शब्द-कौतुक / फँसाने-लटकाने की तरकीब
लोलुप व्यक्ति के दिल की मुराद
हिन्दी का एक बहुत ही साधारण सा, घरेलू शब्द है - ‘छीका’। आज की पीढ़ी के लिए यह एक मुहावरे का अंश भर है: "बिल्ली के भाग से छींका टूटा"। अधिकांश लोग इसे “मन की मुराद पूरा होना” से जोड़ते हैं, पर हमारा मानना है कि इसमें लोलुप व्यक्ति के दिल की मुराद बिना कोई प्रयास किए पूरी होने की बात है। लेकिन वह भौतिक वस्तु, ‘छीका’, जिसके टूटने पर बिल्ली का भाग्य चमकता था, अब हमारे घरों से लगभग अदृश्य हो चुकी है। रेफ्रिजरेटर के आने के बाद जूट या रस्सी से बनी वह जालीदार टोकरी, जो अक्सर देहात में छान-छप्पर या छत की म्याल से लटकाकर दूध, दही और मक्खन को बिल्लियों और बच्चों की पहुँच से दूर रखती थी, अब बीते दिनों की बात हो गई है। ‘छीका’ अब अतीत की स्मृति है। पर एक महत्वपूर्ण सज्जा उपकरण के तौर पर आज भी हमारे घरों का हिस्सा है।
वेदों का 'शिक्य', पुराणों का 'माखन-भाण्ड'
इस शब्द की जड़ों की तलाश हमें सुदूर अतीत में, संस्कृत भाषा के आँगन तक ले जाती है, जहाँ इसका मूल रूप ‘शिक्य’ मिलता है। यह शब्द प्राचीन भारतीय साहित्य में बहुत गहराई तक समाया हुआ है। इसका एक रूप हमें अथर्ववेद जैसे प्राचीन वैदिक ग्रंथों में मिलता है, जहाँ ‘शिक्य’ का अर्थ है ‘बोझ ढोने के लिए इस्तेमाल होने वाली रस्सी की झोली या फंदा’। भारत भर के लोकवृत्त में इसके लिए अनेक संज्ञाएँ हैं जैसे भरुका, सिकिया, उट्टी मुरुजा, टंगना, Payanthatti, मडिके, उच्चिकै आदि। लेकिन ‘शिक्य’ को अमरत्व मिला एक दूसरे, कहीं अधिक लोकप्रिय सांस्कृतिक संदर्भ से- भगवान कृष्ण की बाल-लीलाओं से। श्रीमद्भागवत पुराण में गोपियों द्वारा ऊँचाई पर लटकाए गए ‘शिक्य-भाण्ड’ (यानी छीके में रखे बर्तन) से कान्हा के माखन चुराने की कथाओं ने इस साधारण सी वस्तु को भक्ति और पौराणिक कथा के रस से सराबोर कर दिया।
द्रविड़ रिश्तों की पड़ताल
किन्तु 'शिक्य' शब्द की अपनी व्युत्पत्ति कहाँ से हुई, यह भाषाविदों के बीच एक गहन चर्चा का विषय है। एक ओर जहाँ इसका संबंध संस्कृत की ही एक अन्य संज्ञा 'शिच्' (अर्थ: जाल) से जोड़ा जाता है, वहीं दूसरी ओर एक सिद्धांत इसे द्रविड़ धातु सिक्क्/चिक्क् cikk- (फँसना, उलझना) से जोड़ता है, जो प्राकृत रूप 'सिक्कग' के बहुत निकट है। वहीं, एक अन्य मत तेलुगु के चेंकु (చెంకు) (हुक, पात्र) जैसे शब्द को इसका मूल मानती है, जो ध्वनि-परिवर्तन के बाद 'शिक्य' बन सकता था। मतभेद के साथ, ये साक्ष्य प्राचीन भाषाई लेन-देन का स्पष्ट संकेत हैं। यद्यपि "फँसने" या "उलझने" (सिक्क/चिक्क) का भाव तमिल और कन्नड़ में मौजूद है, किन्तु "लटकाने वाले उपकरण" चेंकु (చెంకు) का विशिष्ट और ठोस अर्थ तेलुगु में अधिक केंद्रित और स्पष्ट है। यह विश्लेषण 'शिक्य' के द्रविड़ मूल की परिकल्पना को और मजबूत करता है।कुल मिलाकर दोनों ही 'शिक्य' के सम्भाव्य स्रोत के तौर पर विचारणीय हो सकते हैं।
