Sunday, August 3, 2025

एक बेचैन शब्द का चल पड़ना

 


शब्दकौतुक चुल्ल-कथा 

हिन्दी की नई पीढ़ी के शब्दकोश में पिछले डेढ़-दो दशक में एक ऐसा ही शब्द बहुत तेज़ी से उभरा है- 'चुल्ल'। ख़ास तौर पर उत्तर भारत के शहरी इलाक़ों में 'चुल्ल पड़ना' या 'चुल्ल मचना' जैसे मुहावरे आम बोलचाल का हिस्सा बन गए हैं। यह शब्द एक ख़ास तरह की मानसिक स्थिति को व्यक्त करता है- एक ऐसी बेचैनी जिसमें अधीरता है, किसी काम को करने की धुन या ख़ब्त है, एक तीव्र उत्कंठा है और जिज्ञासा से उपजी कुलबुलाहट है जो जब तक पूरी न हो, चैन नहीं लेने देती। लेकिन यह दिलचस्प और दमदार शब्द आया कहाँ से? इसकी जड़ें कितनी गहरी हैं? जानते हैं चुल्ल-कथा में।

प्राचीन 'चल्' धातु

हर शब्द का एक मूल होता है, एक बीज, जहाँ से उसके अर्थों का अंकुरण होता है। 'चुल्ल' की कहानी भी हज़ारों साल पीछे, संस्कृत की 'चल्' क्रिया से शुरू होती है। इस धातु का मूल अर्थ है- गतिमान होना, हिलना, काँपना, अस्थिर होना (to be moved, stir, tremble, shake)। यानी, 'चल्' धातु स्थिरता के अभाव का प्रतीक है। इसी से सम्बन्धित है 'चञ्चल' जिसका अर्थ है- जो एक जगह न टिके, अस्थिर, चपल । मन की अस्थिरता के लिए 'चञ्चल' शब्द का प्रयोग प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है। गुरुवाणी में एक पंक्ति है, "चंचल मनु दह दिसि कउ धावत, जिसका अर्थ है कि अशांत मन दसों दिशाओं में भटकता रहता है । 'चुल्ल' में निहित बेचैनी और हलचल का आदिम स्रोत इसी 'चल्' धातु की गति और 'चञ्चल' की अस्थिरता में छिपा है।

अमूर्त गति से मूर्त बेचैनी तक

यह एक स्वाभाविक प्रश्न है कि 'चल्' क्रिया के गतिवाची भाव बेचैनी, उतावली और कुलबुलाहट से उतनी आसानी से क्यों नहीं जुड़ते, जितनी आसानी से ये भाव सीधे 'चुल्ल' शब्द से जुड़ते हैं 'चल्' एक व्यापक और अमूर्त धातु है, जिसका अर्थ केवल चलना-फिरना नहीं, बल्कि 'विचलित होना' और 'अस्थिर होना' भी है । लेकिन 'चुल्ल' और 'चुलबुलाहट' जैसे शब्द इस 'गति' को एक विशिष्ट, आंतरिक और अनुभवजन्य बेचैनी का रूप देते हैं। 'चल्' यदि गति का सिद्धांत है, तो 'चुल्ल' उस सिद्धांत का एक व्यावहारिक, महसूस किया जाने वाला परिणाम है—एक ऐसी मानसिक या शारीरिक हलचल जो व्यक्ति को भीतर से धकेलती है। भाषा इसी तरह अमूर्त जड़ों से अनुभव के ठोस धरातल पर नए और अधिक सटीक शब्द गढ़ती है

'चुलबुलाहट' का चुल

संस्कृत की 'चल्' धातु से लोकभाषाओं तक का सफ़र तय करते हुए हमारे शब्द को एक पड़ाव मिला—'चुलबुलाहट'। यह शब्द 'चुल्ल' का सबसे क़रीबी और स्वाभाविक पूर्वज प्रतीत होता है 'चुलबुलाहट' का अर्थ हल्की-फुल्की शरारत भरी बेचैनी, जो किसी को शांत न बैठने दे। यह शब्द अक्सर छोटे बच्चों के स्वभाव का वर्णन करने के लिए उन्हें चुलबुला कहा जाता है। ग़ौर करें तो 'चुलबुलाहट' का भाव और ध्वनि दोनों का केंद्र उसका 'चुल' अंश ही है। इसी 'चुल' में वह सारी अस्थिरता, वह सारी हलचल समाई हुई है, जिसे आज हम 'चुल्ल' के रूप में जानते हैं। 'चुलबुला' व्यक्ति वही है जिसके भीतर मानो कोई चुल यानी बेचैनी सक्रिय हो, जो उसे टिक कर बैठने नहीं देती।

पंजाबी स्रोत के कोशगत प्रमाण

यह धारणा कि 'चुल्ल' हिन्दी में पंजाबी के रास्ते आया है, कोशगत प्रमाणों से पुष्ट होती है। पंजाबी के सबसे प्रतिष्ठित कोशों में से एक, भाई काहन सिंह नाभा के "गुरुशबद रत्नाकर महान कोश" में 'चुल्ल' (ਚੁੱਲ੍ਹ) का उल्लेख मिलता है, जहाँ इसका सम्बन्ध  तीव्र इच्छा या तलब से जोड़ा गया है । पंजाबी में इसका प्रयोग आम है, जैसे तैनूं तमाकू दी चुल्ल उट्ठदी है, जिसका अर्थ है, "तुम्हें तम्बाकू की तलब लग रही है" । इसी तरह, पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला के कोश में भी यह शब्द इसी अर्थ में दर्ज है

उर्दू की गवाही


उर्दू में इसकी स्थिति दिलचस्प है। एक सदी से भी अधिक पुराने जॉन प्लैट्स के क्लासिकल हिन्दी और उर्दू के कोश में
'चुल' (چُل) और 'चुलबुल' (چلبُل) तो मिलते हैं, जिनका अर्थ बेचैनी और चंचलता है, लेकिन 'चुल्ल' (چُلّ) का अर्थ 'गंदी आँख वाला' (blear-eyed) दिया गया है । इससे संकेत मिलता है कि 'खुजली' या 'तलब' वाला 'चुल्ल' क्लासिकल उर्दू-हिन्दी का हिस्सा नहीं था। हालाँकि, आधुनिक उर्दू में, ख़ासकर पाकिस्तान में, यह शब्द पंजाबी के प्रभाव से आम बोलचाल का हिस्सा बन गया है और वहाँ के शब्दकोशों में भी इसे 'खुजली, बेचैनी' के अर्थ में शामिल किया गया है । यह प्रमाण इस बात को मज़बूत करते हैं कि 'चुल्ल' अपने आधुनिक अर्थ में पंजाबी मूल का है और वहीं से इसने हिन्दी और उर्दू में प्रवेश किया है।  

व्युत्पत्ति के बहुआयामी सूत्र

'चुल्ल' की व्युत्पत्ति केवल 'चल्' धातु तक सीमित नहीं है, बल्कि यह कई स्रोतों से अर्थ ग्रहण करता हुआ एक जटिल शब्द बन गया है। संस्कृत में ही एक और धातु है 'चुल्ल्', जिसका क्रिया रूप 'चुल्लति' है। आप्टे के कोश के अनुसार इसके अर्थ हैं- क्रीड़ा करना, खेलना, प्रेम-संबंधी चुलबुले हाव-भाव या इशारे करना। यह सूत्र अत्यन्त महत्वपूर्ण है क्योंकि यह हिन्दी के 'चुल' शब्द में निहित 'कामोद्वेग' और 'मस्ती' जैसे अर्थों को सीधे तौर पर स्थापित करता है । इस धातु में निहित 'क्रीड़ा' और 'चञ्चलता' का भाव आधुनिक 'चुल्ल' की उस बेचैनी से जुड़ता है जो किसी ख़ुराफ़ात या खेल के लिए प्रेरित करती है।

