Sunday, September 19, 2010

पुरानी है बाज़ार से भाषा की यारी (बाजारवाद-1)

भा षा संबंधी विमर्शों के दौरान अक्सर अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव से प्रदूषित होती हिन्दी के स्वरूप पर फिक्र जताई जाती है। ऐसी फिक्र करनेवाले यह भूल जाते हैं कि बीते बारह सौ साल में कोई वक्त ऐसा नहीं रहा जब इस देश की भाषाओं पर किन्हीं विदेशी भाषाओं का प्रभाव न पड़ा हो। पहले अरबी, फिर फ़ारसी इस मुल्क में सत्ता की भाषा रही मगर हिन्दी तब भी लोक में रची बसी रही। शुद्धतावादियों को अरबी-फारसी का बढ़ता प्रभाव रास नहीं आया मगर लोक मानस अपने स्तर पर इन भाषाओं से अपनी भाषा बोली को अलग संस्कार देता रहा।

ह राज्यसत्ता या धर्म के जोर पर नहीं हुआ बल्कि बाजार की ज़रूरत पर हुआ। उपज के लिए फ़सल शब्द आम हो गया। कोश के लिए ख़ज़ाना शब्द का कोई दूसरा विकल्प हिन्दी में ढूंढने से भी नहीं मिलता। साबुन का कोई विकल्प हिन्दी के पास नहीं है। पुर्तगाली मूल के सैपोन शब्द को अरब सौदागरों ने साबुन बनाया। अरब के शासक इस मुल्क पर तलवार की दम पर इस्लाम थोपते, उससे पेशतर अरबी सौदागर ने हिन्दुस्तानियों को सैपोन को साबुन की शक्ल में एक नई सौग़ात दे दी थी। बात यह है कि बड़ा भाषायी समूह ही किसी भी समाज का प्रभावी समूह होता है। चाहे धर्म और सत्ता जैसे तत्व उसके खिलाफ़ हों।


बीती कई सदियों से अरबी, फ़ारसी, पुर्तगाली, अंग्रेजी के बीच पलती-पनपती हिन्दी इसका प्रमाण है। वजह है इस भाषायी समूह के साथ गाढ़ा रिश्ता बनाने की बाज़ार की पुरज़ोर कोशिश। बाज़ार उस भाषा में संवाद करता है जो जनमानस में पैठी है। बाज़ार के तत्व चूंकि स्थानीय धर्म और सत्ता की सीमाओं से बाहर निकल कर विस्तृत भौगोलिक सामाजिक परिवेश से जुड़ता है इसलिए विभिन्न क्षेत्रों के साथ उसका संवाद होता है। कारोबारी तबका विराट स्तर पर भाषाओं को प्रभावित करता है और यह परिवर्तन राजकाज की भाषा पर कम और लोकभाषाओं या सम्पर्क भाषाओं पर ज्यादा तेज़ी से असर डालता है। हर दौर में समाज बदलता है क्योंकि यह प्रकृति का स्थायी नियम है। भाषा जब समाज से जुड़ती है तब वह धर्म, नस्ल से परे अपने सफ़र पर होती है। यह सफ़र कठिन से आसान की राह चुनता है। हालांकि भाषा को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारकों में धर्म और राज्यसत्ता भी हैं मगर भाषा का असली याराना सिर्फ और सिर्फ बाज़ार के साथ है। साहित्य में भाषाएं सांस भर लेती हैं पर उनकी असली चेतनता लोक में प्रचलित बरताव से पता चलती है। प्राचीनकाल से ही कारोबारी समुदायों का योगदान भाषाओं के विकास में रहा है।

