Saturday, February 4, 2012

कृपया हमें वापरें…व्यापार करें…

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विदेशी ही नहीं, क्षेत्रीय बोलियों के शब्दों की आवाजाही भी हिन्दी में होती रहती है । मध्यप्रदेश और उससे सटते राज्यों के सीमावर्ती क्षेत्रों की हिन्दी में इस्तेमाल करने, प्रयोग करने के अर्थ में वापरना क्रिया का प्रचलन है । सभी हिन्दीभाषी चाहे इसका प्रयोग न करते हों, पर समूचा हिन्दी क्षेत्र इस शब्द से परिचित है। इसके विविध रूप चलन में हैं जैसे वापर, वापरना, वापरें, वापरिए आदि । हिन्दी के शब्दकोशों में इसका शुमार नहीं है क्योंकि यह गैर-हिन्दी शब्द है और बरास्ता मराठी, यह हिन्दी में दाखिल हुआ है । हिन्दी का वापरना दरअसल मराठी क्रिया वापरणे का प्रतिरूप है । मराठी में वापर और वापरणे का अर्थ है उपयोग, इस्तेमाल । इसमे व्यवस्था-प्रबन्ध करने जैसे भाव भी हैं अर्थात किसी वस्तु या व्यक्ति को ( अपने लाभ के लिए ) उसकी समूची क्षमता और उपयोगिता के साथ काम में लेना । पूंजीवादी व्यवस्था में उपयोग शब्द की यह व्यापक व्याख्या है । व्यापार एक विशिष्ट व्यवस्था है जिसमें मूलतः वस्तुओं की ख़रीद-फ़रोख़्त या मानव श्रम से संचालित सेवाओं के बदले लाभार्जन किया जाता है । इस व्यापार में वस्तु से लेकर व्यक्ति तक का इस्तेमाल होता है । गौर करें, आज के उपभोक्तावादी समाज में सुबह से शाम तक बाज़ार की विनम्र ताकतें हमसे कुछ न कुछ वापरने का आग्रह ही तो करती हैं । वैसे भी आवश्यकता, आविष्कार की जननि है और इस आवश्यकता की अगली कड़ी ही इस्तेमाल है । वापरना शब्द के मूल में यही व्यापार है।
राठी की वापरणे क्रिया से वापरना शब्द बना है । इसके मूल में है वापर शब्द जिसका मूलार्थ है काम, धन्धा, उपयोग । संस्कृत के व्यापार शब्द का रूपान्तर है वापर से जिसके मूल में है संस्कृत की पृ धातु । मोटे तौर पर देखें तो पृ धातु के साथ व्या उपसर्ग लगने से बनता है व्यापार शब्द । व्या संस्कृत हिन्दी का बहुप्रचलित उपसर्ग है और इससे कई शब्द बने हैं मसलन व्याकरण या व्यामोह । हिन्दी में व्यापार शब्द का खूब प्रयोग होता है और इस शब्द में मुहावरेदार अर्थवत्ता है । हिन्दी-मराठी के सभी कोशों में व्यापार की व्युत्पत्ति वि+आ+पृ बताई गई है । इसका विग्रह करने पर वि-आ-प-रि हाथ लगते हैं । से का लोप होकर सिर्फ व्यंजन बचता है । में स्वर जुड़ता है । वि-आ संयुक्त होकर व्या बनते हैं और इस तरह व्यापार शब्द बनता है । आप्टे कोश के मुताबिक व्यापार का अर्थ है नियोजन, संलग्नता, धन्धा या व्यवसाय । ये सभी क्रियाएँ मूलतः कर्म से जुड़ी हैं । उद्यमशीलता, उद्योग, प्रयत्न जैसी बातें व्यापार को अर्थविस्तार देती हैं और इनसे ही व्यापार के वर्तमान मायने स्थिर हुए हैं । लोगों को काम पर लगाने, उनका उपयोग कर लेने, किसी भी चीज़ को बेच लेने, किसी भी तरह से लाभ कमा लेने की उद्यमशीलता जिस व्यक्ति में हो , वह व्यापारी कहलाता है ।