मराठी 'चुळ-चुळ'

इस व्युत्पत्ति-शृंखला में एक और महत्वपूर्ण कड़ी मराठी भाषा से जुड़ती है। एक सदी से भी पहले, कोशकार मोल्सवर्थ ने मराठी शब्द 'चुळ' (cua) और इसके द्वित्व रूप 'चुळचुळ' (cuacua) के अर्थों का दस्तावेजीकरण किया था। इनके अर्थ हैं- अधीरता, उतावलापन, बेचैनी, मानसिक आवेग और खुजली (शाब्दिक और लाक्षणिक दोनों)। यह साक्ष्य अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि मराठी 'चुळ' में ठीक वही चंचलता, अधीरता और मानसिक अस्थिरता का भाव है, जिसकी पुष्टि हम संस्कृत धातु 'चुल्ल्' के लिए खोज रहे थे। यह दिखाता है कि 'चुल्ल' में निहित बेचैनी का भाव कोई आधुनिक विकास नहीं, बल्कि एक प्राचीन भाषिक विरासत का हिस्सा है, जो संस्कृत से प्राकृत और अपभ्रंश के माध्यम से मराठी जैसी आधुनिक भारतीय भाषाओं में संरक्षित रहा।  

 खुजली से  ख़ब्त तक

'चुल्ल' के अर्थ विकास की यात्रा शारीरिक अनुभव से मानसिक भाव तक जाती है। इसकी पहली सीढ़ी है 'खुजली'। खुजली की संवेदना त्वचा पर किसी कष्टकर या कभी-कभी प्रियकर-सी लगने वाली अनुभूति है। यह त्वचा पर कुछ चलने, रेंगने, या भेदने जैसी हलचल महसूस होती है। इसे ही खुजली चलना कहा जाता है । हिन्दी के पुराने शब्दकोशों में 'चुल' का एक प्राथमिक अर्थ यही 'खुजलाहटऔर दूसरा 'कामोद्वेग' या मस्ती है । जिस तरह शरीर में खुजली होती है, उसी तरह मन में भी किसी काम को करने, कुछ जानने या कहीं जाने की 'खुजली' उठ सकती है। इस तरह 'चुल्ल' का अर्थ एक शारीरिक बेचैनी से विकसित होकर किसी भी प्रकार की तीव्र मानसिक इच्छा, धुन या 'मानसिक ख़ब्त' बन गया   

चंचल और वाचाल की संगत

'चुल्ल' में निहित व्यग्रता, कुछ जानने की उतावली, या ख़ुराफ़ात करने की इच्छा—ये सभी मानसिक गतिशीलता के ही अलग-अलग रूप हैं। इन सभी का रिश्ता मन की उस अवस्था से है जो स्थिर नहीं रह पाती। यह एक ऐसी वृत्ति है जो सोच की दिशा को टिकने नहीं देती; यही 'चंचलता' है 'चल्' धातु की यह 'गति' केवल शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक और चारित्रिक भी है। इसका एक और उत्कृष्ट उदाहरण 'वाचाल' शब्द में मिलता है। 'वाचाल' शब्द 'वाक्' (वाणी) और 'चल्' (गति) के योग से बना माना जा सकता है, जिसका अर्थ है वह व्यक्ति जिसकी जिह्वा या वाणी निरंतर 'चलती' रहती है, स्थिर नहीं रहती। जिस तरह 'चुल्ल' से ग्रस्त व्यक्ति कोई काम किए बिना शांत नहीं बैठ सकता, उसी तरह 'वाचाल' व्यक्ति बोले बिना नहीं रह सकता। दोनों ही स्थितियों के मूल में 'चल्' धातु से जन्मी एक अनियंत्रित गतिशीलता है।  

पंजाबी से मुम्बइया हिन्दी तक

'चुल्ल' की कहानी में एक और मज़ेदार पेंच है। पंजाबी में एक और मुहावरा है—'चुल मारनी', जिसका अर्थ है किसी के काम में बेवजह दखल देना या टाँग अड़ाना । इसका 'इच्छा' वाले अर्थ से सीधा संबंध नहीं दिखता। हो सकता है कि यह एक अलग शब्द हो, या यह भी संभव है कि यह उसी 'खुजली' वाले भाव का एक और विस्तार हो- यानी दूसरों के मामलों में दखल देने की 'खुजली'। बहरहाल, इस शब्द का आधुनिक अवतार सबसे ज़्यादा लोकप्रिय हुआ फ़िल्म 'कपूर एंड संस' के गीत "लड़की ब्यूटीफुल, कर गयी चुल्ल" से । इस गाने ने 'चुल्ल' को पूरे देश में मशहूर कर दिया।

और चलते चलते...

इसी के साथ इंटरनेट पर इसकी कई मनोरंजक लोक-व्युत्पत्तियाँ भी सामने आईं
, जैसे एक मान्यता यह है कि यह भोजपुरी के शब्द 'चूल' (बाल) से आया है, जिससे गुदगुदी करके किसी को परेशान किया जाता है। यह भले ही सच न हो, पर यह दिखाता है कि एक जीवंत शब्द अपने आस-पास नई कहानियाँ भी बुनता है। इस तरह, 'चुल्ल' ने संस्कृत की 'चल्' और 'चुल्ल्' जैसी अलग-अलग जड़ों से ऊर्जा लेकर, मराठी के 'चुळ' में अपने भाव को पुष्ट कर, 'चुलबुलाहट' की मासूमियत, पंजाबी की ठेठ शक्ति और बॉलीवुड के ग्लैमर तक का एक लंबा और शानदार सफ़र तय किया है। यह एक शब्द की नहीं,
बल्कि भाषा के जीवंत और बहुआयामी विकास की कहानी है।

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Monday, July 28, 2025

तावान, तवान और उनकी रिश्तेदारियाँ

शब्द_कौतुक

दण्ड भी सन्तोष देता है  

रोज़मर्रा की बातचीत में हम अनगिनत शब्दों का इस्तेमाल करते हैंलेकिन कभी-कभी कुछ शब्द अपनी ध्वनि और अर्थ से हमारा ध्यान खींच लेते हैं। 'तावानऔर 'तवानऐसे ही दो शब्द हैं। एक का अर्थ है जुर्माना या हर्जानातो दूसरे का मतलब है शक्ति या बल। इन शब्दों की कहानी किसी पड़ोसी के बारे में जानने जैसी हैजहाँ हम उसके स्वभाव के साथ-साथ उसके पूरे परिवार और पुरखों से भी परिचित होते हैं। आइएपहले उस शब्द से बात शुरू करते हैं जिससे हम ज़्यादा परिचित हैं वह है- तावान। इस का अर्थ फ़ारसी प्रशासनिक और कानूनी संदर्भों में ‘जुर्माना’ या ‘हर्जाना’ था। यह दंड किसी उल्लंघन या क्षति की भरपाई करके समाज या राज्य को ‘संतुष्ट’ करने का साधन था

