पिछली कड़ी-हाथों की कुशलता यानी दक्षता
द क्ष में भी चतुर, योग्य, कुशल, निपुण या सक्षम का भाव है। दक्ष एक पौराणिक चरित्र भी हैं जिन्हें दक्ष प्रजापति भी कहा जाता है। ये ब्रह्मा के दस पुत्रों में एक थे। इनका जन्म ब्रह्मा के दाहिने अंगुठे से हुआ था। दक्ष को मानवसमाज के पितृपरक कुलों का प्रधान माना जाता है। इसकी पुत्री सती थी जिसका विवाह शिव से हुआ था। इसका एक रूप दाहिना या दायाँ भी है। स्पष्ट है कि दायाँ हाथ ही सर्वाधिक कुशल और कार्यक्षम होता है। दक्ष से दाहिना बनने का क्रम कुछ यूँ रहा- दक्षिण > दक्खिन > दहिन > दाहिना जैसे रूप सामने आए। बाद में दाहिना > दाह्याँ > दायाँ जैसे रूप भी बने। दक्षिण का देशी रूप दखिन बनता है। सिंधी में इसे डखिणु कहते हैं और कानड़ी में इसका रूप टेंकण बनता है। दक्षिण के दक्कन-दख्खन और अंग्रेजी के डेक्कन जैसे रूपान्तर भी हिन्दी में प्रचलित हैं। इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार में संस्कृत दक्ष के समतुल्य dek धातु तलाशी गई है जिसमें सामर्थ्य और क्षमता का भाव है मगर मूल भाव है दायाँ हाथ। इसका एक रूप अवेस्ता में दह्स बना है जिसमें दायाँ का भाव है, ग्रीक में यह डेज़ है तो लात्वियाई में डेक्स dex, लिथुआनानी में यह डेस्जीन deszine स्लाव में यह डेस्नू desneu है और गोथिक में taihswa है। कुशलता, प्रवीणता या निपुणता के अर्थ में अंग्रेजी का डेक्स्टेरिटी शब्द भी इसी मूल से जन्मा है।
आपटेकोश के मुताबिक दक्ष में इसमें ईमानदार, खरा, निष्कपट और शिष्ट शालीन जैसे भाव भी हैं। दक्ष से बने दक्षिण में भी चतुर, योग्य, कुशल, निपुण या सक्षम का भाव है। दक्षिण से ही बना है दक्षिणा जिसमें दक्षिण दिशा का भाव है। दक्षिणा का प्रचलित अर्थ है ब्राह्मणों को दी गई भेंट उपहार आदि है। इसमें दान, शुल्क, पारिश्रमिक आदि भी समाहित हैं। आज के दौर में रिश्वत को भी दक्षिणा कहा जाता है। भारत के दक्षिणी प्रदेशों को दक्षिणापथ कहा जाता है। प्रजापति दक्ष की पुत्री का नाम भी दक्षिणा है और दान की बछिया को भी दक्षिणा कहते हैं। अच्छी दुधारू गाय भी दक्षिणा है और दक्षिण दिशा भी दक्षिणा है। दक्षिण में प्र उपसर्ग लगने से बनता है प्रदक्षिण जिसमें दक्षिण की ओर रखा हुआ या दाईं ओर घूमनेवाला, सम्मानित और शृद्धालु का भाव है। दक्षिणम् में जाना, बाईं और से दाईं ओर गमन करने का भाप प्रदक्षिण में निहित है। आपटे कोश के अनुसार दक्ष से ही दाक्षायणी भी बना है। इसका अर्थ है 27 नक्षत्रों के मण्डल का कोई एक नक्षत्र। दाक्षायणी पार्वती का भी एक नाम है। 27 नक्षत दक्ष की पुत्रियों के प्रतीक हैं। रेवती नक्षत्र को भी दाक्षायणी कहते हैं। दाक्षिणात्य का अर्थ है दक्षिण दिशा या दक्षिण देश का।
आमतौर पर प्रदक्षिणा का अर्थ होता है किसी मंदिर या प्रतिमा के चारों और घूमना या परिक्रमा करना। मूलतः यह शब्द बना है संस्कृत के दक्षिण शब्द से जिसका अर्थ होता है योग्य, कुशल, निपुण, दायां या दक्षिणी। इसमें प्र उपसर्ग लगने से बना प्रदक्षिणा जिसका मतलब हुआ दाहिनी ओर स्थित या दाईं ओर घूमना। दिलचस्प बात यह कि प्रदक्षिणा की धार्मिक-- दार्शनिक व्याख्या ज़रूर हिन्दूधर्म शास्त्र में मिलती है मगर प्रदक्षिणा की परिपाटी कमोबेश हर धर्म में है। बौद्ध स्तूपों, चैत्यालयों, पगोडाओं में प्रदक्षिणापथ होते हैं। जैन मंदिरों में भी ये होते हैं। हज के दौरान काबा के पत्थर के चारों ओर संभवत दुनिया का सबसे बड़ा हूजूम जो परिक्रमा कर रहा होता है उसे क्या कहेंगे ? इस्लामी चिन्तन के दायरे में Tawaaf तवाफ का महत्व है जिसका रिश्ता सेमिटिक धातु ताफा से है। तवाफ़ यानी प्रदक्षिणा, परिक्रमा। इसमें किसी बिन्दु से शुरू कर फिर उसी स्थान पर लौटने का भाव है। यह क्रिया बारम्बार दोहराई जाती है। इसके पीछे चेतना को एकाग्र कर ज्ञान प्राप्ति की