Sunday, February 19, 2012

महावत की महिमा

mahavat

ब्द ही ब्रह्म है और शब्द की सत्ता हमेशा कायम रहती है। यह बात बिलकुल सही है किन्तु शब्दों की दुनिया में भी सत्ता परिवर्तन होता है। कल तक किसी खास अर्थवत्ता को वहन करने वाले शब्द के आज प्रचलित न हो पाने के कई कारण हो सकते हैं। इसमें सबसे खास है सामाजिक परिवर्तन। निरन्तर परिवर्तनशील समाज में लोक-व्यवहार से लेकर तकनीकी प्रगति जैसे कारण प्रमुख होते हैं। तकनीक बदलने के साथ ही उससे जुड़े शब्द भी अपनी अर्थवत्ता या तो खो देते हैं अथवा नई तकनीक के सन्दर्भ में पुराने शब्द की अर्थवत्ता बदल जाती है। प्राचीन काल में मनुष्य पशुओं की पीठ पर सवारी करता था या उन पशुओं द्वारा खींचे जाने वाले वाहनों के ज़रिये यात्रा करता था। ऐसे में इन वाहन चालकों या पशुओं को निर्देशित करने वाले लोगों के लिए अलग अलग नाम होते थे जैसे रथ को चलाने वाला सारथी कहलाता था। बैलगाड़ी, घोड़ागाड़ी चलाने वाले को गाड़ीवान, कोचवान कहते थे। रथ चाहे चलन से बाहर हो गए, मगर सारथी शब्द ने अपनी अर्थवत्ता बदल ली और अब सारथी का अर्थ साथी, पथप्रदर्शक जैसे भावों को व्यक्त करने के लिए होने लगाया है। ड्राइवर या चालक के रूप में सारथी शब्द अब दुर्लभ है। हाथी को नियन्त्रित करने वाले को संस्कृत हिन्दी में महावत कहते हैं। किसी ज़माने में हाथी को काबू में करने का काम बेहद महत्वपूर्ण था और इसके लिए कई शब्द थे जैसे-आंकुशिक, करीपति, गजचालक, फ़ीलवान, महामात्र, गजपाल, अधिरोह आदि । अब हाथियों का प्रयोग सीमित हो जाने से ये तमाम शब्द भी बोल-व्यवहार से लापता हो गए हैं इसके बावजूद महावत शब्द हिन्दी में बना हुआ है ।
प्राचीनकाल में राजा-महाराजाओं के लिए हाथी की सवारी सबसे आलीशान होती थी। जंगल का राजा चाहे शेर हो पर वहां भी हाथी की स्वतंत्र-स्वायत्त सत्ता रही है। हाथी को हाँकने वाला, नियन्त्रित करने वाला सक्षम व्यक्ति अधिकारी का दर्ज़ा रखता था । उसे महामात्र कहते थे । किन्हीं सन्दर्भों में महामात्र को महामात्य के समकक्ष भी बताया गया है । मौर्यकाल में अमात्य मन्त्री स्तर का अधिकारी होता था । महामात्य प्रधानमन्त्री को कहते थे । मोनियर विलियम्स के कोश में महामात्र को अत्यन्त उच्च पदस्थ अधिकारी,जो प्रधानमन्त्री भी हो सकता है, बताया गया है। प्रधानमन्त्री की पत्नी को महामात्री कहा जाता था । हाथियों का व्यवस्थापक, प्रबन्धक और संरक्षक भी महामात्र कहलाता था । इसमें उन्हें हाँकने वाले सक्षम व्यक्ति का भाव भी निहित है । सामासिक पद है और महा + मात्र से मिल कर बना है । महामात्र में सर्वोच्चता का भाव है । महा अर्थात भव्य, विशाल, बड़ा, प्रधान या उच्च । मात्र शब्द परिमाणवाची है अर्थात पद, आकार, साइज का इससे बोध होता है । लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई, ऊँचाई, गहराई जैसे आयामों के परिमाप का आशय इससे प्रकट होता है । मात्र में बेजोड़, अतुलनीय, सिर्फ या बहुतों में विशिष्ट जैसा भाव भी है । मात्रा का अर्थ कोई वस्तु, तत्व या भौतिक पदार्थ भी है । कुल मिला कर संज्ञा के अर्थ में जब मात्रा से पूर्व महा उपसर्ग लगता है तो उसमें निहित सर्वोच्चता का आशय एकदम स्पष्ट है । महामात्र यानी शासन की ओर से नियुक्त सर्वोच्च अधिकारी । पुराने ज़माने में बाद में प्रशासनिक सुविधा के लिए विभिन्न विभागों के सर्वोच्च अधिकारी को महामात्र कहा जाने लगा ।