'शिक्य' से 'छीका' बनने का
सफ़र
संस्कृत के ‘शिक्य’ से हिन्दी के ‘छीका’ तक का सफर हज़ारों साल लंबा है। जब प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं का दौर आया, तो ‘शिक्य’ शब्द ने भी स्वाभाविक रूप से ध्वन्यात्मक परिवर्तन ग्रहण किए। संस्कृत की ‘श्’ ध्वनि प्राकृत में अक्सर सरल होकर ‘स्’ बन जाती थी, इसी प्रक्रिया में ‘शिक्य’ ने ‘सिक्कग’ और ‘सिक्किआ’ जैसे रूप ले लिए। यही प्राकृत रूप आगे चलकर आधुनिक भारतीय भाषाओं में ‘छीका’, ‘सीका’ और ‘शिकें’ जैसे मिलते-जुलते शब्दों का आधार बने। हिन्दी और उसके आसपास की बोलियों में इसका विकास बड़ा रोचक है। जहाँ मानक हिन्दी ने ‘छीका’ या ‘छींका’ रूप को अपनाया, वहीं ब्रजभाषा में यह प्राकृत के करीब रहते हुए ‘सींकौ’ बन गया। मालवी बोली में भी ‘सींको’ शब्द का प्रयोग होता है। हिन्दी में एक और शब्द ‘सिकहर’ भी मिलता है, जो संभवतः ‘शिक्य-धर’ यानी ‘शिक्य को धारण करने वाली रस्सी’ से बना है।
एक शब्द, अनेक भाषायी रूप
पश्चिम भारत में इसका बहुत अनूठा विकास हुआ। मराठी में जहाँ मूल अर्थ वाला शब्द ‘शिकें’ जीवित रहा, वहीं इससे एक नया शब्द ‘शिकी’ भी जन्मा, जिसका अर्थ है जहाज की पाल को नियंत्रित करने वाली रस्सी। यह अर्थ-विस्तार महाराष्ट्र के लंबे समुद्री इतिहास और नौ-संचालन परंपरा का भाषाई प्रमाण है। वहीं, गुजराती में इसका रूप ‘सीकुं’ है, लेकिन यहाँ इसने एक और सुंदर अर्थ ग्रहण किया। ‘सीकां’ शब्द का प्रयोग उन मोतियों की लड़ियों के लिए होता है, जिन्हें महिलाएँ अपने माथे पर आभूषण के तौर पर पहनती हैं। यहाँ छीके की ‘जाली’ या ‘लड़ी’ की दृश्य समानता के आधार पर एक घरेलू वस्तु का नाम सौंदर्य प्रसाधन पर लागू कर दिया गया। पूर्व भारत की ओर चलें तो बंगाली, ओड़िया और असमिया भाषाओं में यह शब्द ‘सिका’ या ‘शिकिया’ के रूप में अपने मूल अर्थ के अधिक निकट रहा, जिसका एक संभावित कारण कृष्ण-भक्ति और उनकी लीलाओं का गहरा सांस्कृतिक प्रभाव हो सकता है।
‘छींका’ केवल रसोई की वस्तु नहीं था; यह पूर्व-औद्योगिक भारतीय जीवन-शैली का एक अभिन्न अंग था, जिसकी भूमिका घर से लेकर खेत-खलिहान और परिवहन तक फैली हुई थी। इसका एक बहुत महत्वपूर्ण उपयोग कृषि कार्य में था—बैलों के मुखत्राण यानी मुँह पर बाँधी जाने वाली जाली के रूप में, जिसे ‘जाबा’ या ‘मुसका’ भी कहते हैं। जब खलिहान में दँवरी चलती थी या खेत में हल जोता जाता था, तो बैलों के मुँह पर यह जाली बाँध दी जाती थी ताकि वे अनाज या फसल को खा न सकें। इसके अलावा, बोझ ढोने वाली काँवर या बहँगी के सिरों पर सामान लटकाने के लिए भी छीके जैसी रस्सी की व्यवस्था का ही उपयोग होता था। लेकिन इसका सबसे वृहद् और प्रभावशाली उपयोग पहाड़ी क्षेत्रों में देखने को मिलता था, जहाँ नदी-नालों को पार करने के लिए इसे एक रस्सी-पुल (rope bridge) के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। इस झूले को भी ‘छीका’ या ‘झूला’ कहते थे, जिसमें बैठकर यात्री और सामान एक किनारे से दूसरे किनारे तक पहुँचते थे।