ज हम जिस बाजारवाद के नाम का सियापा करते हैं दरअसल यह विकास की प्रक्रिया है। विभिन्न देशों प्रदेशों के बीच कारोबार के दौरान सबसे पहले नए शब्दों से व्यापारी ही परिचित होता है। उसमें संस्कृति भी है, स्थानीय समाज भी है पर सबसे महत्वपूर्ण वह उत्पाद होता है जिससे वह परिचित होता है और फिर उसका कारोबार दूसरे कई इलाकों में करता है। यूं ही बढ़ते हैं शब्द और भाषाएं। जनता-जनार्दन के मुख की भाषा लोकभाषा है। यह लोकभाषा बाढ़ के पानी के समान नियन्त्रण में नहीं आती। भाषाविद् डॉ सुरेश कुमार वर्मा के मुताबिक भाषा बड़ी मौज से सब तरफ़ बहती है और वैयाकरण का अनुशासन का बर्दाश्त नहीं कर पाती। मूल या तत्सम शब्दों से निस्सृत नए शब्दों को कोई लाख भ्रष्ट कहे, किन्तु वास्तव में वे भाषा के निरन्तर परिवर्तनशील बने रहने के परिचायक हैं। परिवर्तन जीवन्तता का प्रतीक है। परिवर्तन प्रकृति का विधायी तत्त्व है, जो उसे सदैव ताजा़, स्फूर्त और सानन्द बनाए रखता है।   


स्लाम की आंधी में अरबीकरण पर जोर देने के बावजूद फारसी को फारसी ही कहा जाता है। शुद्धतावाद के बावजूद सरकारी हिन्दी और संस्कृतनिष्ठता से हटकर बोलचाल की हिन्दी ने अलग अलग इलाकों में अपनी अलग पहचान कायम रखी है। हर दौर में भाषाओं को जिंदा रखने में बाजार की ही भूमिका प्रमुख रही है। मनोरंजन के पैमाने पर साहित्य तो भाषा की एक आज़माईश भर है। समाज, बाजार और भाषा यही त्रिकोण महत्वपूर्ण है। सदियों से बाजार के जरिये ही शब्दों का कारोबार होता आया है जिसने भाषाओं को समृद्ध किया है। लेन-देन में कोई हर्जा नहीं, बल्कि लेन-देन चलता रहे तभी भाषाएं भी चलेंगी।  अगली कड़ी में भी जारी

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19 कमेंट्स:

Asha Joglekar said...

भाषा के निरन्तर परिवर्तनशील बने रहने के परिचायक हैं। परिवर्तन जीवन्तता का प्रतीक है। परिवर्तन प्रकृति का विधायी तत्त्व है, जो उसे सदैव ताजा़, स्फूर्त और सानन्द बनाए रखता है।
यही कारण है कि कुछ भाषांये आज भी जीवित है जब कि कुछ मृतप्राय हो रही हैं । सफर चलता रहे ।

Girish Kumar Billore said...

आपकी सारी बातों से समत हूं -इस बात से कुछ अधिक ही सहमत हूं
"आज हम जिस बाजारवाद के नाम का सियापा करते हैं दरअसल यह विकास की प्रक्रिया है। विभिन्न देशों प्रदेशों के बीच कारोबार के दौरान सबसे पहले नए शब्दों से व्यापारी ही परिचित होता है। उसमें संस्कृति भी है, स्थानीय समाज भी है पर सबसे महत्वपूर्ण वह उत्पाद होता है जिससे वह परिचित होता है और फिर उसका कारोबार दूसरे कई इलाकों में करता है। यूं ही बढ़ते हैं शब्द और भाषाएं। जनता-जनार्दन के मुख की भाषा लोकभाषा है। यह लोकभाषा बाढ़ के पानी के समान नियन्त्रण में नहीं आती"

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

भाषा में शुद्धता की चिन्ता रखी जाये तो शायद भाषा पिछड जायेगी समय से .

डॉ टी एस दराल said...

समय के साथ बदलने में कोई बुराई नहीं . भाषा के साथ भी यही हो रहा है .

Mansoor ali Hashmi said...

कल एक दु:स्वप्न देखा था कि 'शब्दों के सफ़र' पर आ लगाम कसने जा रहे है! नींद खुली तो यह खुश खबर मिली:-"पुरानी है बाज़ार से भाषा की यारी (बाजारवाद-1)"
नए तेवर में सामने आए है आप. लेख पसंद आया.

अब जो जुबां खुली है तो सुनते ही जाईये,
शब्दों के ताने-बाने को बुनते ही जाईये,
बाज़ार ने शब्दों को जो बदला है अगर तो,
तहजीब* के बदलाव को गुणते ही जाईये.

