोग होता है। दांत किरकिरे होना में भी यही भाव शामिल है। दांत टूटना या दांत तोड़ना भी निरस्त्र हो जाने के अर्थ में प्रयोग होता है। दांत खट्टे होना या दांत खट्टे होना मुहावरे की मूल फारसी कहन है -दंदां तुर्श करदन
अक्ल गुम होना- हिन्दी में बुद्धि भ्रष्ट होना, या दिमाग काम न करना आदि अर्थों में अक्ल गुम होना मुहावरा खूब चलता है। अक्ल का घास चरने जाना भी दिमाग सही ठिकाने न होने की वजह से होता है। इसे ही अक्ल का ठिकाने न होना भी कहा जाता है। और जब कोई चीज़ ठिकाने न हो तो ठिकाने लगा दी जाती है। जाहिर है ठिकाने लगाने की प्रक्रिया यादगार रहती है। बहरहाल अक्ल गुम होना फारसी मूल का मुहावरा है और अक्ल गुमशुदन के तौर पर इस्तेमाल होता है।
दांतों तले उंगली दबाना - इस मुहावरे का मतलब होता है आश्चर्यचकित होना। डॉ भोलानाथ तिवारी के मुताबिक इस मुहावरे की आमद हिन्दी में फारसी से हुई है फारसी में इसका रूप है- अंगुश्त ब दन्दां ।
25 कमेंट्स:
पिछली कविता पर टिप्पणी देखें। दोनों को मिला कर पढ़ने से 'अन्धा युग' और 'गाडो के इंतजार में' जैसी अनुभूति होती है।
गिरिजेश भाई, अकविता तो सिर्फ खुद के छल से बचने के लिए लिखा है। इसकी जैसी शास्त्रीय व्याख्या आपने की है, उस नज़रिये से यह अकविता नहीं है।
मैं छंदबद्ध कविता का समर्थक हूं, मगर जब गद्य से इतर खुद को अभिव्यक्त करने की बारी आती है तब जो कुछ रचा जाता है वह छंद नहीं होता। अब उसे कविता भी कैसे कहूं?
जब गद्य से इतर खुद को अभिव्यक्त करने की बारी आती है -
यही तो सोच रहा हूं कि .....
यदि अर्थलय हो, ध्वनि लय हो या अभिव्यक्ति में वह आब हो जो अनेक अर्थ उर्मियों का सृजन करती हो तो रचना 'कविता' ही है। छन्द बद्ध होना पुराने युग में वाचिक परम्परा के कारण आवश्यक था ताकि याद करने, रखने में सहूलियत हो और गेय हो, गुनगुनाई जा सके। अब छन्दों पर इतना जोर देना निरर्थक ही है। ... आप को आश्चर्य होगा कि वेदों की कई ऋचाएँ, सूर और मीरा के कितने ही पद छ्न्द कसौटी पर खरे नहीं उतरते।
सही कह रहे है गिरिजेश भाई। हमारे प्रिय ब्लागर साथी और कवि मनीश जोशी ने भी कविता सृजन पर बहुत उम्दा बातें कही हैं। उन्हें जल्दी ही यहां देखेंगे। साथ ही आपकी दोनो बहुमूल्य टिप्पणियां भी होंगी।
यदि बहुत असुविधा न हो तो कविताओं के लिए अलग ब्लॉग बनाएँ। पाठक वर्ग को यहाँ शब्दों के बारे में पढ़ने की आदत सी हो गई है। हिन्दी के इस अनूठे ब्लॉग में 'कविता' का प्रवेश इसके अनूठेपन को तनु न कर दे ! एक बात मन में आई सो कह रहा हूँ।
ब्लॉग रोल में जब मुझे शीर्षक दिखाई दिया तो सोचा कि आज अकविता शब्द की व्याख्या की गई होगी, लेकिन यहां तो पूरी कविता ही मौजूद है!. सुन्दर है. गिरिजेश जी सही कह रहे हैं, इस ब्लॉग से इतर ब्लॉग बनायें कविता के लिये. क्योंकि आपकी कविता-अकविता भी तो हम नहीं छोड़ना चाहेंगे.
@गिरिजेश राव/वंदना अवस्थी
आपका सुझाव सही है। कविताई इतनी ज्यादा नहीं है कि उसके लिए अलग ब्लाग बनाया जाए। शनिवार और रविवार के दिन यहां फुटकर चीजें तो शुरू से ही रही हैं जैसे पुस्तक चर्चा। आज रविवार है। बस इतना ही।
सही कहा गिरिजेश ने. पूरा का पूरा साम छंद (या कहें कि तुकांत) नहीं है, फिर भी उस जैसा सुरीला कुछ नहीं. मत कहिये, इतनी अर्थपूर्ण कविता को अकविता.
ये मुन्नी पोस्टें लिखने के लिहाज से भी जमती हैं और टिपेरने के लिहाज से भी। जमाये रहिये!
अ जित साहब, अपनी कविता में तो अ न जोड़िये.