मुआवज़ा और हर्जाना  'तावानशब्द का अर्थ है किसी गलतीअपराध या नुकसान की भरपाई के लिए चुकाई जाने वाली रक़मयानी हर्जाना या जुर्माना। सोचिएकिसी गाँव में किसी ने नहर से पानी चोरी कर अपने खेत सींच लिएजिससे दूसरे किसान की फ़सल सूख गई। अब पंचायत के फ़ैसले के अनुसारदोषी व्यक्ति को पीड़ित पक्ष को हुए नुकसान की भरपाई करनी होगी। यह भरपाई ही 'तावानहै। इसी तरहकिसी दुर्घटना या अनैतिक कृत्य के बदले में जब पीड़ित पक्ष को क्षतिपूर्ति दी जाती हैतो उसे तावान भरना कहते हैं । यह शब्द हमें फ़ारसी भाषा से मिला हैलेकिन इसकी कहानी सिर्फ़ जुर्माने तक सीमित नहीं है। इसका रिश्ता एक बहुत ही गहरी और ताक़तवर अवधारणा से जुड़ा हैजो हमें इसके एक भूला-बिसरा भाई 'तवानतक ले जाती है।

शक्ति से जन्मा दायित्व  यह जानना काफ़ी रोचक है कि 'तावान' (हर्जाना) शब्द जिस प्राचीन जड़ से पैदा हुआ हैउसका असल मतलब 'शक्तिशाली होनाया 'समर्थ होनाथा । तो फिर सवाल उठता है कि शक्ति और सामर्थ्य का रिश्ता हर्जाने से कैसे जुड़ गयाइसका विकासक्रम बड़ा स्वाभाविक है। प्राचीन ईरानी समाज में 'क्षतिपूर्ति करने की क्षमताया 'बदला चुकाने की सामर्थ्यको भी एक प्रकार की शक्ति ही माना जाता था  धीरे-धीरेयह विशिष्ट सामर्थ्य यानी 'हर्जाना चुकाने की ताक़तही ख़ुद 'हर्जानाकहलाने लगी । इस तरहवह शब्द जो कभी 'क्षमताका प्रतीक थाएक विशेष सामाजिक और नैतिक ज़िम्मेदारी ('क्षतिपूर्ति') का नाम बन गया। यह ऐसा ही है जैसे 'शक्तिकी अवधारणा ने एक ख़ास काम के लिए एक नया रूप ले लिया हो।

 साहित्य में तावान  ‘तावान’ के बहुआयामी अर्थ दिखते हैं। प्रेमचंद के ‘गोदान’ में होरी पर पंचायत द्वारा तावान लगाया जाता हैक्योंकि उसने सामाजिक नियमों का उल्लंघन किया। इसी तरह प्रेमचंद की कहानी तावान’ में जुर्माना लगाए जाने पर छकौड़ी का यह कहना – “तावान तो मैं न दे सकता हूँन दूँगा” – व्यक्ति और सामूहिक कर्तव्य के बीच टकराव को रेखांकित करता है। यशपाल के उपन्यास देशद्रोही में तावान का एक और रूप सामने आता है। वहाँ पठानों द्वारा अपहरण कर ‘तावान’ (फिरौती) लेने की घटना का ज़िक्र है – “वज़ीरिस्तान और मसूद इलाकों के पठान पिशावरकोहाट और बन्नू से इस प्रकार लोगों को बाँध ले जाते हैं। उनकी रिहाई के लिए तावान पाकर वे उन्हें छोड़ देते हैं।” यहाँ फ़िरौती भी तावान है। 

एक जड़दो शाखाएँ  अब हम 'तावानके उस भाई से मिलते हैं जिसका ज़िक्र हमने पहले किया था - 'तवान' 'तवान' (توانका सीधा-सादा अर्थ है - शक्तिबलसामर्थ्य और ऊर्जा  सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि 'तावान' (हर्जाना) और 'तवान' (शक्ति)दोनों एक ही प्राचीनतम भाषाई जड़ से जन्मे सगे भाई हैं  'तवान' विशुद्ध रूप से फ़ारसी भाषा का शब्द हैजिसका अर्थ शक्तिसामर्थ्यक्षमता और बल है । फ़ारसी में 'सकनाया 'समर्थ होनाके लिए क्रिया 'توانستن' (tavānestan) है । रोचक तथ्य यह है कि यह क्रिया संज्ञा 'तवान' (शक्ति) से बनी हैन कि संज्ञा क्रिया से । आज की फ़ारसी का 'तवानमध्यकालीन फ़ारसी (पहलवी) के 'तुवानसे विकसित हुआ है । भाषा वैज्ञानिकों ने इसे प्रोटो-इंडो-यूरोपियन (PIE) धातु *tewhसे व्युत्पन्न माना हैजिसका अर्थ था- "फूलनासूजनाबढ़नाशक्तिशाली होना"।

एक पुरखा, दो वारिस  यह शक्ति की उस जैविक अवधारणा से जुड़ा है जहाँ किसी मांसपेशी का फूलना या किसी जीव का बढ़ना ही शक्ति का प्रतीक था। हज़ारों साल पहलेजब ईरानी और भारतीय भाषाएँ एक थींतब इस एक ही जड़ ने दो अलग-अलग रास्तों पर चलना शुरू किया। एक रास्ता शक्ति के विशिष्ट अर्थ 'हर्जाना चुकाने की क्षमताकी ओर मुड़ गया और 'तावानबन गयाजबकि दूसरा रास्ता शक्ति के मूल और सीधे अर्थ पर चलता रहा और 'तवानकहलाया। ये एक ही पुरखे के दो वंशज हैंजिनके अर्थ समय के साथ अलग-अलग हो गए।

 'तवानशक्ति का  वारिस  'तवानने शक्ति के मूल अर्थ को पूरी तरह सहेज कर रखा  फ़ारसी भाषा में यह शब्द इतना मौलिक है कि वहाँ 'समर्थ होनाक्रिया ('तवानीस्तन') इसी 'तवान' (शक्ति) संज्ञा से बनी है । यह विचार बड़ा गहरा है कि 'शक्तिएक स्थायी अवस्था है और कुछ कर 'सकनाउसी शक्ति का प्रदर्शन मात्र है। फ़ारसी की प्रसिद्ध कहावत  ख़ास्तन तवानीस्तन अस्तयानी "चाहना ही कर सकना हैअर्थात "जहाँ चाहवहाँ राह" यहाँ कर सकता या सक्षम होने की भावना का महत्व है 

भारत की प्राचीन प्रतिध्वनि 'तवस्'तवानकी कहानी और भी रोमांचक हो जाती है जब हम जानते हैं कि इसका एक सगा भाई संस्कृत में भी मौजूद है। जिस प्राचीन सिलसिले से फ़ारसी 'तवाननिकलाउसी से संस्कृत का 'तवस्भी जन्मा हैजिसका अर्थ भी बलशक्ति और साहस है । यह खोज बताती है कि 'तवानहमारी भाषा के लिए कोई विदेशी शब्द नहींबल्कि एक तरह से अपने घर लौटा एक पुराना रिश्तेदार है। यह ईरान और भारत की उस साझी प्रागैतिहासिक विरासत का प्रतीक हैजो भाषाओं के अलग होने से भी पहले मौजूद थी  वेदों में 'तवस्और इससे बने कई शब्दों का प्रयोग देवताओं और राजाओं के साहस और शक्ति का वर्णन करने के लिए किया गया है  जैसे तवागातवागोतविष्यसतविष्य, तवस्वत, तवस्व, तविषी आदि

