Tuesday, August 18, 2009

अंग्रेजी से मुक्ति वैद्यकी से नाता [बकलमखुद-97]

पिछली कड़ी- दो महिनों में सत्रह फिल्में… 

logo baklam_thumb[19]_thumb[40] दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम,  आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने dinesh rसहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के सोलहवें पड़ाव और छियानवे सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मालावण्या शाहकाकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोराहर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।

वै द्य कृष्णगोपाल जी पारीक काशी से वैद्यकी सीख कर आए तो सब से पहले सरदार के ननिहाल में पहुँचे और नाना जी के साथ रहे। सरदार की माँ ने राखी बांधी तो माँ के भाई और सरदार के मामा हुए। बाद में वे बारां बसे जहाँ पिताजी पहले पहल अध्यापक हुए। जल्दी ही यह रिश्तेदारी अत्यंत समीपता में बदल गई। वे विद्वान थे, उन्हें आयुर्वेद के प्रमुख पाँच-सात ग्रंथ कंण्ठस्थ थे। कंठस्थ करने के इस गुण का शतांश भी सरदार में होता तो वह अंग्रेजी की दुविधा होते हुए भी विश्वविद्यालय नहीं तो अपना कॉलेज तो टॉप कर ही लेता। मामाजी ने बाराँ में आयुर्वेद का महाविद्यालय स्थापित कर दिल्ली विद्यापीठ से संबद्धता हासिल की। उन्हें विद्यार्थियों की जरूरत थी। उन के संपर्क के सभी मेट्रिक पास लोग उन के विद्यार्थी होने लगे। सरदार को भी उस विद्यालय में प्रवेश लेना पड़ा।
ब अपनी पढ़ाई के साथ वैद्यकी सीखने का काम और आ पड़ा। दादाजी और पिताजी को इस में कोई आपत्ति न थी, बल्कि वे खुश थे कि लड़का ब्राह्मणों की एक और विद्या सीख रहा था। हर रविवार और दूसरी छुट्टी के दिनों मामा जी के अस्पताल जा कर बाकायदा प्रायोगिक प्रशिक्षण लेना होता। पहले की तरह मंदिर में दाज्जी की मदद भी करनी होती और उन के लिए सप्ताह में एक-दो जन्म-पत्रिकाओं की गणित भी करनी होती। उन्हों ने फलित ज्योतिष की कुछ पुस्तकें भी सरदार को पढ़ने को दी लेकिन इन्हें पढ़ने का समय कहाँ था? वहाँ तो हर कोई सरदार को वह सब सिखा देना चाहता था, जो वह खुद जानता था। इन सब के बीच अंग्रेजी पर पार पाने का यत्न भी जारी था।
वार्षिक परीक्षा हो गई। सरदार पास हो गया। लेकिन अंकतालिका ने सब सपने तोड़ दिए। सब के साथ उसे खुद आश्चर्य था कि सबसे अच्छा विद्यार्थी इतने कम अंकों से कैसे पास हुआ। बहुतों ने सहानुभूति जताई और हिम्मत बढ़ाई। सरदार ने फिर से कमर कस ली, अंग्रेजी को नहीं छोड़ा। अंग्रेजी ने फिर अपना रंग दिखाया। त्रिवर्षीय डिग्री कोर्स के दूसरे साल में फिर से फेल होना पड़ा। इस असफलता ने भी उस की हिम्मत न तोड़ी थी। लेकिन जीवन के दो वर्ष खराब होना कुछ अर्थ रखता था। हिन्दी की पुस्तकें अब मिलने लगी थीं। अंग्रेजी के खिलाफ लड़ाई को लम्बित किया और फिर से हिन्दी का दामन पकड़ा। हिन्दी ने अपना रंग दिखाया। इस बार अच्छे अंकों से सफलता मिल गई। सरदार अब बी.एससी. के अंतिम वर्ष में था। इस बीच बहुत कुछ और भी घटा था। कॉलेज की कहानी लेखन प्रतियोगिता में पुरस्कार मिल रहे थे। कविता में रुचि सुनने तक ही सीमित थी। भिन्न-भिन्न विषयों की पुस्तकें पढ़ने-गुनने से कविताएँ तो क्या किसी भी चीज को कंठस्थ करने का समय कहाँ शेष था?
स बीच सरदार के अंदर बहुत कुछ घटा था।
...हिन्दी की किताबें अब मिलने लगी थीं, मगर दो साल खराब होना मायने रखता था। अंग्रेजी के खिलाफ लड़ाई को लम्बित रखा और फिर से हिन्दी का दामन पकड़ा...
दुनिया के बारे में नजरिया बनने लगा था। दुनिया खूबसूरत होनी चाहिए, यह सपना था। पर वह पूरा कैसे हो? इस का पुख्ता उत्तर कहीं भी नहीं मिलता था। धार्मिक पुस्तकें एक ही हल बताती थीं कि जब भी पाप बहुत बढ़ जाएगा तो स्वयं भगवान अवतार लेंगे और सब कुछ ठीक कर देंगे। भागवत पुराण कहता कि कल्कि अवतार को तो अभी हजारों वर्ष शेष हैं। तब तक तो न जाने कितनी पीढियाँ गुजर जाएंगी। वहाँ तो निरीश्वरवादी बुद्ध को भी भगवान का अवतार बता दिया गया था। विभिन्न पुराणों में घोर विरोधाभास थे। जिस देवता के नाम से पुराण था वही सृष्टिकर्ता था। सब देवताओं के बीच नातेदारी के संबंध थे। धार्मिक वक्ता लगातार लोगों को अच्छा बनने की प्रेरणा देते थे। लेकिन जिसे भी नजदीक से देखा उस का स्वयं का आचरण उन के अपने उपदेशों के अनुकूल नहीं पाया। उन से तो दादाजी, पिताजी, मामा जी जैसे लोग अधिक अच्छे थे जो अपने कर्तव्यों का पालन करते थे, उन्हें सच्चे कर्मयोगी कहा जा सकता था। बी.एससी. के पहले ही वर्ष में डार्विन के विकासवाद का सिद्धांत, कोशिका विज्ञान, आनुवंशिकी और परमाणु भौतिकी विस्तार से पढ़ने को मिले। अब दुनिया को समझने का एक नया दृष्टिकोण विकसित होने लगा।
रदार को लगने लगा था कि ईश्वर यदि हुआ भी तो उस ने सृष्टि को रच दिया और कुछ नियम बना दिए। सृष्टि के छोटे से छोटे कण और बड़े से बड़े पिण्ड को इन नियमों का पालन करना होता है। ईश्वर केवल दृष्टा है, या फिर यह कि यह प्रकृति ही स्वयंभू ईश्वर है। हमें तो बस यह समझना है कि वे नियम क्या हैं। वैज्ञानिकों ने बहुत कुछ जान लिया है और जो नहीं जाना है उसे जानने के यत्न में लगे हैं। अज्ञात तो बहुत कुछ है लेकिन अज्ञेय कुछ भी नहीं। अब यह भी लगने रहा था कि दुनिया को बदलने भगवान का अवतार नहीं होगा। इसे बदलेंगे, तो इंसान ही। इंसानों के पहले तो किसी ने कुछ न बदला था। दुनिया इंसान के आने के बाद ही बदलना आरंभ हुई और बदलने की उस की गति दिनों दिन तेज होती जाती है। सरदार अब पढ़ने के लिए ऐसी पुस्तकों की तलाश में था, जिन से यह जानने को मिले कि अब तक दुनिया कैसे बदली है? और आगे कैसे बदला जा सकता है।
स बीच छोटी-बड़ी पत्रिकाओं में छुटपुट कहानियाँ और लघुकथाएँ छपने लगी थीं। बी.एससी. में माध्यम हिंदी हो जाने के उपरांत पढ़ने की अधिक चिंता नहीं थी। मामूली अध्ययन से अच्छे अंक आ रहे थे। लेकिन आगे भविष्य की चिंता सताने लगी थी। आजीविका क्या होगी? आयुर्वेद विद्यापीठ से विशारद का तमगा जरूर मिलने वाला था। पर उसे आजीविका का साधन बनाना सरदार को रुचिकर नहीं लगा। डाक्टर बनने का जो सपना लादा गया था, वह बहुत पीछे छूट चुका था। इस बीच कोटा से कुछ दैनिक समाचार पत्रों का प्रकाशन आरंभ हो चुका था। उन्हें नगर के समाचार भेजने लगा। पत्रकार होने का तमगा मिल गया। लेकिन यह भी आमदनी का अच्छा स्रोत न था। यही मार्ग दिखाई देते थे कि स्नातक हो कर राज्य सेवा के लिए प्रयास किए जाएँ, या विज्ञान के किसी विषय में स्नातकोत्तर हो कर अध्यापन अपनाया जाए, या फिर किसी महानगर में जा कर पत्रकारिता में ही जोर आजमाइश की जाए।

