Tuesday, September 9, 2025

भाषा की धार के अगाध - प्रगाढ़ किनारे

गाथा- गाध, गाड़, गाद और गाढ़ की / शब्दकौतुक

हिन्दी में 'अगाधऔर 'प्रगाढ़दो ऐसे शब्द हैं जिनका प्रयोग हम अक्सर गहराई को दर्शाने के लिए करते हैं। एक ओर 'अगाधहमें सागर की अथाह गहराइयों या ज्ञान की सीमाहीनता का बोध  कराता है, तो वहीं 'प्रगाढ़' हमें प्रेम, मित्रता जैसे रिश्तों की घनिष्ठता और मजबूती का एहसास दिलाता है। ध्वनि और अर्थ, दोनों में ये शब्द गहराई के पर्याय लगते हैं। पर इसी परिवार में एक और शब्द है जो हमें चौंकाता है - 'गाद'। इसका अर्थ है नदी की तलछट, कीचड़ या किसी द्रव के नीचे जमी हुई गंदगी, जो गहराई नहीं, बल्कि उथलेपन का कारण बनती है।

विभिन्न अर्थायाम- वैचित्र्य एक स्वाभाविक प्रश्न खड़ा करता है- जो शब्द-मूल 'अगाध' और 'प्रगाढ़' जैसी गहनता को जन्म देता है, वही 'गाद' जैसे तलछट का स्रोत कैसे हो सकता है? दरअसल 'गाध', 'गाढ़', 'गाढ़ा', 'गाद' और 'गाड़' शब्दों का परिवार कुछ ऐसा ही है। इनका प्रयोग पानी की गहराई, रिश्तों की प्रगाढ़ता, द्रव के घनत्व, नदी की तलछट और यहाँ तक कि धाराओं के नाम के लिए भी होता है। पहली नज़र में यह एक भाषाई पहेली लगती है, लेकिन जब हम इनकी जड़ों को खोजते हैं, तो अर्थ के विकास की एक अद्भुत कहानी सामने आती है।

स्थिरता का एक भाव: धातु 
'गाध्'- 
इस पूरे शब्द-समूह की जड़ें संस्कृत की एक ही धातु 'गाध्' में समाई हुई हैं। 'गाध्' का सीधा-सा अर्थ है- 'ठहरना', 'स्थिर होना', 'प्रतिष्ठित होना', या 'थाह पाना'। कल्पना कीजिए कि कोई व्यक्ति नदी पार करते हुए ऐसी जगह खोजता है जहाँ उसके पैर टिक जाएँ और वह स्थिर हो सके। यही ‘थाह पाने’ या ‘स्थिर होने’ का मौलिक विचार इस धातु का केंद्र है। यह आश्चर्यजनक है कि कैसे 'स्थिरता' के इस एक विचार ने भाषा में कई अलग-अलग शाखाओं को जन्म दिया। एक ओर इसने भौतिक रूप से ‘पैर टिकने’ यानी उथलेपन ('गाध') को दर्शाया, तो दूसरी ओर इसने लाक्षणिक रूप से ‘मन के टिकने’ यानी भावनात्मक दृढ़ता और गहनता ('गाढ़') को व्यक्त किया। इसी केंद्रीय विचार से यह पूरा शब्द-परिवार विकसित हुआ।

गहनता और
'गाढ़'- 
भाषा की सबसे सुंदर प्रक्रियाओं में से एक है, जब किसी क्रिया से किसी गुण का जन्म होता है। संस्कृत धातु 'गाध्' (स्थिर होना) से ही 'गाढ़' शब्द विकसित हुआ, जिसका शाब्दिक अर्थ हुआ- "जो स्थिर हो" या "जो दृढ़ हो"। यहीं से अर्थ का विस्तार हुआ। जो भावना मन में पूरी तरह स्थिर हो चुकी है, वह 'प्रबल' और 'गहन' है; जो रिश्ता अपनी जगह पर पक्का है, वह 'घनिष्ठ' और 'दृढ़' है; और जो नींद बिना किसी बाधा के टिकी हुई है, वह 'गहरी' है। इसी से 'गाढालिङ्गन' (दृढ़ आलिंगन), 'गाढानुराग' (गहरा प्रेम) और 'गाढनिद्रा' (गहरी नींद) जैसे शब्द बने। तुलसीदासजी ने भी 'गाढ़' का प्रयोग 'कठिन' या 'दुर्गम' के अर्थ में किया है, जहाँ मुश्किलें मजबूती से 'स्थिर' हों: "क्षेत्र अगम गढ़ गाढ़ सुहावा।"

हमारा प्रिय 'गाढ़ा'- संस्कृत का वही 'गाढ' शब्द प्राकृत से होते हुए आधुनिक हिन्दी में 'गाढ़ा' बन गया।आज हम जितने भी रूपों में 'गाढ़ा' शब्द का प्रयोग करते हैं, वे सभी संस्कृत के उन्हीं भावों की विरासत हैं। जैसे गाढ़ा दूध या रस:यह 'सघन'  होने के भाव से आया है। गाढ़ा रंग:यह 'गहन' या 'तीव्र'  होने का प्रतीक है। गाढ़ी दोस्ती:यह रिश्तों की 'दृढ़ता' और 'घनिष्ठता' को दर्शाता है।गाढ़ी कमाई:यह 'कठिन' या 'प्रचंड' परिश्रम से कमाए गए धन का द्योतक है।गाढ़े दिन या गाढ़ा वक्त:यह मुहावरा संकट या मुसीबत के समय के लिए प्रयोग होता है गाढ़ी छनना: एक तो गहरी दोस्ती होना और दूसरा, तेज़ भाँग का सेवन किया जाना