गौरतलब है कि अशोक कालीन प्रशासनिक व्यवस्था सम्बन्धी शिलालेखों में महामात्र शब्द का प्रयोग हुआ है । मूलतः महामात्र शासनाधिकारी का पद था । राजस्व, सीमांकन, धर्मशास्त्र, रनिवास आदि के प्रबन्ध-कर्म से जुड़े उच्चाधिकारियों को महामात्र कहा जाता था । पुराने ज़माने में शासन के पास हाथियों की समूची वाहिनी होती थी । सैन्यकर्म के अतिरिक्त इनसे कई तरह के काम लिए जाते थे । हाथीखाना, फीलखाना जैसे शब्दों से जाहिर है कि हाथियों को सम्भालने वाला विभाग भी अत्यंत महत्व का था । इस विभाग के प्रमुख को भी महामात्र का दर्जा मिला हुआ था । महामात्र न सिर्फ हाथियों की व्यवस्था देखता था बल्कि हाथियों पर नियन्त्रण करने में भी वह निष्णात होता था । महामात्र से महावत बनने का क्रम कुछ यूँ रहा होगा- महामात्र > महामात्त > महावत्त > महावत । संस्कृत की पृष्ठभूमि वाले कुछ अन्य शब्द भी हैं जिनका आशय महावत से है जैसे अधिरोह । हालाँकि अधिरोह शब्द में सिर्फ हाथी की सवारी जैसी कोई बात नहीं है मगर इसका अर्थ हाथी-सवार होता है । रोह यानी चढ़ना, आसीन होना । इससे में अधि उपसर्ग लगने से अधिरोह बना है । अंकुशी या अंकुसी भी ऐसा ही एक शब्द है । हाथी पर नियन्त्रण रखने के लिए उसके सिर में चुभोने वाले काँटे को अंकुश कहते हैं , अंकुशी यानी जिसके पास अंकुश हो । अंकुश के आशय से महावत के लिए एक अन्य देशी शब्द बना है गड़दार अर्थात जो गड़ाने का काम करता है, यानी महावत । आप्टेकोश में महावत के अर्थ में हास्तिकः शब्द भी मिलता है । अमरकोश में हास्तिकम् का अर्थ है हाथियों का समूह । इसी तरह महावत के लिए नागवारिकः भी शब्द भी है । हाथियों के समूह के नेता को भी यह नाम दिया जाता है । यही नहीं, किसी भी समाज का प्रमुख व्यक्ति भी नागवारिक कहला सकता है । हाथी को हाँकने वाले के लिए हस्तिचारिन शब्द सबसे सही है ।
हिन्दी में महावत के लिए फ़ीलवान और हाथीवान शब्द भी है । हाथी को फ़ारसी में फ़ीला कहा जाता है और इसमें वान प्रत्यय लगा कर फ़ीलवान संज्ञा बनी । यूँ फ़ीला शब्द भारत-ईरानी भाषा परिवार का शब्द है और इसका रिश्ता संस्कृत से है । राजस्थानी में फ़ीलवान का रूप पीलवाण हो जाता है । फीला शब्द का रिश्ता संस्कृत की पील् धातु से है, जिसमें एक साथ सूक्ष्मता और समष्टि दोनो का भाव है। इसका अर्थ होता है अणु या समूह। सृष्टि अणुओं का ही समूह है। चींटी सूक्ष्मतम थलचर जीव है। चींटे के लिए संस्कृत में पिपिलकः, पिलुकः जैसे शब्द हैं। बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल में भी चींटी को पिपिलिका ही कहा जाता है। जो लोग पुराने अंदाज़ वाले शतरंज के शौकीन हैं वे इसके मोहरों का नाम भी जानते होंगे। इसमें हाथी को फीलः या फीला कहा जाता है। यह फारसी का शब्द है और अवेस्ता के पिलुः से बना है। संस्कृत में भी यह इसी रूप में है। इसमें अणु, कीट, हाथी, ताड़ का तना, फूल, ताड़ के वृक्षों का झुण्ड आदि अर्थ भी समाये हैं। गौर करें इन सभी अर्थों में सूक्ष्मता और समूहवाची भाव हैं। फाईलेरिया एक भीषण रोग होता है जिसमें पाँव बहुत सूज कर खम्भे जैसे कठोर हो जाते हैं। इस रोग का प्रचलित नाम है फीलपाँव जिसे हाथीपांव या शिलापद भी कहते हैं। यह फीलपाँव शब्द इसी मूल से आ रहा है। महावत को फारसी, उर्दू या हिन्दी में फीलवान भी कहते हैं।