व्यापार में मूल में जो पृ धातु है उसके मूल में सक्रियता का भाव है । किसी को काम पर लगाना या काम सौंपना, काम नियत करना, निर्देश देना आदि बातें भी इसके दायरे में आती हैं । पृ में गति का भाव है सो इसका अर्थ आगे ले जाना, उन्नति करना, प्रगति करना भी है । आगे बढ़ने के भाव का ही विस्तार होता है संस्कृत हिन्दी के पार शब्द के रूप में । पार यानी किसी विशाल क्षेत्र का दूसरा छोर । यह क्षेत्र ज़मीन का विस्तार, जंगल का विस्तार, जल का विस्तार, पर्वत का विस्तार भी हो सकता है और समस्या, मानसिक स्थिति और विचार का विस्तार भी । कुल मिला कर इस विस्तार के दूसरे छोर की बात ही पार का आशय है । वैसे पार का सर्वाधिक प्रचलित अर्थ नदी का दूसरा किनारा ही होता है । पार शब्द भी हिन्दी के सर्वाधिक इस्तेमालशुदा शब्दों में है । इसका मुहावरेदार प्रयोग होता है जैसे पार पाना यानी किसी बात का हल हो जाना, उसे सुलझा लेना, उससे हो कर गुज़रने लायक स्थिति बनना । अन्त तक पहुँच जाना आदि ।
र-पार को देखिए जिसमें मोटे तौर पर तो इस छोर से उस छोर तक का भाव है, मगर इससे किसी ठोस वस्तु को भेदते हुए निकल जाने की भावाभिव्यक्ति भी होती है । आर-पार में पारदर्शिता का भाव भी है यानी सिर्फ़ भौतिक नहीं, आध्यात्मिक, मानसिक भी । वह एकदम आर-पार है का अर्थ ही है कि वह मनुष्य साफ़ दिल है । पारावार शब्द भी इसी पार से निकला है जिसमें ओर-छोर की बात है अर्थात दोनो सिरों की बात । नदी का यह तट और वह तट । वार बना है वारः है जिसका जन्म उसी वृ धातु से हुआ है जिसमें आवृत्ति का भाव है और जिससे सप्ताह का एक दिन ( सोमवार, मंगलवार आदि ), आवरण, वृत्त, वर्तन जैसे शब्द बने हैं । ज़ाहिर है वारः का अर्थ भी आवृत्ति पर आधारित है अर्थात नदी का दूसरा किनारा । अब यह सापेक्ष है कि इस किनारे पर हैं तो सामने पार है और जहाँ खड़े हैं वह वार है । बारम्बार के मूल में भी यही वार है । सो, पारावार और वारापार दोनों शब्दों का अर्थ है इस पार से उस पार तक । खुशी का पारावार न था यानी असीम प्रसन्नता का भाव....इस पार से उस पार तक ।
वापर, व्यापार और पारावार तक के इस सफ़र में क्रियाशीलता का महत्व है चाहे वापरने के अर्थ में उसका इस्तेमाल करने, उपयोग में लेने की क्रिया हो या व्यापार के आशय वाली आर्थिक गतिविधि हो अथवा पार जाने से सम्बन्धित साहसपूर्ण यात्रा या अभियान हो । इस दुनिया का आज जो भी स्वरूप है विकास की इन्ही तीन प्रकृतियों से गुज़र कर ही निर्मित हुआ है । व्यापार यानी संसाधनों का उपयोग करना, गतिशील होना, व्यापार यानी दूर तक, आखिरी छोर तक अपनी इच्छाशक्ति को पहुँचने देना और व्यापार यानी उस छोर तक पहुँच कर फिर इस छोर पर विजित मुद्रा में लौटने की जिजीविषा दिखाना । आखिर यह व्यापार शब्द इतना बुरा भी नहीं है !

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2 कमेंट्स:

Mansoor ali Hashmi said...

मुल्को की तरक्की का पैमाना है 'व्यापार',
इम्पोर्ट है 'इस पार' तो एक्सपोर्ट है 'उस पार'.

'व्यापार' में घोटाले है, 'घोटालो' का व्यापार,
इन्साफ करे कौन जब ताजिर बनी सरकार ?

करता है 'सफ़र' माल तो संग चलती है तहज़ीब* *संस्कृति
'शब्दों' का भी 'व्यापार' से होता है सरोकार.

आगे....और भी..'आत्म-मंथन' पर......
http://aatm-manthan.com

विष्णु बैरागी said...

व्‍यापार के लिए मालवी में 'वेपार' और 'बेपार' भी प्रयुक्‍त किया जाता है। किन्‍तु, 'वापर' का आधार 'व्‍यापार' है, यह आपकी इस पोस्‍ट से ही पता चला।

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