सघनता यानी
 'गाद' और 'गाळ'- 
अब कहानी और रोचक हो जाती है। 'गाद' शब्द का जन्म भी सीधे-सीधे धातु 'गाध्' (ठहरना) से हुआ है। तर्क बहुत सरल और सीधा है—किसी तरल पदार्थ में जो भारी कण धीरे-धीरे नीचे ठहर जाते हैं या स्थिर हो जाते हैं, उसी जमी हुई तलछट को 'गाद' (silt/sediment) कहा गया। इस तरह 'गाद' शब्द सीधे तौर पर 'ठहरने' की क्रिया का ही परिणाम है। इसी परिवार का एक सदस्य मराठी में भी है। संस्कृत 'गाढ' (दृढ़/सघन) से ही मराठी में 'गाळ' शब्द बना, जिसका अर्थ भी कीचड़ या तलछट ही होता है। मराठी में 'गाळणी' (छलनी) से छानने के बाद जो गाढ़ा हिस्सा ठहर जाता है, उसे 'गाळ' कहते हैं, जो इसके मूल अर्थ को और स्पष्ट करता है

हिमालय के 
'गाड़' - 'गधेरे'- 
उत्तराखंड और हिमाचल जैसे पहाड़ी क्षेत्रों में छोटी नदियों या धाराओं के नाम के अंत में अक्सर 'गाड़' शब्द जुड़ा मिलता है, जैसे- ब्यासगाड़, कोसीगाड़, बिंदालगाड़ और मलारीगाड़। इसका सम्बन्ध भी 'गाद' से ही है।ये पहाड़ी धाराएँ अपने साथ भारी मात्रा में मिट्टी, कंकड़ और अवसाद (यानी गाद) बहाकर लाती हैं , जिससे उनका पानी अक्सर गंदला या 'गाढ़ा' हो जाता है।इसी 'गाद-युक्त' या 'गाढ़ी' होने की विशेषता के कारण इन धाराओं को 'गाड़' कहा जाने लगा।कुमाऊँनी भाषा में 'गाद-धारा' से बने 'गध्यर' जैसे शब्द भी छोटी धाराओं के लिए प्रयुक्त होते हैं, जो इस रिश्ते को और पुख्ता करते हैं।यह शब्द केवल एक नदी का नाम नहीं, बल्कि उसकी तलछटी प्रवृत्ति का भी सूचक है।

कहानी में मोड़-
 विपरीत अर्थ वाला 'गाध
इस शब्द-परिवार में एक सदस्य ऐसा भी है, जिसका अर्थ लगभग उल्टा है। वह शब्द है 'गाध' जहाँ 'गाढ़' का अर्थ 'गहरा' है, वहीं संस्कृत में 'गाध' का प्राथमिक अर्थ है "थाह लेने योग्य, उथला, जो गहरा न हो"।यह नदी के उस स्थान को दर्शाता है, जहाँ पानी इतना कम हो कि पैदल चलकर पार किया जा सके।हिन्दी शब्द सागर के अनुसार भी इसका अर्थ 'छिछला' या 'पायाब' है।इसका स्रोत एक दूसरी, किंतु सजातीय, संस्कृत धातु 'गाध्' है, जिसका एक अर्थ है "खड़े रहना या स्थिर रहना"। इस प्रकार, जहाँ 'गाह्' धातु ने 'डूबने' का भाव पकड़ा, वहीं 'गाध्' धातु ने पानी में 'पैर टिकाकर स्थिर रहने' का भाव अपना लिया।

अथाह 'अगाध'- 
'गाध' का अर्थ 'उथला' ही है, इसका सबसे सुंदर और अकाट्य प्रमाण 'अगाध' शब्द में मिलता है।यह शब्द निषेधार्थक उपसर्ग -' (नहीं) और 'गाध' (थाह योग्य/उथला) के योग से बना है।अतः 'अगाध' का अर्थ हुआ- "जिसकी थाह न ली जा सके, जो उथला न हो", अर्थात "अथाह, बहुत गहरा"।यह शब्द भगवान विष्णु का भी एक नाम है, जो उनके असीम और अनंत स्वरूप को दर्शाता है।मराठी के महान संत ज्ञानेश्वर ने भी इसका प्रयोग करते हुए लिखा: "परि अगाध भलें गहन । हृदय ययाचें" (परन्तु उसका हृदय बहुत अथाह और गहन है)। इस एक शब्द से यह पहेली पूरी तरह सुलझ जाती है और यह स्पष्ट होता है कि कैसे एक ही मूल विचार से समय के साथ दो विपरीत अर्थों वाली शाखाएँ विकसित हो गईं।

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Thursday, September 4, 2025

श्रीमान चौखट उर्फ़ अफ़साना-ए-जनाब / देहली_4

शब्दकौतुक अरबी गली से हिन्दी भवन का सफ़रनामा

देहली से सम्बोधन तक

हिन्दी-उर्दू बोलनेवालों के लिए यह शब्द इतना सहज और स्वाभाविक है कि हम इसके गहरे अर्थों पर शायद ही कभी ग़ौर करते हैं। लेकिन क्या हो अगर आपको बताया जाए कि जिस 'जनाब' को हम व्यक्ति के लिए इस्तेमाल करते हैं, उसका मूल अर्थ 'पहलू', 'चौखट', 'ड्योढ़ी' या 'आँगन' है, तो? यह विरोधाभास ही हमें एक रोमांचक भाषायी सफ़र पर ले जाता है—एक ऐसा सफ़र जो अरबी के रेगिस्तानों से शुरू होकर, फ़ारसी के दरबारों से गुज़रता हुआ, भारतीय भाषाओं में रच-बस जाता है। 'जनाब' शब्द की जड़ें अरबी भाषा के त्रि-अक्षरीय धातु جنب (जीम–नून–बा) में निहित हैं। यह धातु अरबी भाषा में निकटता, दूरी, पार्श्व और अलग होने के भावों को भीतर समेटे हुए है। इसी से अरबी की संज्ञा जनाब बनती है, जिसका आशय है किसी चीज़ का किनारा, आँगन, दहलीज़, ड्योढ़ी या शरण लेने की जगह। यह वह स्थान था जो किसी मुख्य संरचना के पहलू में या निकट होता था।

