हिन्दी में ‘अश्लील’ शब्द का प्रयोग एक खास सन्दर्भ में ही किया जाता है। काम (SEX) सम्बन्धी बुरी, घटिया सी कोई बात, कुत्सित मानसिकता से रची गई कोई कृति, उन्मुक्त यौनाचरण की रचना, किन्हीं व्यक्तियों के यौन सम्बन्धों पर अशोभनीय टिप्पणी, अपशब्द या गाली-गलौज समेत लज्जाजनक, फूहड़ और गंदी बातचीत या सामग्री का प्रदर्शन अश्लीलता की श्रेणी में आता है। यौन भावनाओं को उभारने के लिए देह का नग्न प्रदर्शन भी अश्लीलता है। इन अर्थों से हट कर कही गई कोई भी बात घटिया, भद्दा, गँवारू, असभ्य, अशिष्ट कह दी जाती है। मगर प्रचलित अर्थों में ‘अश्लील’ को अभिव्यक्त करने के लिए अगर ‘अश्लील’ का प्रयोग न किया जाए तब तो अशोभनीय, गंदी या लज्जाजनक जैसे शब्दों का ही प्रयोग करना पड़ता है। इसके बावजूद ‘अश्लीलता’ का भाव उजागर नहीं होता। ‘अश्लील’ शब्द की व्याप्ति जबर्दस्त है और हिन्दीभाषियों ने हर क्षेत्र में ‘अश्लील’ का प्रयोग अपनी अभिव्यक्ति के लिए किया है जैसे वस्तु, संवाद, शब्द, भाषा, कला, विचारधारा, सोच, लोग, ग्रन्थ, संकेत, अभिव्यक्ति, शिक्षा वगैरह वगैरह।
अश्लील बना है ‘अश्रीर’ से। बोलचाल की भाषा में ‘र’ के स्थान पक ‘ल’ उच्चारने में लोगों को सुविधा होती है। अक्सर बालक या ग्रामीणजन ऐसा करते हैं क्योंकि शुद्ध उच्चारण से अधिक अभिव्यक्ति की उन्हें जल्दी रहती है। इसीलिए संस्कृत में उक्ति है- रलयोः अभेदः। ‘अश्रीर’ से बने ‘अश्लील’ में भी यही हो रहा है। ‘अश्रीर’ में अ + श्री स्पष्ट है। संस्कृत में ‘श्री’ का अर्थ है सौन्दर्य, वैभव, मांगल्य अथवा गुणकारी। मंगल, कल्याण, ऐश्वर्य और श्रेष्ठत्व से जुड़े सभी भाव “श्री” में समाहित हैं। ‘श्री’ तो स्वयंभू है। “श्री” का जन्म संस्कृत की ‘श्रि’ धातु से हुआ है जिसमें धारण करना और शरण लेना जैसे भाव हैं। जाहिर है समूची सृष्टि के मूल में स्त्री शक्ति ही है जो सबकुछ धारण करती है। इसीलिए उसे “श्री” कहा गया अर्थात जिसमें सब आश्रय पाए, जिसके गर्भ से सब जन्मे हों। सर्वस्व जिसका हो। ‘श्री’ आदि शक्ति है, मातृशक्ति है। प्रकृति ‘श्री’ है और वसुधा भी ‘श्री’ है।
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हिन्दी में मंगलकारी, वैभवकारी, सुंदर जैसे अर्थों में अकले ‘श्लील’ या ‘श्रीर’ का प्रयोग नहीं होता। ‘अ’ युक्त ‘श्लील’ यानी ‘अश्लील’को ही हिन्दी ने अपनाया क्योंकि ‘श्लील’ से जुड़े भावों को अभिव्यक्ति करनेवाली एक सुदीर्घ शब्दावली पहले से उसके पास थी।
इस तरह देखें तो लक्ष्मी, समृद्धि, सम्पत्ति, धन, ऐश्वर्य आदि सब कुछ श्रीमय है। सत्ता, राज्य, सम्मान, गौरव, महिमा, सद्गुण, श्रेष्ठता, बुद्धि आदि भाव भी इसमें समाहित हैं। धर्म, अर्थ, काम भी इसमें शामिल हैं। वनस्पति जगत, जीव जगत इसमें वास करते हैं। अर्थात समूचा परिवेश श्रीमय है। भगवान विष्णु को ‘श्रीमान’ या ‘श्रीमत्’ की सज्ञा भी दी जाती है। गौरतलब है कि “श्री” स्त्रीवाची शब्द है। उपरोक्त जितने भी गुणों की महिमा “श्री” में है, उससे जाहिर है कि सारा संसार “श्री” में ही आश्रय लेता है। अर्थात समस्त संसार को आश्रय प्रदान करनेवाली “श्री” के साथ रहने के कारण भगवान विष्णु को ‘श्रीमान’ कहा गया है। इसलिए वे ‘श्रीपति’ हुए। इसीलिए ‘श्रीमत्’ हुए। भावार्थ यही है कि ईश्वर कण-कण में व्याप्त हैं। “श्री” और ‘श्रीमान’ शब्द अत्यंत प्राचीन हैं। इनमें मातृसत्तात्मक समाज का स्पष्ट संकेत है। विष्णु सहस्रनाम के विद्वान टीकाकार पाण्डुरंग राव के अनुसार समस्त सृष्टि में स्त्री और पुरुष का योग है। ‘श्रीमान’ नाम में परा प्रकृति और परमपुरुष का योग है।
यहाँ “श्रीर” का अर्थ स्पष्टतः ‘श्री’ से युक्त समझ में आ रहा है। जिसमें ‘श्री’ से जुड़े सभी गुण हैं। विपुलता, वैभव, समृद्धि, सौभाग्यपूर्ण, मंगलकारी जैसे भाव हैं। इस महिमायुक्त “श्री” से पहले जब नकारात्मक उपसर्ग ‘अ’ लगता है तो “श्री” की महिमा श्रीहीन हो जाती है। अश्रीर का अर्थ हुआ अशोभनीय, लज्जाजनक, पतित, अमंगलकारी। ऐसी भाषा या शब्द जिनसे फूहड़ता, अभद्रता, अंमगल, अकल्याण की अभिव्यक्ति होती हो। निर्लज्जता की पराकाष्ठा, अश्रवणीय वचन या अश्रवणीय दृष्य या कृति सभी कुछ ‘अश्रीर’ है। इस तरह ‘श्रीहीन’ ही ‘अश्लील’ है। बोली भाषा में ‘श्रीर’ का ‘श्लील’ हुआ। संस्कृत के पौराणिक साहित्य में ये दोनों ही रूप हैं और समकालीन हैं। मोनियर विलियम्स कोश के मुताबिक ब्राह्मण साहित्य अर्थात ऐतरेय ब्रह्मण, शाङ्खायन ब्राह्मण आदि में इनका प्रयोग मिलता है। मगर लकारयुक्त ‘श्लील’ का प्रचलन अधिक हुआ। हिन्दी में मंगलकारी, वैभवकारी, सुंदर जैसे अर्थों में अकले ‘श्लील’ या ‘श्रीर’ का प्रयोग नहीं होता। ‘अ’ युक्त ‘श्लील’ यानी ‘अश्लील’को ही हिन्दी ने अपनाया क्योंकि ‘श्लील’ से जुड़े भावों को अभिव्यक्ति करनेवाली एक सुदीर्घ शब्दावली पहले से उसके पास थी। बहरहाल, अश्लील में चाहे ‘श्री’ की महिमा से रहित होने का भाव है फिर भी इसमें ‘श्री’ मौजूद है।
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