Tuesday, September 16, 2025

'टामक टुइयाँ' का रहस्य: एक मुहावरे का पैदा होना

शब्दकौतुक

टटोलने
, टालने और टोह लेने का दिलचस्प सफ़र 

लोक की अनूठी जुबान
हिन्दी-उर्दू के विशाल शब्द संसार में कुछ पद ऐसे हैं जो पहली नज़र में बड़े सहज और थोड़े अटपटे लगते हैंलेकिन उनकी जड़ों में झाँकने पर भाषा, संस्कृति और मनोविज्ञान की गहरी परतें खुलती हैं। "टामक टुइयाँ", "टामकटोया" और "टम्मक टुइ" मूलतः एक ही हैं। आम बोलचाल में इनका मतलब टालमटोल करने, बहाने बनाने, किसी बात से बचने की कोशिश करने या आड़ लेने से है। इसी तरह इसमें अंदाज़ा लगाना, अटकल लगाना, टकटोहना, टटोलना जैसे आशय भी समाहित हैं। जब कोई स्पष्ट जवाब देने के बजाय दाएँ-बाएँ झाँकता है, तो हम कहते हैं कि वह "टामक टुइयाँ" कर रहा है। लेकिन सवाल उठता है कि इस अजीब से लगने वाले शब्द-जोड़े में 'टामक' क्या है और 'टुइयाँ' का क्या अर्थ है? इसकी कहानी किसी एक स्रोत से नहीं, बल्कि भाषा के कई घुमावदार रास्तों से होकर गुज़रती है।

अंधेरे में टामकटोये मारना
 इस मुहावरे का सबसे प्रसिद्ध और सार्थक प्रयोग है- "अंधेरे में टामकटोये मारना"। इसका सीधा अर्थ है अँधेरे में किसी चीज़ को टटोलना या अंदाज़े से खोजना। जब किसी मुश्किल स्थिति का कोई हल न सूझ रहा हो और लोग बिना किसी ठोस आधार के अलग-अलग अनुमान लगा रहे हों, तो कहा जाता है कि वे "अंधेरे में टामकटोये मार रहे हैं।" यह सिर्फ़ भौतिक क्रिया नहीं, बल्कि बौद्धिक और मानसिक भटकाव का भी प्रतीक है। आगे चलकर टालमटोल और आनाकानी जैसे पर्याय भी इसे मिल गए। आज की तेज़ रफ़्तार हिन्दी में इसका एक छोटा और ध्वन्यात्मक रूप ज़्यादा प्रचलित है- "टाँ-टूँ करना"। जब कोई कहता है, "ज़्यादा टाँ-टूँ मत करो, ये काम करना ही पड़ेगा," तो वह दरअसल "टामक टुइयाँ" के ही आधुनिक रूप का प्रयोग कर रहा होता है और यहाँ आनाकानी का आशय होता है।

क्या ‘टामक’ एक बाजा है?
इस शब्द की पड़ताल में एक और रोचक, लेकिन कमज़ोर कड़ी सामने आती है। हिन्दी, राजस्थानी व अवधी के कुछ सन्दर्भों में 'टामक' नाम के एक वाद्य यंत्र का ज़िक्र मिलता है। यह एक बड़े नगाड़े या ढोल जैसा साज़ होता था, जो अक्सर मेलों, उर्स या जुलूसों में ढोल-ताशे वालों के पास होता था। यह संभव है कि किसी ने इस वाद्य के नाम से मुहावरे को जोड़ने की कोशिश की हो, लेकिन यह तर्क ज़्यादा टिकता नहीं। अगर इस मुहावरे का जन्म किसी बाजे से हुआ होता, तो इसके अर्थ में शोर, कोलाहल या संगीत का कोई भाव होना चाहिए था। जबकि इसका असल अर्थ है- चुपचाप या दुविधा में रास्ता खोजना, टटोलना या टालमटोल करना, जो किसी वाद्य के शोरगुल वाले चरित्र से ठीक उल्टा है। देखा जाए तो ढोल-नगाड़ा-ढिंढोरा जैसे वाद्यों का प्रतीकात्मक प्रयोग तो किसी तथ्य के जगभर में प्रकट हो जाने के अर्थ में किया जाता रहा है। इसलिए, 'टामक' शब्द में अगर टोह लेने, टटोलने का लक्षण प्रमुख है तो बात गुपचुप होने से जुड़ती है, शोर-शराबे और खुल्लमखुल्ला होने से नहीं।

टामक’ की पहेली
अब इस शब्द को तोड़कर देखते हैं। इसका पहला हिस्सा है 'टामक'। इसका सीधा संबंध किसी वाद्य या वस्तु से जोड़ना थोड़ा भ्रामक हो सकता है। भाषाविदों का मानना है कि इसका मूल 'टक' में छिपा है। 'टक' का अर्थ है देखना, नज़र टिकाना या घूरना। "टकटकी लगाकर देखना" जैसा प्रयोग इसी मूल से निकला है। वस्तुतः 'टक' अपने आप में कोई व्याकरणिक धातु (verb root) नहीं है। तब सवाल उठता है, नज़र टिकाने या अनवरत देखते जाने वाले भाव कहाँ से आ रहे हैं? “ताकना” का संबंध प्राकृत 'तक्कइ' से होने की सम्भावना है। इसका अर्थ था अटकल लगाना या अवसर देखना, वहीं से हिंदी में “ताकना” आया—मतलब एकटक देखना या मौके पर नज़र गड़ाना। “टक/टकटकी” या तो इसी धारा का ध्वनि-परिवर्तन है (त > ट का रूपांतरण) या फिर स्वतन्त्र बदलाव।