निकटता, स्थान और सम्मान तक
सवाल पैदा होता है कि अगर जनाब का आशय 'ड्योढ़ी' या 'आँगन' है तो एक स्थानवाची शब्द किसी के लिए सम्मान-संबोधन कैसे बन गया? यह भाषा के तिलिस्मी संसार की बड़ी दुर्लभ अय्यारी है कि जब कोई शब्द किसी अन्य शब्द का पर्याय बनकर नया अर्थबोध देने लगता है—जैसे दरबार, सरकार, हुक़ुम आदि अनेक शब्द गिनाए जा सकते हैं। राजतन्त्र में इन सभी महिमावान संज्ञाओं से सम्बद्ध शिखर व्यक्तियों को भी यही सम्बोधन मिलता रहा है। आम तौर पर सामन्ती व्यवस्थाओं में प्रजा की ओर से राजा को हुक़ुम, दरबार या सरकार कहकर सम्बोधित किया जाता रहा है। इसी तरह यहाँ ताज, जो कि राजशाही का प्रतीक है, स्वयं शासक का पर्याय बन जाता है।

राजभवन से आम रास्तों तक
जनाब के साथ भी ठीक यही हुआ। किसी शक्तिशाली सुल्तान, अमीर या बादशाह से सीधे बात करना या उनका नाम लेना असभ्यता या दुस्साहस माना जा सकता था। सम्मान और विनम्रता दर्शाने के लिए लोग सीधे शासक को सम्बोधित करने के बजाय उस स्थान को सम्बोधित करते थे, जहाँ वह विराजमान होता था—

1.   "ड्योढ़ी (जनाब) ने फ़रमान भेजा है यानी राजा ने फ़रमान भेजा है।"
2.   "मैं 'ड्योढ़ी' (जनाब) से गुहार लगाता हूँ।" अर्थात मैं जनाब से न्याय की गुहार लगाता हूँ।
3.   "कितना ही चिल्ला लीजिए, जनाब (ड्योढ़ी) तक आवाज़ नहीं जाएगी।" अर्थात राजा तक फ़रियाद पहुँचना मुश्किल है। और इस तरह के संवादों के ज़रिए यह शैली औपचारिक संवाद का ज़रूरी सम्बोधन बनने लगी। उसके बाद दरबारों–ड्योढ़ियों को लाङ्घकर जनाब कहने की यह शैली गली–मुहल्लों, महफ़िलों, मुशायरों में आम हो गई।

ड्योढ़ी से आदरणीय तक
इस प्रक्रिया में, स्थान (ड्योढ़ी) धीरे-धीरे वहाँ आसीन व्यक्ति (शासक) का प्रतीक और फिर उसका पद-नाम (honorific) बन गया। अरबी अलंकार शास्त्र में इस शैली को 'किनाया' (kinayah) कहा जाता है, जिसका अर्थ है किसी बात को सीधे कहने के बजाय इशारे या संकेत में कहना। इस मुक़ाम पर मीर तकी मीर साहब का शेर न याद आए, हो नहीं सकता—

मेहर ओ वफ़ा ओ लुत्फ़-ओ-इनायत एक से वाक़िफ़ इन में नहीं
और तो सब कुछ तंज़ ओ किनाया रम्ज़ ओ इशारा जाने है

यह शेर समाज के नैतिक पतन पर टिप्पणी करता है। दुनिया में असली इंसानियत और करुणा का न होना और केवल तंज़–किनाया की भाषा का चलन होना—यही इसका मूल आशय है। किसी को जनाब कहना केवल सम्मान देना नहीं था, बल्कि यह स्वीकार करना था कि उनका रुतबा–प्रभाव इतना बड़ा है कि उनके सम्बोधन में भी (दरबार, ड्योढ़ी) आदि की भव्यता, दिव्यता प्रदर्शित होनी चाहिए।

फ़ारसी की टकसाल में जनाब-ए-आला, आली जनाब
फ़ारसी संस्कृति में तार्रुफ़ नामक शिष्टाचार की एक बहुत ही परिष्कृत और जटिल प्रणाली है, जिसमें दूसरे को अत्यधिक सम्मान देना और स्वयं को विनम्र दिखाना शामिल है। इसीलिए जिस जनाब का मूलार्थ कभी ड्योढ़ी, कोर्टयार्ड, दहलीज़ आदि हुआ करता था, धीरे-धीरे किनाया अर्थात व्यञ्जना अथवा इशारों में कहने का शिष्टाचार आम हो जाने के चलते 'श्रीमान, मान्यवर, आदरणीय, हुज़ूर' के आशय में जनाब शब्द बहुधा बरता जाने लगा। इसे "विनम्रता की होड़" भी कहा जा सकता है। 'जनाब' शब्द तार्रुफ़ की इस प्रणाली के लिए एक आदर्श उपकरण था। किसी को जनाब कहना उसे सम्मान देने का एक स्पष्ट और सुरुचिपूर्ण तरीक़ा था। फ़ारसी ने इस शब्द को न केवल अपनाया, बल्कि आली (उच्च) और आला (प्रतिष्ठित) जैसे विशेषणों से और भी अलंकृत किया।

मराठी में खावंद और जनाब
दिलचस्प बात यह है कि भारत की अलग-अलग भाषाओं ने इसे अपनी-अपनी तरह से अपनाया। मराठी भाषा इस मामले में एक अनूठी मिसाल पेश करती है। मराठी ने 'जनाब' के आदरसूचक अर्थ ('स्वामी' या 'महाराज') को तो अपनाया ही, साथ ही इसके मूल अरबी अर्थों को भी जीवित रखा। मराठी शब्दकोशों में 'जनाब' का अर्थ उंबरठा (दहलीज़) और अंगण (आँगन) भी मिलता है। एक पुराना मराठी वाक्य—

"खावंदाचे जनाबांत सेवक लोकांनीं हजर असावें।"
(सेवकों को मालिक के आँगन/दरबार में उपस्थित रहना चाहिए), मराठी का यह वाक्य भाषायी पुरातत्त्व की दुर्लभ मिसाल है कि जनाब शब्द का मूल आशय कभी ड्योढ़ी, सहन, प्राङ्गण अथवा दरबार था। यह शब्द केवल उत्तर भारत तक सीमित नहीं रहा। इसकी प्रतिष्ठा इतनी थी कि इसने आर्य और द्रविड़ भाषा परिवारों के बीच की सीमा को भी लाङ्घते हुए कन्नड़, मलयालम में भी पहुँच बनाया।