सशक्त और अशक्त  जब कोई शब्द किसी भाषा में बस जाता हैतो वह अपना परिवार भी बढ़ाता है। 'तवानके साथ भी ऐसा ही हुआ। 'तवानसे विशेषण बना 'तवाना', जिसका अर्थ है - शक्तिशालीबलवान या स्वस्थ  वहींजब इसमें फ़ारसी का नकारात्मक उपसर्ग 'ना-लगातो शब्द बना 'नातवाँ', यानी कमज़ोरनिर्बल या शक्तिहीन । हम 'ना-उपसर्ग से अच्छी तरह परिचित हैंजैसे 'नासमझ', 'नापसंदया 'नामुमकिनजैसे शब्दों में। 'नातवाँशब्द का प्रयोग अक्सर शायरी और साहित्य में किसी की बेबसी या कमज़ोरी को दर्शाने के लिए बड़े ही कलात्मक ढंग से किया जाता है। ये दोनों शब्द दिखाते हैं कि 'तवानकी अवधारणा भाषा में किस हद तक पैबस्त है।

शब्दों का पारिवारिक मिलन  कथा का सार यह कि  'तावान' (हर्जाना) और 'तवान' (शक्ति) अजनबी नहींबल्कि सहस्राब्दियों पुराने एक ही पुरखे के वंशज हैं । इनकी इससे साबित होता है कि मानव जत्थों का एक जगह से दूसरी जगह तक आप्रवासन ही भाषाओं के बदलाव और विभिन्न शब्दों के बोली-बरताव और उनके भीतर नए नए अर्थों को  को अलग-अलग दिशाओं में विकसित करता है। 'तवानने जहाँ शक्ति के सीधे-सरल और शक्तिशाली रूप को बनाए रखावहीं 'तावानने उसी शक्ति को एक सामाजिक और नैतिक ज़िम्मेदारी का रूप दे दिया। एक तरफ़ बल और सामर्थ्य हैतो दूसरी तरफ़ उस बल से जन्मा दायित्व। इन शब्दों को जानना ईरान से लेकर भारत तक हमारी साझी सांस्कृतिक जड़ों को मज़बूत करता है।

 

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Sunday, May 18, 2025

आलपिन का सफरनामा #शब्दकौतुक


चुभाने-जोड़ने की चीज़ें

हिंदी में गाँव से शहर तक और बच्चों से बूढ़ों तक समान भाव से बोला जाने वाला शब्द है 'आलपिन' जो यूरोप के सुदूर दक्षिणी पश्चिमी छोर पर जन्मा और अलग-अलग भाषाओं और संस्कृतियों से होता हुआ हिंदी में पहुँचा। बीती छह सदियों से ड्राइंग पिन के तौर पर बरता-समझा जाता है। सामान्यतः विशेषज्ञों का मानना है कि यह शब्द पुर्तगालियों के साथ पन्द्रहवी सदी के बाद के सालों में कभी कोंकणी ज़बान में आया होगा। हालाँकि इसकी जड़ें और भी गहरी है जो भूमध्य सागर में इबेरियन प्रायद्वीप (अंडलूसिया) होते हुए बरास्ता अरब, स्पेन होते हुए पुर्तगाल पहुँचती हैं। इस बार आलपिन के निशानात को देखते-परखते हुए उसके सफ़र को समझने की कोशिश की है।

अरब से अंडलूसिया तक
आलपिन की इस लम्बी यात्रा को समझने के लिए सात समन्दर पार तक पसरी जड़ों को सुलझाना समेटना महत्वपूर्ण है। ऐसा प्रतीत होता है कि आलपिन की पैदाइश में अरबी की दो त्रिवर्णी क्रियाएँ ख़िलाल और जिलाल की संयुक्त भूमिका है। अरब से अंडलूसिया तक आते आते इनमें अर्थ सम्बन्ध बदलाव भी सम्भव हैं। मुख्यतः इनका आशय किसी चीज़ में छेद करने, डालने या बीच से गुजरने का विचार है। ख़िलाल का सीधा संबंध 'पिन' या 'खूँटी' से है। दूसरी ओर, जिलाल का अर्थ ("वह जो बीच में घुसता है") भी पिन के कार्य से स्पष्ट रूप से मेल खाता है।

अलख़िलाल-अलजिलाल नामक पुरखे
'आलपिन' शब्द की यात्रा अरबी भाषा से शुरू होती है। ऐसा माना जाता है कि इसके मूल में दो अरबी शब्द हैं: 'ख़िलाल' या 'जिलाल'। 'ख़िलाल' का मतलब होता है 'पिन' या 'खूँटी', जबकि 'जिलाल' का अर्थ है 'वह जो बीच में घुसता है'। ये दोनों अर्थ आलपिन के काम से मिलते जुलते हैं। अरबी में एक शब्द है 'अल' जिसका मतलब होता है 'द'। यह शब्द अरबी से दूसरी भाषाओं में गया और वहीं जम गया। इसलिए, 'अल' शब्द स्पेनिश के 'अल्फिलेर' और पुर्तगाली के 'अल्फिनेट' में भी है। प्रस्तावित व्युत्पत्ति शृङ्खला इस प्रकार है: अरबी (अलख़िलाल / अलजिलाल) > स्पेनिश (अलफिलेर) > पुर्तगाली (अलफिनेट) > हिंदी (आलपिन) ।

‘अल-’ बोले तो क्या?
ख़िलाल और जिलाल के आरंभ में लगा 'अल-' शब्द अरबी भाषा का निश्चित सर्ग यानी डेफिनिट आर्टिकल जैसे 'the' है। स्पेनिश और पुर्तगाली जैसी भाषाओं में अनेक आगत अरबी संज्ञा शब्दों के साथ ‘अल’ स्थायी रूप से जुड़ गया जैसे अल अंडलूस, स्पेनिश अल्गोडोन (कपास) जो अरबी अल-क़ुतुन से आया और अंग्रेजी में कॉटन बना), अज़ुकार (चीनी, अरबी अस-सुक्कर) आदि। यही कारण है कि स्पेनिश अलफिलेर और पुर्तगाली अलफिनेट दोनों में आरंभिक 'al-' मौजूद है।

स्पेन और पुर्तगाल में बदलाव
इबेरियन प्रायद्वीप दक्षिण-पश्चिमी यूरोप में स्थित एक प्रायद्वीप है जिसमें आधुनिक स्पेन और पुर्तगाल के अधिकांश भाग शामिल हैं। इसका नाम प्राचीन निवासियों, आइबेरियन के नाम पर रखा गया। इबेरियन प्रायद्वीप में इस्लाम का एक लंबा और महत्वपूर्ण इतिहास रहा है। 8वीं शताब्दी की शुरुआत में, मुस्लिम सेनाओं ने स्पेन पर आक्रमण कर दिया। प्रायद्वीप के इस हिस्से को "अल-अंडालस" नाम दिया। कॉर्डोबा (कुर्तुबा), इसकी राजधानी थी। यह यूरोप के सबसे बड़े और सबसे समृद्ध शहरों में से एक थी। यहाँ मस्जिदें, महल, पुस्तकालय और विश्वविद्यालय थे।

योरप की धरती, अरबी असर
यहाँ के मुस्लिम विद्वानों ने यूरोपीयों की ज्ञान परम्परा से बहुत कुछ सीखा और गणित, खगोल विज्ञान, चिकित्सा, दर्शन और कला के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। पन्द्रहवीं सदी के अन्त में ईसाइयों ने लम्बे संघर्ष के बाद स्पेन को इस्लामी प्रभाव से मुक्त करा लिया। इसके बावजूद, इस्लामी संस्कृति और प्रभाव ने स्पेन और पुर्तगाल पर एक स्थायी छाप छोड़ी है, जो वास्तुकला, भाषा, कला और कृषि में आज भी स्पष्ट है। ऐसे ही प्रभाव की निशानियाँ वे अनेक अरबी शब्द हैं जो स्थानीय स्पैनिश, पुर्तगाली में आज भी विद्यमान हैं। स्पैन, पुर्तगाल के समुद्री अभियानों के ज़रिए ये शब्द सात समन्दर पार तक भी पहुँचे। ऐसा ही शब्द है आलपिन जो अरबी "अल-ख़िलाल" (अरबी में पिन या छोटी सुई) के ज़रिए स्पेनिश और पुर्तगाली में अलग-अलग ढंग से ढल गया।

