
टटोलने, टालने और टोह लेने का दिलचस्प सफ़र
लोक की अनूठी जुबान
हिन्दी-उर्दू के विशाल शब्द संसार में कुछ पद ऐसे हैं जो पहली नज़र में बड़े सहज और थोड़े अटपटे लगते हैं, लेकिन उनकी जड़ों में झाँकने पर भाषा, संस्कृति और मनोविज्ञान की गहरी परतें खुलती हैं। "टामक टुइयाँ", "टामकटोया" और "टम्मक टुइ" मूलतः एक ही हैं। आम बोलचाल में इनका मतलब टालमटोल करने, बहाने बनाने, किसी बात से बचने की कोशिश करने या आड़ लेने से है। इसी तरह इसमें अंदाज़ा लगाना, अटकल लगाना, टकटोहना, टटोलना जैसे आशय भी समाहित हैं। जब कोई स्पष्ट जवाब देने के बजाय दाएँ-बाएँ झाँकता है, तो हम कहते हैं कि वह "टामक टुइयाँ" कर रहा है। लेकिन सवाल उठता है कि इस अजीब से लगने वाले शब्द-जोड़े में 'टामक' क्या है और 'टुइयाँ' का क्या अर्थ है? इसकी कहानी किसी एक स्रोत से नहीं, बल्कि भाषा के कई घुमावदार रास्तों से होकर गुज़रती है।
अंधेरे में टामकटोये मारना
इस मुहावरे का सबसे प्रसिद्ध और सार्थक प्रयोग है-
"अंधेरे में टामकटोये मारना"। इसका सीधा अर्थ है अँधेरे में किसी चीज़
को टटोलना या अंदाज़े से खोजना। जब किसी मुश्किल स्थिति का कोई हल न सूझ रहा हो और
लोग बिना किसी ठोस आधार के अलग-अलग अनुमान लगा रहे हों, तो कहा जाता है कि वे "अंधेरे में टामकटोये मार रहे हैं।" यह सिर्फ़
भौतिक क्रिया नहीं, बल्कि बौद्धिक और मानसिक भटकाव का भी प्रतीक है। आगे
चलकर टालमटोल और आनाकानी जैसे पर्याय भी इसे मिल गए। आज की तेज़ रफ़्तार हिन्दी
में इसका एक छोटा और ध्वन्यात्मक रूप ज़्यादा प्रचलित है- "टाँ-टूँ
करना"। जब कोई कहता है, "ज़्यादा टाँ-टूँ मत करो, ये काम करना ही पड़ेगा," तो वह दरअसल "टामक
टुइयाँ" के ही आधुनिक रूप का प्रयोग कर रहा होता है और यहाँ आनाकानी का आशय
होता है।
क्या ‘टामक’ एक बाजा है?
इस शब्द की पड़ताल में एक और रोचक, लेकिन कमज़ोर कड़ी सामने आती है। हिन्दी, राजस्थानी व अवधी के कुछ
सन्दर्भों में 'टामक' नाम के एक वाद्य यंत्र का
ज़िक्र मिलता है। यह एक बड़े नगाड़े या ढोल जैसा साज़ होता था, जो अक्सर मेलों, उर्स या जुलूसों में ढोल-ताशे
वालों के पास होता था। यह संभव है कि किसी ने इस वाद्य के नाम से मुहावरे को
जोड़ने की कोशिश की हो, लेकिन यह तर्क ज़्यादा टिकता
नहीं। अगर इस मुहावरे का जन्म किसी बाजे से हुआ होता, तो इसके अर्थ में शोर, कोलाहल या संगीत का कोई भाव होना
चाहिए था। जबकि इसका असल अर्थ है- चुपचाप या दुविधा में रास्ता खोजना, टटोलना या टालमटोल करना, जो किसी वाद्य के शोरगुल वाले
चरित्र से ठीक उल्टा है। देखा जाए तो ढोल-नगाड़ा-ढिंढोरा जैसे वाद्यों का
प्रतीकात्मक प्रयोग तो किसी तथ्य के जगभर में प्रकट हो जाने के अर्थ में किया जाता
रहा है। इसलिए, 'टामक' शब्द में अगर टोह लेने, टटोलने का लक्षण प्रमुख है तो बात गुपचुप होने से जुड़ती है, शोर-शराबे और खुल्लमखुल्ला होने से नहीं।