एक शब्द, इतिहास का साक्षी
भाषाएँ विभिन्न संस्कृतियों, विचारों और सत्ता के प्रवाह के साथ यात्रा करती हैं। जनाब यानी ड्योढ़ी, दहलीज़ से दरबार तक की यात्रा महज़ एक शब्द के अर्थ बदलने की कहानी नहीं है। यह शब्द स्वयं इतिहास का एक गवाह है। इसकी यात्रा एक अरबी स्थानवाची संज्ञा के रूप में शुरू हुई। फिर यह अरबी अलंकार शास्त्र की मदद से एक आदरसूचक शब्द बना। फ़ारसी की परिष्कृत दरबारी संस्कृति ने इसे सँवारा और इसकी इज़्ज़त अफ़ज़ाई की। अन्त में, इसने भारतीय उपमहाद्वीप में प्रवेश किया और यहाँ के अनेक भाषायी समूहों की अभिव्यक्ति में पैठ बनाई। हर रोज़ जब हम किसी को 'जनाब' कहकर पुकारते हैं,
तो सदियों पुराने शिष्टाचार को दोहरा रहे होते हैं।
...जारी 


पिछली कड़ी- 
दहलीज़ से देहली तक: ध्वनि, अर्थ और भ्रम की कथा / देहली_3_जनाब

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Wednesday, September 3, 2025

दहलीज़ से देहली तक: ध्वनि, अर्थ और भ्रम की कथा

शब्दकौतुक  
व्युत्पत्ति, प्रतीक और परम्परा का संगम /देहली_3  

घर की ओर  झाँकते कुछ शब्द
"दहलीज़" यह शब्द सुनते ही मन में एक घर की छवि उभरती है: एक ऐसी सीमा-रेखा जो घर और बाहर का सन्धिबिन्दु होती है। यह केवल दरवाज़ा, राहदारी या घर के अन्दर-बाहर जाने का स्थान भर नहीं, बल्कि स्वागत, विदाई, परम्पराओं और स्मृतियों का सङ्केत-प्रतीक भी है। हिन्दी और उर्दू में समान रूप से रचा-बसा यह शब्द अपने भीतर भारत-ईरानी भाषाओं के हज़ारों साल पुराने रिश्ते की कहानी समेटे हुए है।

लेकिन इस एक शब्द की यात्रा हमें कई ऐसे मोड़ों पर ले जाती है, जहाँ इसके जैसे ही सुनाई देने वाले अन्य शब्द जैसे दिल्ली, डेहरी, डीह आदि खड़े मिलते हैं। ध्वनि की इस समानता ने कई रोचक भ्रमों को जन्म दिया है। आइए, शब्दों की इसी दहलीज़ के पार जाकर इन सभी के असली रिश्तों को जानें।


'
दहलीज़'
की वंशावली: फ़ारस से भारत तक
प्राचीन फ़ारस की बसाहटों से चल कर "दहलीज़" शब्द का सफ़र हिन्दी भवन में दाखिल हुआ। इसका सीधा सम्बन्ध मध्यकालीन फ़ारसी के शब्द 'दहलीज़से है, जिसका अर्थ 'बरामदा' या 'द्वारमण्डप' हुआ करता था। भाषाविदों ने इसकी जड़ें और भी गहरीप्रोटो-ईरानी भाषा में खोजी हैं। वहाँ इसका मूल रूप duvarθi- जैसा था, जिसका अर्थ 'द्वार से सम्बन्धित' या 'द्वारमण्डप' था। यह शब्द स्वयं प्राचीन फ़ारसी के duvar- यानी 'द्वार' या 'दरवाज़ा' से निकला है। यहाँ एक छोटी सी भाषाई पहेली भी है, जो इसके लिखित रूप में छिपी है जिसे हम आगे विस्तार से समझेंगे। इस शब्द की अहमियत का अन्दाज़ा इसी बात से लगता है कि इसे अरबी (दिहलीज़), तुर्की (देहलीज), और कज़ाख जैसी कई भाषाओं ने अपनाया।

द्वार के समीपस्थ या द्वारस्थ

"दुवरथी" शब्द की व्युत्पत्ति प्राचीन फ़ारसी मूल duvarθi- से हुई है, जिसमें duvar का अर्थ है 'दीवार' और -θi प्रत्यय स्थानसूचक भाव को दर्शाता है। इस प्रकार, 'दुवरथी' का शाब्दिक अर्थ हुआ — 'दीवार के पास' या 'दीवार के पहलू में'। यह केवल एक भौतिक संरचना नहीं, बल्कि उस सीमांत स्थान का बोध कराता है जहाँ दीवार समाप्त होती है और प्रवेश की संभावना आरंभ होती है। यही भाव आगे चलकर 'दहलीज़' शब्द में रूपांतरित हुआ, जो किसी भवन के प्रवेश-द्वार के समीपवर्ती क्षेत्र को इंगित करता है। इस व्युत्पत्ति से स्पष्ट होता है कि 'दुवरथी' में 'द्वार' नहीं, बल्कि 'दीवार के पार्श्व' का भाव निहित है — एक ऐसा स्थान जो भीतर और बाहर के बीच की सीमा रेखा बनाता है।

अर्थ का रूपान्तरण: बरामदे से देहरी तक
जहाँ फ़ारसी में 'दहलीज़' का आशय एक बड़े प्रवेश हॉल या बरामदे से था, वहीं भारतीय सन्दर्भ में यह दरवाज़े की चौखट के निचले उभरे हिस्से तक केन्द्रित हो गया, जिसे हम 'देहरीकहते हैं। या यूँ कहें कि प्रोटो-ईरानी की समकालीन कोई वैदिक भाषा में यही भाव प्रमुख था। इसका प्रमाण है 'दहलीज़' का निकटतम संस्कृत सजातीय शब्द 'देहली'। संस्कृत का एक प्रसिद्ध न्याय है-'देहलीदीपन्याय', जिसका अर्थ है कि देहली पर रखा दीपक घर के अन्दर और बाहर, दोनों ओर समान रूप से प्रकाश फैलाता है। यह न्याय "दहलीज़" के प्रतीकात्मक चरित्र को बख़ूबी समझाता है- यह भीतर और बाहर के बीच एक पुल की तरह है। 


