Tuesday, April 27, 2010

रासलीला और रहस का रहस्य

daandia_raas
प्रा चीन संस्कृति में प्रेम की उदात्त अभिव्यक्ति होती थी। कृष्ण की रासलीला इसका प्रतीक है। भक्तिकाव्य में रासलीला शब्द का खूब प्रयोग हुआ है। दरअसल रास एक कलाविधा है। प्रेम और आनंद की उत्कट अभिव्यक्ति के लिए कृष्ण की उदात्त प्रेमलीलाओं का भावाभिनय ही रासलीला कहलाता है। मूलतः यह एक नृत्य है जिसमें कृष्ण को केंद्र में रख गोपियां उनकी परिधि में मुरली की धुन पर थिरकती हैं। अष्टछाप के भक्तकवियों नें प्रेमाभिव्यक्ति करनेवाले अनेक रासगीतों की रचना की है। रास में आध्यात्मिकता भी है जिसमें गोपियों का कृष्ण के प्रति अनुराग व्यक्त होता है। वे वृत्ताकार मंडल में प्रेमाभिव्यक्ति करती हैं। इसमें जीव के आत्मा से मिलन का निहितार्थ भी ढूंढा जाता रहा है। रासलीला अब प्रसिद्ध लोकनाट्य शैली है और देश के विभिन्न प्रान्तों में krishna-raasयह प्रचलित है। मध्यकाल में इसमें जो आध्यात्मिकता थी वह धीरे धीरे गायब होती गई और विशुद्ध मनोरंजन शैलियों वाली गिरावट इस भक्ति और अध्यात्म को अभिव्यक्त करनेवाली विशिष्ट विधा में भी समा गई। वैसे आज भी बृज की रास मण्डलियां प्रसिद्ध हैं। कथक से भी रास को जोड़ा जाता है  किन्तु कथक की पहचान जहां एकल प्रस्तुति में मुखर होती है वहीं रास सामूहिक प्रस्तुति है। अलबत्ता रास शैली का प्रयोग कथक और मणिपुरी जैसी शास्त्रीय नृत्यशैलियों में हुआ है। इसके अलावा गुजरात का जग प्रसिद्ध  डांडिया नृत्य रास के नाम से ही जाना जाता है। रास का मुहावरेदार प्रयोग भी बोलचाल की भाषा में खूब होता है। रास रचाना यानी स्त्री-पुरुष में आपसी मेल-जोल बढ़ना। रास-रंग यानी ऐश्वर्य और आमोद-प्रमोद में लीन रहना।