तक्क/टक/टकटकी
हिंदी में '' का '' में रूपान्तरण आम है, और बोलचाल में शब्द संक्षिप्त भी हो जाते हैं। इसीलिए 'ताकना' के ‘तक’ से ‘टक’ और फिर ‘टकटकी’ व ‘एकटक’ जैसे शब्द बनने की राह निकलती दिखती है, जिनका अर्थ भी वही रहा- नज़र गड़ाए रखना, बिना हटे देखते रहना। इस तरह “तक/तकना” और “टक/टकटकी/एकटक” को एक ही अर्थ-समूह की कड़ियाँ माना जा सकता है।

 'टक' से 'टामक' कैसे?
अब सवाल यह है कि 'टक' से 'टामक' कैसे बना? यह भाषा विज्ञान के एक सहज नियम 'स्वरागम' का उदाहरण है। इसमें उच्चारण को सरल और लयबद्ध बनाने के लिए किसी शब्द के बीच में एक अतिरिक्त स्वर या ध्वनि आ जाती है। हिन्दी में इसके कई उदाहरण मिलते हैं, जैसे: 'चक' से 'चमक' या 'चमकना'; 'बक' से ‘बमक’ या ‘बमकना’ अथवा 'लक' से 'लमक' या 'लमकना'। ठीक इसी प्रक्रिया में 'टक' के बीच में '' की अनुनासिक ध्वनि के आने से 'टमक' और फिर 'टामक' का विकास हुआ। इस तरह, 'टामक' का व्युत्पत्तिपरक अर्थ हुआ- देखने की क्रिया, झाँकने का प्रयास या टोह लेने की कोशिश।

टोया’ और ‘टुइयाँ’: हर हाल में ‘टोह’ लेने का भाव
अब आते हैं दूसरे हिस्से 'टोया' या 'टुइयाँ' पर। इसे समझना काफ़ी सरल है। यह 'टोह' शब्द का ही एक बदला हुआ या अपभ्रंश रूप है। 'टोह लेने' का मतलब होता है- किसी चीज़ का पता लगाना, सुराग ढूँढना या खोज-ख़बर लेना। हिन्दी शब्दसागर जैसे प्रतिष्ठित कोश भी "टामकटोया" का सीधा अर्थ 'टकटोहना' या 'टटोलना' ही बताते हैं। यह इस बात का पुख़्ता प्रमाण है कि इस मुहावरे के केंद्र में 'टोह' यानी खोजबीन का भाव ही है। जहाँ तक 'टुइयाँ' का सवाल है, इसमें लगा 'इयाँ' प्रत्यय अक्सर किसी चीज़ को छोटा, हल्का या प्यारा रूप देने के लिए इस्तेमाल होता है, जैसे- चुहिया, डिबिया आदि। 'टुइयाँ' में भी टोह लेने की क्रिया का एक हल्का और अनिश्चित रूप झलकता है।

टकटोहना यानी अनुमान लगाना
उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर, जब हम इन दोनों हिस्सों को जोड़ते हैं, तो एक स्पष्ट और तार्किक तस्वीर उभरती है। यह तस्वीर खोजना, टोहना, बचना और कतराना जैसे भावों तक पहुँचती है। इसकी पुष्टि 'टकटोहना' जैसे मुहावरे से भी होती है, जिसके पुराने सन्दर्भों में प्रयोग की भी पुष्टि हुई है। इसका एक रूप 'टकटोलना' भी है और इसका ही संक्षेपीकरण 'टटोलना' के तौर पर अधिक बरता जाने लगा है। तो कुल मिलाकर, टामक (टक से बना, यानी देखना) + टोया (टोह से बना, यानी खोजना) = देखकर खोजना, टोह लेने के लिए देखना, या बचाव का रास्ता तलाशना।

यह अर्थ मुहावरे के प्रयोग से पूरी तरह मेल खाता है। जब कोई व्यक्ति अनिश्चितता में होता है या किसी सवाल से बचना चाहता है, तो वह वास्तव में बचाव का रास्ता ही "देख" और "खोज" रहा होता है। वह इधर-उधर देखकर टोह लेता है कि किस तरफ़ से निकला जाए। अँधेरे में भटकता व्यक्ति भी देख-देखकर और छू-छूकर ही रास्ता 'टटोलता' है। इस तरह यह मुहावरा दो क्रियाओं- 'देखने' और 'खोजने'- के मिलने से बना एक सार्थक और बिंबात्मक युग्म है।