घर और बाहर का सन्धिस्थल 
यहाँ 'दहलीज़' और इसके निकटतम भारतीय प्रतिरूप 'देहली' की आन्तरिक संरचना को समझना दिलचस्प है। ये दोनों ही शब्द सीधे तौर पर 'द्वार' का अर्थ नहीं देते, बल्कि इनसे द्वार द्वारा निर्देशित स्थान का बोध होता है। प्राचीन फ़ारसी में 'दहलीज़' का मूल रूप duvarθi- है, जो duvar- (संस्कृत 'द्वार') से बना है। इसके संरचनागत साम्य को समझने के लिए संस्कृत का शब्द 'द्वारस्थ' (द्वार + स्थ) उत्तम है, जिसका अर्थ है 'द्वार पर स्थित'। ठीक इसी तरह, duvarθi- का भी अर्थ 'द्वार' न होकर 'द्वार पर स्थित संरचना' (जैसे पोर्टिको, कोरीडोर) है। यही बात प्राकृत-संस्कृत के 'देहली' (चौखट) पर भी लागू होती है।


सिर्फ़ चौखट यानी दरवाज़ा नहीं
इस प्रकार, 'दहलीज़' हो या 'देहली', ये दोनों ही द्वार से जुड़े स्थानवाची सङ्केत हैं जो घर और बाहर के बीच एक सीमा-रेखा तय करते हैं। द्वार और दहलीज़ के अन्तर को यूँ भी समझ सकते हैं कि चौखट पर पल्ले लगने से बनी संरचना 'द्वारकहलाती है, जबकि 'दहलीज़स्वयं वह चौखट या स्थान है जहाँ वे पल्ले लगाए जाते हैं अथवा जहाँ से द्वार-मार्ग तक पहुँच बनती है। हम द्वार पर ताला लगाते हैं, दहलीज़ पर नहीं। इस तरह द्वार और दहलीज़ एक-दूसरे के पर्यायी पद नहीं हैं। दहलीज़ सीमा-रेखा है, द्वार आने या जाने की व्यवस्था।

 

दहलीज़ के प्रतीकार्थ
"दहलीज़" का असली सौन्दर्य इसके भौतिक रूप में नहीं, बल्कि इसके प्रतीकात्मक और सांस्कृतिक अर्थ में छिपा है। यह आरम्भ, अनुष्ठान और जीवन के नए चरणों में प्रवेश का प्रतीक है। "दहलीज़ लाँघना" सिर्फ़ एक क्रिया नहीं, बल्कि एक नई दुनिया में क़दम रखने का एक शक्तिशाली मुहावरा है। 
दुल्हन का ससुराल में पहला क़दम, नए घर में गृह प्रवेश, या किसी महत्वपूर्ण यात्रा की शुरुआत- ये सभी मंगल कार्य दहलीज़ पर ही सम्पन्न होते हैं। पुराने समय में विवाह से पहले दूल्हे द्वारा दुल्हन के घर की जाने वाली एक औपचारिक भेंट को "दहलीज़ खुंदलाना" कहा जाता था, जो अपने आप में एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान था।

 

'दहलीज़' और 'ढेलज' का भ्रम
एक आम ग़लतफ़हमी यह भी है कि उर्दू का 'दहलीज़' और मराठी का 'ढेलज' जैसे शब्द भी 'देहली' से व्युत्पन्न हैं। ध्वनि व अर्थ, दोनों ही कारक यहाँ प्रबल हैं, पर ऐसा नहीं है। ये दोनों अलग-अलग मूल के हैं, पर अर्थगत साम्य की वजह से इन्हें 'देहली-ड्योढ़ी' वाली शृङ्खला से सम्बन्धित मानना भी असहज नहीं है। 
यद्यपि 'दहलीज़' और 'ढेलज' के स्रोत भिन्न हैं, पर 'देहली' के साथ इनका अर्थगत व ध्वनि-साम्य इतना गहन है कि व्यवहार में ये एक-दूसरे के पर्याय बन जाते हैं।

 

चलते-चलते
इस सफ़र से यह स्पष्ट होता है कि शब्द केवल ध्वनि नहीं होते; वे अपने भीतर इतिहास, भूगोल और मानव-सभ्यता के विकास की कहानियाँ छिपाए रहते हैं।

(A) दहलीज़/देहली/देहरी: द्वार-परिसर, द्वारमण्डप अथवा वह सीमा-रेखा, जिसका मूल प्राचीन फ़ारसी 'द्वार' है।
(B) 
दिल्ली: भारत की राजधानी, जिसका मूल 'ढिल्ली/ढिल्लिका' है, पर 'देहली' शृङ्खला से रिश्ता नहीं।
(C) 
डेहरी/डीह/ढूह: स्थानवाची शब्द, जिसका मूल 'ऊँचा टीला' या 'पुरानी बसावट' है।
(D) 
देह/देहात: गाँव, ग्राम जिसका मूल फ़ारसी 'देह' है। निश्चित ही, हम यहाँ आगे इन पर भी बात करेंगे।

जारी...