आपकी बात तो लाजवाब है, आज तो मैंने यूँही कुछ हाथ-पैर मार लिए है:--
# शब्दों से मोह भंग भी अच्छा नहीं जनाब,
हमको तो इंतज़ार कि छपनी है अब किताब.
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# शिकायत शब्दों से है या बुढाती पीड़ीयों से है!
डगर से है,शिखर से या दरकती सीड़ियों से है!!
अलाओं से बुझी जो कि या जलती बीड़ियो से है!!!
खफा मदमस्त हाथी से या डरती कीडीयों से है ?
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# रटते हुए, शब्दों से अर्थो को निचोड़ा भी,
मतलब हुआ हल जिससे, उस सिम्त मरोड़ा भी,
तारीफ़ मिली जिससे उस शब्द की जय-जय क़ी
एक हाथ से ताली दी दूजे से हथोडा भी.
===================================
-मंसूर अली हाश्मी
http://aatm-manthan.com
@ज्ञानदा
इसका मतलब है कि आप शब्दों का सफर की पोस्ट को पढ़ना ज़हमत समझते हैं:)
पर हमें तो वहां भी आपकी अर्थपूर्ण और महत्वपूर्ण टिप्पणियां मिलती रही हैं।
आप स्तरीय और अद्भुत कविता का सृजन कर रहे हैं. कविताओं को रचने की रफ़्तार बस थोड़ी सी और बढायें तो नए ब्लॉग के लिए पर्याप्त होगा. केवल रविवार को भी उस ब्लॉग पर कोई भी पोस्ट साप्ताहिक रूप से डाली जा सकती है. असल में हम आपकी कवितायेँ पढनें का लोभ संवरण नहीं कर पा रहे.
कविता दमदार है। लगता है हम पर ही लिखी है।
हाश्मी साहब,
लाजवाब बात कही। सुलगती बीडियों की भी शृंखला बन जाए और तपिश में निहित ऊर्जा एक छोर से दूसरे छोर तक संचारित हो जाए तो क्या बात है।
बहरहाल, शब्दों से कोई उकताहट नहीं। कविताई की भी लत नहीं। बात शब्दों की थी सो साझा कर ली। वैसे भी आज रविवार है। छुट्टी का दिन।
shabdo ko baratna......vahi jaan sakte hain jo shabdo ki ahmiyat jante hon.....baki barat-te to sabhi hain. bat kya hai bhai sahab, aajkal aap shabdo ke arth ke raste is tarah a-kavita ke maadhyam se arth bataa rahe hain....
कुछ नहीं संजीत, ऐसे ही। जो गद्य में अभिव्यक्त न हो पाए वह यूं ही सही। शब्दों का सफर अपनी जगह है और उसकी नियमितता में कोई बदलाव नहीं है :)
बड़े भाई .... सबको चौंका दिया इसलिए बदलाव का सबब जानना चाह रहे हैं। और मुझे लग रहा है कि कोई तो वजह है ... भले आप न बताएं। :)
mai sanjay kareer jee se sehmat hu bhaiya....
मैं आशावादी हूं। नियति ने कुछ तय कर रखा है तो स्वागत है, अलबत्ता अदृष्ट को कविताई के संकेतों से जतानेवाली मनबहलावन नहीं थी यह शब्दार्थ शृंखला। सचमुच मैं कविता लिखता हूं, मगर उस रूप में सामने नहीं आता। यहां बात शब्द और अर्थ की थी सो इसे शब्दों का सफर पर साझा किया। कविता के निहितार्थ की बजाय इसमें और कोई संकेत न तलाशे जाएं साथियों। वैसे शरारतन छूट ले भी सकते है:)
और मुझे अब यकीन हो गया है ... इस वक्तव्य ने तो कई संकेत दे दिए। शुरू से लेकर अंत तक ... अपने राम मूढ़ ही सही लेकिन कुछ तो समझ में आ रहा है। :)
अकविता की तरह अशब्द भी होते ही हैं तो शब्दों के सफ़र में इनका भी स्वागत ! कम से कम हम तो इसे ट्रेक चेंज होना नहीं मान रहे हैं :)
"मैं छंदबद्ध कविता का समर्थक हूं, मगर जब गद्य से इतर खुद को अभिव्यक्त करने की बारी आती है तब जो कुछ रचा जाता है वह छंद नहीं होता। अब उसे कविता भी कैसे कहूं?"... अपनी बात है. कुछ यही बात मैंने पहले भी कहा है.
अकविता का मतलब गद्य नहीं है. यहाँ मुख्यता दो वर्ग है - छंदबद्ध और छंदमुक्त.
जहाँ लय है, शब्द सम्प्रेषण और भाव में कविता जैसी है वो कविता है. इसे अलग पहचान/नाम दिया जा सकता है जैसे "रूपकविता". अकविता कहना गलत नहीं है. यहाँ छंदमुक्त कविता को ही अकविता कहा जा रहा है.
शब्दार्थ 2, बहुत पसंद आया.
- सुलभ
भाऊ .
कविता तो कविता तो कविता टिप्पियाँ एक से एक जोरदार !
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 10 अगस्त 2019 को लिंक की जाएगी ....
http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
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