एक सिरा पंजाब से तो दूसरा अवध तक
यह मुहावरा विशेष रूप से पश्चिमी हिन्दी और पंजाबी भाषा के क्षेत्र में ज़्यादा प्रचलित रहा है। उपेन्द्रनाथ अश्क जैसे कई बड़े लेखक, जिनकी जड़ें पंजाबी परिवेश से जुड़ी थीं, उन्होंने अपनी रचनाओं में "टामकटोये मारना" का ख़ूब प्रयोग किया है। पंजाबी में 'टोया' का एक अर्थ गड्ढा या पनाह की जगह भी होता है, जो 'बचाव की जगह खोजना' वाले भाव को और मज़बूत करता है। हालाँकि, इसका यह मतलब नहीं कि यह शब्द वहीं तक सीमित था। इसके मूल तत्व यानी 'टोह' का प्रयोग ब्रज और अवधी जैसी बोलियों में भी मिलता है। ब्रजभाषा में "टोही करने" का अर्थ ख़बर लेना या पता लगाना है और अवधी में भी 'टोह' का मतलब सुराग या खोज ही है। इससे पता चलता है कि भले ही इसका प्रचलित रूप पश्चिमी भारत में ज़्यादा बोला गया हो, लेकिन इसका आधार-भाव पूरे उत्तर भारत की लोकभाषा में मौजूद था।

टोह और टक की अनूठी संतान
तमाम साक्ष्यों और भाषाई विश्लेषण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि "टामक टुइयाँ" या "टामकटोया" कोई निरर्थक या केवल ध्वन्यात्मक शब्द नहीं है। यह 'टक' (देखना) और 'टोह' (खोजना) जैसी दो सार्थक क्रियाओं के मेल से जन्मा एक अनूठा लोक-मुहावरा है। इसने अँधेरे में रास्ता टटोलने के शारीरिक बिंब से लेकर, मुश्किल में हाथ-पाँव मारने और बात को टालने के मानसिक भाव तक की एक लंबी यात्रा तय की है। वाद्य यंत्र 'टामक' से इसका संबंध एक रोचक परिकल्पना से अधिक कुछ नहीं। यह शब्द हमारी भाषा की उस अद्भुत क्षमता का प्रमाण है, जहाँ दो छोटे-छोटे सार्थक शब्द मिलकर एक गहरे और व्यंग्यात्मक भाव को जन्म देते हैं, जो आज भी "टाँ-टूँ करने" जैसे रूपों में हमारी ज़बान पर ज़िंदा है।

 


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Tuesday, September 9, 2025

भाषा की धार के अगाध - प्रगाढ़ किनारे

गाथा- गाध, गाड़, गाद और गाढ़ की / शब्दकौतुक

हिन्दी में 'अगाधऔर 'प्रगाढ़दो ऐसे शब्द हैं जिनका प्रयोग हम अक्सर गहराई को दर्शाने के लिए करते हैं। एक ओर 'अगाधहमें सागर की अथाह गहराइयों या ज्ञान की सीमाहीनता का बोध  कराता है, तो वहीं 'प्रगाढ़' हमें प्रेम, मित्रता जैसे रिश्तों की घनिष्ठता और मजबूती का एहसास दिलाता है। ध्वनि और अर्थ, दोनों में ये शब्द गहराई के पर्याय लगते हैं। पर इसी परिवार में एक और शब्द है जो हमें चौंकाता है - 'गाद'। इसका अर्थ है नदी की तलछट, कीचड़ या किसी द्रव के नीचे जमी हुई गंदगी, जो गहराई नहीं, बल्कि उथलेपन का कारण बनती है।

विभिन्न अर्थायाम- वैचित्र्य एक स्वाभाविक प्रश्न खड़ा करता है- जो शब्द-मूल 'अगाध' और 'प्रगाढ़' जैसी गहनता को जन्म देता है, वही 'गाद' जैसे तलछट का स्रोत कैसे हो सकता है? दरअसल 'गाध', 'गाढ़', 'गाढ़ा', 'गाद' और 'गाड़' शब्दों का परिवार कुछ ऐसा ही है। इनका प्रयोग पानी की गहराई, रिश्तों की प्रगाढ़ता, द्रव के घनत्व, नदी की तलछट और यहाँ तक कि धाराओं के नाम के लिए भी होता है। पहली नज़र में यह एक भाषाई पहेली लगती है, लेकिन जब हम इनकी जड़ों को खोजते हैं, तो अर्थ के विकास की एक अद्भुत कहानी सामने आती है।

स्थिरता का एक भाव: धातु 
'गाध्'- 
इस पूरे शब्द-समूह की जड़ें संस्कृत की एक ही धातु 'गाध्' में समाई हुई हैं। 'गाध्' का सीधा-सा अर्थ है- 'ठहरना', 'स्थिर होना', 'प्रतिष्ठित होना', या 'थाह पाना'। कल्पना कीजिए कि कोई व्यक्ति नदी पार करते हुए ऐसी जगह खोजता है जहाँ उसके पैर टिक जाएँ और वह स्थिर हो सके। यही ‘थाह पाने’ या ‘स्थिर होने’ का मौलिक विचार इस धातु का केंद्र है। यह आश्चर्यजनक है कि कैसे 'स्थिरता' के इस एक विचार ने भाषा में कई अलग-अलग शाखाओं को जन्म दिया। एक ओर इसने भौतिक रूप से ‘पैर टिकने’ यानी उथलेपन ('गाध') को दर्शाया, तो दूसरी ओर इसने लाक्षणिक रूप से ‘मन के टिकने’ यानी भावनात्मक दृढ़ता और गहनता ('गाढ़') को व्यक्त किया। इसी केंद्रीय विचार से यह पूरा शब्द-परिवार विकसित हुआ।