रास शब्द रास् धातु से आ रहा है जिसमें किलकना, किलोल, शोरगुल का भाव है। इससे बना है रासः जिसमें होहल्ला, किलोल सहित एक ऐसे मण्डलाकार नृत्य का भाव है जिसे कृष्ण और गोपियां करते थे। इससे ही बना है रासकम् शब्द जिसका अर्थ नृत्यनाटिका है। कुछ कोशों में इसका अर्थ हास्यनाटक भी कहा गया है। दरअसल रासलीला जब कला विधा में विकसित हो गई तो वह सिर्फ नृत्य न रहकर नृत्यनाटिका के रूप में सामने आई। नाटक के तत्वों में हास्य भी प्रमुख है। रासलीला में हंसोड़पात्र भी आते हैं जो प्रायः रासधारी गोप होते हैं। इसलिए रासकम् को सिर्फ हास्यनाटक कहना उचित नहीं है। मूलतः रास् से बने रासकम् का ही रूप मध्यकालीन साहित्य की एक विधा रासक के रूप में सामने आया। रासक को एकतरह से जीवन चरित कहना उचित होगा जैसे पृथ्वीराज रासो या बीसलदेवरासो आदि जो वीरगाथा साहित्य के प्रमुख ग्रन्थ हैं। विद्वानों का मानना है कि रास शब्द का रिश्ता संस्कृत के लास्य से भी है जिसमें भी नृत्याभिनय और क्रीड़ा का भाव है। एक ही वर्णक्रम में आते हैं। लास्य का ही प्राकृत रूप रास्स होता है।
संत ऋतु में बुंदेलखण्ड में एक प्रसिद्ध मेला रहस लगता है जिसका संबंध भी रास से जोड़ा जाता है। कुछ विद्वानों ने  रासो की व्युत्पत्ति रहस्' शब्द के रहस से जोड़ी है। रामनारायण दूगड लिखते हैं- रास या रासो शब्द रहस या रहस्य का प्राकृत रुप मालूम पड़ता है। इसका अर्थ गुप्त बात या भेद है। जैसे कि शिव रहस्य, देवी रहस्य आदि ग्रन्थों के नाम हैं, वैसे शुद्ध नाम पृथ्वीराज रहस्य है जोकि प्राकृत में पृथ्वीराज रास, रासा या रासो हो गया। डॉ. काशी प्रसाद जायसवाल और 19July06कविराज श्यामदास के अनुसार रहस्य पद का प्राकृत रुप रहस्सो बनता है, जिसका कालान्तर में उच्चारण भेद से बिगड़ता हुआ रुपान्तर रासो बन गया है। रहस्य> रहस्सो> रअस्सो >रासो इसका विकास क्रम है। बुंदेलखण्ड में सागर के पास गढ़ाकोटा के प्रसिद्ध रहस मेला के संदर्भ में भी इसी रहस्य शब्द का हवाला दिया जाता है। बताते हैं कि अंग्रेजो के खिलाफ बुदेलों की क्रांति की योजनाएं इसी मेले में बनती थीं यानी मेले की आड़ में यह काम किया जाता था। मान्यता है कि मेला लगना ही इसलिए शुरू हुआ था। गोपनीयता के अर्थ में इस आयोजन से रहस शब्द जुड़ा और फिर इसका तद्भव रूप रहस् सामने आया। मगर यह बात प्रामाणिक नहीं लगती। मेले में गोपनीय सूचनाओं का आदान-प्रदान संभव है किन्तु इसी उद्धेश्य से यह आयोजन शुरू हुआ है यह बात अविश्सनीय और अव्यावहारिक लगती है।
संस्कृत का रहस शब्द बना है रहस् धातु से। इसकी अर्थवत्ता व्यापक है। मूलतः इसमें एकान्त, निर्जनता, एकाकीपन, एकान्तवास, सूनसान स्थान, गुप्तवार्ता, भेद की बात जैसे अर्थ समाहित हैं। इसका एक अन्य अर्थ केलि, किलोल, क्रीड़ा, कामक्रिया भी है। समझा जा सकता है कि प्राचीनकाल की जनपदीय संस्कृति में युवक-युवतियों के मिलने-जुलने से जुड़े ऐसे आयोजन आम थे। ये आयोजन स्वतःस्फूर्त होते थे। कुलीनों के वसंतोत्सव से हटकर इनकी सामाजिक संरचना बस्तर के घोटुल के जरिये समझी जा सकती है। भाव यही है कि युवक-युवतियों का आपसे में मिलना गोपनीय व्यवहार है। इस संदर्भ में गुप्त बात, भेद, गूढ़ता, आचरण की विचित्रता जैसे लक्षणों को ही रहस्य के अंतर्गत समझना चाहिए न की जासूसी या गुप्तचरी वाले भाव इसमें जोड़ने चाहिए। हालाँकि इसका विकास फ़ारसी के राज़ में नज़र आता है जहाँ इन्हीं अर्थों में इसका प्रयोग होता है ।  निश्चित ऋतु और निश्चित स्थान पर तरुण-तरुणियों का ऐसा आचरण जब आम हो गया तब इस स्वतः स्फूर्त आयोजन ने रहस् मेले का रूप लिया। यहां समझें कि समूह में भी कोई जोड़ा अपनी निजता और गोपनीयता के साथ ही खुद में लीन होता है।
विद्वानों और आलोचकों में रास शब्द पर बड़ा विवाद है। अवध, बुंदेलखण्ड और छत्तीसगढ़ की लोककला विधा रहस से भी इस रास का रिश्ता जोड़ा जाता है। वैसे रास के छह रूपांतर हिन्दी की शैलियों में देखने को मिलते हैं जैसे- रास, रासा, रासो, रासौ, रायसा, रायसौ। इसी तरह इसकी व्युत्पत्ति के आधार स्वरूप भी छह शब्दों को वक्तन फ वक्तन सामने रखा जाता रहा है मसलन-रहस्य, रसायण, राजादेश, राजयश, रास और रासक। यह तय है कि रास शब्द की व्युत्पत्ति न तो रहस से हुई है और न ही रहस शब्द का जन्म रास से हुआ है। इसी तरह फिरंगियों के विरुद्ध गोपनीय सूचनाओं के आदान प्रदान के लिए ये आयोजन शुरू हुए यह कहना भी गलत है। अलबत्ता रहस का रहस्य से रिश्ता है और दो प्रेमी हृदयों के आपसी मिलन के भेद में ही रहस का रहस्य निहित है। अब मेलों-ठेलों की गहमा-गहमी में चोर पुलिस का खेल भी होता है और षड्यंत्रों को अंजाम भी दिया जाता है। यह उसके उद्धेश्य नहीं बल्कि लाभ हैं। विद्वानों नें रास का रिश्ता राजादेश, राजसूय, रसायण और राजयश जैसे विभिन्न शब्दों से जोड़ा है जो साहित्यिक कल्पनाशीलता के उत्कृष्ट नमूनें हैं, मगर प्रामाणिक नहीं।
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16 कमेंट्स:

निर्मला कपिला said...

bahut achha lagaa ye safar bhee bahut din baad kuch time milaa to sab se pehale apake blog par aayee shubhakamanayen

दीपक 'मशाल' said...

वाह वाह वाह.. एक और अविस्मरणीय सफ़र का हमसफ़र बनाने के लिए आभार देव..

Udan Tashtari said...

रहस और रहस्य का रिश्ता लगता भी तर्क संगत है.

बहुत उम्दा आलेख. आभार.

Himanshu Pandey said...

बेहतरीन आलेख ! बेहद खूबसूरत सफर ..

दिनेशराय द्विवेदी said...

वडनेरकर जी, हमें तो इस पोस्ट का शीर्षक पढ़ने से ले कर पूरी पोस्ट पढ़ जाने तक बैलों की रास ही याद आती रही। जो बैलगाड़ी चलाते समय उस के हाथों में रहती है और जिस से वह बैलों को नियंत्रित करता है। नौकर की रास मालिक के हाथों होती है और प्रेमियों के भी भी हो सकती है और दोनों तरफ से भी नियंत्रित हो सकती है।

अजित वडनेरकर said...

@दिनेशराय द्विवेदी
मुझे लग रहा था कि इसे पढ़ते हुए कई साथियों को लगाम वाली रास भी याद रही होगी। थामनेवाली रास का रास रचाने से रिश्ता नहीं है। इस पर करीब डेढ़ साल पोस्ट लिखी जा चुकी है। कृपया देखें-
सूरज की रस्सियां

प्रवीण पाण्डेय said...

रास, रहस व रहस्य शब्दों की अन्तर्निहित अर्थ उनके एक स्रोत से ही उत्पत्ति की ओर इंगित करता है ।

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

रास का रहस्य भी सुलझ गया आज

उम्मतें said...

अजित भाई
दिनेश जी की बात को सांकेतिक रूप से स्वीकार कीजिये आंचल थामने के बाद ही रचाने की प्रक्रिया ... एकाकार / तादात्म्य शुरू होती है ... एकाकार होना सदैव फिजिकल नहीं होता अगर रहस / रास दो विविध देहों / मनःस्थितियों का मिलन है तो रचाना ...संपर्कों ...स्पर्शों और थामने से ही शुरू होता होगा ! दिनेश जी का बैल या घोडा अहं का प्रतीक हो तो उसकी रास का मालिक के हाथ में होना वैसा ही हुआ जैसे ईश्वर और उसके भक्त ....रास के लिए देहों की समानता मत ढूंढिये ...रास के समय ईश्वर देह कहां होते हैं ? इस सम्बन्ध में मुझे उस गजराज...घड़ियाल ...और ईश्वर का प्रसंग याद आता है ! भक्त और ईश्वर का समदेह होना आवश्यक नहीं है ! शाब्दिक रूप से रास उर्फ़ लगाम का रास उर्फ़ रहस से कोई लेना देना नहीं है किन्तु प्रतीकात्मकता में ऐसा संभव है !

मीनाक्षी said...
This comment has been removed by a blog administrator.
DR. ANWER JAMAL said...

श्री कृष्ण जी का रास लीला से कोई सम्बन्ध नहीं था . यह पंडों ने चलाया . क्यों चलाया ? इस पर आप रौशनी डालें .

अजित वडनेरकर said...