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7 कमेंट्स:

Himanshu Pandey said...

बकलम खुद की इस श्रृंखला में प्रस्तुत आलेख एक अनोखी उपलब्धि हैं । द्विवेदी जी की कलम से निकली इस प्रस्तुति का आभार ।

Anonymous said...

हर कोई …वह सब सिखा देना चाहता था, जो वह खुद जानता था।

यह तो होता ही है तभी तो अगली पीढ़ी, पिछली पीढ़ी से अधिक विकसित होती है।

इस प्रस्तुति का आभार,
अगली कड़ी की प्रतीक्षा

Arvind Mishra said...

अज्ञात तो बहुत कुछ है लेकिन अज्ञेय कुछ भी नहीं।
मुझे तो लगता है यही आपके और मेरे भी जीवन का एक महामंत्र बन गया है !

रंजू भाटिया said...

रोचक लग रहा है आप की कलम से आपके बारे में जानना ..

Sanjeet Tripathi said...

इस कड़ी से यह शिक्षा तो मिली कि अंग्रेजी न आए तो टेंशन भले लो लेकिन हिम्मत न हारो।

पंडित जी पत्रकार कैसे बने यह मालूम चला
रोचक है यह आत्मकथ्य।
इंतजार रहेगा अगली किश्त का।

अजित वडनेरकर said...

बेहतरीन प्रस्तुति। पंडित जी धीरे धीरे वकील बनने की राह प्रशस्त कर रहे हैं। मगर पत्रकार बनते बनते कैसे रह गए इसके एक दो किस्से जानना चाहेंगे। एक किस्सा तो छुटपन का सुन चुके हैं जब दूषित कुएं की इन्होंने सफाई करवाई थी।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

हम तो बाढ़ से परेशान हैं,
मगर आपकी इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए
बधाई तो दे ही देते हैं।

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