पिछली कड़ी  प्रवेश से वापसी तक / देहली_2 ड्योढी 
अगली कड़ी श्रीमान चौखट उर्फ़ अफ़साना-ए-जनाब / देहली_4

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Tuesday, September 2, 2025

प्रवेश से वापसी तक / 'देहली_2 : ड्योढ़ी

जहाँ भीतर और बाहर मिलते हैं
एक पारम्परिक संरचना के भाषिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अर्थों की पड़ताल

ड्योढ़ी का वास्तु में ढल जाना 
'ड्योढ़ी' केवल एक शब्द नहीं, अपितु एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक एवं सांस्कृतिक सूझबूझ का नमूना है। आधुनिक विचारधारा में ईंट-गारे-चूने के इस सुदृढ़़ ढाँचे को सामन्ती संकल्पना से प्रेरित निर्माण भी कहा जा सकता है। यह किसी भी नगर-बस्ती के मुख्यमार्ग और आवासीय परिसर के बीच एक निजी, सुरक्षित प्रवेश स्थान होता था। हवेलियों और महलों जैसी पारम्परिक संरचनाओं में, ड्योढ़ी एक साधारण प्रवेश द्वार से कहीं बढ़कर थी; यह एक प्रवेश-कक्ष, आगन्तुकों के लिए एक प्रतीक्षालय और 'ड्योढ़ीदार' या 'प्रतिहार' (द्वारपाल) के लिए एक चौकी के रूप में काम करती थी, जो घर की सुरक्षा और गोपनीयता सुनिश्चित करता था । भाषा और वास्तुशिल्प स्पष्ट रूप से स्थापित करते हैं कि 'ड्योढ़ी' के विकास में भाषाशास्त्रीय बदलावों के साथ साथ सुरक्षा और सामाजिक स्थिति के दृष्टिकोण से वास्तु में भी परिवर्तन हुआ। 'ड्योढ़ी' प्रवेश द्वार से बढ़कर सुरक्षा और नियन्त्रण का स्थान बन गई।


'देहली' से देह तक 

हिन्दी शब्द 'ड्योढ़ी' संस्कृत के प्राचीन शब्द 'देहली' का सीधा, ध्वन्यात्मक रूप से विकसित वंशज है 'ड्योढ़ी' की भाषाई यात्रा का आरम्भ प्राचीन भारतीय-आर्य भाषा संस्कृत से होता है, जहाँ 'देहली' शब्द की जड़ें गहराई से स्थापित हैं । संस्कृत कोशों के अनुसार, 'देहली' शब्द की व्युत्पत्ति मूल धातु 'दिह्' से मानी जाती है, जिसका अर्थ है 'लेपन करना', 'पोतना' या 'बढ़ाना' इसी धातु से 'देह' (अर्थात् शरीर) भी बना है, जो एक आकार या रूप की अवधारणा को दर्शाता है। इस व्युत्पत्ति से यह सङ्केत मिलता है कि 'देहली' का मूल अर्थ किसी लिपे-पुते या मिट्टी से बने ऊँचे चबूतरे से था जो किसी आवास के प्रवेश द्वार पर बनाया जाता था । शास्त्रीय संस्कृत में इसके प्रमुख अर्थ "द्वार की चौखट (विशेषकर निचली लकड़ी)", "देहरी" या "घर के सामने का उठा हुआ चबूतरा या बरामदा" हैं


जटिल बदलाव: 'देहली' , डेहरी, 'ड्योढ़ी'

'देहली' से 'डेहरी' और फिर 'ड्योढ़ी' जैसे शब्दों के विकास में '' का कठोर '' में बदलने को मूर्धन्यीकरण कहा जाता है। मूर्धन्य ध्वनियों का विकास प्राचीन मानव जत्थों के आप्रवासन से एक बहुभाषी समाज के निर्माण और सांस्कृतिक मिश्रण की एक शक्तिशाली भाषिक प्रतिध्वनि है। अक्सर '' और '' जैसी मिलती-जुलती ध्वनियाँ एक-दूसरे की जगह ले लेती हैं। इसी सहज प्रवृत्ति के कारण 'देहली' का '', '' में बदल गया और देहरी रूप सामने आया। इसके विपरीत, 'ड्योढ़ी'  अधिक परिवर्तित रूप है, जो कई ध्वन्यात्मक पड़ावों से गुज़रा। इस प्रक्रिया में पहले 'देहली' का '' एक कठोर ध्वनि '' में बदला, जिससे 'देहुड़ी' जैसा मध्यवर्ती रूप बना बाद में, शब्द के बीच की कमज़ोर '' ध्वनि लुप्त हो गई और फिर '' तथा '' स्वरों के आपस में मिलने से 'यो' की नई ध्वनि का जन्म हुआ, जिससे 'ड्योढ़ी' शब्द बना। कुल मिला कर देहली देहुडि देउड़ / देवढीड्योढ़ी यह क्रमिक विकास रहा होगा। राजस्थानी में डोडी जैसा रूपभेद भी है।


घर और बाहर का सन्धिस्थल

देह, देहली और दीवाल तीनों एक ही स्रोत से विकसित हुए हैं। या शृङ्खला दिघ्, दिह्, दिज़, देगा, दाएज़ा में परिधि, कोट, किला और सुरक्षित स्थान का भाव विकसित होता चला गया। इससे दिलचस्प रूपक भी बनता है। दिह्, देह में बाहरी संरचना का भाव है। देह बाहरी ढाँचा है जिसके अन्दर नाज़ुक अङ्ग सुरक्षित रहते हैं। इसी तरह घर के चारों ओर की दीवार और देहली के भीतर समूचा परिवार, कुटुम्बी, सम्पत्ति, गिरस्ती यहाँ तक कि रिश्ते-नाते तक सुरक्षित रहते हैं। अवेस्ता में इसी कड़ी का दिज़ शब्द है और जिसका अर्थ किला होता है। पुराने दौर में यह मिट्टी के लौंदों को एक के ऊपर एक पाथ कर, लीप पोत कर खड़ी की गई दीवार होती थी जिसका मक़सद था सुरक्षा। बाद में इसी मूल से दीवाल, दीवार जैसे शब्द भी बने। फिरदौस और पैराडाइज़ (स्वर्गोद्यान) शब्दों का दूसरा पद यही दाएज़ा है जिसमें परिधि का भाव है।