बदलाव के मंच- स्पैनिश, पुर्तगाली और हिन्दी
पहला परिवर्तन स्पैनिश में हुआ। अरबी भाषा में मूल (ख़) ध्वनि थी (अल ख़िलेल), लेकिन स्पेनिश में इसका उच्चारण अलफिलेर हो गया। आज इसका मतलब है सिलाई पिन, लेकिन यह ब्रोच या टाई पिन के लिए भी इस्तेमाल होता है। दूसरा बदलाव पुर्तगाली में हुआ जहाँ यह स्पेन के रास्ते पहुँचा। ठीक वैसे जैसे अधिकांश अरबी भारत में फ़ारसी के रास्ते पहुँचे। पुर्तगाली में स्पेनिश का अलफिलेर, अलफिनेट हो गया। ग़ौरतलब है, स्पैनिश के अलफिलेर का ‘ल’, पुर्तगाली में ‘न’ में बदल कर अलफिनेट हो गया और अन्त में एट प्रत्यय लग गया। ‘ल’ के ‘न’ में परिवर्तित होने की मिसाल वैसी ही है जैसे संस्कृत ‘लवण’ का ‘लूण’ होते हुए ‘नून’ में बदल जाता है।

हिंदी में 'आलपिन'
पुर्तगालियों ने भारत में व्यापार करना शुरू किया, तो यह शब्द वहाँ भी पहुँचा। पुर्तगाली शब्द 'अल्फिनेट' से हिंदी में 'आलपिन' बना। हिंदी में आते-आते इस शब्द में कुछ बदलाव हुए। पुर्तगाली शब्द का आखिरी स्वर गायब हो गया और 'फ' की ध्वनि 'प' में बदल गई। इस तरह आलपिन जैसा शब्द हिन्दी की लोकप्रिय शब्दावली का हिस्सा बन गया। 'आलपिन' शब्द सिर्फ हिंदी में ही नहीं, बल्कि उर्दू, कोंकणी, गुजराती, लादीनो, जावानीस और मलय/इंडोनेशियाई जैसी कई और भाषाओं में भी इस्तेमाल होता है। इससे पता चलता है कि यह शब्द पूरी दुनिया में फैला है।

‘पिन’ के जन्म चिह्न अलग अलग
सवाल उठना स्वाभाविक है कि आलपिन का पिन क्या अंग्रेजी वाला पिन है या उससे हटकर भाषायी प्रक्रिया से प्राप्त अलग शब्द है ? जवाब है दोनो ‘पिन’ अलग अलग हैं। अंग्रेजी शब्द "pin" का मूल जर्मेनिक भाषाओं में है। यह पुरानी अंग्रेजी के शब्द "pinn" या "pen" से आया है, जिसका अर्थ होता था "कील", "बोल्ट" या कोई नुकीली चीज़। इसका संबंध प्रोटो-जर्मेनिक भाषा के शब्द pennaz से बताया जाता है। आलपिन और अंग्रेजी "pin" के बीच जो समानता दिखती है वह संयोग है, न कि एक ही मूल से सीधा विकास।

और चलते चलते…
यह भी जान लेते हैं कि स्पैनिश और पुर्तगाली में आलपिन के पूर्वज अलफिलेर और अलफिनेट शब्द दरअसल मूल अरब भूमि से नहीं आए। वे तो सातसौ बरसों से स्पेन व पुर्तगाल पर कब्ज़े के दौरान इन भाषाओं में बसे हुए थे। दूसरी दिलचस्प बात यह कि आज अरबों की मुख्य भूमि यानी सऊदी अरब, यूएई, यमन, इराक आदि में पिन के लिए अल-ख़िलाल लापता है। इसके स्थान पर पिन, कील आदि के अर्थ में दब्बूस, मिसमार, मिलक़त या वत्द जैसे शब्द बरते जाते हैं।

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शब्द_कौतुक शब्दसन्धान शब्दोंकास़फ़र पिन आलपिन इबेरिया अलअण्डलूस अण्डलूसिया अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Wednesday, October 23, 2024