*संस्कृति

महेन्‍द्र वर्मा said...

भाषा पहले लोक में प्रचलित होती है फिर वह साहित्य की भाषा बनती है ... अच्छा चिंतनपूर्ण आलेख

anshumala said...

@आज हम जिस बाजारवाद के नाम का सियापा करते हैं दरअसल यह विकास की प्रक्रिया है।
आपने बिलकुल सही कहा मै भी इससे सहमत हु

वन्दना अवस्थी दुबे said...

बहुत सही. मुझे ऐसा कभी नहीं लगा कि अन्य भाषाओं ने हिन्दी को कमज़ोर किया, निश्चित रूप से अन्य भाषा के शब्दों ने, जिन्हें हिन्दी में समाहित किया गया, उसे और समृद्ध ही किया है. हमारे खाते में यदि रुपये के साथ साथ डॉलर भी हों, तो क्या हमारी सम्पत्ति कम हो जाती है? आज हमारे पास अपने भावों को व्यक्त करने के लिये शब्दों की कमी नहीं पड़ती, याद कीजिये, हम अपनी बोलचाल की भाषा में हे कितनी भाषाओं के शब्द इस्तेमाल करते हैं? यदि केवल हिन्दी में बोलने की अनिवार्यता हो, तो हम मुश्किल में पड़ जायें.

अभय तिवारी said...

सहमत हैं अजित भाई.

ePandit said...

अच्छा लेख, सचमुच भाषा के प्रवाह को कोई नियन्त्रित नहीं कर सकता। यदि कर सकता तो संस्कृत से हिन्दी आदि वर्तमान भाषायें विकसित ही न होती।

निर्मला कपिला said...

ाच्छा लगा आलेख। धन्यवाद।

अजय कुमार झा said...

बहुत खूब अजित भाई ...ये नए तेवर और नया अंदाज़ भी खूब भाया है

पंकज said...

पिछले दिनों एक बिजनैस टीवी चैनल पर एक एड देखा, `अनुराधा हिन्दी सीख लेगी`. दर असल, अनुराधा इस चैनल की एक एंकर हैं जो अंग्रेजी में स्टोरी बोर्ड नामक एक प्रोग्राम करती हैं. अपने हिन्दी चैनल की सफलता को देख उन्होंने इस प्रोग्राम को भी हिन्दी में पेश करने की सोची और एंकर वही रखा. `अनुराधा हिन्दी सीख लेगी` इसी प्रोग्राम का एड है. कलतक बिजनैस चैनल माइने होता था अंग्रेजी पर आज कितने ही हिन्दी बिजनैस चैनल हैं और पोपूलरिटी में अपने इंग्लिश कजिंस से एक कदम आगे ही हैं. और टीवी चैनल ही क्यों, इकॉनोमिक टाइम्स जैसे अखबार और मनीकंट्रोल डॉट कॉम जैसे पोर्टल्स के हिन्दी अवतार बाजार में हैं. रेलवे और बैंक से लेकर कंज्यूमर पोड्क्टस की टेलीफोन हैल्प लाइंस पर आपसे पूछा जाता है कि आपका लैंग्वेज ऑप्शन क्या है, हिन्दी या अंग्रेजी. हॉलीवुड की नयी से नयी फिल्में हों या बेस्ट सेलर किताबें, अपने अंग्रेजी वर्जंस के साथ ही हिन्दी में हाजिर होती हैं.

आपको क्या लगता है कि क्या इन सबको हिन्दी से प्यार है या राजभाषा अधिनियम जैसा कोई कानून इन पर लागू है या कोई ताकतवर नेता इन्हें हिन्दी के प्रयोग के लिये मजबूर करता है. सच ये है कि इनमें से कोई जबाब ठीक नहीं है. सही जबाब ये है कि हिन्दी एक बहुत बड़े बाजार की भाषा है. हिन्दी बाजारवाद की जरूरत है. हिन्दी दुनियाँ में दूसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है जिसे लगभग पचास करोड लोग बोलते हैं जो स्वयम भारत व चीन को छोड़कर किसी भी देश की पोपूलेशन से कई गुना ज्यादा है. इस देश की हिन्दी बोलने वाले बाजार में पच्चीस आस्ट्रेलिया, नौ ब्रिटैन या फ्रांस, चार पाँच रूस या जापान, दौ सौ कुवैत .समा सकते हैं.