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7 कमेंट्स:

प्रवीण पाण्डेय said...

राज चलाना हाथी चलाने जैसा ही कठिन कार्य है, कारण है विशालता।

RDS said...

वडनेरकर जी,

अर्जुन के सखा और परामर्शदाता के रूप में कृष्ण ने सारथी की महत्ता को बडा आयाम दिया । एक बौद्धिक स्तर का विलक्षण संवाद सारथी के मुख से उदभूत होने की वह शायद इतिहास की इकलोती और बडी अदभुत घटना थी । श्रीमद्भगवत्गीता का प्रणयन सारथी के मुख से ! सारथी के महत्व को सार्थक करती है ।

महामात्र से महावत तक की शब्दयात्रा असहज सी लग रही है । महामात्य स्वयं हाथी को नियंत्रित करने का कार्य करते होते तब तो बात उचित लगती । रहस्य थोडा और खोलें तो शंका मिटे !

सादर,

अजित वडनेरकर said...

@आरडी सक्सेना
आरडी भाई की जै हो ।

महामात्य शब्द तो प्रसंगवश आया है । महामात्र वाले महावत से इसका कोई व्युत्पत्तिक रिश्ता नहीं है, ऐसा मैने लिखा भी नहीं है ।
अपनी विकासयात्रा में महामात्र शब्द का महावत रूप ही आज बचा हुआ है । महामात्र किसी काल का महामात्य भी था और वरिष्ठ अधिकारी भी ।
किसी ज़माने का कोटपाल यानी किले का अधिपति, किलेदार शब्द आज कोटवार है जो ग्रामीण व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर खड़ा है ।
मौर्यकाल में महामात्र नाम से कई अफ़सर होते थे । इनमें से महावत में ही आज उसके अवशेष बाकी हैं ।
महामात्र का हाल कुछ अहदी http://shabdavali.blogspot.in/2011/10/blog-post_21.html जैसा ही हुआ है ।

RDS said...

शंका निवारण के लिये धन्यवाद ! सादर वन्दन करता हूँ ।

Mansoor ali Hashmi said...

Mansoor Ali said...
'फीलवान' अब चलन से ख़ारिज है,
अब 'महावत' का बस भी कम चलता,
राज करती 'महावती' देखी,
पेट 'हाथी' का नोट से पलता !
http://aatm-manthan.com

FEBRUARY 20, 2012 2:08 PM

Mansoor ali Hashmi said...

Mansoor Ali said...
'फीलवान' अब चलन से ख़ारिज है,
अब 'महावत' का बस भी कम चलता,
राज करती 'महावती' देखी,
पेट 'हाथी' का नोट से पलता !
http://aatm-manthan.com

विष्णु बैरागी said...

इन दिनों नेताओं की रथयात्रा का चलन शुरु हो गया है। उम्‍मीद है कि 'सारथी' भी चलन में आ जाएगा। हॉं, हमारे नेता हाथी हो ही गए हैं। उनके लिए महावत अब जरूरी हो गए हैं।

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