दिवाली भी शुभ है और दीवाली भी शुभ हो

चक्कर छोटी 'इ', बड़ी 'ई' का

क्षेत्रीय प्रभाव
▪हर साल की तरह इस बार भी मित्रों ने दीवाली/दिवाली की वर्तनी के बारे में राय जाननी चाही। किसी से चैट पर, किसी से ईमेल पर, किसी से वाट्सएप पर वॉइस मैसेज और किसी से जीमेल-मैसेंजर के ज़रिए बीते दिनों का जो कुछ भी संवाद मेरे फोन और लैपटाप में था, उसे जोड़ घटा कर यह आलेख बना दिया है। दीवाली/दिवाली की दोनों ही रूप हिन्दी में स्वीकृत भी हैं और सहज भी। आज हम जिस हिन्दी को बरत रहे हैं उस पर भी अनेक क्षेत्रीय प्रभाव हैं जो अलग अलग प्राकृतों से प्रभावित लोकरूपों से आए हैं। मिसाल के तौर पर दीपावली तत्सम रूप है। दीप भी। इसके दिया, दीया, दीपक, दीवा जैसे अनेक रूपभेद हैं।
जनभाषा में दिवाली
▪पंजाबी में दीवा है तो मैथिली में दीया है। यही नहीं, पंजाबी के भी किन्ही इलाक़ों में दीया नज़र आता है। मराठी में दिवा है। ये सब उच्चार लोकग्राह्य हैं। इनकी साहित्यिक स्वीकार्यता भी रही है। यही बात दीवाली, दिवाली के साथ भी है। इतना ही नहीं, शब्दकोशों में दीवाला, दिवाला दोनों रूप भी मिलते हैं। पंजाबी कोशों और अखबारों में दीवाली के साथ दिवाली (ਦਿਵਾਲੀ) रूप दिखाई पड़ता है वहीं जनसामान्य ‘दि/दी’ के फेर में न पड़ते हुए अक्सर दवाल्ली, दुआली बरतना पसंद करता है। इस सन्दर्भ में गुरुवर प्रो. सुरेश वर्मा का कहना है कि मानक हिंदी के लिए ' दीवाली' उपयुक्त है। 'दिवाली 'अगले चरण का विकास है। उच्चारण सौकर्य के लिए 'दी' ने 'दि' के लिए अपना स्थान छोड़ दिया है। जनभाषा में 'दिवाली' ने अपना popular space बना रखा है।
ह्रस्वीकरण की सहज वृत्ति
▪दीप से बने शब्दरूपों में ह्रस्वीकरण की सहज वृत्ति काम करती रही है। मिसाल के तौर पर अवधी में दिअटि शब्द है। यह वही है जिसे राजस्थानी समेत हिन्दी के अनेक क्षेत्रों में दीवट के तौर पर जाना जाता है। दीवट भी दिया रखने के स्टैंड को कहते हैं। दीवट अपने आप में दीया भी है जिसमें बाती जलाई जाती है। दीयट, दीअट भी इसके अन्य समरूप हैं। भाषाविदों ने इसका मूल दीपस्थ माना है अर्थात लैम्पस्टैंड या दीपाधार। प्राकृत में यह दीवट्ठ है मगर अगला विकास दिअठ ह्रस्वीकरण के साथ सामने आता है। दिया रखने का आला दिअरखा कहलाता है। यह पूरबी बोलियों में प्रयुक्त होता है। दीवार में बनी दीप रखने की जगह। भाव लैम्पस्टैंड का है। ऐसे अनेक उदाहरण मिलेंगे। जैसे दीपक, दीया के लिए दिअना, मिट्टी के छोटे दीप के लिए दिअली और दिउला। इसी तरह मालवी, राजस्थानी में दीवड़ा, दीवड़ौ छोटा दीपक है। गौर करें तत्सम रूप में ही दीप के ‘दी’ में दीर्घस्वर बना रहता है। जैसे ही ‘दीप’ लोकवृत्त में आता है, उसमें दियरा, दियला, दियवा, दिवरी और दियली जैसे पर्याय दिप-दिपाने लगते हैं।
अरण्डी का तेल
▪दूर क्यों जाएँ, अभी दो दशक पहले तक तक दिट्ठी, दीठी अथवा दिखना, दीखना पर समाचार कक्षों में सही वर्तनी और उच्चार पर अनुमान लगाए जाते थे। यह सकारात्मक और बहुत अच्छी बात थी। दीप की कड़ी में ही दीप्त है। इसका एक रूप दित्त है। दीप्ति का रूप अवधी में दिपति हो जाता है। ह्रस्वीकरण प्रभावी हो रहा है। दिपना, दिपाना भी बेहद आम से शब्द हैं जो दीपन् से आ रहे हैं। दीपक रखने के स्थान को ‘दियरखा’ भी कहते हैं। गुजराती में अरण्डी को ‘दिवेला’ भी कहते हैं। यह दरअसल दिवेल अर्थात दीवौ (दीप) + तैल(तेल) से बना है। अरण्डी की फसल का उपयोग तेल बनाने में ही किया जाता है। पुराने दौर में जब बिजली सुलभ नहीं थी, इस तेल का उपयोग दिया व प्रकाशित करने वाले अन्य उकरणों में किया जाता था।
दिपावली भी और दीपावली भी
▪गुजराती में भी दीपावली से विकसित दिवाळी रूप प्रचलित हैं। मगर सबसे दिलचस्प बात यह कि वहाँ दीपोत्सव के सबसे लोकमान्य रूप दीपावली का दिपावली रूप भी दिखता है। गुजराती की सबसे प्रतिष्ठित भगवद्गोमंडल कोश में दिपावली भी प्रयुक्त हुआ है। मराठी कोशों में और भी हैरत में डालने वाली प्रविष्टियाँ मिलेंगी। वहाँ न सिर्फ़ दीपावली का दिपावळी रूप भी दर्ज है बल्कि इसका एक अन्य समरूप दिपवाळी भी ठाठ से हाज़िर है। यही नहीं, दिपवाळीचा पाडवा या दिपावळिची प्रतिपदा जैसी व्याख्या भी देखने को मिलती है। यूँ देखें तो मराठी में दीपावली का दीपावळी रूप देखने को नहीं मिलता बल्कि वहाँ एक तीसरा ही रूप दिपावळि चलता है। इसके अतिरिक्त दिवाळी सबसे ज्यादा प्रचलन में है। इसके अलावा दीपपर्व की तर्ज पर दिवाळ-सण का बरताव भी खूब होता है।
दियासलाई का ‘दीया’
▪दियासलाई की मिसाल देखिए। इस शब्द के प्रथम सर्ग दिया पर कभी बहस नहीं होती। दीयासलाई को सही बताते हुए दियासलाई पर कुढ़ते कभी किसी को देखा नहीं गया। याद करें, नामी शब्दकोश इसकी व्युत्पत्ति दीया+सलाई लिखते हैं। ये हैरत की बात नहीं है कि दीया और सलाई के मेल से दीयासलाई शब्द बनना चाहिए या दियासलाई ? जो कोशकार दीया+सलाई से बने दियासलाई के चलन पर मौन रहते हैं, वही दीवाली के सम्मुख दिवाली को गलत ठहराते हैं, मगर तर्क नहीं देते। जबकि दियासलाई और दिवाली दोनों के मूल में दीप ही जगमगा रहा है। कुछ विद्वान दिवाली को इसलिए ग़लत ठहराते हैं क्योंकि यह दिवाला से जुड़ता सा लगता है। दिवाला एक दुर्भाग्यपूर्ण और अशुभ प्रसङ्ग है इसलिए दीवाली जैसे सुख-समृद्धि के पर्व दीवाली की वर्तनी में हम दिवाला का ह्रस्व ‘दि’ नहीं देखना चाहते। अन्यथा कोशों में दिवाली और दीवाली के साथ दीवाला और दिवाला दोनों मिलते हैं। क्योंकि दोनों में दीप के लोकरूप दिवा और दीवा ही हैं।