पिछले कुछ सालों में संख्या के अलावा इस बाजार ने अपनी परचैजिंग पॉवर तो बढ़ायी ही है साथ ही अपने आपको पढा लिखा कर बेहतर निर्णय लेने योग्य बना लिया है. नतीजन देश के चोटी के दस अखबारों में 15 करोड़ की रीडरशिप के साथ पाँच हिन्दी के हैं. टीवी पर आने वाले सबसे पोपूलर दस प्रोग्राम हिन्दी में ही हैं. आप नेट पर जाइये, अनगिनित हिन्दी ब्लाग्स से सामना होगा. अब इतने बड़े बाजार से संवाद इसकी अपनी भाषा में हो तो इस तक पहुँचना आसान होगा. ये बात अब सबकी समझ में आ रही है तभी तो दुनियाँ भर की कम्पनियाँ हिन्दीभाषी लोगों के लिये उत्पाद बना रही हैं, हिन्दी में विज्ञापन बना रही हैं और हिन्दी सीरियल्स को स्पांसर कर रही हैं. हिन्दी बोलने बाले इस बाजार को अब मार्केटिंग मैनेजमेंट का अहम हिस्सा समझा जाने लगा है और इसे कहा जाता है एचएसएम यानी हिन्दी स्पीकिंग मार्केट और इसके ओपीनियन को एचपीओवी यानी हिन्दी पॉइंट ऑफ व्यू.

लेकिन पिछले कुछ सालों में हिन्दी के सेंटर स्टेज पर आने के पीछे केवल बाजार का साइज ही नहीं है. एक बहुत बड़ा कारण हिन्दी का बदलना भी है. आज की हिन्दी कुछ साल पहले की हिन्दी नहीं रही. कल तक फिल्में उर्दू भरी हिन्दी में होती थी और साहित्य संस्कृत से ओतप्रोत हिन्दी में. लेकिन आज हिन्दी आज की जनरेशंस के कदम ताल मिलाते हुये कूल हो गयी है. उसमें हर उस भाषा के शब्द हैं जो आज की जनरेशन बोलती समझती है. तभी तो पेप्सी का एड होता है ये दिल मांगे मोर और कोक कहता है ठंडा माने कोका कोला. आई नेक्स्ट जैसे टैबलोयड्स भी इसी लिये सफल हैं क्योंकि वे अपनी रीडर की जुबान बोलते हैं. कुछ लोगों को हिन्दी का हिंग्लिश हो जाना अखरता है पर सच ये है कि हिन्दी एक हजार साल से समय के साथ बदलती रही है, चंदवरदायी की हिन्दी से आज की हिंदी तक. आने वाले कल में ये और बदल जायेगी. हिन्दी दिवस मोरया, अगले बरस तू जल्दी आ की तर्ज पर मनाये वाले हिन्दी दिवसों और पखवड़ो के वावजूद, अपनी इस समय के साथ बदलने की ताकत से ही तो ये फल फूल रही है.

पंकज said...

पिछले दिनों एक बिजनैस टीवी चैनल पर एक एड देखा, `अनुराधा हिन्दी सीख लेगी`. दर असल, अनुराधा इस चैनल की एक एंकर हैं जो अंग्रेजी में स्टोरी बोर्ड नामक एक प्रोग्राम करती हैं. अपने हिन्दी चैनल की सफलता को देख उन्होंने इस प्रोग्राम को भी हिन्दी में पेश करने की सोची और एंकर वही रखा. `अनुराधा हिन्दी सीख लेगी` इसी प्रोग्राम का एड है. कलतक बिजनैस चैनल माइने होता था अंग्रेजी पर आज कितने ही हिन्दी बिजनैस चैनल हैं और पोपूलरिटी में अपने इंग्लिश कजिंस से एक कदम आगे ही हैं. और टीवी चैनल ही क्यों, इकॉनोमिक टाइम्स जैसे अखबार और मनीकंट्रोल डॉट कॉम जैसे पोर्टल्स के हिन्दी अवतार बाजार में हैं. रेलवे और बैंक से लेकर कंज्यूमर पोड्क्टस की टेलीफोन हैल्प लाइंस पर आपसे पूछा जाता है कि आपका लैंग्वेज ऑप्शन क्या है, हिन्दी या अंग्रेजी. हॉलीवुड की नयी से नयी फिल्में हों या बेस्ट सेलर किताबें, अपने अंग्रेजी वर्जंस के साथ ही हिन्दी में हाजिर होती हैं.