लोकोक्ति की आत्मा, उत्सव का प्रतीक
किसी भी शब्द की असली ताकत उसकी सांस्कृतिक स्मृतियों में निहित होती है, और ‘छींका’ इस मामले में बहुत समृद्ध है। "बिल्ली के भाग से छींका टूटा" मुहावरा एक ऐसा सामाजिक-पारिस्थितिक चित्र है जो उस युग को दर्शाता है जहाँ मनुष्य, पालतू पशु (बिल्ली), खाद्य संसाधन (दूध) और प्रौद्योगिकी (छीका) के बीच एक निरंतर संतुलन और संघर्ष चलता था। यह मुहावरा मराठी ("शिक्याचें तुटलें, बोक्याचें पटलें" - छीका टूटा, बिल्ले की बन आई) और मालवी ("बिलइआ के भाग्गन सींको टूटिबो") जैसे रूपों में पूरे भारत में प्रचलित है, जो एक साझे अनुभव की गवाही देता है। इसका दूसरा सांस्कृतिक पदचिह्न जन्माष्टमी पर मनाए जाने वाले दही-हांडी उत्सव में दिखाई देता है। इस उत्सव में, ‘छीका’ या ‘सिका’ (जिस रस्सी से दही की मटकी लटकाई जाती है) एक पौराणिक कथा के साधारण पात्र से उठकर एक भव्य सार्वजनिक उत्सव का केंद्रीय प्रतीक बन जाता है।
भिन्न संस्कृतियाँ, भिन्न शब्द-संकेत
इस शब्द की यात्रा का एक वैश्विक आयाम भी है। विश्व की अन्य भारोपीय संस्कृतियों (जैसे ईरानी या यूरोपीय) में छींके जैसी व्यवस्थाएँ तो थीं, पर उनके लिए 'शिक्य' से मिलते-जुलते शब्द नहीं मिलते। उन समाजों ने 'बाँधने' या 'गूँथने' जैसी क्रियाओं से अपने अलग शब्द रचे, जो यह दर्शाता है कि हर संस्कृति अपनी विशेष सामाजिक मान्यताओं, भोजन संबंधी पवित्रता बोध और परिवेश के अनुसार अपनी शब्दावली गढ़ती है। ‘छीका’ शब्द की यह यात्रा हमें बताती है कि शब्द केवल अक्षर-ध्वनियों का समूह नहीं होते; वे सांस्कृतिक जीवाश्म (cultural fossil) होते हैं, जो अपने भीतर अतीत की जीवन-शैली, सामाजिक संरचनाओं और विश्व-दृष्टियों को सहेजे रहते हैं।
गाँव के रसोई से शहरी सौंदर्यबोध तक
भौतिक उपयोगिता समाप्त हो जाने के बाद, ‘छींका’ ने इक्कीसवीं सदी में एक नए और आकर्षक अवतार में वापसी की है। आज शहरी घरों की बालकनियों और कैफे की शोभा बढ़ाने वाले मैक्रामे (वाल हैंगिंग) के कलात्मक प्लांट हैंगर अब पारम्परिक ‘छीके’ के ही फैशनेबल अवतार हैं। यह रूपाान्तरण ग्रामीण उपयोगिता से शहरी सौंदर्यशास्त्र की ओर एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक है। वस्तु का मूल्य अब उसके कार्य (खाद्य-संरक्षण) में नहीं, बल्कि उसके रूप (सजावट) में है। कभी जूट या मूंज से बनने वाला ‘छीका’ अब नफ़ीस सूती धागों से एक नए रूप में तैयार किया जाता है और "बोहो-चिक" या "एथनिक" सजावट के शौकीन शहरी वर्ग को बेचा जाता है।
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