@डॉ अनवर जमाल
आपके पास संभवतः अधूरी जानकारी है और इसका आधार क्या है, यह आप बताएं। श्रीकृष्ण का चरित्र जिस रूप में रचा गया है, उनके इर्द-गिर्द गोप-गोपियां हैं ऐसे में यह संभव नहीं कि वे आपस में लोकानुरंजन न करते हों। बात रास शब्द के कृष्णकाल में प्रचलित होने की है। गोपियों के साथ कृष्ण की नृत्यलीला को उस दौर में रास कहा जाता था या नहीं, मामला यह है और यह विशुद्ध ऐतिहासिक भाषाविज्ञान से जुड़ा प्रश्न है।

कतिपय विद्वानों का मानना है कि श्रीकृष्ण के समय रास शब्द प्रचलित नहीं था। वे नृत्य की परिपाटी और श्रीकृष्ण के कलाप्रेम को खारिज नहीं करते हैं। कृष्णचरित से कलाओं को अलग किया ही नहीं जा सकता। मुरलीमनोहर और गोप-गोपियों के मेल ने भारतीय संस्कृति को विविध कलाएं दी हैं। गुप्तकालीन रचना रास पंचाध्यायी से मण्डलाकार नृत्य के लिए रास शब्द का प्रचलन बढ़ा है। निश्चित ही रास ब्रज क्षेत्र का पारम्परिक लोकनृत्य रहा है। कृष्ण चरित से इस शब्द के जुड़ा होने के पीछे की भ्रम की गुंजाइश नहीं है।

पण्डा शब्द का संदर्भ पोथी-जंत्री तक ही सीमित है। इस वर्ग का नृत्य या कलाकर्म में कोई दखल नहीं था इसलिए रास शब्द से इन्हें जोड़ना भी ठीक नहीं।
यहां देखे-http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%A8%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF-%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A4%BE

मीनाक्षी said...

एक पल के लिए सोचा कि शायद इतने दिनों बंक करने के बाद कक्षा से जैसे निकाल बाहर किया जाता है वैसे ही टिप्पणी डिलीट कर दी गई...दूसरे पल सकारात्मक सोच के साथ वापिस लौटे कि शायद कोई तकनीकी समस्या हो...रास के कई नए रहस्य खुले लेकिन टिप्पणी डिलीट होने का रहस्य अभी भी वैसे का वैसे है..

किरण राजपुरोहित नितिला said...

एक रास और याद आ रहा है .
हमारे यहाँ ओजार को भी रास कहा जाता है .

Sanjay Kareer said...

रहस शब्‍द की व्‍युत्‍पत्ति को लेकर आपने जो तर्क दिए वे स्‍वीकार्य हैं लेकिन मेले को लेकर जो जनश्रुतियां हैं उनका निषेध इतनी आसानी से नहीं किया जा सकता। बुजुर्गों से बात करने पर फिरंगियों के खिलाफ क्रांति की योजनाएं बनाने और सूचनाओं के आदान प्रदान की व्‍याख्‍या बार बार सामने आती है। किसी के पास कोई प्रमाण नहीं है क्‍योंकि ऐसी चीजों का कोई अभिलेखन नहीं होता था। फिर भी वे यह बात ठोक कर कहते हैं कि पशुओं की खरीद फरोख्‍त के लिए मेले का आयोजन किया जाता था और उसका मूल उद्देश्‍य बगावत की तैयारी करना था। इस पोस्‍ट को संदर्भ के रूप में इस्‍तेमाल करने की इजाजत चाहूंगा। मेरा शोध अभी जारी है और अब मैं इसे ज्‍यादा गहराई से करने का प्रयास कर रहा हूं। आपने इस विषय पर अध्‍ययन करने के बाद यह पोस्‍ट लिखी, इसके लिए आभारी हूं। शुक्रिया बड़े भाई।

अजित वडनेरकर said...

@संजय करीर
मैने फिरंगियों के खिलाफ योजनाएं बनाने वाले तथ्य से इनकार नहीं किया है। सिर्फ एतराज उससे जुड़े रहस्य से रहस की व्युत्पत्ति को अस्वीकारने का है। फिरंगियों के खिलाफ किसी भी किस्म की योजना बनाने के लिए ऐसे आयोजन के तामझाम की बजाय किसी भी गुप्त स्थान पर योजनाएं बनाना या साधारण लोगों के बीच गुप्त रहकर ही सम्पर्क करना तार्किक है।

मेला तो एक जरिया भर है। अर्थात मेला पहले से है, उसका गुप्त योजनाओं के लिए प्रयोग करने की सूझ बाद की है। यही कहना चाहता हूं। अगर ये मेले षडयंत्रों के लिए लग रहे होते तब शासन तम्बू गड़ने से पहले ही न उखाड़ फेंकता?

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