‘टामक’ की पहेली
अब इस शब्द को तोड़कर देखते हैं। इसका पहला हिस्सा है
'टामक'। इसका सीधा संबंध किसी वाद्य या वस्तु से जोड़ना
थोड़ा भ्रामक हो सकता है। भाषाविदों का मानना है कि इसका मूल 'टक' में छिपा है। 'टक' का अर्थ है देखना, नज़र टिकाना या घूरना।
"टकटकी लगाकर देखना" जैसा प्रयोग इसी मूल से निकला है। वस्तुतः 'टक' अपने आप में कोई व्याकरणिक धातु (verb root) नहीं है। तब सवाल उठता है, नज़र टिकाने या अनवरत देखते जाने
वाले भाव कहाँ से आ रहे हैं? “ताकना” का संबंध प्राकृत 'तक्कइ' से होने की सम्भावना है। इसका अर्थ था अटकल लगाना या
अवसर देखना, वहीं से हिंदी में “ताकना” आया—मतलब एकटक देखना या
मौके पर नज़र गड़ाना। “टक/टकटकी” या तो इसी धारा का ध्वनि-परिवर्तन है (त > ट का रूपांतरण) या फिर स्वतन्त्र बदलाव।
तक्क/टक/टकटकी
हिंदी में 'त' का 'ट' में रूपान्तरण आम है, और बोलचाल में शब्द संक्षिप्त भी हो जाते हैं। इसीलिए 'ताकना' के ‘तक’ से ‘टक’ और फिर ‘टकटकी’ व ‘एकटक’ जैसे शब्द
बनने की राह निकलती दिखती है, जिनका अर्थ भी वही रहा- नज़र
गड़ाए रखना, बिना हटे देखते रहना। इस तरह “तक/तकना” और
“टक/टकटकी/एकटक” को एक ही अर्थ-समूह की कड़ियाँ माना जा सकता है।
अब सवाल यह है कि 'टक' से 'टामक' कैसे बना? यह भाषा विज्ञान के एक सहज नियम 'स्वरागम' का उदाहरण है। इसमें उच्चारण को सरल और लयबद्ध बनाने
के लिए किसी शब्द के बीच में एक अतिरिक्त स्वर या ध्वनि आ जाती है। हिन्दी में
इसके कई उदाहरण मिलते हैं, जैसे: 'चक' से 'चमक' या 'चमकना'; 'बक' से ‘बमक’ या ‘बमकना’ अथवा 'लक' से 'लमक' या 'लमकना'। ठीक इसी प्रक्रिया में 'टक' के बीच में 'म' की अनुनासिक ध्वनि के आने से 'टमक' और फिर 'टामक' का विकास हुआ। इस तरह, 'टामक' का व्युत्पत्तिपरक अर्थ हुआ- देखने की क्रिया, झाँकने का प्रयास या टोह लेने की कोशिश।
‘टोया’ और ‘टुइयाँ’: हर हाल में ‘टोह’ लेने का भाव
अब आते हैं दूसरे हिस्से 'टोया' या 'टुइयाँ' पर। इसे समझना काफ़ी सरल है। यह 'टोह' शब्द का ही एक बदला हुआ या अपभ्रंश रूप है। 'टोह लेने' का मतलब होता है- किसी चीज़ का पता लगाना, सुराग ढूँढना या खोज-ख़बर लेना। हिन्दी शब्दसागर जैसे प्रतिष्ठित कोश भी
"टामकटोया" का सीधा अर्थ 'टकटोहना' या 'टटोलना' ही बताते हैं। यह इस बात
का पुख़्ता प्रमाण है कि इस मुहावरे के केंद्र में 'टोह' यानी खोजबीन का भाव ही है। जहाँ तक 'टुइयाँ' का सवाल है, इसमें लगा 'इयाँ' प्रत्यय अक्सर किसी चीज़ को छोटा, हल्का या प्यारा रूप देने के लिए इस्तेमाल होता है, जैसे- चुहिया, डिबिया आदि। 'टुइयाँ' में भी टोह लेने की क्रिया का एक हल्का और अनिश्चित रूप झलकता है।
टकटोहना यानी अनुमान लगाना
उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर, जब हम इन दोनों हिस्सों को जोड़ते हैं, तो एक स्पष्ट और तार्किक