आपको क्या लगता है कि क्या इन सबको हिन्दी से प्यार है या राजभाषा अधिनियम जैसा कोई कानून इन पर लागू है या कोई ताकतवर नेता इन्हें हिन्दी के प्रयोग के लिये मजबूर करता है. सच ये है कि इनमें से कोई जबाब ठीक नहीं है. सही जबाब ये है कि हिन्दी एक बहुत बड़े बाजार की भाषा है. हिन्दी बाजारवाद की जरूरत है. हिन्दी दुनियाँ में दूसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है जिसे लगभग पचास करोड लोग बोलते हैं जो स्वयम भारत व चीन को छोड़कर किसी भी देश की पोपूलेशन से कई गुना ज्यादा है. इस देश की हिन्दी बोलने वाले बाजार में पच्चीस आस्ट्रेलिया, नौ ब्रिटैन या फ्रांस, चार पाँच रूस या जापान, दौ सौ कुवैत .समा सकते हैं.

पिछले कुछ सालों में संख्या के अलावा इस बाजार ने अपनी परचैजिंग पॉवर तो बढ़ायी ही है साथ ही अपने आपको पढा लिखा कर बेहतर निर्णय लेने योग्य बना लिया है. नतीजन देश के चोटी के दस अखबारों में 15 करोड़ की रीडरशिप के साथ पाँच हिन्दी के हैं. टीवी पर आने वाले सबसे पोपूलर दस प्रोग्राम हिन्दी में ही हैं. आप नेट पर जाइये, अनगिनित हिन्दी ब्लाग्स से सामना होगा. अब इतने बड़े बाजार से संवाद इसकी अपनी भाषा में हो तो इस तक पहुँचना आसान होगा. ये बात अब सबकी समझ में आ रही है तभी तो दुनियाँ भर की कम्पनियाँ हिन्दीभाषी लोगों के लिये उत्पाद बना रही हैं, हिन्दी में विज्ञापन बना रही हैं और हिन्दी सीरियल्स को स्पांसर कर रही हैं. हिन्दी बोलने बाले इस बाजार को अब मार्केटिंग मैनेजमेंट का अहम हिस्सा समझा जाने लगा है और इसे कहा जाता है एचएसएम यानी हिन्दी स्पीकिंग मार्केट और इसके ओपीनियन को एचपीओवी यानी हिन्दी पॉइंट ऑफ व्यू.

लेकिन पिछले कुछ सालों में हिन्दी के सेंटर स्टेज पर आने के पीछे केवल बाजार का साइज ही नहीं है. एक बहुत बड़ा कारण हिन्दी का बदलना भी है. आज की हिन्दी कुछ साल पहले की हिन्दी नहीं रही. कल तक फिल्में उर्दू भरी हिन्दी में होती थी और साहित्य संस्कृत से ओतप्रोत हिन्दी में. लेकिन आज हिन्दी आज की जनरेशंस के कदम ताल मिलाते हुये कूल हो गयी है. उसमें हर उस भाषा के शब्द हैं जो आज की जनरेशन बोलती समझती है. तभी तो पेप्सी का एड होता है ये दिल मांगे मोर और कोक कहता है ठंडा माने कोका कोला. आई नेक्स्ट जैसे टैबलोयड्स भी इसी लिये सफल हैं क्योंकि वे अपनी रीडर की जुबान बोलते हैं. कुछ लोगों को हिन्दी का हिंग्लिश हो जाना अखरता है पर सच ये है कि हिन्दी एक हजार साल से समय के साथ बदलती रही है, चंदवरदायी की हिन्दी से आज की हिंदी तक. आने वाले कल में ये और बदल जायेगी. हिन्दी दिवस मोरया, अगले बरस तू जल्दी आ की तर्ज पर मनाये वाले हिन्दी दिवसों और पखवड़ो के वावजूद, अपनी इस समय के साथ बदलने की ताकत से ही तो ये फल फूल रही है.