गहनता और
'गाढ़'- 
भाषा की सबसे सुंदर प्रक्रियाओं में से एक है, जब किसी क्रिया से किसी गुण का जन्म होता है। संस्कृत धातु 'गाध्' (स्थिर होना) से ही 'गाढ़' शब्द विकसित हुआ, जिसका शाब्दिक अर्थ हुआ- "जो स्थिर हो" या "जो दृढ़ हो"। यहीं से अर्थ का विस्तार हुआ। जो भावना मन में पूरी तरह स्थिर हो चुकी है, वह 'प्रबल' और 'गहन' है; जो रिश्ता अपनी जगह पर पक्का है, वह 'घनिष्ठ' और 'दृढ़' है; और जो नींद बिना किसी बाधा के टिकी हुई है, वह 'गहरी' है। इसी से 'गाढालिङ्गन' (दृढ़ आलिंगन), 'गाढानुराग' (गहरा प्रेम) और 'गाढनिद्रा' (गहरी नींद) जैसे शब्द बने। तुलसीदासजी ने भी 'गाढ़' का प्रयोग 'कठिन' या 'दुर्गम' के अर्थ में किया है, जहाँ मुश्किलें मजबूती से 'स्थिर' हों: "क्षेत्र अगम गढ़ गाढ़ सुहावा।"

हमारा प्रिय 'गाढ़ा'- संस्कृत का वही 'गाढ' शब्द प्राकृत से होते हुए आधुनिक हिन्दी में 'गाढ़ा' बन गया।आज हम जितने भी रूपों में 'गाढ़ा' शब्द का प्रयोग करते हैं, वे सभी संस्कृत के उन्हीं भावों की विरासत हैं। जैसे गाढ़ा दूध या रस:यह 'सघन'  होने के भाव से आया है। गाढ़ा रंग:यह 'गहन' या 'तीव्र'  होने का प्रतीक है। गाढ़ी दोस्ती:यह रिश्तों की 'दृढ़ता' और 'घनिष्ठता' को दर्शाता है।गाढ़ी कमाई:यह 'कठिन' या 'प्रचंड' परिश्रम से कमाए गए धन का द्योतक है।गाढ़े दिन या गाढ़ा वक्त:यह मुहावरा संकट या मुसीबत के समय के लिए प्रयोग होता है गाढ़ी छनना: एक तो गहरी दोस्ती होना और दूसरा, तेज़ भाँग का सेवन किया जाना

सघनता यानी
 'गाद' और 'गाळ'- 
अब कहानी और रोचक हो जाती है। 'गाद' शब्द का जन्म भी सीधे-सीधे धातु 'गाध्' (ठहरना) से हुआ है। तर्क बहुत सरल और सीधा है—किसी तरल पदार्थ में जो भारी कण धीरे-धीरे नीचे ठहर जाते हैं या स्थिर हो जाते हैं, उसी जमी हुई तलछट को 'गाद' (silt/sediment) कहा गया। इस तरह 'गाद' शब्द सीधे तौर पर 'ठहरने' की क्रिया का ही परिणाम है। इसी परिवार का एक सदस्य मराठी में भी है। संस्कृत 'गाढ' (दृढ़/सघन) से ही मराठी में 'गाळ' शब्द बना, जिसका अर्थ भी कीचड़ या तलछट ही होता है। मराठी में 'गाळणी' (छलनी) से छानने के बाद जो गाढ़ा हिस्सा ठहर जाता है, उसे 'गाळ' कहते हैं, जो इसके मूल अर्थ को और स्पष्ट करता है

हिमालय के 
'गाड़' - 'गधेरे'- 
उत्तराखंड और हिमाचल जैसे पहाड़ी क्षेत्रों में छोटी नदियों या धाराओं के नाम के अंत में अक्सर 'गाड़' शब्द जुड़ा मिलता है, जैसे- ब्यासगाड़, कोसीगाड़, बिंदालगाड़ और मलारीगाड़। इसका सम्बन्ध भी 'गाद' से ही है।ये पहाड़ी धाराएँ अपने साथ भारी मात्रा में मिट्टी, कंकड़ और अवसाद (यानी गाद) बहाकर लाती हैं , जिससे उनका पानी अक्सर गंदला या 'गाढ़ा' हो जाता है।इसी 'गाद-युक्त' या 'गाढ़ी' होने की विशेषता के कारण इन धाराओं को 'गाड़' कहा जाने लगा।कुमाऊँनी भाषा में 'गाद-धारा' से बने 'गध्यर' जैसे शब्द भी छोटी धाराओं के लिए प्रयुक्त होते हैं, जो इस रिश्ते को और पुख्ता करते हैं।यह शब्द केवल एक नदी का नाम नहीं, बल्कि उसकी तलछटी प्रवृत्ति का भी सूचक है।

कहानी में मोड़-
 विपरीत अर्थ वाला 'गाध
इस शब्द-परिवार में एक सदस्य ऐसा भी है, जिसका अर्थ लगभग उल्टा है। वह शब्द है 'गाध' जहाँ 'गाढ़' का अर्थ 'गहरा' है, वहीं संस्कृत में 'गाध' का प्राथमिक अर्थ है "थाह लेने योग्य, उथला, जो गहरा न हो"।यह नदी के उस स्थान को दर्शाता है, जहाँ पानी इतना कम हो कि पैदल चलकर पार किया जा सके।हिन्दी शब्द सागर के अनुसार भी इसका अर्थ 'छिछला' या 'पायाब' है।इसका स्रोत एक दूसरी, किंतु सजातीय, संस्कृत धातु 'गाध्' है, जिसका एक अर्थ है "खड़े रहना या स्थिर रहना"। इस प्रकार, जहाँ 'गाह्' धातु ने 'डूबने' का भाव पकड़ा, वहीं 'गाध्' धातु ने पानी में 'पैर टिकाकर स्थिर रहने' का भाव अपना लिया।

