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Wednesday, March 2, 2011
बेपेंदी का लोटा और लोटा-परेड
बर्तन भाण्डों में लोटा एक ऐसा पात्र है जो पुराने ज़माने से ही बहुउपयोगी है। लोटा दरअसल धातु से बना ऐसा पात्र है जो घड़े जैसा दिखता है मगर आकार में उससे बेहद छोटा होता है। लोटा कलसी से छोटा पात्र है। लोटा का भी एक छोटा रूप होता है-लुटिया जो प्रायः वृद्धों के हाथों में होती है। पुराने ज़माने जब उनके हाथों से यह लुटिया पानी में डूब जाती थी तो मानो मुश्किलों की शुरुआत ही हो जाती थी। वानप्रस्थी हो या सन्यासी, पानी की लुटिया सबके लिए ज़रूरी थी। दिशा मैदान यानी प्रातःकालीन संस्कारों से लेकर सन्ध्यावंदन के समय तक यह लुटिया जीवनसंगिनी की तरह न जाने कितने कर्तव्य निभाती थी। सुबह का मुख प्रक्षालन, स्नान, जाप, सूर्य को अर्घ्य, कलेवा के वक्त यज्ञोपवीत के कर्तव्य। फिर सन्ध्यावन्दन आदि। अब स्नान के वक्त कुएं या नदी में जिसकी लुटिया डूबी, समझो उस पर तो आफ़त का पहाड़ टूट पड़ता था। इसीलिए सर्वनाश, नुकसान आदि के अर्थ में लुटिया डूबना जैसा मुहावरा आज तक प्रचलित है।
लोटा शब्द की व्युत्पत्ति कुछ लोग संस्कृत की लुट् धातु से जोड़ते हैं जिसमें लोटना, लुढ़कना जैसे भाव शामिल हैं। लुट् धातु में मूलतः प्रतिकार या प्रतिरोध मूलक भाव हैं जिसका अर्थ मुकाबला करना, पीछे धकेलना है। इससे मिलती जुलती धातु है लुठ् जिसमें स्पष्टतः प्रहार के साथ पछाड़ने का भाव है। यहाँ साफ हो रहा है कि प्रतिस्पर्धी को धराशायी कराने की क्रिया प्रमुख है। धराशायी होना अर्थात भूमि पर लोट-पोट होना। लुठ् से ही लुठनम् बना है जिसका अर्थ है लोटना, लोटा हुआ आदि। लुट्, लुठ् के बाद लुड् धातु भी है जिसमें भी मूलतः गोलगोल घूमने का भाव ही है मगर इसकी क्रिया लोड़न अर्थात विलोड़न की है जैसे दही बिलोना। बेपेंदी का लोटा जैसी कहावत पर अगर गौर करें और लुट् में निहित लुढ़कने की क्रिया को महत्वपूर्ण मानें तो लुट् से लोटा की व्युत्पत्ति सही नज़र आती है। हालाँकि एक पात्र के रूप में विचार करने पर लुट् से लोटा के जन्मसूत्र की कल्पना गले नहीं उतरती। लोटा एक पात्र है जिसमें किसी तरल को आश्रय पाना है। लोटे के लुढ़कने से बर्तन के रूप में लोटा अपने इस्तेमाल की गुणवत्ता पर सौ फ़ीसद खरा नहीं उतरता। दूसरी बात, लोटा ही क्यों, प्राचीनकाल में अधिकांश बर्तन जैसे बटलोई, देगची, कढ़ाही, घड़ा, मटका आदि बेपेंदी के ही होते थे। तब इन सबको भी लोटा ही कहा जाना चाहिए था। मगर इनके लिए अलग अलग नाम प्रचलित हुए।
कृ.पा. कुलकर्णी के मराठी व्युत्पत्ति कोश के अनुसार मराठी के लोटा या लोटके जैसे शब्दों की व्युत्पत्ति संस्कृत के लोष्ट से हुई है। आपटे कोश के अनुसार लोष्ट् क्रिया का अर्थ है ढेर लगा, अंबार लगाना। इसी तरह लोष्टु का अर्थ है ढेला, मिट्टी का लौंदा। स्पष्ट है कि ये दोनों ही अर्थ लोटा शब्द से ध्वनिसाम्य तो बना रहे हैं, मगर इससे अर्थस्थापना नहीं होती। लोटा महज़ एक ढेर या लौंदा नहीं है। अगर कल्पना करें कि यहाँ अभिप्राय कुम्हार के चाक पर रखे मिट्टी के उस लौंदे से है जिससे लोटा गढ़ा जाना है, तब भी कुछ सिद्ध नहीं होता क्योंकि लोष्ट से लोटा बनने की क्रिया दरअसल मिट्टी से पात्र बनने की क्रिया है। तब लोष्ट के भौतिक रूपान्तर को भी लोष्ट ही कहना तार्किक नहीं लगता। दूसरी खास बात यह भी कि लोटा हमेशा धातु का ही बनता रहा है, मिट्टी का नहीं। बड़े बड़े घड़े ज़रूर मिट्टी के बनते रहे। बात दरअसल यह थी कि बड़े घड़े तो पानी के स्थायी इंतजाम के लिए थे, जिन्हें साथ लेकर चलना नहीं पड़ता था। इसके विपरीत साथ ले जानेवाले छोटे पात्र के रूप में धातु के लोटे इसलिए उपयोगी थे क्योंकि लगातार गतिशील रहते मनुष्य के साथ इनके साथ टूट-फूट का खतरा नहीं था।