पंकज said...

पिछले दिनों एक बिजनैस टीवी चैनल पर एक एड देखा, `अनुराधा हिन्दी सीख लेगी`. दर असल, अनुराधा इस चैनल की एक एंकर हैं जो अंग्रेजी में स्टोरी बोर्ड नामक एक प्रोग्राम करती हैं. अपने हिन्दी चैनल की सफलता को देख उन्होंने इस प्रोग्राम को भी हिन्दी में पेश करने की सोची और एंकर वही रखा. `अनुराधा हिन्दी सीख लेगी` इसी प्रोग्राम का एड है. कलतक बिजनैस चैनल माइने होता था अंग्रेजी पर आज कितने ही हिन्दी बिजनैस चैनल हैं और पोपूलरिटी में अपने इंग्लिश कजिंस से एक कदम आगे ही हैं. और टीवी चैनल ही क्यों, इकॉनोमिक टाइम्स जैसे अखबार और मनीकंट्रोल डॉट कॉम जैसे पोर्टल्स के हिन्दी अवतार बाजार में हैं. रेलवे और बैंक से लेकर कंज्यूमर पोड्क्टस की टेलीफोन हैल्प लाइंस पर आपसे पूछा जाता है कि आपका लैंग्वेज ऑप्शन क्या है, हिन्दी या अंग्रेजी. हॉलीवुड की नयी से नयी फिल्में हों या बेस्ट सेलर किताबें, अपने अंग्रेजी वर्जंस के साथ ही हिन्दी में हाजिर होती हैं.

आपको क्या लगता है कि क्या इन सबको हिन्दी से प्यार है या राजभाषा अधिनियम जैसा कोई कानून इन पर लागू है या कोई ताकतवर नेता इन्हें हिन्दी के प्रयोग के लिये मजबूर करता है. सच ये है कि इनमें से कोई जबाब ठीक नहीं है. सही जबाब ये है कि हिन्दी एक बहुत बड़े बाजार की भाषा है. हिन्दी बाजारवाद की जरूरत है. हिन्दी दुनियाँ में दूसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है जिसे लगभग पचास करोड लोग बोलते हैं जो स्वयम भारत व चीन को छोड़कर किसी भी देश की पोपूलेशन से कई गुना ज्यादा है. इस देश की हिन्दी बोलने वाले बाजार में पच्चीस आस्ट्रेलिया, नौ ब्रिटैन या फ्रांस, चार पाँच रूस या जापान, दौ सौ कुवैत .समा सकते हैं.

पिछले कुछ सालों में संख्या के अलावा इस बाजार ने अपनी परचैजिंग पॉवर तो बढ़ायी ही है साथ ही अपने आपको पढा लिखा कर बेहतर निर्णय लेने योग्य बना लिया है. नतीजन देश के चोटी के दस अखबारों में 15 करोड़ की रीडरशिप के साथ पाँच हिन्दी के हैं. टीवी पर आने वाले सबसे पोपूलर दस प्रोग्राम हिन्दी में ही हैं. आप नेट पर जाइये, अनगिनित हिन्दी ब्लाग्स से सामना होगा. अब इतने बड़े बाजार से संवाद इसकी अपनी भाषा में हो तो इस तक पहुँचना आसान होगा. ये बात अब सबकी समझ में आ रही है तभी तो दुनियाँ भर की कम्पनियाँ हिन्दीभाषी लोगों के लिये उत्पाद बना रही हैं, हिन्दी में विज्ञापन बना रही हैं और हिन्दी सीरियल्स को स्पांसर कर रही हैं. हिन्दी बोलने बाले इस बाजार को अब मार्केटिंग मैनेजमेंट का अहम हिस्सा समझा जाने लगा है और इसे कहा जाता है एचएसएम यानी हिन्दी स्पीकिंग मार्केट और इसके ओपीनियन को एचपीओवी यानी हिन्दी पॉइंट ऑफ व्यू.