अथाह 'अगाध'- 
'गाध' का अर्थ 'उथला' ही है, इसका सबसे सुंदर और अकाट्य प्रमाण 'अगाध' शब्द में मिलता है।यह शब्द निषेधार्थक उपसर्ग -' (नहीं) और 'गाध' (थाह योग्य/उथला) के योग से बना है।अतः 'अगाध' का अर्थ हुआ- "जिसकी थाह न ली जा सके, जो उथला न हो", अर्थात "अथाह, बहुत गहरा"।यह शब्द भगवान विष्णु का भी एक नाम है, जो उनके असीम और अनंत स्वरूप को दर्शाता है।मराठी के महान संत ज्ञानेश्वर ने भी इसका प्रयोग करते हुए लिखा: "परि अगाध भलें गहन । हृदय ययाचें" (परन्तु उसका हृदय बहुत अथाह और गहन है)। इस एक शब्द से यह पहेली पूरी तरह सुलझ जाती है और यह स्पष्ट होता है कि कैसे एक ही मूल विचार से समय के साथ दो विपरीत अर्थों वाली शाखाएँ विकसित हो गईं।

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Thursday, September 4, 2025

श्रीमान चौखट उर्फ़ अफ़साना-ए-जनाब / देहली_4

शब्दकौतुक अरबी गली से हिन्दी भवन का सफ़रनामा

देहली से सम्बोधन तक

हिन्दी-उर्दू बोलनेवालों के लिए यह शब्द इतना सहज और स्वाभाविक है कि हम इसके गहरे अर्थों पर शायद ही कभी ग़ौर करते हैं। लेकिन क्या हो अगर आपको बताया जाए कि जिस 'जनाब' को हम व्यक्ति के लिए इस्तेमाल करते हैं, उसका मूल अर्थ 'पहलू', 'चौखट', 'ड्योढ़ी' या 'आँगन' है, तो? यह विरोधाभास ही हमें एक रोमांचक भाषायी सफ़र पर ले जाता है—एक ऐसा सफ़र जो अरबी के रेगिस्तानों से शुरू होकर, फ़ारसी के दरबारों से गुज़रता हुआ, भारतीय भाषाओं में रच-बस जाता है। 'जनाब' शब्द की जड़ें अरबी भाषा के त्रि-अक्षरीय धातु جنب (जीम–नून–बा) में निहित हैं। यह धातु अरबी भाषा में निकटता, दूरी, पार्श्व और अलग होने के भावों को भीतर समेटे हुए है। इसी से अरबी की संज्ञा जनाब बनती है, जिसका आशय है किसी चीज़ का किनारा, आँगन, दहलीज़, ड्योढ़ी या शरण लेने की जगह। यह वह स्थान था जो किसी मुख्य संरचना के पहलू में या निकट होता था।

निकटता, स्थान और सम्मान तक
सवाल पैदा होता है कि अगर जनाब का आशय 'ड्योढ़ी' या 'आँगन' है तो एक स्थानवाची शब्द किसी के लिए सम्मान-संबोधन कैसे बन गया? यह भाषा के तिलिस्मी संसार की बड़ी दुर्लभ अय्यारी है कि जब कोई शब्द किसी अन्य शब्द का पर्याय बनकर नया अर्थबोध देने लगता है—जैसे दरबार, सरकार, हुक़ुम आदि अनेक शब्द गिनाए जा सकते हैं। राजतन्त्र में इन सभी महिमावान संज्ञाओं से सम्बद्ध शिखर व्यक्तियों को भी यही सम्बोधन मिलता रहा है। आम तौर पर सामन्ती व्यवस्थाओं में प्रजा की ओर से राजा को हुक़ुम, दरबार या सरकार कहकर सम्बोधित किया जाता रहा है। इसी तरह यहाँ ताज, जो कि राजशाही का प्रतीक है, स्वयं शासक का पर्याय बन जाता है।

राजभवन से आम रास्तों तक
जनाब के साथ भी ठीक यही हुआ। किसी शक्तिशाली सुल्तान, अमीर या बादशाह से सीधे बात करना या उनका नाम लेना असभ्यता या दुस्साहस माना जा सकता था। सम्मान और विनम्रता दर्शाने के लिए लोग सीधे शासक को सम्बोधित करने के बजाय उस स्थान को सम्बोधित करते थे, जहाँ वह विराजमान होता था—

1.   "ड्योढ़ी (जनाब) ने फ़रमान भेजा है यानी राजा ने फ़रमान भेजा है।"
2.   "मैं 'ड्योढ़ी' (जनाब) से गुहार लगाता हूँ।" अर्थात मैं जनाब से न्याय की गुहार लगाता हूँ।
3.   "कितना ही चिल्ला लीजिए, जनाब (ड्योढ़ी) तक आवाज़ नहीं जाएगी।" अर्थात राजा तक फ़रियाद पहुँचना मुश्किल है। और इस तरह के संवादों के ज़रिए यह शैली औपचारिक संवाद का ज़रूरी सम्बोधन बनने लगी। उसके बाद दरबारों–ड्योढ़ियों को लाङ्घकर जनाब कहने की यह शैली गली–मुहल्लों, महफ़िलों, मुशायरों में आम हो गई।

