Sunday, November 14, 2010

शेर के सींग या शेरसिंग?

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सिंह के सिंग बनने के पीछे शेर की दहाड़ नहीं, बल्कि मनुष्य का ध्वनितंत्र महत्वपूर्ण रहा। 
सिं ह के सिंघ बनने का मामला सीधे सीधे ध्वनितंत्र से जुड़ रहा है। भाषाओं के संदर्भ में ध्वनितंत्र पर ध्यान देना बहुत आवश्यक है। अलग अलग समूहों में उच्चारण भिन्नता होती है। हर समूह में परिनिष्ठित भाषा बोलनेवाले भी रहे हैं। मराठीभाषियों सहित अधिकांश पढ़ेलिखे दक्षिण भारतीय कभी सिंग, सिंघ नहीं उच्चारते। बड़ी सफ़ाई के साथ सिंह ही बोलते हैं और इसके लिए किसी श्रम की ज़रूरत नहीं पड़ती। मराठी लेखक अविनाश बिनीवाले ने अपनी पुस्तक ‘भाषा घड़तांना’ में ऐतिहासिक भाषावैज्ञनिक दृष्टि से सिंह के सिंघ में बदलने पर विचार रखे हैं। भाषायी अपकर्ष या उसके भ्रष्ट होने का सिलसिला भी बेहद पुराना है। भाषा भ्रष्ट न होती तो पाणिनी को ईसा पूर्व छठी सदी में तत्कालीन प्रचलित प्राकृतों के उच्चारण इतने न चुभे होते और उन्हें भाषा को संस्कारित करने और उसका व्याकरण रचने की ज़रूरत न पड़ती। उन्होंने खोज कर शब्दों के मूल स्वरूप निर्धारित किए और इस तरह संस्कारित भाषा संस्कृत कहलाई। बहरहाल, यह संदर्भ इसलिए क्योंकि सिंह का प्राकृत सिंघ रूप तब भी चलन में था। हमारे यहां संस्कृत उच्चारण की वैदिक परम्परा का बड़ा महत्व है। इस परम्परा की दो शैलियाँ भारत में प्रचलित हैं। एक ऋग्वैदीय और दूसरी यजुर्वेदीय। वेदों में पहला वेद ऋग्वेद है और इसी आधार पर इसकी ऋचाओं के पाठ की शैली को ऋग्वैदीय कहा गया। इस शैली में दीक्षित ब्राह्मण, पुरोहित और उद्गाता ऋग्वैदीय ब्राह्मण कहलाए।
मतौर पर हिन्दी क्षेत्रों में भी सिंह का उच्चारण वैसा नहीं होता, जैसा मराठीभाषियों या दक्षिणात्य ब्राह्मण करते हैं। सिंग में अनुस्वार पर जितना जोर देकर बोला जाता है, आमतौर पर सिंह को वैसा नहीं बोलते। मगर मराठी उच्चारण में सिंह के अनुस्वार की शुद्धता सिंग जैसी ही बरकरार रहती है फलतः उसका उच्चारण सिंव्ह की तरह होता है जबकि हिन्दी के सिंह में यह अनुस्वार स्पर्शध्वनि की तरह होता है। गौर करें कि जब सिं पर अनुस्वार की ध्वनि को हम उच्चारते हैं तब होंठो की स्थिति गोलाकार होती है और की ध्वनि भी निकलती है। दन्त्योष्ठ्य ध्वनि है। आर्य संस्कृति से प्रभावित या यूँ कहें कि संस्कृत के संस्कार के साथ दक्षिणापथ की ओर जिन गण समूहों के जाने का सिलसिला रहा, दरअसल वे ऋग्वैदीय थे और इसीलिए संस्कृत के शुद्ध और सांगीतिक उच्चारण की उनकी शैली साफ़ पहचानी जाती है। इसी वजह से आद्य शंकराचार्य ने आज से बारह सौ वर्ष चारों दिशाओं में स्थापित मठों में दक्षिणात्य ब्राह्मणों, उनमें भी विशेषतौर पर मराठी ब्राह्मणों को नियुक्त किया था ताकि संस्कृत का मूल वैदिक स्वरूप सुरक्षित रह सके। वे स्वयं नम्बूद्री ब्राह्मण थे, किन्तु मठीय व्यवस्था में उन्होंने अपने जातीय समूह से कोई वेदपाठी नहीं रखा।
बिनीवाले की बात तार्किक इसलिए भी लगती है क्योंकि सिंह से बने नरसिंह शब्द का द्रविड़ भाषाओं में जो उच्चारण होता है वह है नरसिम्ह या नरसिम्हासि के साथ
sher-khan-saman-khanऋग्वैदीय उच्चारण शैली और यजुर्वैदीय उच्चारणशैली नें सिंह को सिंग बना दिया
जुड़े अनुस्वार को ऋग्वैदीय शुद्धता के साथ बरतते हुए मराठी में जहाँ दन्त्योष्ठ्य ध्वनि सुनाई पड़ती है वहीं द्रविड़ भाषाओं में यह ओष्ठ्य ध्वनि में बदल जाती है। मूल संस्कृत में भी अनुस्वार में यही ध्वनि है। सिंह के सिंघ उच्चारण के पीछे अंग्रेजी के singh को मूल कारक मानना इसलिए भी ठीक नहीं है कि क्योंकि अनुस्वार के पीछे छुपी नासिक्य ध्वनियों के लिए हिन्दी के कई शब्दों के अंग्रेजी में हिज्जों में व्यंजन का प्रयोग साफ़ देखा जाता है। उत्तर भारतीय प्राकृतों यथा मागधी, शौरसैनी, पैशाची पर यजुर्वेदी प्रभाव अधिक होने से सिंह के उच्चारण में तब्दीलियाँ आईं। यजुर्वेदीय शैली में सिंह की ध्वनि पर अधिक जोर नहीं रहा, मगर सि के अनुस्वार पर स्वाभाविक बल बना रहा। स्पष्ट है कि अनुस्वारयुक्त सिं के साथ स्वर विहिन के उच्चार में कण्ठ्य की बजाय ध्वनि का पुट सुनाई पड़ता है। यही वजह रही सिंह के सिंग या सिंघ बनने की।
वैदिक व्यंजन ज्ञ की प्रचलित ध्वनि को याद करें और उसके मूल स्वरूप के बारे में सोचें। देवनागरी के ज्ञ वर्ण ने अपने उच्चारण का महत्व खो दिया है। अपभ्रंशों से विकसित भारत की अलग अलग भाषाओं में इस युग्म ध्वनियों वाले अक्षर का अलग अलग उच्चारण होता है। मराठी में यह ग+न+य का योग हो कर ग्न्य सुनाई पड़ती है तो महाराष्ट्र के ही कई हिस्सों में इसका उच्चारण द+न+य अर्थात् द्न्य भी है। गुजराती में ग+न यानी ग्न है तो संस्कृत में ज+ञ के मेल से बनने वाली ध्वनि है। दरअसल इसी ध्वनि के लिए मनीषियों ने देवनागरी लिपि में ज्ञ संकेताक्षर बनाया मगर सही उच्चारण बिना समूचे हिन्दी क्षेत्र में इसे ग+य अर्थात ग्य के रूप में बोला जाता है। शुद्धता के पैरोकार ग्न्य, ग्न , द्न्य को अपने अपने स्तर पर चलाते रहे हैं। ठीक यही बात सिंह के सिंग / सिंघ उच्चारण के संदर्भ में भी लागू होती है। जारी