लेकिन पिछले कुछ सालों में हिन्दी के सेंटर स्टेज पर आने के पीछे केवल बाजार का साइज ही नहीं है. एक बहुत बड़ा कारण हिन्दी का बदलना भी है. आज की हिन्दी कुछ साल पहले की हिन्दी नहीं रही. कल तक फिल्में उर्दू भरी हिन्दी में होती थी और साहित्य संस्कृत से ओतप्रोत हिन्दी में. लेकिन आज हिन्दी आज की जनरेशंस के कदम ताल मिलाते हुये कूल हो गयी है. उसमें हर उस भाषा के शब्द हैं जो आज की जनरेशन बोलती समझती है. तभी तो पेप्सी का एड होता है ये दिल मांगे मोर और कोक कहता है ठंडा माने कोका कोला. आई नेक्स्ट जैसे टैबलोयड्स भी इसी लिये सफल हैं क्योंकि वे अपनी रीडर की जुबान बोलते हैं. कुछ लोगों को हिन्दी का हिंग्लिश हो जाना अखरता है पर सच ये है कि हिन्दी एक हजार साल से समय के साथ बदलती रही है, चंदवरदायी की हिन्दी से आज की हिंदी तक. आने वाले कल में ये और बदल जायेगी. हिन्दी दिवस मोरया, अगले बरस तू जल्दी आ की तर्ज पर मनाये वाले हिन्दी दिवसों और पखवड़ो के वावजूद, अपनी इस समय के साथ बदलने की ताकत से ही तो ये फल फूल रही है.

पंकज said...

पिछले दिनों एक बिजनैस टीवी चैनल पर एक एड देखा, `अनुराधा हिन्दी सीख लेगी`. दर असल, अनुराधा इस चैनल की एक एंकर हैं जो अंग्रेजी में स्टोरी बोर्ड नामक एक प्रोग्राम करती हैं. अपने हिन्दी चैनल की सफलता को देख उन्होंने इस प्रोग्राम को भी हिन्दी में पेश करने की सोची और एंकर वही रखा. `अनुराधा हिन्दी सीख लेगी` इसी प्रोग्राम का एड है. कलतक बिजनैस चैनल माइने होता था अंग्रेजी पर आज कितने ही हिन्दी बिजनैस चैनल हैं और पोपूलरिटी में अपने इंग्लिश कजिंस से एक कदम आगे ही हैं. और टीवी चैनल ही क्यों, इकॉनोमिक टाइम्स जैसे अखबार और मनीकंट्रोल डॉट कॉम जैसे पोर्टल्स के हिन्दी अवतार बाजार में हैं. रेलवे और बैंक से लेकर कंज्यूमर पोड्क्टस की टेलीफोन हैल्प लाइंस पर आपसे पूछा जाता है कि आपका लैंग्वेज ऑप्शन क्या है, हिन्दी या अंग्रेजी. हॉलीवुड की नयी से नयी फिल्में हों या बेस्ट सेलर किताबें, अपने अंग्रेजी वर्जंस के साथ ही हिन्दी में हाजिर होती हैं.