ड्योढ़ी से आदरणीय तक
इस प्रक्रिया में, स्थान (ड्योढ़ी) धीरे-धीरे वहाँ आसीन व्यक्ति (शासक) का प्रतीक और फिर उसका पद-नाम (honorific) बन गया। अरबी अलंकार शास्त्र में इस शैली को 'किनाया' (kinayah) कहा जाता है, जिसका अर्थ है किसी बात को सीधे कहने के बजाय इशारे या संकेत में कहना। इस मुक़ाम पर मीर तकी मीर साहब का शेर न याद आए, हो नहीं सकता—

मेहर ओ वफ़ा ओ लुत्फ़-ओ-इनायत एक से वाक़िफ़ इन में नहीं
और तो सब कुछ तंज़ ओ किनाया रम्ज़ ओ इशारा जाने है

यह शेर समाज के नैतिक पतन पर टिप्पणी करता है। दुनिया में असली इंसानियत और करुणा का न होना और केवल तंज़–किनाया की भाषा का चलन होना—यही इसका मूल आशय है। किसी को जनाब कहना केवल सम्मान देना नहीं था, बल्कि यह स्वीकार करना था कि उनका रुतबा–प्रभाव इतना बड़ा है कि उनके सम्बोधन में भी (दरबार, ड्योढ़ी) आदि की भव्यता, दिव्यता प्रदर्शित होनी चाहिए।

फ़ारसी की टकसाल में जनाब-ए-आला, आली जनाब
फ़ारसी संस्कृति में तार्रुफ़ नामक शिष्टाचार की एक बहुत ही परिष्कृत और जटिल प्रणाली है, जिसमें दूसरे को अत्यधिक सम्मान देना और स्वयं को विनम्र दिखाना शामिल है। इसीलिए जिस जनाब का मूलार्थ कभी ड्योढ़ी, कोर्टयार्ड, दहलीज़ आदि हुआ करता था, धीरे-धीरे किनाया अर्थात व्यञ्जना अथवा इशारों में कहने का शिष्टाचार आम हो जाने के चलते 'श्रीमान, मान्यवर, आदरणीय, हुज़ूर' के आशय में जनाब शब्द बहुधा बरता जाने लगा। इसे "विनम्रता की होड़" भी कहा जा सकता है। 'जनाब' शब्द तार्रुफ़ की इस प्रणाली के लिए एक आदर्श उपकरण था। किसी को जनाब कहना उसे सम्मान देने का एक स्पष्ट और सुरुचिपूर्ण तरीक़ा था। फ़ारसी ने इस शब्द को न केवल अपनाया, बल्कि आली (उच्च) और आला (प्रतिष्ठित) जैसे विशेषणों से और भी अलंकृत किया।

मराठी में खावंद और जनाब
दिलचस्प बात यह है कि भारत की अलग-अलग भाषाओं ने इसे अपनी-अपनी तरह से अपनाया। मराठी भाषा इस मामले में एक अनूठी मिसाल पेश करती है। मराठी ने 'जनाब' के आदरसूचक अर्थ ('स्वामी' या 'महाराज') को तो अपनाया ही, साथ ही इसके मूल अरबी अर्थों को भी जीवित रखा। मराठी शब्दकोशों में 'जनाब' का अर्थ उंबरठा (दहलीज़) और अंगण (आँगन) भी मिलता है। एक पुराना मराठी वाक्य—

"खावंदाचे जनाबांत सेवक लोकांनीं हजर असावें।"
(सेवकों को मालिक के आँगन/दरबार में उपस्थित रहना चाहिए), मराठी का यह वाक्य भाषायी पुरातत्त्व की दुर्लभ मिसाल है कि जनाब शब्द का मूल आशय कभी ड्योढ़ी, सहन, प्राङ्गण अथवा दरबार था। यह शब्द केवल उत्तर भारत तक सीमित नहीं रहा। इसकी प्रतिष्ठा इतनी थी कि इसने आर्य और द्रविड़ भाषा परिवारों के बीच की सीमा को भी लाङ्घते हुए कन्नड़, मलयालम में भी पहुँच बनाया।

एक शब्द, इतिहास का साक्षी
भाषाएँ विभिन्न संस्कृतियों, विचारों और सत्ता के प्रवाह के साथ यात्रा करती हैं। जनाब यानी ड्योढ़ी, दहलीज़ से दरबार तक की यात्रा महज़ एक शब्द के अर्थ बदलने की कहानी नहीं है। यह शब्द स्वयं इतिहास का एक गवाह है। इसकी यात्रा एक अरबी स्थानवाची संज्ञा के रूप में शुरू हुई। फिर यह अरबी अलंकार शास्त्र की मदद से एक आदरसूचक शब्द बना। फ़ारसी की परिष्कृत दरबारी संस्कृति ने इसे सँवारा और इसकी इज़्ज़त अफ़ज़ाई की। अन्त में, इसने भारतीय उपमहाद्वीप में प्रवेश किया और यहाँ के अनेक भाषायी समूहों की अभिव्यक्ति में पैठ बनाई। हर रोज़ जब हम किसी को 'जनाब' कहकर पुकारते हैं,
तो सदियों पुराने शिष्टाचार को दोहरा रहे होते हैं।
...जारी 