मराठी के विद्वान द.ता. भौंसले लोटा के मराठी रूप लोटका की व्युत्पत्ति के संदर्भ में कन्नड़ भाषा के लोटो का उल्लेख किया है, मगर यह स्पष्ट नहीं है कि कन्नड़ का लोटो कहाँ से आया। हालाँकि भौंसले लोटा शब्द की व्युत्पत्ति लौहघट से बताते हैं मगर उस पर कन्नड़ के लोटो को वरीयता देते हैं। उनका मत है कि लौहघट में तो सभी तरह के धातु के बर्तन आ जाते हैं। हमारा मानना है कि यह कमजोर तर्क है। लौहघट में लोटा की व्युत्पत्ति के अर्थसाम्य और ध्वनिसाम्य वाले उपकरण भी काम कर रहे हैं साथ ही यह व्युत्पत्ति तार्किक भी है। लौहघट में लोटे के घट की आकृति का ब्योरा छुपा है। लोटे से जुड़े भी कुछ मुहावरे हिन्दी में प्रचलित हैं जैसे बेपेंदी का लोटा यानी अस्थिर चित्त व्यक्ति। अपने मत पर दृढ़ न रहनेवाले शख्स के लिए यह मुहावरा अक्सर सुना जाता है। लोटा थाली बिकना एक ऐसा मुहावरा है जिसमें निर्धनता और दारिद्र्य का भाव है। सीधी सी बात है। न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मनुष्य को दो वक्त का भोजन चाहिए और इस इच्छा की पूर्ति के लिए लोटा-थाली की ज़रूरत पड़ती है। यही मनुष्य की सर्वाधिक ज़रूरी निजी सम्पत्ति भी कहलाती है। अगर धन की व्यवस्था के लिए भोजन और दैनन्दिन कर्म से जुड़े ये उपकरण भी बिक जाएं तो निश्चित ही दुर्भाग्य के बादल उस व्यक्ति को निर्धन बनाने के लिए उमड़ पड़े हैं। पेचिश या दस्त लगने के संदर्भ में भी यही लोटा मरीज को तक़लीफ़ का नाम लेने से उबारता है। समझदार लोगों ने दस्त लगने के संदर्भ में लोटा-परेड उक्ति बना कर दस्त शब्द के प्रयोग से मुक्ति पा ली। दस्त पेचिश के शिकार व्यक्ति को बार बार हाज़त होने की अभिव्यक्ति लोटा-परेड में बखूबी हो रही है।
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11 कमेंट्स:
ये बेपेंदा लोटा सुनते ही मुरादाबादी भी स्मरण होता है।
लोटा प्राथमिक आवश्यकताओं का प्रतीक रहा है, यात्राओं का अभिन्न अंग। गमछा और लोटा।
खूब याद दिलाया आपने ....लोटे को .
अच्छी पोस्ट |आज कल तो लोटे की जगह जग ने लेली है |फिर भी बेपेंदी के लोटों की कमी नहीं |
आशा
बहुत शानदार विश्लेषण...
O'Brien आज 'गोरो' की 'लुटिया' डुबो गया,
तेरह के आंकड़ो के वो चग्गे चढ़ा गया,
छक्के की गिनती को भी वो 'छक्का' बना गया,
'Tie'* में बाँध, 'बंगलुरु' उनको घुमा गया. *[ भारत से प्राप्त]
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'बेपेंदी' होना काम में आता है आजकल,
मेहनत बिना मिले है वो भाता है आजकल,
GDP का बुखार तो चढ़ता हुआ लगे,
हरएक बजट के मूल में घाटा है आजकल.
mansoor ali हाश्मी
http://aatm-manthan.com
लोट्टो शूज़ : बेपेंदी का जूता :)
बढ़िया जानकारी दी लोटे के बारे में.
पहले लोटे का तला गोल होता था इसी से वह लुढकता था और उसे लोटा कहते थे हमारे घर में एसे लोटे होते थे । पर अब तो लोटे को अच्छा खासा चौडा तला होता है और वह लुढकता भी नही ।
लोटा शब्द की व्युत्पत्ति बारे विभिन्न मत जानकर ज्ञान में वृद्धि हुई. लीजिये एक और पेश है. आप इसको सही माने या न माने फिर भी आपके दृष्टिगोचर होना ज़रूरी है. अंग्रेज़ी के अनेक कोशों तथा पलैट्स और टर्नर के कोशों से भी यह संकेत मिलता है कि लोटा शब्द हिंदी/उर्दू से आया है लेकिन कोई भी इसकी व्युत्पत्ति बारे कुछ नहीं कहता . हम जानते हैं कि हमारी भाषाओँ में बहुत से शब्द प्राचीन काल से ही ग्रीक से भी आए हैं. लगभग ऐसे ही पात्र के लिए एक ग्रीक शब्द है louter जिस का अर्थ है हाथ मूंह धोने या स्नान करने वाला बर्तन. यह शब्द अंग्रेज़ी louterophoros के रूप में भी मिलता है और जिसका अर्थ ऊंचा और लम्बी गर्दन वाला डंडीदार जलपात्र है. ये ग्रीक शब्द अंग्रेज़ी lavatory का सुजाती है जिसका मूल अर्थ भी हाथ-मूंह धोना ही है. इसके बारे और खोज कीजिये. -बलजीत बासी
देगची, घड़ा, मटका, आदि भले बेपेंदी के होते थे लेकिन ये स्थायी इंतजाम के लिए थे. घड़े को एक जगह रख दिया जाता था, यह व्यवस्था करके कि लुढ़कने न पाए. इसके विपरीत लोटा साथ लेकर यहां वहाँ चलते हैं और उसके न लुढ़कने का कोई इंतिज़ाम नहीं करते. इसलिए घड़ा, मटका, आदि बेपेंदी वाले बर्तनों को लोटा न कहना समझ आता है.
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