Friday, January 21, 2011

मजनूँ की औलाद और दीवाना

पिछली कड़ी-जिन्न का जनाज़ा और जीनियस MadLibs
जि न्न शब्द में निहित अदृष्य आत्मा की अर्थसत्ता जब बढ़ी तो इसके साथ चमत्कार भी जुड़े। जिन्न से आविष्ट व्यक्ति में अतिरिक्त ऊर्जा का संचार उससे अजीबोग़रीब हरकतें कराता है, जिसके मद्देनज़र बाद में इस धातु में अर्थविस्तार हुआ और इसका एक अर्थ उन्माद भी हुआ। सेमिटिक मूल की धातु j-n-n या g-n-h की अर्थवत्ता व्यापक है। हज़रत इनायत ख़ान के मुताबिक जुनून शब्द भी इसी मूल से उपजा है जिसमें हठ के साथ उन्माद भी शामिल है। हिन्दी में जुनून शब्द का खूब इस्तेमाल होता है। इसका संक्षिप्त रूप जुनूँ है जिसमें उन्माद, पागलपन, बौराना जैसे भाव है। सनकी व्यक्ति को जुनूनी भी कहा जाता है।

जुनून की चरमसीमा विक्षिप्त हो जाना है। जुनूँ में ही उपसर्ग लगने से बना है मज्नूँ जिसका प्रचलित रूप मजनूँ है। किन्तु इस धातु में निहित आवरण अथवा अदृष्य जैसे भावों पर गौर करें तो जुनूँ का अर्थ ज्यादा आसानी से समझ आता है। दरअसल मजनूँ वह है जिसकी समझदारी या तो नुमाँया नहीं होती या जिसका लोप है। मजनूँ का प्रचलित अर्थ प्रेमोन्मादी होता है। हर पागल आशिक को मजनूँ की उपाधि मिल जाती है। मजनूँ दरअसल इतिहास प्रसिद्ध आशिक है जिसकी प्रेमिका लैला थी। लैला से बेइंतेहा इश्क करते हुए उसने जुनूँ की हदें पार करते हुए अपनी जान कुर्बान कर दी इसीलिए उसे मजनँ कहा गया वर्ना उसका भी एक ख़ूबसूरत नाम हुआ करता था-क़ैस इब्न मुलव्वह। सातवीं सदी के अरब साहित्य के इस प्रसिद्ध प्रेमाख्यान की नायिका लैला का पूरा नाम था-लैला बिन महदी इब्न साद। यूँ उसे लैला अल आमीरिया के नाम से भी जाना जाता था। मज्नूँ का मूलार्थ अरबी में पागल या उन्मादी ही है। मजनूं शब्द में मुहावरे की अर्थवत्ता है। मजनूं की औलाद उसे कहा जाता है जिसके सिर पर इश्क का भूत सवार हो।
दीवाना diwana शब्द मूलतः फ़ारसी से हिन्दी में आया है जहाँ इसका मूल रूप दीवानः है। दीवाना का अर्थ है उन्मादग्रस्त, पागल, विचलित। दीवाना का अर्थ हिन्दी में मूलतः प्रेमोन्मादी व्यक्ति के रूप में लगाया जाता है। यहाँ दीवाना वही है जिसमें मजनूं की सिफ़त है। किन्तु फ़ारसी में दीवाना या दीवानगी में किसी काम के प्रति पागलपन भरी निष्ठा रखनेवाला, जुनून रखने का भाव निहित है। दीवाना वह भी है जो विषयासक्त है और जिसमें अतिन्द्रीय शक्ति हो और वह भी जो भ्रान्त, सनकी, उत्तेजित, उद्भ्रान्त, पागल या उन्मत्त या विक्षिप्त हो। इससे दीवानापन या दीवानगी जैसे लफ़्ज़ भी बने है। दीवाना शब्द बना है ज़ेन्दावेस्ता के देवो / देवा / देव से जिसका अर्थ है शैतानी शक्तियों का स्वामी अथवा इन्द्र। गौरतलब है कि इस देवो का रिश्ता भारोपीय भाषा परिवार के उसी द्यू / द्युओस से है जिसका अर्थ संरक्षक या ईश होता है। इसके मूल में भारतीय तथा ईरानी आर्यों की वैचारिक मतभिन्नता सामने आती है।
रथ्रुस्त्र का काल क़रीब ईसापूर्व दस सदी का माना जाता है। हिन्दी भाषा का उद्गम और विकास पुस्तक में उदयनारायण तिवारी लिखते हैं कि जरथुस्त्र के पूर्व के ईरानीय-आर्य, भारतीय-आर्यों की भाँति ही यज्ञपरायण तथा देवोपासक थे।
लैला से बेइंतेहा इश्क करते हुए उसने जुनूँ की हदें पार करते हुए अपनी जान कुर्बान कर दी इसीलिए उसे मजनँ कहा गया वर्ना उसका भी एक ख़ूबसूरत नाम हुआ करता था-क़ैस इब्न मुलव्वह