पिछली कड़ी- 
दहलीज़ से देहली तक: ध्वनि, अर्थ और भ्रम की कथा / देहली_3_जनाब

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Wednesday, September 3, 2025

दहलीज़ से देहली तक: ध्वनि, अर्थ और भ्रम की कथा

शब्दकौतुक  
व्युत्पत्ति, प्रतीक और परम्परा का संगम /देहली_3  

घर की ओर  झाँकते कुछ शब्द
"दहलीज़" यह शब्द सुनते ही मन में एक घर की छवि उभरती है: एक ऐसी सीमा-रेखा जो घर और बाहर का सन्धिबिन्दु होती है। यह केवल दरवाज़ा, राहदारी या घर के अन्दर-बाहर जाने का स्थान भर नहीं, बल्कि स्वागत, विदाई, परम्पराओं और स्मृतियों का सङ्केत-प्रतीक भी है। हिन्दी और उर्दू में समान रूप से रचा-बसा यह शब्द अपने भीतर भारत-ईरानी भाषाओं के हज़ारों साल पुराने रिश्ते की कहानी समेटे हुए है।

लेकिन इस एक शब्द की यात्रा हमें कई ऐसे मोड़ों पर ले जाती है, जहाँ इसके जैसे ही सुनाई देने वाले अन्य शब्द जैसे दिल्ली, डेहरी, डीह आदि खड़े मिलते हैं। ध्वनि की इस समानता ने कई रोचक भ्रमों को जन्म दिया है। आइए, शब्दों की इसी दहलीज़ के पार जाकर इन सभी के असली रिश्तों को जानें।


'
दहलीज़'
की वंशावली: फ़ारस से भारत तक
प्राचीन फ़ारस की बसाहटों से चल कर "दहलीज़" शब्द का सफ़र हिन्दी भवन में दाखिल हुआ। इसका सीधा सम्बन्ध मध्यकालीन फ़ारसी के शब्द 'दहलीज़से है, जिसका अर्थ 'बरामदा' या 'द्वारमण्डप' हुआ करता था। भाषाविदों ने इसकी जड़ें और भी गहरीप्रोटो-ईरानी भाषा में खोजी हैं। वहाँ इसका मूल रूप duvarθi- जैसा था, जिसका अर्थ 'द्वार से सम्बन्धित' या 'द्वारमण्डप' था। यह शब्द स्वयं प्राचीन फ़ारसी के duvar- यानी 'द्वार' या 'दरवाज़ा' से निकला है। यहाँ एक छोटी सी भाषाई पहेली भी है, जो इसके लिखित रूप में छिपी है जिसे हम आगे विस्तार से समझेंगे। इस शब्द की अहमियत का अन्दाज़ा इसी बात से लगता है कि इसे अरबी (दिहलीज़), तुर्की (देहलीज), और कज़ाख जैसी कई भाषाओं ने अपनाया।

द्वार के समीपस्थ या द्वारस्थ

"दुवरथी" शब्द की व्युत्पत्ति प्राचीन फ़ारसी मूल duvarθi- से हुई है, जिसमें duvar का अर्थ है 'दीवार' और -θi प्रत्यय स्थानसूचक भाव को दर्शाता है। इस प्रकार, 'दुवरथी' का शाब्दिक अर्थ हुआ — 'दीवार के पास' या 'दीवार के पहलू में'। यह केवल एक भौतिक संरचना नहीं, बल्कि उस सीमांत स्थान का बोध कराता है जहाँ दीवार समाप्त होती है और प्रवेश की संभावना आरंभ होती है। यही भाव आगे चलकर 'दहलीज़' शब्द में रूपांतरित हुआ, जो किसी भवन के प्रवेश-द्वार के समीपवर्ती क्षेत्र को इंगित करता है। इस व्युत्पत्ति से स्पष्ट होता है कि 'दुवरथी' में 'द्वार' नहीं, बल्कि 'दीवार के पार्श्व' का भाव निहित है — एक ऐसा स्थान जो भीतर और बाहर के बीच की सीमा रेखा बनाता है।

अर्थ का रूपान्तरण: बरामदे से देहरी तक
जहाँ फ़ारसी में 'दहलीज़' का आशय एक बड़े प्रवेश हॉल या बरामदे से था, वहीं भारतीय सन्दर्भ में यह दरवाज़े की चौखट के निचले उभरे हिस्से तक केन्द्रित हो गया, जिसे हम 'देहरीकहते हैं। या यूँ कहें कि प्रोटो-ईरानी की समकालीन कोई वैदिक भाषा में यही भाव प्रमुख था। इसका प्रमाण है 'दहलीज़' का निकटतम संस्कृत सजातीय शब्द 'देहली'। संस्कृत का एक प्रसिद्ध न्याय है-'देहलीदीपन्याय', जिसका अर्थ है कि देहली पर रखा दीपक घर के अन्दर और बाहर, दोनों ओर समान रूप से प्रकाश फैलाता है। यह न्याय "दहलीज़" के प्रतीकात्मक चरित्र को बख़ूबी समझाता है- यह भीतर और बाहर के बीच एक पुल की तरह है। 