सोच है। दरअसल प्रदक्षिणा चिन्तन का स्थूल रूप है और आत्ममंथन सूक्ष्म रूप। प्रदक्षिणा के जरिये एकाग्र होने की प्रक्रिया सम्पन्न होती है और आत्ममंथन से ज्ञान रूपी सार प्राप्त होता है। तेज हवा जब भी चलती है, वह भंवर बनाती है। जल या वायु के तेज प्रवाह में ऐसा होता है। चक्रवाती हवा के इस चरित्र को देखते हुए विद्वान तूफान शब्द का रिश्ता सेमिटिक धातु ताफा tafa से जोड़ते हैं जिसमें घूमने, मुड़ने, चक्कर लगाने का भाव है। टाईफ़ून के संदर्भ में भी इसे देखा जा सकता है। भारत में प्रदक्षिणा की परिपाटी वैदिककाल से चली आ रही है । आर्यों में यज्ञ की परम्परा थी । यज्ञोपरांत दक्षिणास्वरूप दुधारू गायों को दान करने की परम्परा थी। ऐसा माना जाता है कि ये गाएं यज्ञस्थल पर वेदी के दक्षिण से उत्तर की ओर लाई जाती थीं इस तरह करीब करीब वेदी की परिक्रमा हो जाती थी जिसके लिए प्रदक्षिणा शब्द प्रचलित हो गया। यह भी माना जाता है कि प्राचीन भारतीयों ने सूर्य के निरंतर उदित और अस्त होने के क्रम के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने के लिए अग्निवेदी की परिक्रमा शुरू की होगी । डॉ राजबली पांडेय हिन्दू धर्मकोश में शतपथ ब्राह्मण का हवाला देते हुए एक प्रदक्षिणा मंत्र का उल्लेख करते हैं जिसमें कहा गया है– ‘सूर्य के समान यह हमारा पवित्र कार्य पूर्ण हो। ’ मूलतः भाव यही था कि जिस तरह सूर्यनारायण पूर्व में उदित होकर अपने नित्यक्रम पर चल पड़ते हैं और दक्षिणमार्ग से होते हुए पश्चिम दिशा में निर्विघ्न अस्ताचलगामी होते हैं उसी तरह मांगलिक विधान के तौर पर आसानी से धार्मिक कार्यों के संपादन हेतु प्रदक्षिणाकर्म का विधान रचा गया। प्रदक्षिणा बाद में हिन्दू समाज में धार्मिक क्रिया बन गई। धर्मग्रन्थों में इसे षोड्षोपचार पूजन की अनिवार्य विधि माना गया है। यज्ञ-हवन आदि के अलावा प्रतिमाओं के प्रति सम्मान दर्शाने के लिए भी बाईं ओर से दाईं ओर (इसे दक्षिण से उत्तर भी कह सकते परिक्रमा शुरु हो गई। बाद में तो मंदिरों में इस क्रिया के लिए विशेष तौर पर प्रदक्षिणापथ बनने लगे। अगली कड़ी-टैक्सी की तकनीक, टैक्स की दक्षता में समाप्त.
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5 कमेंट्स:
तब दक्षिण एक दिशा कैसे बनी, सब पूर्व की ओर देखकर कहते होगे।
वस्तुतः यह एक भ्रान्ति ही है कि ये दो जातियां थीं---शिवजी व नन्दी दक्षिण के थे पर उन्हें द्रविड कहां कहा जाता है...वास्तव में यह शब्द द्रव्य से बना है--जब समाज उन्नत हुआ तो धन का प्रचलन होने लगा...जो लोग द्रव्य को अत्यधिक महत्व देने लगे वे ही द्रविड , धन का सन्ग्राहक कहलाने लगे ( जैसे पण शब्द से पणिक= वणिक= वणिज़,बनियां, पण अर्थात मुद्राओं के विनिमय वाले)....बाद में बनियों की भांति उन्हें भी नीची नज़र से देखा जाने लगा और वे सुदूर दक्षिण को प्रयाण करते चले गये..
---इसीलिये उसे दक्षिण दिशा कहने लगे होंगे....
बहुत ही जानकारी भरा आलेख. हमेशा की तरह नई जानकारी से भरा . तौफ, ताफ, तूफ़ान की व्युत्पत्ति मालूम पड़ी . उत्तर में महाराष्ट्रियन ब्राह्मणों को भी दक्षिणी braह्मण कहा जाता है. पूर्व की तरफ( सूर्य की और) मुह करके खड़े हो तो दाहिने हाथ वाली दिशा दक्षिण और बाएं हाथ वाली उत्तर कहलाती .
'दक्षता' अपनी विरासत, 'प्रदक्षिणा' संस्कार है,
घूमना ही धर्म है, गर्दिश में ये संसार है.
खेल * उत्तर से चला 2G बना 'दक्षिण' पहुँच, * CWG
'आत्ममंथन' करके पाया ज्ञान रूपी 'सार' है.
-मंसूर अली हाश्मी
http://aatm-manthan.com
सोचने की बात ये मिली कि अगर अपने यहाँ दक्षिण का अभिप्राय दाहिने से है - तो खब्बुओं को अंगरेजी में southpaw क्यों कहते हैं?
[यानि कानि च पापानि जन्मान्तर कृतानि च ; तानि तानि विनश्यन्ति प्रदक्षिणम् पदे पदे ]
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