मानक के साथ सरल भी
▪आम आदमी 'दिया' और 'दीया' रूप समान भाव से बरतता है। पूरबी बोलियों में दीया प्रचलित है जबकि मध्य और पश्चिमी भारत में दिया चलता है। अलबत्ता पंजाबी में दीवा है और मराठी में दिवा और राजस्थानी में ह्रस्व और दीर्घ दोनों ही रूप प्रचलित हैं। अर्थात दिवौ, दीवौ और दिवलौ, दीवलौ दोनों ही प्रकाशमान हैं। दीवाली, दिवाली के अलावा एक अन्य रूप दिवारी भी है। मगर विद्वत समाज में उसे दीवारी करने सम्बन्धी आग्रह कभी नहीं देखा गया। वजह लिखत-पढ़त की हिन्दी में, ख़ासतौर पर संचार माध्यमों में दिवाली और दीवाली ही अधिक बरते जाते हैं। यह बार बार साबित होता है कि जनभाषा सरल राह चुनती है। परिनिष्ठित या मानक होने की चाहत गलत नहीं किन्तु भाषा को दुरूह होने से बचाना किसी भी जनञ्चार माध्यम के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।
हर मर्ज़ की एक दवा
▪भाषा का मानकीकरण आवश्यक है मगर क्या इसका अर्थ यह है कि किसी भी शब्द का कोई एक मानक रूप ही स्वीकार्य होगा? सर्दी, खाँसी, सिरदर्द दूर करने के अनेक निदान हैं मगर इन सब पर्यायों में से कोई एक उपचार ही स्थिर कर दिया जाए तो क्या यह सही होगा ? जब तक दवा नहीं मिल जाती तब तक राहत की उम्मीद में सिर पर पट्टी बांधी जाती है या नहीं ? मानकीकरण में भी इस तरह के दुराग्रहों से बचने की आवश्यकता है। हिन्दी का क्षेत्र बहुत विशाल है। तरह तरह की हिन्दियाँ लिखी-बोली जाती रही हैं। दिवाली और दीवाली से यह स्पष्ट है। दोनों में ही दियों की अवली यानी दीपों की कतार दिखती है, कोई और चीज़ नहीं।
पङ्क्तिपावन और पङ्क्तिच्युत
▪दिलचस्प यह कि जिस तरह तत्सम दीप के अनेक रूपभेद दिखाई पड़ते हैं, हिन्दी कोशों में अवलि, अवली, आवली तथा औली जैसे रूपों का भी उल्लेख होता है। इऩ सबमें ही कतार, पङ्क्ति, श्रेणी, लाइन, तरतीब, माला या अनुक्रम का आशय स्पष्ट है। इसी तरह संस्कृत में भी अवली और आवली, आवलि दोनों रूप हैं। औली तो प्रत्ययरूप में स्थापित होकर मण्डौली, सिधौली, खतौली, बिजौली, अतरौली, महरौली में स्थायी हो गए हैं। राजस्थानी में यह अवळी है। मानक रूप तय करते हुए किसी एक उच्चार को पङ्क्तिपावन बताते हुए शेष जिन उच्चारों (शब्दों) को पङ्क्तिच्युत किया जाएगा तब उनके क्या दोष गिनाए जाएँगे, यह जानना दिलचस्प होगा। पता नहीं गिनाए भी जाएँगे या नहीं।
अनेक शब्दरूप समस्या नहीं
▪किन्हीं शब्दों की अनेक वर्तनियाँ और उच्चार किसी भाषा की समस्या नहीं, गुण माना जाना चाहिए। अलबत्ता सरकारी कामकाज या संस्थागत व्यवहार की कोई न कोई मानक शब्दावली ज़रूर होती है। उस नाते दिवाली या दीवाली दोनों में से कोई एक रूप अपनाना बेहतर होगा। ध्यान रहे यह बाता अखबारों पर अधिक लागू होती है। ख़ासतौर पर किसी सूचना-विज्ञप्ति, साक्षात्कार अथवा आलेख में किसी एक शब्दरूप को ही बरता जाए। समूचे अखबार में भी कोशिश रहे कि किसी एक वर्तनी को स्थिर किया जाए, मगर ऐसा न हो पाने को दोष या चूक न माना जाए। यह उन विभागों, संस्थानों या समूहों को तय करना है कि वे इस सूची में किन शब्दों को बरतना चाहते हैं।
अर्थविचलन को पहचानें
▪सर्वस्वीकृत और लोक में प्रचलित एकाधिक रूपों पर किसी तरह खींचतान कर व्याकरण के खाँचे में कसने और एक को सही, दूसरे को अशुद्ध़ करार देने की कवायद व्यर्थ होगी। सन्दर्भ दीवाली/दिवाली का ही है। व्यक्तिगत स्तर पर मेरी कोशिश होती है कि दीवाली लिखूं मगर विचार-प्रवाह में अगर दिवाली लिखने में आता है तो उसे मिटाता भी नहीं हूँ। क्योंकि दोनों ही सही हैं और भाषिक परम्परा में हैं। रूढ़ हैं। भाषा प्रवाह में बहते हुए घिसते हुए अपने अनेक रूपाकारों में हमारी शब्दमञ्जूषा में आज तक टिके हुए हैं। हाँ, ह्रस्व या दीर्घ होने पर अर्थविचलन होने का कोई तर्क हो तो अलग बात है। ये वैविध्य इसीलिए है क्योंकि शब्दों को अपनी अभिव्यक्ति के अनुरूप ढालते हुए उसमें बदलाव के उपकरण भी हमारे पास होते हैं। छन्दप्रबन्ध करते हुए प्रचलित शब्दों में ह्रस्व-दीर्घ का बदलाव करना बहुत सामान्य बात रही है।
मानकीकरण की चुनौतियाँ
▪भाषाओं में ह्रस्वीकरण या दीर्घीकरण की वृत्ति होना बहुत सहज बात है। और भी अनेक कारण हैं जिनके चलते भाषा में टिके रहने का गुण पैदा होता है। इसीलिए भाषा बदलती रहती है। देश भर में हिन्दी की अनेक शैलियाँ हैं और वे सब समझी-गुनी जाती हैं। दिवाली का जिक्र आने पर कितने लोगों के मन में “खराद के पट्टे” की छवि उपस्थित हो जाती होगी ? यह भी जानना दिलचस्प होगा कि क्या इसी खरादपट्टे की वजह से जानकारों की राय में दिवाली लिखना उचित नहीं? जबकि 'दिवाली' को दीपपर्व रूप में बरते जाने के अनगिनत प्रमाणों ने ही इसे आज तक लक्ष्मीपूजन से जोड़े रखा है। दिवाले का अपशकुन इसे बरतने के आड़े नहीं आता। और अन्त में आरम्भ की बात दोहराता चलूँ- दिवाली भी शुभ है और दीवाली भी शुभ हो।
▪और चलते चलते
यह भी महत्वपूर्ण है कि सर्च बॉक्स में 'दिवाली' लिखने पर गूगल एक पल से भी कम समय में तीन करोड़ से भी अधिक नतीजे दिखाता है जबकि उतने ही समय में 'दीवाली' के लिए सिर्फ़ चालीस लाख नतीजे दिखाता है। इसका आशय गलत वर्तनी को मान्यता नहीं बल्कि प्रयोक्ताओं की संख्या बताना है।
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Monday, October 7, 2024