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8 कमेंट्स:

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

तो सिंह को ही शुद्ध माना जाये . बोलने के लहजे से भी शब्द की स्पेलिंग बदल जाती है .

दिनेशराय द्विवेदी said...

सुंदर विश्लेषण।
देवनागरी के व्यंजन समूहों की ध्वन्यात्मकता पर एक पाठ जरूरी है।

Rahul Singh said...

नरसिंह, आपने बताया ही, उदाहरण थे हमारे प्रधानमंत्री नरसिंह राव जी, जिनके नाम की स्‍पेलिंग Narsimha के कारण हिन्‍दी में नरसिम्‍हा लिखा जाने लगा. क्रिकेट वाले जयसिम्‍हा भी इसका एक उदाहरण हैं, जिनका नाम जयसिंह था.

निर्मला कपिला said...

ाच्छी जानकारी धन्यवाद।

प्रवीण पाण्डेय said...

अहा, अभी और शोध।

उम्मतें said...

दिनेश जी से सहमत !

Mansoor ali Hashmi said...

'पानी[णि]' नी पिलाते तो न होती सुसंस्किरत,
'संस्कार' पाके हमको मिली है यह 'संस्कृत',
अ'ज्ञा'न रहते 'सिंह' से; जो आते न 'सफ़र'* में, {*शब्दों के]
हो भी न पाती 'भाषा' हमारी 'परिष्कृत'.

Asha Joglekar said...

बहुत दिनों बाद आई ब्लॉग पर और शब्दों की ध्वनी और उच्चारण पर इतना अच्छा लेख मिला पढने को । मराठी भाषी सिंह को सिंव्ह और ज्ञान को द्न्यान ही उच्चारण करते हैं । सिंह के ही बिगडे या प्राकृत रूप हैं सिंग, सिन्हा वगैरा ।

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