Friday, January 1, 2016

मुनादी के बहाने ...

भाषा परिवारों की रिश्तेदारी के मामले में सबसे ज्यादा काम भारत-ईरानी, भारत-यूरोपीय सन्दर्भों में सामने आता रहा है। यूँ ग्रीक, लैटिन, स्पैनिश आदि भाषाओं के शब्दों की आवाजाही अरबी में खूब हुई है पर भारत-ईरानी परिवार विशेष तौर पर वैदिक काल के शब्द भी सेमिटिक परिवार की भाषाओं में ख़ासतौर पर अरबी में दाखिल होने के प्रमाण मिलते हैं, किन्तु उन पर व्यवस्थित काम नहीं हुआ। हिन्दी में 'मुनादी' शब्द का प्रयोग आम तौर पर होता है यह भी सेमिटिक मूल से ही उपजा है और इसका अर्थ है घोषणा या ऐलान करना। अरबी में नाद / नाज दो ऐसी धातुएं हैं जिनमें चीख, शोर, पुकार, कराह, रोना-पीटना जैसे भाव शामिल हैं। नाद में ‘मु’ उपसर्ग लगने से बनता है मुनादी जिसका अर्थ हुआ ऊँची आवाज के साथ बोलना अर्थात घोषणा करना। इसी तरह नाज से बने मुनाजत शब्द का मतलब होता है प्रार्थना करना। अरबी के 'ना'द और संस्कृत के 'नाद' में समानता पर गौर करें- इन सभी शब्दों में ऊँची आवाज और कोलाहल स्पष्ट हो रहा है। हिन्दी-संस्कृत का नाद बना है संस्कृत नद् से जिसमें यही सारे भाव समाए हैं। हिन्दी-उर्दू के प्रसिद्ध शायर है निदा फ़ाज़ली। उर्दू में 'निदा' का अर्थ होता है पुकार या आह्वान। यह इसी मूल से निकला शब्द है।

अरबी का नाद बना है सेमिटिक धातु नून-दा-वाव अर्थात و-د-ن से जिसकी बहुआयामी अर्थवत्ता है। एक ओर जहाँ जलवाची भाव हैं जैसे शीतलता, ठंडक, नमी, गीला, सीला आदि वहीं दयालुता, भद्रता, सज्जनता जैसे भाव भी हैं। इसी तरह इसमें ध्वनि, पुकार, शोर का भाव है तो समूह, बैठक, सभा या जमावड़े का आशय भी इससे प्रकट होता है। जहाँ तक वैदिक शब्दावली के नाद का प्रश्न है, उसमें निहित ध्वनि, कोलाहल या घोष करने जैसे आशय अरबी के नाद में भी स्पष्ट हो रहे हैं किन्तु ध्वनिपरक आशयों से हटकर जलवाची भाव भी अरबी के नाद में हैं उनका वैदिकी/ संस्कृत के नाद से क्या कोई अर्थसाम्य निकलता है? इसे समझने के लिए वैदिकी/ संस्कृत नाद के मूल नद् को देखना होगा जिसमें दरिया, महाप्रवाह जैसे आशय हैं।

नद् शब्द से ही बना है नदी शब्द जो बेहद आम है। गौर करें कि नदी यानि सलिला, सरिता, धारा, तरला, नदिया, सिंधु निर्झरिणी आदि शब्दों के में उजागर प्रवाहवाची भाव पर। सवाल उठता है नदी शब्द की उत्पत्ति नद् धातु से क्यों हुई जिसके तमाम अर्थ शोर, ध्वनि, गर्जना से जुड़ते हैं? इसका उत्तर नदी के एक और पर्यायवाची में छुपा है। नदी को शैलबाला, पर्वतसुता या पार्वती भी कहा जाता है। ज्यादातर धाराओं का प्राकृतिक उद्गम पर्वतों से ही होता है। ऊँचे पर्वतों से जब जलधाराएं नीचे की ओर यात्रा शुरु करती हैं तो चट्टानों से टकरा कर घनघोर ध्वनि के साथ नीचे गिरती हैं। यह शोर है। यही गर्जना है। यही नाद है। हिन्दी के सिंहनाद, जयनाद, हर्षनाद, आर्तनाद जैसे शब्दों में ध्वनि-आवाज़ के अर्थ में यही नाद झाँक रहा है।

गौर करें कि बड़ी नदियों के साथ भी नद शब्द जोड़ा जाता है जिसमें विशाल जलक्षेत्र अथवा समुद्र का भाव है। ब्रह्मपुत्र को विशाल जलराशि की वजह से ही नदी नहीं नद कहा जाता है। ग्लेशियर के लिए हिमनद शब्द इसी लिए गढ़ा गया। स्पष्ट है कि अरबी के नाद में शीतल, आर्द्र, नमी जैसे जलवाची आशय वैदिकी वाले नाद से ही गए हैं। यह स्पष्ट है कि अरब क्षेत्र में घर्घर करती नदियाँ नहीं है इसलिए नाद वाली जलवाची अर्थवत्ता का विकास होना वहाँ तार्किक नहीं लगता।

मुस्लिम संगठनों का ज़िक़्र चलने पर अकसर नदवातुल उलेमा, नदवातुल इस्लाम या नदवातुल मुजाहिदीन जैसे पद सुनने को मिलते हैं। इसमें जो नदवा है वह भी इसी मूल का है। गौर करें अरबी नाद में समुच्चयवाची आशय भी हैं। वैदिक नाद के सन्दर्भ में इसे समझें तो प्रपात से गिरती घर्घर जलराशि सतह पर पहुँच कर संचित ही होती है। यह संचय, समुच्चय ही है। नदवा में एक साथ समूह और घोषणा जुड़े हुए हैं। पुराने दौर में धार्मिक, कौटुम्बिक मामले बैठकों में निपटाए जाते थे। नदवा ऐसी ही सभा है। स्वाभाविक है कि सभा में अध्यक्ष की ओर से सर्वसम्मति से घोषणाएँ भी होंगी ही। एक शब्द की बहुत सी अर्थछटाएँ होना किसी भी भाषा को समृद्ध बनाता है किन्तु इन अर्थछटाओं का विकास किन किन चरणों से गुज़रने के बाद होता है यह जानना ही शब्दों का सफ़र है।

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2 कमेंट्स:

ब्लॉग बुलेटिन said...

किरण आर्य जी ने आज से ब्लॉग बुलेटिन पर अपनी पारी की शुरुआत की है ... पढ़ें उन के द्वारा तैयार की गई ...
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "मन की बात के साथ नया आगाज" , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

Shridharam said...

बहुत ही ज्ञानवर्धक। आभार।

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