लेकिन पिछले कुछ सालों में हिन्दी के सेंटर स्टेज पर आने के पीछे केवल बाजार का साइज ही नहीं है. एक बहुत बड़ा कारण हिन्दी का बदलना भी है. आज की हिन्दी कुछ साल पहले की हिन्दी नहीं रही. कल तक फिल्में उर्दू भरी हिन्दी में होती थी और साहित्य संस्कृत से ओतप्रोत हिन्दी में. लेकिन आज हिन्दी आज की जनरेशंस के कदम ताल मिलाते हुये कूल हो गयी है. उसमें हर उस भाषा के शब्द हैं जो आज की जनरेशन बोलती समझती है. तभी तो पेप्सी का एड होता है ये दिल मांगे मोर और कोक कहता है ठंडा माने कोका कोला. आई नेक्स्ट जैसे टैबलोयड्स भी इसी लिये सफल हैं क्योंकि वे अपनी रीडर की जुबान बोलते हैं. कुछ लोगों को हिन्दी का हिंग्लिश हो जाना अखरता है पर सच ये है कि हिन्दी एक हजार साल से समय के साथ बदलती रही है, चंदवरदायी की हिन्दी से आज की हिंदी तक. आने वाले कल में ये और बदल जायेगी. हिन्दी दिवस मोरया, अगले बरस तू जल्दी आ की तर्ज पर मनाये वाले हिन्दी दिवसों और पखवड़ो के वावजूद, अपनी इस समय के साथ बदलने की ताकत से ही तो ये फल फूल रही है.

पंकज said...

पिछले दिनों एक बिजनैस टीवी चैनल पर एक एड देखा, `अनुराधा हिन्दी सीख लेगी`. दर असल, अनुराधा इस चैनल की एक एंकर हैं जो अंग्रेजी में स्टोरी बोर्ड नामक एक प्रोग्राम करती हैं. अपने हिन्दी चैनल की सफलता को देख उन्होंने इस प्रोग्राम को भी हिन्दी में पेश करने की सोची और एंकर वही रखा. `अनुराधा हिन्दी सीख लेगी` इसी प्रोग्राम का एड है. कलतक बिजनैस चैनल माइने होता था अंग्रेजी पर आज कितने ही हिन्दी बिजनैस चैनल हैं और पोपूलरिटी में अपने इंग्लिश कजिंस से एक कदम आगे ही हैं.इसके पीछे एक बडा बाजार तो है ही साथ ही हिन्दी के सेंटर स्टेज पर आने के पीछे केवल बाजार का साइज ही नहीं है. एक बहुत बड़ा कारण हिन्दी का बदलना भी है. आज की हिन्दी कुछ साल पहले की हिन्दी नहीं रही. कल तक फिल्में उर्दू भरी हिन्दी में होती थी और साहित्य संस्कृत से ओतप्रोत हिन्दी में. लेकिन आज हिन्दी आज की जनरेशंस के कदम ताल मिलाते हुये कूल हो गयी है. उसमें हर उस भाषा के शब्द हैं जो आज की जनरेशन बोलती समझती है. तभी तो पेप्सी का एड होता है ये दिल मांगे मोर और कोक कहता है ठंडा माने कोका कोला. आई नेक्स्ट जैसे टैबलोयड्स भी इसी लिये सफल हैं क्योंकि वे अपनी रीडर की जुबान बोलते हैं. कुछ लोगों को हिन्दी का हिंग्लिश हो जाना अखरता है पर सच ये है कि हिन्दी एक हजार साल से समय के साथ बदलती रही है, चंदवरदायी की हिन्दी से आज की हिंदी तक. आने वाले कल में ये और बदल जायेगी. हिन्दी दिवस मोरया, अगले बरस तू जल्दी आ की तर्ज पर मनाये वाले हिन्दी दिवसों और पखवड़ो के वावजूद, अपनी इस समय के साथ बदलने की ताकत से ही तो ये फल फूल रही है.

अजित वडनेरकर said...

@पंकज।
विस्तृत टिप्पणी के लिए शुक्रिया पंकज भाई। हिन्दी हर दौर में बदलती रही है। मानकीकरण जैसा कोई अनुशासन या उपकरण होता तो आज हिन्दी नहीं होती।
@वंदना अवस्थी
"हमारे खाते में यदि रुपये के साथ साथ डॉलर भी हों, तो क्या हमारी सम्पत्ति कम हो जाती है? " ये पंक्तियां महत्वपूर्ण हैं।
शुक्रिया टिप्पणी के लिए।

रंजना said...

बिलकुल सही कहा आपने...
जनता-जनार्दन के मुख की भाषा लोकभाषा है। यह लोकभाषा बाढ़ के पानी के समान नियन्त्रण में नहीं आती।

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