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अवेस्ता में आज भी उस प्राचीन-धर्म के चिह्न उपलब्ध हैं। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि ज़रथ्रुस्त्रीय-धर्म ग्रहण करने के पश्चात् भारतीय तथा ईरानीय आर्यों में पारस्परिक विद्वेष हो गया। इसके प्रमाण देव तथा असुर शब्द हैं। किसी समय भारतीय एवं ईरानी आर्यों वंशज एक ही स्थान पर रहते होंगे। कालान्तर में आर्थिक एवं धार्मिक कारणों से दोनों में झगड़ा हुआ तथा परिणामतः ये दो शाखाओ में विभक्त हो गए। एक शाखा ईरान में जाकर बस गई तथा दूसरी आगे बढ़ती हुई भारतवर्ष में आकर पंजाब में बस गई। इस विभेद का प्रभाव इनके विचारों पर भी पड़ा। पहले दोनों ही देव शब्द से तात्पर्य देवता से लेते थे परन्तु मतभेद के कारण अब ईरानियों के लिए देव का अपकर्ष हो गया और भारतीय आर्यों के लिए असुर का। ईरानियों ने असुर को देवता के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। ईरानीयों में देव का अर्थ है अपदेवता अथवा राक्षस। इस प्रकार आर्यों के प्राचीन देवता नासत्य एवं इन्द्र आदि ईरानियों के लिए अपदेवता बन गए हैं। अवेस्ता में देव शब्द का अर्थ यही है। ठीक इसी प्रकार संस्कृत में असुर शब्द के अर्थ में विपर्यय हो गया है। ऋग्वेद के प्राचीनमंत्रों में असुर शब्द वरुण आदि देवताओं के विशेषण के रूप में व्यवहृत हुआ है। अवेस्ता में भी ईश्वर को अहुरमज़्दा-असुरमेधा अथवा महद्ज्ञानस्वरूप कहा गया है, किन्तु आगे चलकर वैदिक साहित्य में ही असुर शब्द देव विरोधी अथवा राक्षास वाची हो गया। इस प्रकार इन दो शब्दों में ईरानीय तथा भारतीय आर्यों के धार्मिक कलह का इतिहास सन्निविष्ट है।
जॉन प्लैट्स के अनुसार ज़ेद के दिव, देव, देउआ (dev div) से ही पह्लवी में dee बना। इसमें ज़ेंद का अन या अना प्रत्यय लगने से फ़ारसी का दीवाना शब्द बना। दो आर्य समूहों में वैचारिक भिन्नता के चलते ही देवासुर जैसे शब्दों की अर्थवत्ताएँ बदली। जेंदावेस्ता में देव शब्द का अर्थ शैतानी शक्ति समझा गया है और इन्द्र को सचमुच शैतान माना गया है। गौरतलब है कि देव शब्द का विस्तार कई भाषाओं में हुआ है जैसे बलूची, कुर्दिश और आर्मीनियाई में  यह द्यु है। इसी तरह देवता के लिए इंडो-यूरोपीय धातु है deiwos. इससे विभिन्न भाषाओं में सर्वशक्तिमान, शक्तिशाली के अर्थ में कई शब्द बने हैं जैसे जर्मनिक भाषाओं में टिवाज़, तो लटिन परिवार की भाषाओं में डियस, इंडो-ईरानी परिवार में देव या दैवा और बाल्टिक परिवार में दैवस् जैसे शब्द बने हैं। ग्रीक ज्यूस या जीयस, रोमन जुपिटर जैसे शब्द भी इसी कड़ी से जुड़े हैं। दिन के लिए दिवस शब्द के मूल में भी यही धातु काम कर रही है। दिव् मे सर्वशक्तिमानता के साथ साथ प्रकाश, प्रभा, आभा जैसे आदभाव भी हैं जिनके जरिए सर्वप्रथम मनुष्य को सूर्य के पिण्ड में प्रकाश और ताप की अलौकिक अनुभूति हुई थी। देव के साथ अलौकिकता का भाव तो शुरू से रहा है। दीवाना शब्द से कुछ मुहावरे भी जुड़े हैं जैसे दीवानगी की हद से गुज़र जाना यानी उन्माद का अत्यधिक बढ़ जाना, दीवाना होना यानी किसी बात के प्रति अत्यधिक झुकाव होना वगैरह।
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3 कमेंट्स:

प्रवीण पाण्डेय said...

धधकता जुनूँ है, हूँ मजनूँ नहीं,
हृदय में है मरुथल, फिरूँ मैं वहीं।

निर्मला कपिला said...

मजनूँ, दिवाना लिखते तो बहुत बार हैं अर्थ भी पता हैं लेकिन इतने विस्तार मे इन शब्दों की उत्पति को आज ही जाना । धन्यवाद।

Mansoor ali Hashmi said...

'शब्दों' के प्रति आपकी 'दीवानगी', कितने ही राज़ो से हमें आगाह कर रही है.
अब यही न कि 'देवताओं' के नाम तक हम इंसानों ने "लड़-झगड़" कर रखे है; तो थोड़ा धर्म के नाम पर अब उत्पात कर लेते है तो क्या हुआ ?
लेख पढ़ते वक़्त 'बेग़म अख्तर' की आवाज़ में ग़ज़ल की ये पंक्तियाँ मुसलसिल कानो में गूंजती रही:

"कुछ कम ही तअल्लुक है मोहब्बत का जुनू से,
दीवाने तो होते है बनाए नही जाते."
-मंसूर अली हाश्मी

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