‘आमतौर पर’ ख़ास चर्चा

▫️उम्मा, उम्मत, अवाम से आम तक
ऐसा कुछ, जो ख़ास न हो
▪बोलचाल की भाषा में मुहावरों से रवानी आ जाती है। भाषा ख़ूबसूरत लगने लगती है। दिलचस्प मानी पैदा हो जाते हैं। लय में आ जाती है। हिन्दी में एक मुहावरा हर किसी की ज़बान पर रहता है- ‘आमतौर से’ या ‘आमतौर पर’। यह बताने की ज़रूरत नहीं कि आम व तौर अलग अलग शब्द हैं। दोनों ने ही अरब से चल कर फ़ारसी की सवारी करते हुए हिन्दी की राह पकड़ी है। हिन्दी वाले दोनों को अलग अलग भी बरतते हैं और साथ साथ भी जैसे- ‘आम दिनों में’, ‘आम बात है’ आदि। या ‘मोटे तौर पर’, ‘किसी तौर पर’ वग़ैरह। मगर जब साथ साथ बरतते हैं तो मुहावरा बनता है जिसका आशय होता है साधारणया, सामान्यतया अथवा बहुधा।
‘आम’ और ‘तौर’
▪️यूँ तो बात यहाँ से भी शुरू की जा सकती है कि ‘आमतौर’ को मिला कर समास की तरह लिखना ठीक है या अलग अलग करते हुए। जैसे आम-तौर अथवा आम तौर। हिन्दी के अनेक जानकार भी ‘आमतौर’ लिखते रहे हैं। मैं स्वयं मिला कर ही लिखता हूँ। शुद्धतावादी विवाद भी इस पर नहीं है। वैसे कोशों में ‘आम’ और ‘तौर’ यथास्थान सामान्य शब्द की तरह अलग अलग दर्ज़ हैं। बतौर मुहावरा, इसकी युग्मपदी अथवा वाक्यपदी विवेचना भी नहीं मिलती। थोड़े में कहें तो अलग-अलग लिखें या मिला कर, ‘आमतौर’ के मायने वही रहते हैं। भाषा प्रचलन और अभिव्यक्ति से चलती है। अधिकांश बरताव ‘आमतौर’ का ही है, मगर रूढ़ि की तरह। यूँ अलग अलग लिखा जाना ही सिद्ध है, मगर ‘ब’तौर की मिसाल भी सामने है।
नियम या रीति का संकेत
▪️‘आमतौर’ में बहुधा और साधारणता का आशय है। जो ख़ास न हो, विशेष न हो, प्रचलित हो, सामान्य हो हो, उसके बारे में कुछ कहते हुए इस पद का प्रयोग कर लिया जाता है। जेनरली, नॉर्मली, कॉमनली जैसे सन्दर्भों में इसे बरता जाता है। इस तथ्य पर भी ध्यान देना चाहिए कि ‘आमतौर’ में रूढ़ि, रीति या ढर्रे पर चलने वाली बात भी गहराई तक धँसी हुई है। हम जिसे सामान्य समझते हैं, दरअसल वहाँ से पुरानी राह-बाट निकलती है। उस हवाले से भी आमतौर पर बरत लिया जाता है। इसमें अलिखित संविधान, नियम का संकेत होता है किसी पुरातन सूत्र का हवाला होता है। किसी नुस्ख़े, प्रणाली या जुगाड़ पर ज़ोर होता है। किसी सिद्धान्त या मर्यादा का स्मरण होता है। यह सब ‘आमतौर’ के हवाले से कहा, सुना और याद किया जाता है।
तरीका, ढंग, प्रकार
▪️तो पहले बात ‘तौर’ की। तौर का प्रयोग आमतौर में जितना आम है, उतना ही तौर-तरीक़ा युग्म में भी दिखाई पड़ता है। तौर का मूल है त्रिवर्णी क्रिया तूर (ط و ر यानी ता-वाओ-रा) से, जिसमें गोल मँडराना, घूमना, रास्ता, अवस्था, तरीका, ढंग, भाँति, प्रकार जैसे आशय हैं। तूर अरब क्षेत्रों में प्रसिद्ध हुए यहूदी, ईसाई और इस्लाम पन्थ में प्रचलित कथाओं में अलग अलग पहाड़ों का नाम भी है जैसे तूरी-मूसा, तूरी-जिबा या जबल-तूर। कहीं उसे जॉर्डन में बताया जाता है, कहीं मिस्र में, कहीं सीरिया में तो कहीं इस्राइल में। अक्कद से होते हुए हिब्रू तक इसके सूत्र मिलते हैं। तौर, तरीका, तरह, तौरात (तौराह) जैसे शब्दों के हिब्रू-अरबी भाषायी सूत्र एक दूसरे से सम्बद्ध हैं, इस पर विस्तार से अलग से लिखा था। जल्दी ही उसे भी पेश किया जाएगा।
ढंग या बरताव की बात
▪️‘तौर’ का प्रयोग करते हुए हम ढंग या बरताव के बारे में बात कर रहे होते हैं। इस तौर, उस तौर का आशय इस प्रकार या उस प्रकार होता है। समझा जा सकता है कि तौर प्राचीन यहूदी, इस्लामी धार्मिक शब्दावली से निकला हुआ शब्द होगा जिसमें ज्ञानार्जन, सिद्धि, पाना जैसे आशय हैं। अक्कद में तारु है जिसमें लौटाना, उत्तराधिकार, देना जैसे आशय हैं वहीं सीरिया की लुप्त उगारतिक ज़बान के तॉर को इसी कड़ी का माना गया है। इसमें आना, घूमना जैसे आशय हैं। ग़ौर करें, घूमने में चक्रगति है जिसमें प्रतिक्षण दोहराव होता है। यानी फिर फिर लौटना होता है। मूल आशय अथवा प्रसंग किसी मनीषी बोधिज्ञान प्राप्त करने है।
दार्शनिक आयाम
▪️आज से हज़ारों साल पहले मानवता के विकासक्रम में किन्हीं सुधारकों की दी गई नसीहतों, सीखों पर अमल करने, उनकी बताए रास्तों पर चलने के अभ्यास से तूर, तॉर, तौर, तरीका, तरह, तौरात जैसे शब्दों के दार्शनिक आयाम प्रकट हुए। संकेत मूसा, हारुन आदि को ज्ञान प्राप्ति से जुड़े हैं। इस सन्दर्भ में तौरात को भी याद कर सकते हैं जो यहूदियों का धर्मग्रन्थ है। माना जाता है कि यह ईश्वर द्वारा मूसा को दिया गया था। ‘तौर’ के विभिन्न अर्थायाम है जैसे- आचरण, चाल, चलन, चाल-ढाल, बरताव, ढंग, व्यवहार, तरह, तरीक़ा, प्रणाली, भांति, रंग, रूप, रीति, शिष्टता, शैली, सूरत, भाँति, वज़ा, अंदाज़, आचरण, किस्म, अवस्था, गुण, प्रकार, स्तर, आचार आदि।
अब बात आम की।
▪️ज्यादातर लोग आम को सिर्फ़ साधारण तक सीमित मानते हैं। दरअसल यह सेमिटिक भाषा परिवार का इतना महत्वपूर्ण शब्द है कि आम की अर्थवत्ता के एक छोर पर माँ है, दूसरे पर अवाम है तो तीसरे पर मुल्क। यही नहीं, इस शब्द से आर्य भाषा परिवार और सामी भाषा परिवार की रिश्तेदारी पता चलती है । ‘आम्’ का मूल आज से साढ़े चार हज़ाल साल पहले दजला-फ़रात के मैदानों में पसरी सुमेर सभ्यता में समूहवाची अम्मु में मूलतः सुरक्षा, संरक्षण का भाव है। अर्थ हुआ राष्ट्र या अवाम। अम्मु शब्द है यह समूहवाची शब्द है जिसमें सुरक्षा और संरक्षण का भाव भी है। ‘अम्मु’ का अर्थ है राष्ट्र या अवाम।
उम्मा, उम्मत, अवाम
▪️ग़ौर करें, सियासी या मज़हबी सन्दर्भों में अक्सर उम्मा, उम्मत का उल्लेख आता है आशय समूहवाची ही होता है, लोग, जनता, राष्ट्र जैसे अभिप्राय ही मूल हैं। मगर भारत में ग़ैरमुस्लिम इसे नहीं बरतते। इसलिए उम्मा का आशय मुस्लिम समुदाय ही लगाया जाता है। साढ़े चार हज़ार साल पहले के अरब समाज में सुमेर संस्कृति के उम्मतु से यह शब्द पहुँचा था। अर्थ था आकार, आयतन, परिमाण, तादाद आदि। स्पष्ट है कि समुदाय, जाति, वर्ग या राष्ट्र का आधार क्षेत्र नहीं, जन होता है और उम्मतु इसी की अभिव्यक्ति थी। बाद में अरबी के उम्मत, उम्मा तक पहुँचते पहुँचते इसमें जन कुल वर्ग जाति पन्थ राष्ट्र अनुयायी अनुगामी जैसे अर्थायाम भी उभरते चले गए।
बात आश्रय की
▪️यह भी महत्वपूर्ण है कि सेमिटिक भाषा परिवार की कई भाषाओं में अम्मु से माँ के आशय वाले विपर्ययी रूप बने हैं जैसे अक्कद में ‘उम्मु’, अरबी में ‘उम्म’, हिब्रू में ‘एम’, सीरियाई में ‘एमा’ आदि। ध्यान रहे कि प्रकृति में, पृथ्वी में मातृभाव है क्योंकि ये हमें संरक्षण देते हैं, हमारा पालन-पोषण करते हैं। अक्कद भाषा के ‘अम्मु’ और ‘उम्मु’ दरअसल पालन-पोषण वाले भावों को ही व्यक्त कर रहे हैं। राष्ट्र के रूप में ‘अम्मु’ समूहवाची है, अवाम यानी जनता तो अपने आप में समूह ही है। किसी भी विचार सरणी, धर्म, पन्थ का मूल आधार या आश्रय समूह ही होता है। आम लोगों वाला अवाम। बेहद सामान्य, साधारणत्व का विशेषीकृत समूह।
तो कुल मिला कर...
▪️आमतौर के पहले सर्ग में साधारणता और दूसरे में ढंग, अवस्था, स्तर, आचरण जैसी बात है। ईश्वर और इन्सान की बनाई दुनिया में जो कुछ भी सहज, सामान्य, आमफ़हम, हस्बे-मामूल है, आमतौर के दायरे में आता है। वह सब जो ‘ख़ासतौर पर’ नहीं होता, ‘आमतौर पर’ होता है।
अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...


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