देहरी जो घर की देह है

口ईरानी में जो दिज, दाएजा मिट्टी की दीवाल या परिधि है, उसका ही संस्कृत रूप दिह् है जिसमें भी उभार का भाव आया। मूलतः यह घर में प्रवेश के स्थान वाले उभार जिस पर चौखट टिकती है, से सम्बद्ध हुआ। पुराने दौर में वहाँ पर कुछ देर रुका जाता था। मुँह हाथ धोया जाता था, चप्पल उतारी जाती थी सुस्ताया जाता था तब घर में प्रवेश किया जाता था। इस तरह देहली और देह वाले रूपक को भी समझा जा सकता है। देहरी घर के भीतर प्रवेश से पहले का ठहराव है, जहाँ बाहर का संसार पीछे छूटता है और भीतर की निजी दुनिया खुलती है। यह वही मध्यस्थ बिंदु है जो देह भी अपने स्तर पर निभाती है—बाहरी जगत और आत्मानुभूति के बीच का पहला संपर्क। इस प्रकार ‘देहरी’ घर की ‘देह’ प्रतीत होती है- दोनों ही सुरक्षा, सीमा और अस्तित्व की गारंटी


चलते चलते-  'ढेलज' की बात

एक आम ग़लतफ़हमी यह भी है कि उर्दू का दहलीज और मराठी का ढेलज जैसे शब्द भी 'देहली' से व्युत्पन्न हैं ध्वनि व अर्थ, दोनों ही कारक यहाँ प्रबल हैं, पर ऐसा नहीं है । ये दोनों अलग-अलग मूल के हैं, पर अर्थगत साम्य की वजह से इन्हें देहली-ड्योढ़ी वाली शृङ्खला से सम्बन्धित मानना भी असहज नहीं है। यद्यपि 'दहलीज' और 'ढेलज' के स्रोत भिन्न हैं, पर 'देहली' के साथ इनका अर्थगत व ध्वनिसाम्य इतना गहन है कि व्यवहार में ये एक-दूसरे के पर्याय बन जाते हैं इनके मूल और विकास की विस्तृत चर्चा हम इस शृंखला की आगामी 'देहली_3 : दहलीज' वाली कड़ी में करेंगे। पिछली कड़ी

अगली कड़ी - दहलीज़ से देहली तक: ध्वनि, अर्थ और भ्रम की कथा


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Thursday, August 28, 2025

क्षत्रप और छत्रपति: दो अलग सत्ताएँ

शब्दकौतुक
एक शब्द, कई रूप

अक्सर हम एक जैसे लगने वाले शब्दों को एक ही परिवार का मान लेते हैं, खासकर जब उनका उच्चारण मिलता-जुलता हो। 'क्षत्रप' और 'छत्रपति' ऐसे ही दो शब्द हैं, जिन्हें कई बार एक-दूसरे से जोड़कर देखा जाता है। इसकी एक बड़ी वजह है 'क्ष' का '' की तरह उच्चारण होना, जिससे 'क्षत्रप' को 'छत्रप' सुन लिया जाता है। लेकिन भाषा और इतिहास की गहराई में उतरने पर पता चलता है कि ये दोनों शब्द दो अलग-अलग दुनिया से आते हैं। इनकी कहानियाँ हमें प्राचीन ईरान से लेकर मध्यकालीन भारत तक की यात्रा कराती हैं और दिखाती हैं कि शब्दों का सफ़र कितना रोमाञ्चक हो सकता है।

क्षत्रप: ईरान से भारत तक एक शाही सफ़र'

क्षत्रप' शब्द की जड़ें हमें प्राचीन ईरान तक ले जाती हैं। यह शब्द प्राचीन ईरानी (अवेस्ता) के 'क्षथ्रपावन' (xšaθrapāvan) से निकला है, जिसका अर्थ है 'राज्य का रक्षक'। यह दो हिस्सों से बना है: 'क्षथ्र' (xšaθra) यानी 'राज्य' या 'शक्ति' और 'पावन' (pāvan) यानी 'रक्षक'। जब यह शब्द प्राचीन यूनान (ग्रीस) पहुँचा, तो इसका उच्चारण 'सत्रपेस' (satrapes) हो गया। सिकंदर महान ने जब ईरान को जीता, तो उसने इस प्रशासनिक व्यवस्था को अपना लिया और भारत के विजित प्रदेशों में अपने गवर्नर नियुक्त किए, जिन्हें 'क्षत्रप' कहा गया। बाद में, मध्य एशिया से आए शक शासकों ने इस उपाधि को पश्चिमी और मध्य भारत में स्थापित किया, जहाँ बड़े शासक 'महाक्षत्रप' और छोटे शासक 'क्षत्रप' कहलाए।

शहर से लेकर ख़ातून तक'

क्षत्रप' का पहला हिस्सा, 'क्षथ्र', अपने आप में एक दिलचस्प कहानी कहता है। यही 'क्षथ्र' शब्द समय के साथ बदलकर आधुनिक फ़ारसी का 'शहर' बन गया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि 'राज्य' या 'शक्ति' ('क्षथ्र') का केंद्र 'नगर' ही होता था। 'क्षथ्र' संस्कृत के 'क्षेत्र' का ही समरूप है। 'त्र' के स्थान पर 'थ्र' के अन्तर को पहचाना जा सकता है। संस्कृत का 'मित्र' अवेस्ता में 'मिथ्र' हो जाता है, दोनों का अर्थ सूर्य है। प्राचीन ईरानी और फिर फ़ारसी में 'क्षथ्र' का रूप बदला। 'क्ष' व्यंजन से '' ध्वनि का लोप हुआ और शेष रहा ''। फिर 'थ्र' से '' ध्वनि का लोप हुआ और '' ध्वनि का वियोजन होने से '' और '' ध्वनियाँ छिटक गईं। इस तरह 'क्षथ्र' का फ़ारसी रूप हुआ 'शह्र', जो उर्दू में भी 'शह्र' और हिन्दी में 'शहर' बनकर प्रचलित है।

नामवाची क्षेत्र जैसे कुरुक्षेत्र

स्थान नाम के साथ 'क्षेत्र' शब्द का इस्तेमाल हमारे यहाँ होता रहा है। 'खेत' इसका ही रूपान्तर है, जैसे सुरईखेत, छातीखेत, साकिनखेत, रानीखेत। ये सभी स्थान उत्तराखण्ड में आते हैं। हरियाणा के कुरुक्षेत्र में यह अपने मूल स्वरूप में नज़र आ रहा है। शहर की खासियत होती है उसका फैलाव। प्राचीन पारसी अगर अपने देश को 'आर्याणाम-क्षथ्र' कहते थे तो उसमें आर्यों के विशाल क्षेत्र में फैलाव का भाव ही था, जो सिन्धु से लेकर वोल्गा तक विस्तृत था। वैदिक शब्द आर्यावर्त को इसके समानान्तर देखा जा सकता है।