घर और बाहर का सन्धिस्थल 
यहाँ 'दहलीज़' और इसके निकटतम भारतीय प्रतिरूप 'देहली' की आन्तरिक संरचना को समझना दिलचस्प है। ये दोनों ही शब्द सीधे तौर पर 'द्वार' का अर्थ नहीं देते, बल्कि इनसे द्वार द्वारा निर्देशित स्थान का बोध होता है। प्राचीन फ़ारसी में 'दहलीज़' का मूल रूप duvarθi- है, जो duvar- (संस्कृत 'द्वार') से बना है। इसके संरचनागत साम्य को समझने के लिए संस्कृत का शब्द 'द्वारस्थ' (द्वार + स्थ) उत्तम है, जिसका अर्थ है 'द्वार पर स्थित'। ठीक इसी तरह, duvarθi- का भी अर्थ 'द्वार' न होकर 'द्वार पर स्थित संरचना' (जैसे पोर्टिको, कोरीडोर) है। यही बात प्राकृत-संस्कृत के 'देहली' (चौखट) पर भी लागू होती है।


सिर्फ़ चौखट यानी दरवाज़ा नहीं
इस प्रकार, 'दहलीज़' हो या 'देहली', ये दोनों ही द्वार से जुड़े स्थानवाची सङ्केत हैं जो घर और बाहर के बीच एक सीमा-रेखा तय करते हैं। द्वार और दहलीज़ के अन्तर को यूँ भी समझ सकते हैं कि चौखट पर पल्ले लगने से बनी संरचना 'द्वारकहलाती है, जबकि 'दहलीज़स्वयं वह चौखट या स्थान है जहाँ वे पल्ले लगाए जाते हैं अथवा जहाँ से द्वार-मार्ग तक पहुँच बनती है। हम द्वार पर ताला लगाते हैं, दहलीज़ पर नहीं। इस तरह द्वार और दहलीज़ एक-दूसरे के पर्यायी पद नहीं हैं। दहलीज़ सीमा-रेखा है, द्वार आने या जाने की व्यवस्था।

 

दहलीज़ के प्रतीकार्थ
"दहलीज़" का असली सौन्दर्य इसके भौतिक रूप में नहीं, बल्कि इसके प्रतीकात्मक और सांस्कृतिक अर्थ में छिपा है। यह आरम्भ, अनुष्ठान और जीवन के नए चरणों में प्रवेश का प्रतीक है। "दहलीज़ लाँघना" सिर्फ़ एक क्रिया नहीं, बल्कि एक नई दुनिया में क़दम रखने का एक शक्तिशाली मुहावरा है। 
दुल्हन का ससुराल में पहला क़दम, नए घर में गृह प्रवेश, या किसी महत्वपूर्ण यात्रा की शुरुआत- ये सभी मंगल कार्य दहलीज़ पर ही सम्पन्न होते हैं। पुराने समय में विवाह से पहले दूल्हे द्वारा दुल्हन के घर की जाने वाली एक औपचारिक भेंट को "दहलीज़ खुंदलाना" कहा जाता था, जो अपने आप में एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान था।

 

'दहलीज़' और 'ढेलज' का भ्रम
एक आम ग़लतफ़हमी यह भी है कि उर्दू का 'दहलीज़' और मराठी का 'ढेलज' जैसे शब्द भी 'देहली' से व्युत्पन्न हैं। ध्वनि व अर्थ, दोनों ही कारक यहाँ प्रबल हैं, पर ऐसा नहीं है। ये दोनों अलग-अलग मूल के हैं, पर अर्थगत साम्य की वजह से इन्हें 'देहली-ड्योढ़ी' वाली शृङ्खला से सम्बन्धित मानना भी असहज नहीं है। 
यद्यपि 'दहलीज़' और 'ढेलज' के स्रोत भिन्न हैं, पर 'देहली' के साथ इनका अर्थगत व ध्वनि-साम्य इतना गहन है कि व्यवहार में ये एक-दूसरे के पर्याय बन जाते हैं।

 

चलते-चलते
इस सफ़र से यह स्पष्ट होता है कि शब्द केवल ध्वनि नहीं होते; वे अपने भीतर इतिहास, भूगोल और मानव-सभ्यता के विकास की कहानियाँ छिपाए रहते हैं।

(A) दहलीज़/देहली/देहरी: द्वार-परिसर, द्वारमण्डप अथवा वह सीमा-रेखा, जिसका मूल प्राचीन फ़ारसी 'द्वार' है।
(B) 
दिल्ली: भारत की राजधानी, जिसका मूल 'ढिल्ली/ढिल्लिका' है, पर 'देहली' शृङ्खला से रिश्ता नहीं।
(C) 
डेहरी/डीह/ढूह: स्थानवाची शब्द, जिसका मूल 'ऊँचा टीला' या 'पुरानी बसावट' है।
(D) 
देह/देहात: गाँव, ग्राम जिसका मूल फ़ारसी 'देह' है। निश्चित ही, हम यहाँ आगे इन पर भी बात करेंगे।

जारी...

पिछली कड़ी  प्रवेश से वापसी तक / देहली_2 ड्योढी 
अगली कड़ी श्रीमान चौखट उर्फ़ अफ़साना-ए-जनाब / देहली_4

अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...


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