तस्वीर उभरती है। यह तस्वीर खोजना, टोहना, बचना और कतराना जैसे भावों तक पहुँचती है। इसकी पुष्टि 'टकटोहना' जैसे मुहावरे से भी होती है, जिसके पुराने सन्दर्भों में प्रयोग की भी पुष्टि हुई है। इसका एक रूप 'टकटोलना' भी है और इसका ही संक्षेपीकरण 'टटोलना' के तौर पर अधिक बरता जाने लगा है। तो कुल मिलाकर, टामक (टक से बना, यानी देखना) + टोया (टोह से बना, यानी खोजना) = देखकर खोजना, टोह लेने के लिए देखना, या बचाव का रास्ता तलाशना।
यह अर्थ मुहावरे के प्रयोग से पूरी तरह मेल खाता है। जब कोई व्यक्ति अनिश्चितता में होता है या किसी सवाल से बचना चाहता है, तो वह वास्तव में बचाव का रास्ता ही "देख" और "खोज" रहा होता है। वह इधर-उधर देखकर टोह लेता है कि किस तरफ़ से निकला जाए। अँधेरे में भटकता व्यक्ति भी देख-देखकर और छू-छूकर ही रास्ता 'टटोलता' है। इस तरह यह मुहावरा दो क्रियाओं- 'देखने' और 'खोजने'- के मिलने से बना एक सार्थक और बिंबात्मक युग्म है।
एक सिरा पंजाब से तो दूसरा अवध तक
यह मुहावरा विशेष रूप से पश्चिमी हिन्दी और पंजाबी
भाषा के क्षेत्र में ज़्यादा प्रचलित रहा है। उपेन्द्रनाथ अश्क जैसे कई बड़े लेखक, जिनकी जड़ें पंजाबी परिवेश से जुड़ी थीं, उन्होंने अपनी रचनाओं में
"टामकटोये मारना" का ख़ूब प्रयोग किया है। पंजाबी में 'टोया' का एक अर्थ गड्ढा या पनाह की जगह भी होता है, जो 'बचाव की जगह खोजना' वाले भाव को और मज़बूत करता है। हालाँकि, इसका यह मतलब नहीं कि यह
शब्द वहीं तक सीमित था। इसके मूल तत्व यानी 'टोह' का प्रयोग ब्रज और अवधी जैसी बोलियों में भी मिलता है। ब्रजभाषा में
"टोही करने" का अर्थ ख़बर लेना या पता लगाना है और अवधी में भी 'टोह' का मतलब सुराग या खोज ही है। इससे पता चलता है कि भले
ही इसका प्रचलित रूप पश्चिमी भारत में ज़्यादा बोला गया हो, लेकिन इसका आधार-भाव पूरे उत्तर भारत की लोकभाषा में मौजूद था।
टोह और टक की अनूठी संतान
तमाम साक्ष्यों और भाषाई विश्लेषण के आधार पर यह कहा
जा सकता है कि "टामक टुइयाँ" या "टामकटोया" कोई निरर्थक या
केवल ध्वन्यात्मक शब्द नहीं है। यह 'टक' (देखना) और 'टोह' (खोजना) जैसी दो सार्थक
क्रियाओं के मेल से जन्मा एक अनूठा लोक-मुहावरा है। इसने अँधेरे में रास्ता टटोलने
के शारीरिक बिंब से लेकर, मुश्किल में हाथ-पाँव मारने और
बात को टालने के मानसिक भाव तक की एक लंबी यात्रा तय की है। वाद्य यंत्र 'टामक' से इसका संबंध एक रोचक परिकल्पना से अधिक कुछ नहीं।
यह शब्द हमारी भाषा की उस अद्भुत क्षमता का प्रमाण है, जहाँ दो छोटे-छोटे सार्थक शब्द मिलकर एक गहरे और व्यंग्यात्मक भाव को जन्म
देते हैं, जो आज भी "टाँ-टूँ करने" जैसे रूपों में
हमारी ज़बान पर ज़िंदा है।
अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...