शहरियत, शहराती, शहरबान

रूपान्तर की प्रक्रिया से आज हिन्दी-उर्दू में इस्तेमाल होने वाले शब्द जैसे 'शहरपनाह' (शहर की रक्षा करने वाली दीवार), 'शहरियत' (नागरिकता) और 'शहराती' (शहर में रहने वाला) उसी प्राचीन 'क्षथ्र' से जुड़े हैं। यहाँ तक कि 'शहरबान' (नगरपाल) शब्द भी सीधे 'क्षथ्रपावन' का ही वंशज है, जिसमें 'बान' प्रत्यय संस्कृत के 'वान' (जैसे- धनवान) का ही रूप है। इस शब्द का एक और हैरान करने वाला रूप है 'ख़ातून'। माना जाता है कि शक शासकों द्वारा बोली जाने वाली सोग्दी भाषा में 'क्षत्रप' का रूप 'ख्वातवा' (भूमि का स्वामी) बना, और इसी का स्त्रीलिंग रूप 'ख़ातून' (रानी या कुलीन महिला) तुर्क और मंगोल साम्राज्यों तक पहुँच गया।

'क्षत्र': क्षत्रिय, खत्री और क्षेत्रपाल

जिस समय ईरान में 'क्षथ्र' शब्द प्रचलित था, ठीक उसी समय भारत में उसका सजातीय भाई 'क्षत्र' (katra) मौजूद था, जिसका अर्थ भी 'शासन', 'शक्ति' और 'प्रभुत्व' ही था। इसी 'क्षत्र' से 'क्षत्रिय' शब्द बना, जो शासक और योद्धा वर्ण को दर्शाता है। भाषा के स्वाभाविक विकास में संस्कृत का 'क्षत्रिय' शब्द पंजाबी में 'खत्री' और नेपाली में 'छेत्री' बन गया। शक्ति और शासन का संबंध हमेशा भूमि से होता है, इसलिए 'क्षत्र' से ही वैचारिक रूप से जुड़ा एक और शब्द है 'क्षेत्र', जिसका मतलब है 'इलाका' या 'खेत'। इसी आधार पर 'क्षेत्रपाल' (क्षेत्र का रक्षक) जैसी उपाधि भी बनी, जो अर्थ में 'क्षत्रप' के बहुत करीब है।

छत्रपति: पूरी भारतीय पहचान

अब आते हैं 'छत्रपति' पर, जिसका 'क्षत्रप' से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है। 'छत्रपति' शब्द संस्कृत के दो शब्दों से मिलकर बना है: 'छत्र' और 'पति'। यहाँ 'छत्र' का अर्थ है छाता या छतरी, जो प्राचीन भारत में राजसी संप्रभुता और सम्मान का प्रतीक था। राजा के सिर पर लगने वाला राजकीय छत्र उसकी शक्ति और प्रजा के प्रति उसके संरक्षण का चिह्न होता था। 'पति' का अर्थ है 'स्वामी' या 'प्रमुख'। इस प्रकार, 'छत्रपति' का सीधा-सादा अर्थ है 'राजकीय छत्र का स्वामी' या वह सम्राट जिसके ऊपर राज-छत्र धारण किया जाता है। यह एक विशुद्ध भारतीय उपाधि है, जिसे मराठा साम्राज्य के संस्थापक शिवाजी महाराज ने लोकप्रिय बनाया।

'छत्र' का अपना अलग परिवार

'छत्र' शब्द जिस भाषाई परिवार से आता है, वह 'क्षत्र' से पूरी तरह अलग है। 'छत्र' से बने शब्द संरक्षण और आवरण का भाव देते हैं। उदाहरण के लिए, 'छतरी' (बारिश से बचाने वाला छाता), 'छत' (घर का ऊपरी आवरण), 'छाजन' (छप्पर), 'छाया' (परछाईं) और यहाँ तक कि फ़ारसी का शब्द 'साया' भी इसी मूल से जुड़ा माना जाता है। ये सभी शब्द किसी न किसी रूप में ढकने या आश्रय देने का भाव रखते हैं, जो राजकीय छत्र के 'संरक्षण' के प्रतीक से मेल खाता है।

भ्रम की वजह और उसका निवारण

तो फिर यह भ्रम पैदा क्यों होता है? इसकी एकमात्र वजह उच्चारण की समानता है। आम बोलचाल में जटिल संयुक्त अक्षर 'क्ष' को अक्सर '' बोल दिया जाता है। इस वजह से 'क्षत्रिय' को 'छत्रिय' और 'क्षत्रप' को 'छत्रप' कहना आम हो गया है। जब कोई 'क्षत्रप' को 'छत्रप' कहता है, तो ध्वनि की समानता उसे 'छत्रपति' की याद दिलाती है और वह अनजाने में दो अलग-अलग मूल और अर्थ वाले शब्दों को एक मान लेता है।

शब्दों की दुनिया को सही पहचानें

अंत में, यह स्पष्ट है कि 'क्षत्रप' एक विदेशी मूल का शब्द है जो एक प्रशासनिक पद (गवर्नर) को दर्शाता है और इसका सफ़र ईरान से शुरू होकर यूनान और शक शासकों के ज़रिए भारत पहुँचा। वहीं, 'छत्रपति' एक विशुद्ध भारतीय उपाधि है जो 'राजकीय छत्र' की अवधारणा से जुड़ी है और संप्रभु सम्राट का प्रतीक है। एक 'राज्य का रक्षक' है तो दूसरा 'छत्र का स्वामी'। शब्दों की इस यात्रा को समझना केवल भाषाई ज्ञान नहीं, बल्कि संस्कृतियों के इतिहास को समझना भी है। हर शब्द के पीछे एक कहानी छिपी होती है, और सही जानकारी हमें इस भाषाई और ऐतिहासिक भ्रम से बचा सकती है।

 

 

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